अकसर कई लोग पैसों या प्रौपर्टी आदि के कानूनी वारिस के बारे में जीतेजी न तो कागजात तैयार करते हैं और न ही इस बाबत कोई निर्णय ले पाते हैं. नतीजतन ऐसे किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उस के नाम की संपत्ति के स्वामित्व को ले कर घरपरिवार में तमाम विवाद खड़े हो जाते हैं. कई बार तो मृतक के नाम किसी भी प्रकार की देय राशि का भुगतान तक रुक जाता है. इन में बैंक में जमा राशियों से ले कर बीमा दावे भी शामिल हैं. मुंबई के ठाणे उपनगर के निवासी 48 वर्षीय विलास की मृत्यु उस वक्त हो गई जब वे ड्राइंगरूम में टैलीविजन देख रहे थे. डाक्टर ने बताया कि हृदयाघात की वजह से उन की मौत हुई. आघात इतना जबरदस्त था कि विलास को अस्पताल ले जाने का भी वक्त नहीं मिला. न ही वे जातेजाते किसी से कुछ बात कर सके. शायद अचानक सीने में दर्द उठा हो और इस से पहले कि किसी को बुला पाते, वे चल बसे. हां, वे उस वक्त ड्राइंगरूम में अकेले थे. बेटे ने जब पानी का गिलास व दवाएं ला कर पिता को देनी चाहीं तभी उसे इस हादसे के बारे में पता चला.

विलास 20 दिन पहले ही अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर आए थे. सीने में दर्द की शिकायत पर वे कुल 12 दिन भरती थे. अस्पताल के खर्च को मिला कर करीब 1 लाख 60 हजार रुपए का मैडिक्लेम दावा बीमा कंपनी के पास जमा कर दिया गया था. वह भी, अस्पताल से छुट्टी मिलने के एक सप्ताह के भीतर. उन की पत्नी शारदा ने बीमा कंपनी को लिखित रूप से इस मृत्यु के बारे में सूचित किया तथा उन से अनुरोध किया कि मैडिक्लेम दावे का चैक विलास कोजरेकर की जगह शारदा कोजरेकर के नाम जारी करें. बीमा कंपनी ने अनुरोध को ठुकराया तो नहीं पर उस के बीमा अधिकारी ने कहा कि भुगतान की प्रक्रिया टीपीए यानी थर्ड पार्टी एडमिनिस्ट्रेटर द्वारा पूरी की जाती है. पर उन्होंने आश्वस्त किया कि टीपीए को इस संबंध में बता दिया जाएगा. शारदा ने एफिडेविट भी जमा कर दिया. लेकिन टीपीए की ओर से उन्हें चैक विलास कोजरेकर के नाम ही मिला. शारदा चाहतीं तो इस चैक को बैंक में जमा कर भुगतान ले सकती थीं लेकिन यह कानूनन जुर्म था. इसलिए उन्होंने यह चैक टीपीए को इस अनुरोध के साथ वापस किया कि यह चैक उन के नाम से जारी किया जाए. उन्होंने आवश्यकतानुसार जरूरी कागजात भी जमा किए. मसलन, मृत्यु प्रमाणपत्र, सक्सैशन सर्टिफिकेट (उत्तराधिकार प्रमाणपत्र) आदि. अब शारदा को इंतजार है कि उन के नाम जारी दावे का चैक उन्हें मिल जाएगा.

विशेषज्ञ की लें मदद

बीमाधारक की मृत्यु की दशा में बीमा दावे के भुगतान प्रकरण में अधिक परेशानियां नहीं आतीं क्योंकि जमा किए जाने वाले कागजात की संख्या अधिक नहीं होती. लेकिन फिर भी, चूंकि भुगतान के लिए जमा किया जाने वाला हर कागजात विधिसम्मत होना चाहिए, इसलिए न तो इन्हें जुटाने या तैयार करने में देरी करनी चाहिए, न ही इन्हें तैयार करते वक्त किसी नौसिखिए की सलाह लेनी चाहिए. इस काम के लिए वकील, चार्टर्ड अकाउंटैंट या वित्तीय योजनाकारों की राय लेनी चाहिए. इन्हें अदा किया जाने वाला पेशेवर शुल्क भले आप को तत्काल भारी महसूस हो पर इस की वजह से आप तमाम परेशानियों में फंसने से बच जाएंगे.

