हमारे सौरमंडल के ग्रह मंगल को ले कर नई सनसनी पैदा हुई है. सितंबर, 2015 में अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के प्लैनेटरी साइंस डायरैक्टर जिम ग्रीन ने दावा किया कि मंगल अब तक अनुमानों के विपरीत सूखा और बंजर ग्रह नहीं है. इस पर पानी है जो अभी इस की सतह पर बहने की स्थिति में है.

मंगल पर पानी के ये सुबूत नासा के अंतरिक्ष यान ‘मार्स रीकानिसेंस औरबिटर’ से लिए गए चित्रों व प्रेक्षणों में मिले हैं. इन चित्रों में मंगल की एक सतह पर ऊपर से नीचे की ओर बहती हुई धाराओं के प्रमाण मिले हैं जो करीब 5 मीटर चौड़ी और 100 मीटर तक लंबी हैं. ये जलधाराएं कम तापमान या फिर सर्दियों में गायब हो जाती हैं और तापमान बढ़ने पर यानी गरमियों में एक बार फिर प्रकट हो जाती हैं.

नमकीन पानी यानी साल्ट क्लोरेट

मंगल पर पानी मिलने के बारे में एक विस्तृत शोधपत्र ‘नैचुरल जियोसाइंस’ नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है. यह शोधपत्र नेपाली मूल के वैज्ञानिक लुजेंद्र ओझा और उन के सहयोगी वैज्ञानिकों ने लिखा है. इस खोज के बारे में एरिजोना विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक अल्फ्रेड मैकइवेन ने कहा कि यह खोज साबित करती है कि मंगल ग्रह के वातावरण में पानी की अहम भूमिका है यानी कभी इस ग्रह पर पानी अवश्य था. यह भी हो सकता है कि मंगल की अंदरूनी संरचनाओं में पानी अब भी मौजूद हो.

अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के अनुसार लुजेंद्र ओझा ने जो खोज की है, उस के तहत मंगल पर काली धारियों के रूप में पानी के बहाव की जानकारी मिली है. ये धारियां 4 साल पहले 2011 में अप्रैलमई के दौरान नजर आईं और गरमी आतेआते  काफी स्पष्ट हो गईं. हालांकि अगस्त के दौरान ये धारियां गायब हो गईं. प्रोफैसर अल्फ्रेड एस मैकइवेन के अनुसार, शोधकर्ताओं ने खोज की है कि वह असल में मंगल पर पानीयुक्त नमकीन अणुओं यानी साल्ट क्लोरेट की उपस्थिति का संकेत है. साल्ट क्लोरेट के बहाव से बनी काली धारियों की तसवीरें नासा ने अपनी वैबसाइट पर प्रदर्शित की हैं.

तसवीरों के अध्ययन से यह भी साफ होता है कि मंगल ग्रह पर नमक, पानी के जमाव और पानी के वाष्पीकृत होने के संकेत हैं. ये तीनों चीजें किसी सतह का तापमान बदल सकती हैं. इस का अर्थ यह हुआ कि ऐसे स्थान पर पानी लंबे समय तक मौजूद रह सकता है.

खास बात यह है कि मंगल ग्रह पर पानी का जमाव तापमान शून्य डिग्री सैल्सियस ही है, लेकिन वहां काफी कम दबाव है. इस वजह से पानी 10 डिग्री तापमान पर ही वाष्पित हो जाता है, जबकि पृथ्वी पर पानी को भाप बनने के लिए 100 डिग्री सैल्सियस तापमान की जरूरत होती है. हो सकता है कि मंगल का पानी इसी तरह वाष्पित हो कर अंतरिक्ष में चला गया हो.

उल्लेखनीय है कि अतीत में पहले भी कई बार मंगल पर पानी मौजूद होने की बात कही जा चुकी है. सब से पहले वर्ष 1877 में जब इटली के साइंटिस्ट गैलीलियो गैलिली ने खुद की बनाई दूरबीन से मंगल की सतह को कुछ करीब से देखा तो वहां नहरों (कैनाल) जैसी संरचनाएं देख कर वे चौंक गए थे. इस जानकारी के बाद यह दावा भी किया गया कि करोड़ोंअरबों वर्ष पहले मंगल पर जीवन रहा होगा.

