इंसान जितना सभ्य होता जा रहा है, उसमें तरह-तरह के विकार भी पैदा हो रहे हैं. आज ऐसा ही एक विकार आए दिन देखने में आ रहा है और वह है पिडोफिलिया. दरअसल, यौन संभोग के लिए लड़कियों का इस्तेमाल करनेवालों को मनोविज्ञान की भाषा में पिडोफिल कहते हैं और जिन लोगों में इस तरह की प्रवृत्ति काम करती है वे पिडोफिलिया के मरीज माने जाते हैं. लगभग हर रोज देश के किसी-न-किसी कोने में मासूम बच्चों के साथ यौन उत्पड़न, बलात्कार जैसी घटनाओं की खबर सुर्खियां बन रही है.

पिडोफिल केवल यौन उत्पीड़न तक सीमित नहीं होते. ये अपने शिकार को जान से मार डालने जैसे नृशंस काम करने में भी आनंद उठाते हैं. ऐसी विकृति के लोग डेढ़ साल के बच्चे से लेकर किशोर उभ्र के शिशुओं और बच्चों का इस्तेमाल अपने मानसिक विकार को चरितार्थ करने में करते हैं.

नोएडा का निठारी कांड पिडोफिया की एक बड़ी मिसाल है. मधुर भंडारकर की फिल्म ‘पेज-3’ में भी इस यौन विकृति तथा अपराध को फिल्माया जा चुका है. इस फिल्म में बड़े-बड़े सफेदपोश अपने बंगले और फाइव स्टार होटलों में किस तरह मासूम बच्चों के साथ विकृत यौन लालसा को पूरा करते हैं.

मजेदार बात यह है कि इस मनोविकार से ग्रस्त लोगों का एक समूह पूरी दुनिया में इस कोशिश में लगा हुआ है कि इसे मनोविकार न मान कर इसे ‘लैंगिक रूझान’ कहने और मनवाने की जीजान से कोशिश में लगे हुए हैं.

पिडोफिल की खासियत

इस बारे में मनोचिकित्सक श्रलेखा विश्वास कहती हैं कि पिडोफिल व्यक्तित्व के लोगों में ज्यादातर मन ही मन अपने प्रति बहुत ऊंची धारणा बना लेते हैं. अपने बारे में अच्छी-अच्छी बातों का प्रचार करने में ये लोग बहुत माहिर होते हैं. इसलिए ऐसे लोग अक्सर बड़ी बेबाकी से झूठ बोलते हैं. अपनी पोल खुल जाने पर ये लोग अपने बचाव में कहते हैं कि बच्चे को नुकसान पहुंचाने का उसका मकसद नहीं था. अपने सफाई में वे यह भी कहते हैं कि प्यार-दुलार के दौरान सामयिक तौर पर उनसे ऐसा कुछ हो गया.

श्रीलेखा कहती हैं कि ऐसे लोगों की बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिए. ये लोग प्यार-दुलार करने के बहाने अक्सर बच्चों के प्राइवेट पार्ट्स का स्पर्श करते हैं. इसके जरिए पहले ये ‘स्टिमूल’ करते हैं, फिर ‘सिड्यूश’ करते हैं. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कुछ समय के बाद बच्चा उनके स्टिमूल’ करने के बाद इसे एंजॉय’ भी करने गलता है. जबकि इसके लिए बच्चों को दोष नहीं दिया जा सकता. लेकिन पिडोफिल व्यक्ति कभी-कभी अपनी विकृति को छिपाने या फिर नियोजित तरीके से अपराध पर पर्दा डालने के लिए सारा दोष बच्चों के सिर मढ़ देने से बाज नहीं आते.

मनोविज्ञान कहता है कि पिडोफिलिया भले ही विकृत यौनाचार है. लेकिन यह भी सच है कि एक पिडोफिल किसी भी मायने में दिमागी तौर पर कमतर नहीं होता, बल्कि उसका दिमाग नकारात्मक स्थिति में कुछ ज्यादा ही चलता है. यही कारण है कि बच्चे शुरू में पिडोफिल के आचरण को समझ नहीं पाते. खासतौर पर तब जब पिडोफिल उनका पारिवारिक सदस्य हो या फिर उनके करीबी या परिचित लोगों में से एक हो. चूंकि पिडोफिल व्यक्ति बच्चों के साथ एक मित्र या केयरिंग पर्सन के रूप में पेश आता है, इसलिए छोटी उम्र के बच्चे समझ नहीं पाते कि उनके साथ कुछ गलत हो रहा है. लेकिन आठ-दस का बच्चा अगर कुछ-कुछ समझता भी है तो अपनी समझ को लेकर ही वह कंफ्यूज होता है कि जो वह समझ रहा है, वह सही है या नहीं. अपनी बात किसीसे कह नहीं पाता.

राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की चिंता

विश्व स्वास्थ्य संगठन ‘हू’, सेव दि चाइल्ड जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं समयस-मय पर इस समस्या पर अपनी चिंता जाहिर कर चुकी हैं. हाल ही में ‘हू’ ने स्वीकार भी किया है कि दुनिया के असंख्य बच्चे आए दिन लापता रहे हैं. इन लापता बच्चों में ज्यादातर विकृत यन लालसा के शिकार भी हो रहे हैं.

हू ने तो स्पष्ट रूप से कहा भी है कि यह बड़ी हैरानी की बात है कि यौन-उत्पीड़न के शिकार न सिर्फ गरीब, फुटपाथ वासी बच्चे हो रहे हैं, बिल्क उच्चर्गीय और मध्यवर्गीय परिवारों में भी बच्चे यौन उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं. ‘हू’ के अनुसार हर क्षण पूरी दुनिया में दस फीसदी बच्चे यौन उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं.

वहीं मानवाधिकार आयोग के आंकड़े कहते हैं कि हर 23 मिनट में एक बच्चे का अपहरण होता है. अपहृत बच्चों में ज्यादातर का किसी-न-किसी रूप में यौन शोषण होता है. कुछ मामलों में तो अपहरण यौन उत्पीड़न और विकृत यौन लालसा को पूरा करने के लिए होता है. फिर तस्करी के जरिए बच्चों को खाड़ के देशों में बेच दिया जाता है.

पिडोफिलिया की सामाजिक मान्यता

समाजशस्त्रियों का मानना है कि पिडोफिलिया इंसान की आदिम प्रवृत्तियों में से एक है. हालांकि इसे आदिम प्रवृत्ति का एक विकृत रूप ही माना गया है. किसी भी समाज में ही पिडोफिल व्यक्ति हो सकता है, लेकिन दुनिया की आबादी में इनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है. हालांकि विश्व के हर देश, हर समाज में इस यौन विकृति का अस्तित्व है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से इसे ‘कलचर बाउंड सिंड्रोम’ के रूप में जाना जाता है.

दुनिया में बहुत सारे देश हैं, जहां 12 साल की बच्चियों को यौनाचार के उपयुक्त माना जाता है. खासतौर पर कुछ इस्लामिक देशों में. कहते हैं कि इंग्लैंड में भी कभी दस साल की उम्र को विवाह के लिए उपयुक्त माना जाता था. इसके अलावा कुछ जनजातियां आज भी विश्व के अलग-अलग कोने में हैं जहां बाल विवाह सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है. इसीलिए उन्हें सामाजिक मान्यता प्राप्त है.

पिडोफिल का बाजार

पूरी दुनिया में पिडोफिल मानसिक विकार वाले लोगों की बड़ी जमात सक्रिय है. यौन शोषण, यौनउत्पीड़न और संभोग के अलावा इस मानसिकता के लोग बच्चों की नंगी तस्वरों में भी अपने लिए सुख ढूंढ़ लेते हैं. ऐसे लोगों की नजर तीसरी दुनिया के बच्चों पर है. भारत में पिडोफिल का बहुत बड़ा बाजार है. अक्सर मुंबई, दिल्ली, बंगलुरू और कोलकाता में विदेशी पर्यटकों द्वारा बच्चों का यौन शोषण करने की घटना अखबारों में पढ़ने को मिलती है. हालांकि पूरी दुनिया में हर पल, हर क्षण चोरी-छिपे या खुले आम बच्चों को यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया जा रहा है. यहां तक कि बच्चों के साथ संभोग के सीडी तक बाजार में उपलब्ध हैं. जाहिर है इसके खरीदार पिडोफिल ही होते हैं. इसके अलावा वेबसाइटों पर इसका बाजार है. विभिन्न महानगरों के अलावा छोटे-बड़े शहरों में बाकायदा इसका अलग बाजार है, जो चाइल्ड पर्नोग्राफी के रूप में जाना जाता है.

वाल्डीमीर नाबोकोव के विवादित उपन्यास ‘लोलिता’ में एक वयस्क आदमी के साथ 12 साल की लड़की के यौन संबंध को फोकस किया गया था. बाद में फिल्म भी बन. पिडोफिल मनोविकार को केंद्र में रखकर ‘दि वुडमैन’ नाम की एक और फिल्म भी बनी थी. इस फिल्म में एक व्यक्ति लंबे समय तक बच्चों का यौन-उत्पीड़न करता है. उसे 12 साल की सजा हो जाती है. उसके सभी उसका साथ छोड़ देते हैं.

बच्चों के व्यवहार को समझें

बहरहाल, श्रीलेखा कहती हैं कि बच्चों के व्यवहार में माता-पिता को हमेशा नजर रखनी चाहिए. हमारे देश में एक बड़ा खराब चलन है कि बच्चों की बातों या उनकी शिकायत को तरजीह नहीं दी जाती है. माता को ऐसा नहीं करना चाहिए.

(क्रमश: अगले भाग में यौन उत्पीड़न शिकार बच्चों की पहचान…)

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