भारत का दुनिया भर में मसाला उत्पादन व मसाला निर्यात में पहला स्थान है. इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. इन मसालों में बीजमसालों का अनोखा स्थान है. हमारे देश में धनिया, जीरा, सौंफ, मेथी व अजवायन वगैरह बीजमसाले काफी मात्रा में उगाए जाते हैं. किसान भाई इन मसालों की अधिक उत्पादन देने वाली उन्नत व रोगरोधी किस्मों की खेती कर के अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं. खास बीजमसालों की खास किस्मों के बारे में यहां बताया जा रहा है.

धनिया की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरसीआर 41 : यह किस्म सिंचित खेती के लिए राजस्थान के सभी इलाकों के लिए उपयोगी पाई गई है. यह किस्म राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा साल 1988 में विकसित की गई थी. इस के दाने सुडौल, गोल व छोटे होते हैं. यह किस्म तनासूजन व उकटा रोगों के प्रति रोधी है. यह किस्म 130 से 140 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 9.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के दानों में 0.25 फीसदी वाष्पशील तेल होता है.

आरसीआर 20 : यह किस्म सिंचित व असिंचित दोनों इलाकों के लिए मुफीद है. यह कम नमी वाली भारी मिट्टी वाले राजस्थान के दक्षिणी इलाके के साथसाथ टोंक, बूंदी, कोटा, बारां व झालावाड़ के लिए मुनासिब है. 110 से 125 दिनों में पकने वाली इस किस्म से असिंचित इलाकों में 4 से 7 क्विंटल और सिंचित इलाकों में 10 से 12 क्विंटल पैदावार प्रति हेक्टेयर होती है.

आरसीआर 435 : यह किस्म साल 1995 में विकसित की गई. इस के पौधे झाड़ीनुमा व जल्दी पकने वाले होते हैं. इस के बीज मध्यम आकार के होते हैं. इस के 1000 दानों का वजन 14 ग्राम होता है. 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार होने वाली इस किस्म की औसत उपज 10.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह सूत्रकृमि व छाछिया की प्रतिरोधी है.

आरसीआर 436 : यह किस्म साल 1995 में कम नमी वाले इलाकों कोटा, बारां, झालावाड़ व बूंदी के लिए विकसित की गई थी. इस के पौधे 50 से 100 दिनों में पक जाते हैं. पौधे झाड़ीनुमा व दाने सुडौल होते हैं. इस की उपज 11.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के 1000 दानों का वजन 16 ग्राम होता है.

आरसीआर 446 : यह किस्म साल 1997 में जयपुर के सिंचित इलाकों के लिए विकसित की गई थी. इस के पौधे अधिक पत्तियों वाले और सीधे खड़े गुच्छों में घने मध्यम आकार के बीजों वाले होते हैं. यह किस्म 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के 1000 दानों का वजन 13.5 ग्राम होता है.

आरसीआर 480 : यह किस्म साल 2006 में विकसित की गई थी. यह 130 से 135 दिनों में पक कर 13.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह सिंचित इलाकों के लिए मुफीद होती है. इस के बीजों में 0.44 फीसदी तेल होता है.

आरसीआर 684 : इस का पौधा मध्यम ऊंचाई वाला होता है. मुख्य तना मजबूत व मोटा होता है. तने का रंग सफेद होता है और दाने मध्यम आकार के गोल होते हैं. यह तनासूजन के प्रति रोगरोधी है. यह किस्म 130 दिनों में पक कर 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

आरसीआर 728 : यह किस्म साल 2009 में विकसित की गई. इस के पौधे लंबे व घनी पत्तियों वाले होते हैं. यह किस्म 130 से 140 दिनों में पक कर 13.7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस के बीजों में 0.34 फीसदी तेल होता है.

हिसार आनंद : यह बीज व पत्ते वाली किस्म अधिक उपज देने वाली भी होती है. यह हिसार इलाके के लिए मुफीद है.

स्वाथी (सीएस 6) : यह किस्म बारानी, पछेती बोआई और आंध्र प्रदेश के गुंटूर इलाके के लिए मुफीद है. इस में फलमक्खी के प्रतिरोधी गुण हैं. इस की उपज 855 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. यह 90 से 105 दिनों में पकती है. इस के दानों में 0.3 फीसदी वाष्पशील तेल होता है.

सिंधु (सीएस 2) : यह किस्म क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र लाम, गुंटूर से विकसित की गई है. यह किस्म अंतर सस्य और बारानी इलाकों के लिए मुफीद है. यह उकटा, छाछिया व तेले के लिए रोधी है. यह किस्म 10 क्टिंवल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह 102 दिनों में पकती है. इस के दानों में 0.4 फीसदी वाष्पशील तेल होता?है.

गुजरात धनिया 1 : यह किस्म गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान से विकसित की गई है. यह गुजरात राज्य के लिए मुफीद है. यह 112 दिनों में पकती है और इस की औसत उपज 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म उकटा व छाछिया रोग के प्रति काफी सहनशील है.

