एक फिल्म में नायक कहता है कि लव इज वेस्ट औफ टाइम. फिर दूसरे ही पल जब वह सुंदर हीरोइन के गलबहियां डालता है तो कहता है कि आई लव दिस वेस्ट औफ टाइम. मतलब यह कि प्यार मिल जाए तो जिंदगी सफल, नहीं तो यह समझो कि बेकार में इधरउधर झख ही मारते रहे.
दुनिया में अमूमन 2 प्रकार का इश्क पाया जाता है, ‘इश्क मजाजी’ और ‘इश्क हकीकी.’ दोनों में अपनेअपने स्वाद व प्रवृत्ति के अनुसार आदमी मसरूफ रहता है. गालिब कहते थे, ‘कहते हैं जिस को इश्क, सब खलल है दिमाग का.’ उन्होंने तो इश्क को बहुत बेकार की चीज कहा है, ‘इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के.’
लेकिन आज की दौड़भाग भरी जिंदगी में एक तीसरे प्रकार का इश्क ईजाद हुआ है, जिस का नाम है, ‘इश्क बजाजी’ यानी इश्क में आपसी लेनदेन. आजकल ऐसा इश्क बहुतायत में पाया जाने लगा है. एक हाथ दो, एक हाथ लो. इस प्रकार के आधुनिक इश्क में दिल के बदले दिल न दे कर दिल की मुनासिब कीमत दे दी जाती है. हम भी खुश और सामने वाला भी निहाल. इश्क बजाजी में सारे फंडे बिलकुल क्लीयर होते हैं. रातों को जागने या दुखी हो कर तनहाई के मारे तारे गिनने का कोई पंगा नहीं. आहें भरने, गिलेशिकवे करने, दर्द भरी शायरी करने या बेचैनी के मारे अंगारों पर लोटने का कोई झंझट नहीं. सारी रात साजन व सजनी की याद में जल बिन मछली की तरह तड़पने की जरूरत नहीं या करवटें बदलबदल कर दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं. दोपहर में कड़कती धूप में आशिक या महबूबा की एक झलक पाने के लिए घंटों बालकनी, छज्जों या चौबारों पर पागलों की तरह नंगेपांव खड़े होने की भी जरूरत नहीं.
इश्क इन दिनों एक विशुद्ध कारोबारी हिसाबकिताब हो गया है. सबकुछ तय करने में ज्यादा देर नहीं लगती. एक एसएमएस उस ने भेजा, एक मैसेज इधर से गया, समझो कि इश्क हो गया. 4-5 संगीसाथियों को खबर दे दी गई कि अपना फलां के साथ कुछकुछ चालू हो चुका है, अत: तुम बीच में मत आना. तफरीह होने लगी. बस, इश्क बजाजी हो गया. घूमेफिरे, खायापिया, चूमाचाटी की, इतने में कोई तीसरा बीच में आ टपका. पहला इश्क खल्लास. हर तरफ बताया गया कि हमारे बीच महज दोस्ती थी.
अब भी हम अच्छे दोस्त हैं. कमबख्तो, इश्क बहुत ही कमीना हो गया है आजकल. यह है नया इश्क, जो सुविधा की चीज बन चुका है. इश्क में और चाहिए भी क्या. इश्क तो अंधा होता है मगर शादी आंखें खोल देती है. इश्क में महबूबा के गाल के दाग भी डिंपल नजर आते हैं. इश्क का इकोनौमिक्स के साथ बहुत ही गहरा संबंध है. संबंध बिगड़ते भी 2 ही स्थितियों में हैं, एक कड़वा बोलने से और दूसरा पैसों की तंगी से. पैसों के लिए तो आदमी गधे को भी बाप बना लेता है मगर जिस बाप के पास पैसा नहीं, बेटा उसे गधा समझता है. कवि गिरधर कहते हैं कि गांठ में जब तक पैसा है, यार संगसंग डोलता है मगर इधर आदमी दिवालिया हुआ, उधर यार ने बोलना बंद किया. इश्क भी तभी सूझता है जब घर में साल भर का राशन हो.
खांडे़ की धार पर चलने जैसा काम है यह. फिर भी आज का युग थोड़ी सी बेवफाई और छोटी सी लव स्टोरी का है. ज्यादा पचड़ों में पड़ने की क्या जरूरत है. इस फास्टफूड वाले जमाने में देवदास टाइप लंबी रेस के घोड़ों का क्या काम? आज का युग इश्क बजाजी का युग है. झूठी कसमें खाओ और सच्चा प्यार हासिल कर के अगले दरवाजे पर दस्तक दो