शीला व दक्ष बहुत पछता रहे हैं. उन्होंने 2 महीने पहले मौर्निंग वौक के दौरान बातचीत में पड़ोसी द्वारा दी गई सलाह पर अमल नहीं किया. उन्होंने चक्कर आने की बात पर तुरंत डाक्टर से संपर्क करने को कहा था. अब बारबार फिट्स यानी चक्कर आने लगे तो डाक्टर को दिखाया. डाक्टर ने कहा कि यदि डेढ़दो महीने पहले दिखा दिया होता तो ट्यूमर मैलिंग्नैंट नहीं होता. अब पति ट्यूमर के औपरेशन होने की बात अपनों से छिपा रहे हैं.
एक हद तक ठीक पर हमेशा नहीं
अकसर लोग इसलिए भी लोगों से बीमारी की बात छिपाते हैं कि पता लगने पर लोगों की प्रतिक्रिया पता नहीं किस रूप में मिले. शायद उन के डराने से ज्यादा आवाजाही से उन का मनोबल टूटे, खर्च बढ़े, जीवन में हस्तक्षेप भी बढ़े और टाइम व क्षमता बंटे. कन्फर्म न हो तो भी लोग रोग की घोषणा नहीं करते, यह एक हद तक ठीक भी है. हमारी परेशानी बढ़ी तो हम औरों की क्यों बढ़ाएं. ढिंढोरा पीटने से क्या कोई समस्या हल होती है. वहीं, समय ऐसा भी आ सकता है कि जब रिश्तेदारों की मदद लेनी जरूरी हो जाती है. वे तभी आप की मदद को आएंगे जब आप उन्हें यह सूचित करेंगे. वीणा कहती है, ‘‘पति को पेट में दर्द था, बात क्या कही कि स्वास्थ्य का हालचाल लेने के नाम से इन के घर वाले हमारे घर आ गए. अब मैं इन्हें देखूं या उन्हें. वे सब ऐसे कि पानी तक हाथ से न लें. उन्हें तो हमारे घर में अड्डा जमाने का जैसे अच्छा मौका मिल गया हो. इस दौरान स्थितियां कटु हो गईं जिन की छाया आज तक महसूस कर रही हूं. हम पर इतना एहसान लादा गया कि जिसे चुकता करना हमारे लिए संभव नहीं है.’’
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स्वर्णिमा कहती है, ‘‘मैं ने पति की बीमारी के बारे में इसलिए किसी रिश्तेदार से नहीं बताया कि वक्त आने पर उन की मदद मिल सके. डाक्टर के मित्र होने के कारण ननदोई को पता चला तो ननद ने हमारे घर आने की इच्छा जाहिर की. मैं ने साफ कहा, ‘‘बिन्नू, हम आप की जरा भी खातिर नहीं कर पाएंगे, आप घरबाहर में से कोई जिम्मा संभाल लें तो ही मदद हो पाएगी.’’ वह बोली, ‘‘हम दोनों आ कर दोनों जगह का काम संभाल लेंगे. आप सिर्फ भाईसाहब का ध्यान रख लो.’’ स्वर्णिमा कहती है कि समय पर उन्होंने सारा तनाव दूर कर दिया.
वंश व उस की पत्नी ऋषिका का मानना है कि हम ने शुरू में ही गांठ की बात बता कर तमाशा ही किया. हर कोई कैंसर के नाम से डराता रहा, हम डरते रहे. अच्छा होता कि बायोप्सी की रिपोर्ट आने तक किसी से कुछ न कहते. वह मामूली गांठ थी, ठीक हो गई. सर्जरी के बाद 15 दिन में जीवन पूर्ववत चलने लगा. मैं तो कहूंगी कि हर गांठ मैलिंग्नैंट नहीं होती पर आप अपने डाक्टर होने से बचें. न बता कर मदद का मौका चूकते मदद दरअसल सामाजिकता का हिस्सा है. कुछ लोग मदद देने की बातें तो खूब करते हैं पर मौके पर नदारद हो जाते हैं. ऐसे में पारिवारिक तथा परिचितों के ‘सपोर्ट सिस्टम’ की असलियत भी पता लग जाती है. पिता ने पुत्र की बीमारी छिपाई. मामूली रोग बता कर हितैषियों को विदा कर दिया. डाक्टर ने 2 बार औपरेशन की बात कही तो आंखें खुलीं. पैसा इतना जल्दी कहां से आता. इंतजार में मरीज की हालत बिगड़ गई. अब वे पछताते हैं कि समय पर कोई न कोई तो मदद करता ही. बाद में लेनदेन हो जाता. लड़का न खोना पड़ता. रिश्तेदार अब ताने मारते हैं कि उन्हें दुखदर्द बताने लायक न समझा. वे कहते हैं कि वे कब काम नहीं आए, जो इस बार उन्हें मक्खी की तरह छिटक दिया गया. कुछ भी कर लो पर बेटा तो जिंदा नहीं मिल सकता.