गुजरात धनिया 2 : यह किस्म भी जगुदान से विकसित की गई है, जो असिंचित इलाकों में शीघ्र बोआई के लिए सही है. यह किस्म 110 से 115 दिनों में पक कर तैयार होती है. इस की पैदावार 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस का दाना बड़ा होता है.

एसीआर 1 : यह किस्म राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केंद्र अजमेर द्वारा विकसित की गई थी. यह लंबे अरसे वाली किस्म है, जिसे बीज व पत्तियों दोनों के लिए सिंचित इलाकों में उगाया जाता है. इस के बीज गोलाकार होते हैं, जो निर्यात के लिए मुफीद होते हैं. इस की उपज 12 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस में वाष्पशील तेल 0.5 से 0.6 फीसदी तक होता है. यह तनासूजन व छाछिया रोग की प्रतिरोधी है.

को 1 : यह पत्तियों व बीजों दोनों के लिए मुनासिब किस्म है. यह साल 1987 में कयंबटूर कृषि विद्यालय से विकसित की गई थी. यह किस्म 110 दिनों में पक कर 5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह किस्म ग्रीन मोल्ड बीमारी के प्रति प्रतिरोधी होती है.

को 2 : यह किस्म 90 से 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह रबी व खरीफ दोनों मौसमों के लिए मुफीद है. यह सूखा प्रतिरोधी किस्म मानी जाती है. इस के दानों में 0.3 फीसदी वाष्पशील तेल की मात्रा होती है.

को 3 : यह धनिया की अगेती किस्म है, जो तमिलनाडु के लिए मुफीद है. यह दानों व पत्तियों दोनों के लिए उगाई जाती है. यह 78 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस के दानों में 0.4 फीसदी वाष्पशील तेल की मात्रा होती है. यह उकटा व ग्रेनमोल्ड के प्रति सहनशील होती है.

जीरे की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरजेड 19 : यह किस्म साल 1988 में विकसित की गई थी. इस के पौधे सीधे खड़े होते हैं. इस के फूल गुलाबी और बीज गहरे भूरे रंग के होते हैं. यह किस्म स्थानीय किस्म की तुलना में उकटा व झुलसा के प्रति रोगरोधक होती है. यह किस्म 120 से 125 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 5 से 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह पूरे राजस्थान के लिए मुफीद होती है.

आरजेड 209 : यह किस्म साल 1995 में राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई थी. इस के बीज सुडौल व गहरे भूरे रंग के होते हैं. यह उकटा व झुलसा रोगों की प्रतिरोधी होती है. इस में छाछिया रोग के प्रति प्रतिरोधकता आरजेड 19 से ज्यादा है. यह किस्म 120 से 135 दिनों में पक कर 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरजेड 223 : यह किस्म राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई थी. यह किस्म उकटा रोग प्रतिरोधी है. यह 120 से 130 दिनों में पकती है और लगभग 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 3.23 फीसदी तक होती है. यह किस्म राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरजेड 341 : यह किस्म साल 2006 में एसकेआरएयू द्वारा विकसित की गई थी. इस के बीजों में वाष्पशील तेल की मात्रा 3.87 फीसदी होती है. इस की उपज 4 से 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

आरजेड 345 : यह किस्म साल 2009 में एसकेआरएयू द्वारा विकसित की गई थी. यह उकटा, झुलसा व छाछिया रोगों के प्रति प्रतिरोधी है. यह 120 से 130 दिनों में पक कर 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

जीसी 1 : गुजरात के मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान से विकसित इस किस्म के पौधे सीधे होते हैं. इस में गुलाबी रंग के फूल व भूरे रंग के बीज होते हैं. यह किस्म बड़े बीज व अधिक उत्पादन देने वाली होती है. यह 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार होती है. इस में उकटा रोग सहने की हलकी कूवत होती है. इस का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है.

जीसी 2 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. यह 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. पौधे झाड़ीनुमा व ज्यादा शाखाओं वाले होते हैं.

जीसी 3 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. यह उकटा रोग प्रतिरोधी होती है. यह 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस में आवश्यक तेल की मात्रा 3.5 फीसदी होती है.

जीसी 4 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. इस में उकटा रोग सहने की ज्यादा कूवत है. यह 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह राजस्थान व गुजरात में ज्यादा बोई जाती है.

सौंफ की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरएफ 101 : सौंफ की यह किस्म साल 1995 में राजस्थान के टोंक की स्थानीय सौंफ से चयन कर के विकसित की गई है. यह किस्म 150 से 160 दिनों में पक कर तैयार होती है और 15 से 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

आरएफ 125 : यह किस्म इटली के ईसी 243380 से चयन कर के राजस्थान से विकसित की गई है. यह साल 1997 में विकसित की गई थी. इस के पौधे बौने व जल्दी पकने वाले छोटे घने गुच्छों वाले होते हैं. इस में वोलेटाइल आयल 1.9 फीसदी तक होता है. यह किस्म 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है इस की औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरएफ 143 : यह किस्म साल 2004 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व सीधे होते हैं. इस के बीज मध्यम आकार के होते हैं और पौधों की लंबाई 116 से 118 सेंटीमीटर होती है.  इस की औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह 140 से 150 दिनों में पकती है. इस में वोलेटाइल आयल 1.87 फीसदी होता है.