पानी और जीवन

कहा जाता है कि मंगल पर करीब साढ़े 4 अरब साल पहले आज की तुलना में साढ़े 6 गुना अधिक पानी था. पर मंगल का पृथ्वी जैसा चुंबकीय क्षेत्र नहीं था और उस की सतह पर काफी कम दबाव था, इसलिए वहां का ज्यादातर पानी भाप बन कर उड़ गया और उसे मंगल का वायुमंडल रोक नहीं पाया. वैसे मंगल को इस के धु्रवों पर जमी बर्फ और क्रेटर्स (गड्ढों) में कैद रहस्यों के कारण हमेशा एक जैव संभावना वाला या कहें जीवन की संभावना वाला ग्रह माना जाता रहा है.

शून्य से 130 डिग्री नीचे के औसत तापमान वाले मंगल के धु्रवों पर जमी शुष्क बर्फ, पानी के बहाव के प्रमाण, गरमी और लावा का प्रवाह जैसे संकेतों को हमेशा जीवन की निशानी समझा गया, पर सवाल तो यह है कि क्या इन सुबूतों के आधार पर वहां कोई जीवन वास्तव में संभव है? इस गुत्थी को सुलझाने की जितनी कोशिश होती है, रहस्य उतना ही गहराता दिखता है.

इस से पहले भी कई बार मंगल ग्रह को जीवन से जोड़ने की कोशिश हुई है. कई बार अनजाने में, सुबूतों के बगैर कल्पना के आधार पर, तो कई मौके ऐसे भी आए, जब मंगल तक पहुंचे उपग्रहों और स्पेस टैलीस्कोपों से ली गई तसवीरों के आधार पर वहां पानी की मौजूदगी बताई गई.

ये हैं सुबूत

दिसंबर, 2003 से मंगल के चक्कर लगा रहे यूरोपियन स्पेस एजेंसी के स्पेसक्राफ्ट मार्स ऐक्सप्रैस में लगे उपकरण प्लैनेटरी फौरियर स्पैक्ट्रोमीटर (पीएफएस) से अब तक जो चित्र और जानकारियां मिली हैं, उन के विश्लेषण के आधार पर शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि मंगल पर मौजूद मीथेन और फौर्मेल्डिहाइड को जीवन के संदर्भ में अनदेखा नहीं किया जा सकता है. वे दावा करते हैं कि मंगल पर मीथेन गैस मिलने का यह मतलब है कि कम से कम 150 टन गैस हर साल वहां के वातावरण में पहुंचती है. इसी तरह फौर्मेल्डिहाइड मिलने का अर्थ है कि वहां मीथेन के उत्सर्जन की दर 25 लाख टन प्रतिवर्ष होगी.

मंगल के दूसरे जीवनदायी तत्त्व वैसे माइक्रोब्स (अतिसूक्ष्म जीवाणु) बताए जाते हैं, जैसे हमारी पृथ्वी पर भी मिलते हैं. ये जीवाणु भी मीथेन पैदा करते हैं. कुछ ऐसे सुबूत भी मिले हैं, जिन से पता चलता है कि मंगल की ओजोन परत को जलवाष्पों ने तबाह कर डाला, जिस से हो सकता है कि जीवन नष्ट हुआ हो. चूंकि पृथ्वी के वायुमंडल में भी ग्लोबल वार्मिंग के कारण ओजोन परत संकट में है, इसलिए यह साम्य भी मंगल के अतीत को जीवन से जोड़ता है. बैक्टीरिया के रूप में मंगल पर जीवन अगर रहा भी है, तो सवाल यह है कि क्या ऐसा जीवन हमारे किसी काम का है?

ऐसा है मंगल

मंगल ग्रह पर जीवन की कल्पना करते समय इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि वहां ठोस धरती जरूर है, लेकिन वह बेहद रूखीसूखी है और पूरे ग्रह पर धूल भरी तेज आंधियां चलती रहती हैं.

मंगल के वायुमंडल में 95.32 प्रतिशत कार्बन डाइऔक्साइड, 2.7 प्रतिशत आणविक नाइट्रोजन, 1.6 प्रतिशत आर्गन और मात्र 0.13 प्रतिशत आणविक औक्सीजन का अंश मौजूद है. ऐसी हवा में हमारी पृथ्वी के प्राणी जीवित नहीं रह सकते. इसलिए वहां मानव जाति के समान किसी सभ्यता की कल्पना करना महज कपोलकल्पना ही साबित होगी.