जीवन बीमा, व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा या मैडिक्लेम दावे की रकम लाखों में हो सकती है. गलत तरीके से दावा प्रस्तुत करने की दशा में इन का भुगतान रुक जाता है या देरी होती है. जाहिर है कि बड़ी रकम पर ब्याज भी अधिक होगा. इस के अलावा, कई जरूरी कार्य भी रकम फंस जाने की वजह से अटक जाते हैं. दरअसल, परिजन की मृत्यु के बाद सिर्फ उन के बीमा दावे ही नहीं होते बल्कि इस सूची में कई प्रकार के अन्य भुगतान भी शामिल होते हैं, जैसे बैंक, पीपीएफ, फिक्स्ड डिपौजिट, डीमैट खाता, बौंड, डिबैंचर, प्रौपर्टी पर अधिकार आदि. इस के साथ ही, कै्रडिट कार्ड लंबित भुगतान, किसी भी प्रकार का बकाया कर्ज, बकाया मैडिकल बिल आदि के बारे में भी जानकारी होनी महत्त्वपूर्ण है. याद रखें, मृतक के नाम कोई भी कर्ज बकाया होने की दशा में उन के नाम जारी होने वाले अन्यत्र किसी भी प्रकार के भुगतान में देरी हो सकती है. ऐसा क्रैडिट कार्ड के भुगतान को ले कर अकसर देखा जाता है.

कुछ परिजन अपने मृत रिश्तेदार के क्रैडिट कार्ड पेमैंट को यह समझ कर छोड़ देते हैं कि कार्ड जिस के नाम से था, वह तो चला गया. मैं क्यों भुगतान करूं. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कै्रडिट कार्ड जारी करने वाले बैंक के पास कार्डधारक का पूरा ब्योरा होता है. भुगतान 3 माह से अधिक लंबित होने पर वह इस की जानकारी सिविल संस्था (व्यक्ति की क्रय क्षमता निर्धारित आने वाली सरकारी नियामक एजेंसी) को देता है. वहां से यह सूचना सभी संबंधित वित्तीय संस्थाओं, मृतक के नियोक्ता कार्यालय आदि को जारी कर दी जाती है सो, किसी भी स्तर पर फरेब महंगा पड़ सकता है. यदि व्यक्ति पैंशनधारी है तो मृत्यु के बारे में संबंधित बैंक को भी तत्काल सूचित करें. मृत्यु होने के बाद वाले माह से पैंशन राशि की पैंशन के बैंक खाते से किसी भी प्रकार की निकासी कानूनन अपराध है. यह सही है कि जिंदगी में की गई वसीयत व्यक्ति के मरने के बाद हर प्रकार की कानूनी उलझन से छुटकारे का अचूक दस्तावेज होता है लेकिन इस के न होने की दशा में उपयुक्त तरीके से दावा किया जाना भुगतान प्रकिया को सरल बनाता है.

बैंक खाता और डीमैट खाता

आजकल बैंक खातों में नामित व्यक्ति का होना अनिवार्य है लेकिन कई पुराने खातों में अभी भी नामित किए जाने की प्रक्रिया शेष है. ऐसी स्थिति में या तो मृतक की वसीयत मान्य होती है या फिर दावा करने वाले व्यक्ति की ओर से जमा किया जाने वाला उत्तराधिकार प्रमाणपत्र. वसीयत में खाते के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी होनी जरूरी है. उचित यही है कि यदि आप का कोई भी खाता बगैर नौमिनी के जारी है तो अविलंब किसी को नौमिनी बना दें. डीमैट खाताधारक के लिए भी एक व्यक्ति को नामित करना आवश्यक होता है. क्योंकि इस प्रकार डीमैट खाते का हस्तांतरण आसान हो जाता है. नामिती की स्थिति में डिपौजिटरी के स्तर पर संबंधित कागजी कार्यवाही पूरी करने से शेयरों का हस्तांतरण नामित व्यक्ति के नाम हो जाता है. अगर दिवंगत व्यक्ति का डीमैट खाता किसी अन्य परिजन के साथ संयुक्त रूप से खुला हुआ हो तो डीमैट खाता बंद हो जाता है, भले ही दूसरा व्यक्ति जीवित हो, ऐसे मामले में संयुक्त खाताधारक को अपने नाम एक अलग डीमैट खाता खुलवाना चाहिए. इस के बाद संयुक्त डीमैट खाते से शेयरों का हस्तांतरण इस सिंगल डीमैट खाते में करवाना चाहिए.