आरएफ 205 : यह किस्म राजस्थान में साल 2009 में विकसित की गई थी. यह किस्म 130 से 140 दिनों में पक कर 16 क्विंटल और उपज देती है. इस में वोलेटाइल आयल 2.48 फीसदी तक होता है. पौधे सीधे व मध्यम ऊंचाई के होते हैं और दाने सुडौल होते हैं.

गुजरात फेनल 1 : यह किस्म गुजरात के बीजापुर स्थानीय से चयन कर के साल 1985 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व झाड़ीनुमा होते हैं इस के बीज हरे होते हैं. यह गूंदिया रोग व पत्ती धब्बा रोग से मध्यम रोधी है. यह 225 दिनों में पकती है. इस की औसत उपज 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह अगेती बोआई के लिए मुनासिब है. यह सूखा सहने की कूवत रखती है.

जी एफ 11 : रबी की सिंचित खेती के लिए मुनासिब यह अच्छी उपज वाली किस्म मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान गुजरात से साल 2003 में विकसित की गई. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.8 फीसदी होती है. यह 150 से 160 दिनों में पक कर 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर औसत उपज देती है.

एएफ 1 : यह किस्म राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केंद्र अजमेर से साल 2005 में विकसित की गई. इस का पौधा बड़ा और शाखाओं वाला होता है. इस में बड़े आकार के पुष्पछत्रक होते हैं. यह किस्म सीधी बोआई द्वारा 19 क्विंटल और पौध रोपण विधि द्वारा 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है. यह 185 दिनों में पकने वाली मोटे दानों की किस्म है.

मेथी की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरएमटी 1 : यह किस्म राजस्थान के लिए साल 1989 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व शाखायुक्त होते हैं. इस के बीज सुडौल व चमकीले होते हैं. यह किस्म 140 से 150 दिनों में तैयार हो कर लगभग 14 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह जड़गलन की मध्यम रोधी किस्म है और इस में छाछिया रोग भी कम लगता है. इस किस्म का विकास नागौर जिले के स्थानीय बीज से चुनाव कर के किया गया है.

आरएमटी 143 : इस किस्म का विकास जोधपुर जिले के स्थानीय बीज का चुनाव कर के साल 1997 में किया गया. यह किस्म 140 से 150 दिनों में पक कर लगभग 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह किस्म चित्तौड़, भीलवाड़ा, झालावाड़ व जोधपुर के लिए मुफीद है.

आरएमटी 303 : यह किस्म साल 1999 में म्यूटेशन ब्रीडिंग से विकसित की गई थी. यह छाछिया रोग के प्रति मध्यम रोधी होती है. इस के बीज पीले रंग के होते हैं. यह 140 से 150 दिनों में पकती है. इस की औसत उपज 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

आरएमटी 351 : यह किस्म साल 2006 में गामा किरणों द्वारा विकसित की गई थी. इस के पौधों की ऊंचाई मध्यम होती है और शाखाएं ज्यादा होती हैं. इस की फलियों में बीजों की संख्या अधिक होती है. यह 140-150 दिनों में पक कर औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर देती है.

एफजी 1 : मध्यम ऊंचाई व चौड़ी पत्तियों वाली यह किस्म अजमेर में विकसित की गई है. यह किस्म 137 से 140 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म को विशेष रूप से पत्तियों के लिए उगाया जाता है, जिस की औसत उपज 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई है. इस में 3 बार पत्तियों की कटाई की जाती है. इस के दाने बड़े मोटे और कम कड़वे होते हैं. इस की बीज की उपज 20 से 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती?है.

एफजी 2 : मध्यम ऊंचाई वाली यह किस्म भी अजमेर में विकसित की गई है. इस के बीज छोटे आकार के होते हैं. यह किस्म 138 दिनों में पकती है. इस के बीजों की उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म भी पत्तियों के लिए खासहै. इस की 3 बार कटाई में 72 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरी पत्तियां हासिल होती हैं.

अजवायन की उन्नत व रोगरोधी किस्में

अजमेर अजवायन 1 : यह किस्म प्रतापगढ़ की स्थानीय किस्म से चयन कर के अजमेर में विकसित की गई है. यह किस्म बारानी व सिंचाई दोनों हालात में मुफीद है. यह 165 दिनों में पकती?है. इस की उपज 14.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सिंचित इलाकों में और 5.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर असिंचित इलाकों में होती है. बीज में आवश्यक तेल की मात्रा 3.4 फीसदी होती है.

अजमेर अजवायन 2 : यह किस्म भी अजमेर में विकसित की गई है. यह छाछिया रोग के प्रति रोगरोधी है. यह 147 दिनों में पकती है. इस की उपज 12.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सिंचित इलाकों में और 5.2 क्विंटल असिंचित इलाकों में है. बीज में आवश्यक तेल 3 फीसदी होता है. 

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