भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का खास स्थान है. शाकाहारी भोजन में प्रोटीन का मुख्य जरीया होने के कारण दलहनी फसलों का महत्त्व काफी बढ़ जाता है. चना, मूंग, मोठ, उड़द, अरहर व सोयाबीन वगैरह खास दलहनी फसलें हैं. दलहनी वर्ग की इन सभी फसलों में प्रोटीन काफी मात्रा में होने के कारण इन में नाइट्रोजन की भी जरूरत पड़ती है. इन फसलों में नाइट्रोजन की मात्रा की पूर्ति वायुमंडल में मौजूद आण्विक नाइट्रोजन से हो जाती है. दलहनी फसलों की जड़ ग्रंथियों (गांठों) में पाए जाने वाले राइजोबियम जीवाणु वायुमंडल की स्वतंत्र नाइट्रोजन को यौगिकीकृत कर के पौधों को मुहैया कराते हैं. इस कारण इन फसलों को ज्यादा नाइट्रोजन की जरूरत नहीं पड़ती है. परंतु जमीन में मौजूद राइजोबियम जीवाणुओं को पौधों की जड़ों पर ग्रंथियां बनाने में 20 से 30 दिनों का समय लगता है. इसलिए इस समय पौधों की बढ़वार व जड़ ग्रंथियों के विकास के लिए उर्वरक नाइट्रोजन का इस्तेमाल करना फायदेमंद रहता है. इसलिए बोआई के समय सिंचित क्षेत्रों में 20 किलोग्राम व असिंचित क्षेत्रों में 10 किलोग्राम नाइट्रोजन का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

राइजोबियम कल्चर की विधि : 1 लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ डाल कर गरम कर के घोल बनाएं और ठंडा होने पर इस में 3 पैकेट राइजोबियम कल्चर मिलाएं. घोल को धीरेधीरे लकड़ी के डंडे से हिलाते रहें. इतना घोल 1 हेक्टेयर में बोए जाने वाले बीजों के उपचार के लिए पर्याप्त होता है. इस घोल को बीजों पर धीरेधीरे इस तरह छिड़कना चाहिए कि घोल की परत सब बीजों पर समान रूप से चिपक जाए. इस के बाद इन बीजों को छायादार स्थान पर सुखाना चाहिए. ध्यान रखें कि बीज आपस में चिपके नहीं. बीजों की बोआई कुछ घंटों के बाद ही कर देनी चाहिए.

राइजोबियम कल्चर के लाभ

*      राइजोबियम जीवाणु वातावरण की स्वतंत्र नाइट्रोजन को पौधों तक पहुंचाते हैं, लिहाजा दलहनी फसलों को अलग से नाइट्रोजन देने की जरूरत नहीं रहती है.

*      जीवाणुओं के द्वारा यौगिकीकृत नाइट्रोजन कार्बनिक रूप में होने के कारण इस का क्षय कम होता है, जबकि नाइट्रोजन वाले उर्वरकों का एक बड़ा हिस्सा तमाम कारणों से इस्तेमाल नहीं हो पाता है. यह राइजोबियम जीवाणुओं द्वारा पौधों को मिल सकता है.

*      दलहनी फसलों की जड़ों में मौजूद जीवाणुओं द्वारा जमा की गई नाइट्रोजन अगली फसल में इस्तेमाल हो जाती है.

*      राइजोबियम कल्चर के इस्तेमाल से चना, अरहर, मूंग व उड़द की उपज में 20-30 फीसदी व सोयाबीन की उपज में 50-60 फीसदी तक का इजाफा होता है.

*      चारे वाली फसलें जैसे बरसीम व रिजका वगैरह में प्रोटीन का संचयन अधिक होता है और जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है.

*      जीवाणु खाद के इस्तेमाल से दलहनी फसलें हर साल मिट्टी में  नाइट्रोजन जमा करती हैं, जिस से उर्वरक पर होने वाला खर्च कम होता है.

सावधानियां

*      हर दलहनी फसल में एक खास प्रजाति के कल्चर का ही इस्तेमाल करें. अन्य फसल के कल्चर का इस्तेमाल करने से जड़ों में गांठें नहीं बनेंगी और कल्चर का फायदा फसल को नहीं मिलेगा.

*      पैकेट पर लिखी आखिरी तारीख से पहले ही कल्चर का इस्तेमाल करें. पुराने पैकेटों में जीवाणु नष्ट हो जाते हैं.

*      पैकेटों को बोआई से पहले ही खोलना चाहिए और बीजोपचार के फौरन बाद ही बीज बो देने चाहिए या किसी छायादार जगह पर सुखाने के कुछ देर बाद ही बो देने चाहिए.

*      यदि बीजों को कीटनाशक व फफूंदनाशक रसायनों से उपचारित किया जाना हो तो पहले फफूंदनाशक, फिर कीटनाशक और अंत में राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए.

*      गुड़पानी के गरम घोल में राइजोबियम कल्चर का पैकेट नहीं डालना चाहिए.

कुल मिला कर नतीजा यही निकलता है कि दलहनी फसलों से ज्यादा पैदावार हासिल करने के लिए बीजों को मुनासिब राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर के ही बोआई करनी चाहिए.

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