भारतीय जनता पार्टी के असली रंग अब सामने आने लगे हैं और विकास की बातों की जगह विनाश की बातें लेने लगी हैं. नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की इस परिवर्तन में रजामंदी है या नहीं यह तो पता नहीं चलेगा पर वैरभाव की जो हवा जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं ने तैयार की, जिस से पाखंडपने को पूरे तौर पर देश पर लागू करा जा सके, उस ने अपना काला रंग दिखाना शुरू कर दिया है. उत्तर प्रदेश के दादरी में गोमांस को ले कर मोहम्मद अखलाक की पीटपीट कर हुई हत्या के बाद मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के चिंतक सलाहकार रहे सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर काला पेंट पोतने की घटना चाहे केंद्र सरकार की साजिश का नतीजा हो या न हो, यह उस व्यापक नीतिगत वातावरण का परिणाम है जिस में समाज को हिस्सों में बांटा जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने बहुत सरलता से गांवों और शहरों में पिछड़ों का एक ऐसा वर्ग तैयार कर लिया है जो धर्म के नाम पर आतंक फैलाने को तैयार है. चाहे ये पिछड़े वही हो जो खुद हिंदू वर्ण व्यवस्था के सदियों तक शिकार रहे हैं पर साथ ही जमींदारों और महंतों के लठैत भी रहे हैं और उन्हीं के बल पर राजाओं, उमरावों और मंदिरों ने अपना राज गांवगांव में कायम किया था.

यह वर्ग पहले कांगे्रस का साथ दे रहा था और वहां कुछ न पा कर समाजवादी दलों के पास चला गया था. अब इन के युवा भाजपा में घुस कर भगवा झंडे में अपने उद्धार की आस में मारपीट पर उतारू हो रहे हैं. पूरे देश में धर्म के नाम पर जो दंगे, फसाद व विवाद हो रहे हैं उन में यही वर्ग ज्यादा मुखर है जो खुद राजा से भी ज्यादा राजा का भक्त बनने की कोशिश कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के पहले आस जगाई थी कि देश के विकास का, आर्थिक विकास और प्रशासनिक विकास का मुद्दा उस के लिए मुख्य होगा और उन्हीं के सहारे भारत अपना गौरव प्राप्त कर लेगा. नरेंद्र मोदी ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जिस में काम करना आसान होगा, भ्रष्टाचार न होगा और जीवन स्तर सुधरेगा. अब हर रोज देश एक नए विवाद में उलझ रहा है. सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और व्यापमं कांडों ने जहां भ्रष्टाचार की पोल खोल दी वहीं हाल की धार्मिक कट्टरता की घटनाओं ने विकास की आशाओं को धूल में मिला दिया. नरेंद्र मोदी ने जिस मेहनत से दुनिया भर में नए उदय होते भारत की तसवीर खींची थी उस पर कुछ ही सप्ताहों ने तालिबानी रंग पोत दिया और दुनिया, जो पहले ही इसलामी आतंक से भयभीत थी, भारत के प्रति भी आशंकित होने लगी है.

यह कोई नई बात नहीं है. इस देश में यही होता रहा है. 1947 के बाद गांधी और नेहरू के वादे नेहरू की समाजवादी सोच और कांग्रेस के कट्टरवादी हिंदू नेताओं के कारण ढह गए थे. 1977 में आपात स्थिति के बाद जनरोष का लाभ जनता पार्टी उठा न पाई. 1984 में राजीव गांधी ने देश की अखंडता के लिए मिले समर्थन को डुबो दिया और वे बोफोर्स घोटाले का शिकार हो गए. 2014 के नरेंद्र मोदी के सपनों को उन्हीं की पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता पीटपीट कर अधमरा कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व नहीं जानता कि जिस धार्मिक कट्टरता के जिन्न को उन्होंने बोतल से निकाला था, उसे बोतल में फिर बंद कैसे करे.

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