मिथकों का मंगल

पृथ्वी के बाद सौरमंडल के जिस दूसरे ग्रह को सब से ज्यादा खोदा और खंगाला गया है वह पृथ्वी से औसतन 22 करोड़ 50 लाख किलोमीटर दूर मौजूद मंगल ग्रह ही है. नंगी आंखों से तो इसे इंसान सदियों से देख रहा है और आकाश में लटकी खून की बूंद की तरह दिखने वाले मंगल को ले कर उस ने तरहतरह के मिथक भी रचे. जैसे मध्य एशिया में टिग्रिस नदी के किनारे रहने वाले लोग इसे ‘रक्त छाया’ (शेड औफ ब्लड) कहते थे. ग्रीक और रोम के निवासियों की नजर में यह ‘युद्ध का देवता’ रहा है.

पर ऐसी फंतासियों से अलग हट कर एक धारणा गैलीलियो गैलिली ने ही अपनी दूरबीनों के आधार पर बनाई. गैलीलियो की खोज से इस कल्पना को बल मिला कि मंगल पर पृथ्वी से ज्यादा बुद्धिमान सभ्यताएं निवास करती हैं और उन्होंने ही ऐसी नहरें बनाई हैं, जो पृथ्वी से भी देखी जा सकती हैं. हैरानी यह है कि गैलीलियो की इस खोज को भी गल्पकारों ने लपक लिया और कल्पना की ऐसी उड़ान भरी कि कभी मंगल से आए प्राणी मनुष्यों पर हमला बोल देते थे, तो कभी इंसानों को बंधक बना ले जाते थे. सब से चर्चित गल्प 1898 में लिखी गई एच जी वेल्स की ‘द वार औफ द वर्ल्ड्स’ रही.

हद तो तब हो गई, जब 1938 में वेल्स के उपन्यास पर आधारित रेडियो रूपांतरण का प्रसारण हुआ. इस उपन्यास में चूंकि हाईटैक मंगलवासियों के दक्षिणी लंदन में उतरने और पृथ्वी पर कब्जा जमाने की कोशिश करने सा दृश्य प्रस्तुत किया गया था, इसलिए जब लोगों ने रेडियो पर इस का प्रसारण सुना, तो वे उसे सच मान बैठे और इस पर काफी समय तक वादविवाद होता रहा कि कहीं वास्तव में तो मंगल के निवासियों ने पृथ्वी पर हमला नहीं बोल दिया.

शुरू हुआ खोजबीन का सिलसिला

हालांकि धीरेधीरे मंगल मिथकों और कपोलकल्पनाओं से बाहर आया. 1965 में पृथ्वी से भेजे गए नासा के अंतरिक्षयान ‘मैरिनर-4’ से मंगल पर पृथ्वी से जाने वाले अंतरिक्षयानों का जो सिलसिला शुरू हुआ, तो उन से मंगल के बारे में सोची और कही गई बातों की पोल खुलनी शुरू हो गई. जुलाई, 1976 में मंगल पर उतरे वाइकिंग-1 और वाइकिंग-2 के बाद 1996 में वहां पहुंचे यान ‘मार्स ग्लोबल’ आदि से पता चला कि मंगल कभी गरम और नम ग्रह जरूर था, लेकिन यहां कोई परग्रही सभ्यता निवास नहीं करती है. नासा के मार्स पाथफाइंडर ने मंगल पर पहुंच कर जो 20 हजार तसवीरें और 2.3 अरब सूचनाएं भेजीं, उन से मंगल की सतह के हर कोने पर नजर डाली जा सकी.

अप्रैल, 2001 में नासा के ‘मार्स ओडिसी’ ने मंगल का जियोलौजिकल नक्शा तैयार कर के यह बता दिया कि इस ग्रह का निर्माण किन चीजों से हुआ है और 2004 में क्रमश: 7 व 25 जनवरी को नासा के स्पिरिट और अपौरच्युनिटी ने मंगल के बारे में रहेबचे तथ्यों का भी खुलासा कर दिया. हालत यह है कि इन सभी अंतरिक्ष यानों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर हम इस बारे में तो आश्वस्त हो सकते हैं कि मंगल पर कभी पानी और बर्फ की मौजूदगी रही होगी, लेकिन इस धारणा का कोई आधार नहीं है कि मंगल पर पृथ्वी जैसे जीवन का कोई रूप था या है.