म्युचुअल फंड के हस्तांतरण में कंपनियां नामित व्यक्ति या संयुक्त नाम से जारी फंड में से दूसरे नाम में यूनिट को सहजता से जारी कर देती हैं लेकिन इस कार्यवाही के लिए मृत्यु प्रमाणपत्र की प्रति के साथ अपने केवाईसी (नो योर कस्टमर) प्रोफौर्मा और बैंक खाते के विवरण की प्रति म्युचुअल फंड कंपनी के पास जमा करनी पड़ती है. यूनिट के मूल्यांकन के आधार पर नामित व्यक्ति या संयुक्त यूनिटधारक को एक मुआवजा बौंड भी सौंपना पड़ता है.

मृतक की संपत्ति से भुगतान

व्यक्ति की मौत होने की दशा में उस की आय की समीक्षा उस की मौत की अवधि तक ही की जाएगी. यानी उस वर्ष के लिए आयकर का भुगतान व्यक्ति के कानूनी वारिस के जरिए होगा. रिटर्न भी उसी के हस्ताक्षर से फाइल होगा. यह रिटर्न आयकर अधिनियम की धारा 159 के तहत भरा जाता है. हां, यह जानना जरूरी है कि कानूनी वारिस पर मृत व्यक्ति के कर की अदायगी अपने पैसे से करने की जिम्मेदारी नहीं होती. मृत व्यक्ति मृत्यु के वक्त जितने कर का देनदार होता है, उस की वसूली मृतक की संपत्ति से की जाती है. देश के विभिन्न बैंकों में लगभग 56 लाख ऐसे खाते हैं जो खाताधारक की मृत्यु होने अथवा नामिती के अभाव में निष्क्रिय पड़े हैं. अकसर व्यक्ति की मृत्यु होने की महीनों बाद तक उस के दावों संबंधी प्रक्रियाएं पूरी नहीं हो पातीं. बरसों भी लग जाते हैं. इसलिए यह जरूरी है कि हम जीवित रहते ही मरणोपरांत उत्पन्न होने वाली कानूनी प्रक्रियाओं से निबटने के लिए खाका तैयार कर लें.                        

वादविवाद और वसीयत

  1. वसीयत पर हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान करा लेने मात्र से वसीयत मान्य नहीं होती.
  2. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत उत्तराधिकार प्रमाणपत्र ऐसा दस्तावेज होता है जिस के माध्यम से धारक को मृतक की तरफ से (उस के नाम पर देय हों) कर्ज की रकम या प्रतिभूतियां पाने का अधिकार होता है.
  3. आमतौर पर अदालत में अलग सेल होती है जो उत्तराधिकार प्रमाणपत्र जारी करती है.
  4. ज्यादातर मामलों में विवाद तब होता है जब एक ही संपत्ति के एक से ज्यादा दावेदार होते हैं और अलगअलग इलाकों में रह रहे होते हैं.
  5. कुछ समय पहले बौंबे हाईकोर्ट ने भी कहा था कि यदि कोई व्यक्ति आमतौर पर जिस भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, अपनी वसीयत पर उसी भाषा में हस्ताक्षर कर दे तो वह झूठी नहीं हो जाती. गौरतलब है कि अदालत में जमीन से जुड़े विवाद के क मामले में यह फैसला देते हुए उसे वैध करार दिया जब जन्म से सिंधी मेलवानी ने अपनी मातृभाषा गुरुमुखी में हस्ताक्षर किया था. इसी तथ्य को ले कर वसीयत की वैधता पर सवाल उठा था.
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