सरकारी नौकरियों, स्कूलों व कालेजों में दाखिलों में सामाजिक पिछड़ों और दलितों व आदिवासियों को मिले आरक्षण को ढीला करने की कोशिशें लगातार चलती रहती हैं. अदालतों ने कुछ हद तक तो इस आरक्षण को जरूरी माना है, पर उस ने भी बहुत से अगरमगर लगा दिए हैं, जिस से सरकार में जमे, सत्ता पर कुंडली मारे बैठे ऊंची जातियों के लोग आरक्षण को एक हद तक रोक सके हैं. सरकारी नौकरियों में मलाईदार और ताकतवर ओहदों पर ऊंची जातियों के ही लोग हैं. अगर कोई मंत्री पिछड़ी या दलित जाति का आ जाए, तो भी वह

5-7 को तो अच्छे पद दिला सकता है, पर बाद में उसे ऊंची जातियों के उन अफसरों पर भरोसा करना पड़ता है, जो अच्छी रिपोर्टें लिख सकें, अच्छी तरह अंगरेजी में बोल सकें और सभाओं व सम्मेलनों में अपनी बात कह सकें. इसीलिए जब अदालतें कहती हैं कि मलाईदार पदों को या पदोन्नतियों को आरक्षण की जरूरत नहीं है, तो पिछड़ों व दलितों के नुमाइंदे चुप हो जाते हैं. बड़ी बात यह है कि सही नजर की कमी के कारण पिछड़ों के नेता भी जानते नहीं कि वे कैसे अपने समाज का भला करें. बड़ी बात यह भी है कि वे खुद मानते हैं कि पिछड़ापन तो पिछले जन्म के पापों का फल है. इसीलिए सारे पिछड़े व दलित नेता जरा सा पैसा हाथ में आते ही पंडेपुजारियों को जम कर दान देने में लग जाते हैं. पिछड़ों के नेताओं ने पिछड़ों को सही ट्रेनिंग देने के बजाय पूजापाठ का रास्ता दिखाना शुरू कर दिया है.

पिछड़ों के नेता अपनी क्रीमी पोजीशन को उन देवीदेवताओं का परताप मानने लगे हैं, जिन के पास वे हर माह 2 माह में चक्कर लगा आते हैं. जो दलित या पिछडे़ पीछे रह गए, वे इन नेताओं या आरक्षण पाए अफसरों के हिसाब से पूजापाठ में कमजोर हैं. पिछड़े और दलित यह बखूबी जानते हैं कि ऊंचे पूजापाठ का झुनझुना उन्हें दे कर खुश भर कर रहे हैं और उन्हें ऊंचे देवीदेवताओं के नौकर या नाजायज संतान पूजने को दे रहे हैं या आर्यों के पहले के देवीदेवताओं को किवदंतियों से निकाल कर दे रहे हैं, जो हिंदू व्यवस्था में दोयम दर्जे के भगवान हैं. पर आरक्षण पाए नेता और अफसर इस तरह कुंठित और कमजोर मन के हैं कि वे ठाकुरों और पंडों के लठैतों की तरह उसी से खुश हो रहे हैं.

पिछड़ों और दलितों में इस देश की उन्नति का राज छिपा है. दुनियाभर में जब तकनीक कम थी, तब इन की तकनीक के सहारे ही भारत सोने की चिडि़या कहलाया था. आज उन की पुरानी तकनीक बेकार हो गई है और उन की रीटूलिंग में आरक्षण व मनरेगा काम आ सकता था, पर उसे केवल प्रसाद कह कर बांट दिया गया. पिछड़े दलित वह तकनीक भी भूल गए, जो उन्हें 200 साल पहले मालूम थी. आज आरक्षण का फायदा तभी है, जब पिछड़े और दलित उस से नई तकनीक समझें, यह क्रीमी लेयर–मलाई परत–को ज्यादा आसानी से समझ आएगी. यह न मायावती समझ रही हैं, न लालू प्रसाद यादव, न नीतीश कुमार, न एम. करुणानिधि. सब मान कर चल रहे हैं कि कुशलता तो पद मिलने पर आ ही जाएगी. जिन पिछड़ों व दलितों ने कुछ सीख भी लिया है, वे भी दूसरे पिछड़ों व दलितों को न सिखा कर अगड़ों को लिखापढ़ा कर पैसा बना रहे हैं. पिछड़ों व दलितों के लिए काम कर रही सेवाभावी संस्थाओं को कैलाश सत्यार्थी जैसे अगड़े चला रहे हैं. जरूरत मलाईदार परत को खत्म करने की नहीं, पिछड़ों व दलितों द्वारा उस परत की पूरी जमात के लिए लाभ उठाने की है.

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