मंगलयान भारत का भी

कहने को इसे महज एक संयोग कहा जा सकता है कि अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का यान ‘मार्स एटमास्फीयर ऐंड वोलाटाइन इवोल्यूशन’ (मावेन) और भारतीय स्पेस एजेंसी – इसरो का मार्स औरबिटर मिशन लगभग साथसाथ मंगल तक पहुंचे, पर इन की तुलना बताती है कि कई चीजें इस कोरे इत्तफाक से परे हैं. जैसे 4,026 करोड़ रुपए के खर्च से मंगल तक पहुंचे मावेन के मुकाबले करीब 10 गुना कम लागत (450 करोड़ रुपए) वाले मार्स औरबिटर का पहले ही प्रयास में सफल होना कोई संयोग नहीं है. इस के पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति और ठोस वैज्ञानिक इरादों के अलावा व्यापार की सोचीसमझी रणनीति काम कर रही है जो भारत जैसे एक गरीब देश को किफायत में अंतरिक्ष मिशन चला कर स्पेस के कमाई के मौके दिला रही है.

गौरतलब है कि 24 सितंबर, 2014 को जब भारतीय स्पेस एजेंसी इसरो के मंगलयान यानी मार्स औरबिटर मिशन ने मंगल की कक्षा में प्रवेश किया तो उस वक्त वह वहां अकेला नहीं था. 22 सितंबर, 2014 को अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के मार्स एटमास्फीयर ऐंड वोलाटाइन इवोल्यूशन (मावेन) की पहुंच से कई और यान या तो मंगल की परिक्रमा कर रहे हैं या फिर मार्स रोवर इस लाल ग्रह की धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं. फिलहाल 6 औरबिटर इस की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं और नासा के 2 रोवर स्पिरिट और अपौरच्यूनिटी इस की सतह को खंगाल रहे हैं.

फिलहाल भारतीय मंगलयान के अलावा जो मिशन मंगल की छानबीन में संलग्न हैं, उन में से एक यूरोपियन स्पेस एजेंसी (ईएसए) के मार्स ऐक्सप्रैस (2003) को छोड़ कर अन्य सभी नासा (अमेरिका) के हैं. इस बीच चीन और जापान भी मंगल पर अपने यान भेजने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन वे नाकाम रहे.

मामला सिर्फ मंगल तक यान पहुंचाना भर नहीं है बल्कि इस का उद्देश्य मंगल के बारे में कई ऐसे रहस्यों का खुलासा करना है जिन्हें दुनिया जानना चाहती है. खासतौर से मावेन की तरह, जिस का प्रमुख उद्देश्य मंगल के वातावरण के अध्ययन के साथ वहां की जलवायु में बदलाव की पड़ताल करना है.

मंगलयान में कई ऐसे उपकरण हैं जो मंगल की परिक्रमा करते वक्त कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएं जुटा चुके हैं. इन के आकलन से मंगल के बारे में कई नई जानकारियां मिल सकती हैं. जैसे मंगलयान पर लगे लिमन अल्फा फोटोमीटर (एलएपी) से मंगल के ऊपरी वायुमंडल में हाइड्रोजन कणों की मौजूदगी का पता लग सकता है. इस उपकरण में शक्तिशाली लैंस हैं जो हाइड्रोजन कणों की खोज कर सकते हैं. यान में मीथेन सैंसर फौर मार्स (एमएसएम) भी फिट किया गया था जो मंगल के वातावरण में मीथेन गैस की मौजूदगी की टोह ले सकता है. इसी तरह मंगल के वायुमंडल की संरचना यानी वहां के वातावरण में क्याक्या है, इस की जांच के लिए मंगलयान में मार्स एक्सोफेरिक कंपोजिशन ऐक्सोप्लोरर (एमईएनसीए) स्थापित किया गया था. लाल ग्रह के जमीनी हालात का जायजा लेने के लिए मंगलयान में मार्स कलर कैमरा (एमसीसी) भी है जो 50 किलोमीटर के दायरे में फोटो खींच कर उस की सतह का विश्लेषण कर सकता है. मंगल की मिट्टी में मौजूद खनिजों की पड़ताल के लिए यान में टीआईआर इमेजिंग स्पैक्टोमीटर भी मौजूद है, जिस से निकलने वाली किरणें जमीन की गहराई तक जा कर यह पता लगाएंगी कि वहां कौन से खनिज भंडार है.

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