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घर वालों व डाक्टरों से छिपाते
रोगों को पति व पत्नी और मांबाप तक से छिपाने का चलन भी है. तर्क यह दिया जाता है कि उन्हें पता चलेगा तो तकलीफ होगी. लेकिन जब रोग बढ़ेगा तो क्या तब भी घर वालों को मालूम नहीं होगा? इन स्थितियों से प्रिय रिश्तों में दरार भी पड़ जाती है. पत्नी को लगता है उसे किस कारण से पति ने इस लायक न समझा. मांबाप को भी ऐसी ही व्यथा साल सकती है. रिश्ता कोई भी हो, ये स्थितियां तनाव, खीझ और कुंठा का कारण बनती हैं. कुछ लोग डाक्टर तक को साफसाफ नहीं बताते. कभी कुछ कभी कुछ. डाक्टर तो अपना काम अपने तरीके से जांच कर के करते ही हैं पर उन्हें समय पर मैडिकल हिस्ट्री व जांच रिपोर्ट आदि उपलब्ध करा दी जाएं तो इलाज करने में आसानी हो जाती है और समय भी कम लगता है. संभव हो तो हर व्यक्ति को अपनी मैडिकल डायरी रखनी चाहिए ताकि वे न बताएं तो भी डाक्टर उस सामग्री से समझ लें. राधा प्रसूति कल्याण केंद्र में कार्यरत हैं. वे कहती हैं, ‘‘लगता है हिंदुस्तान में बीमारी को छिपाना अलग से ही कोई बीमारी है, महिलाओं को तो खासतौर पर. हमें एकएक महिला से कईकई प्रश्न पूछने पड़ते हैं तब किसी छोटी सी बात का पता लगता है. हां-हूं में जवाब मिलता है, डिटेल नहीं बताई जाती. वाइट डिस्चार्ज या गुप्त रोगों या प्रसूति रोगों में तो केवल पूछनेपाछने में ही मरीज पर बहुत समय लग जाता है. गलत इलाज, गलत डोज आदि की स्थितियों में छिपाने की प्रवृत्ति कारक होती है. दोष किसी के भी मत्थे मढ़ा जाए, नुकसान मरीज को ही भुगतना पड़ता है. इलाज के लिए डाक्टरफ्रैंडली व्यवहार मरीज के लिए और मरीजफ्रैंडली व्यवहार डाक्टरों के लिए बेहद जरूरी है.
मरीज से रोग छिपाते डाक्टर
कैंसर ट्यूमर आदि रोगों को जान कर ही मरीज को झटका लग जाता है. ऐसे में उस में रोग से लड़ने की क्षमता कैसे पैदा की जाए, इसलिए उस की मनोस्थिति देख कर खुलासा किया जाता है. उस की काउंसलिंग भी की जाती है. मरीज की जीवन पद्धति को भी नए सिरे से सैट किया जाता है.
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रोग छिपाए नहीं छिपते
सालों साल से समाज में प्रचलित कहावतों का महत्त्व यों ही नहीं है. यह सच है कि रोगों को छिपाया जाए तो भी उजागर हो ही जाते हैं. हां, जब तक रोग आप छिपाए रख पाते हैं तब तक दूसरों की मदद से वंचित ही रहते हैं. मीना ने अपना गर्भाशय छोटा होने की बात नहीं छिपाई. उसे बच्चों से बेहद प्यार था. वह घर में स्कूल चला कर पूरी कमाई बच्चों पर खर्च कर देती थी. शादी के लिए उस ने पहल की, लड़कों को खुल कर बताया. आखिरकार मर चुकी एक महिला के 2 बच्चों के पिता से उस ने शादी कर ली और खुश है. उन बच्चों को अपनी जान का टुकड़ा मानती है. हर स्थिति रोगजन्य हो कर भी जीवन पर भारी नहीं हो सकती. जो है सो है, उस से डरना क्या, छिपाना क्या.बहरहाल, व्यक्ति के पास हमेशा सैकंड-थर्ड ओपिनियन की गुंजाइश रहती है. कोई स्थिति छिपाए तो भी कभी न कभी खुलासा हो सकता है. विदेशों में लोग खुल कर रोग का जिक्र और इलाज कराते हैं. स्थितियों को जान कर भी एकदूसरे को अ पनाते हैं. वहीं, रोग छिपाने से वह बढ़ सकता है. समय पर रोग की जांच व इलाज जरूरी है. ‘कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता’ जैसी स्थितियां कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है कि यह कितनी घातक व अपने प्रति कितनी नाइंसाफी है.