विश्व के कई देशों में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है. भारत गृहयुद्ध की आग में तो नहीं जल रहा लेकिन देश के तकरीबन हर हिस्से में अकसर हिंसा हो जाती है. इस हिंसा के भिन्नभिन्न कारण होते हैं. इन में धर्म, जाति, भेदभाव की भूमिकाएं ज्यादा शामिल रहती हैं. हिंसा के बाद सरकारी रवैया ऐसा उभरता है कि जिस के चलते माहौल में तनाव और भी ज्यादा हो जाता है. देशविदेश के कुछ ऐसे ही हालात पर यहां एक सरसरी नजर डालते हैं. हरियाणा के फरीदाबाद जिले के अटाली गांव में मसजिद निर्माण को ले कर जाटों और मुसलमानों के मध्य हुए झगड़े में कई लोग घायल हो गए. गांव की मसजिद, दुकानों, घरों में तोड़फोड़ की गई. सैकड़ों लोगों को गांव से पलायन करना पड़ा.अटाली की आग ठंडी होने को थी कि पलवल में आगजनी, तोड़फोड़, पत्थरबाजी और हिंसा शुरू हो गई. इसी बीच महाराष्ट्र के नासिक के निकट हरसुल में आदिवासियों और मुसलमानों के बीच हुई लड़ाई में 2 लोग मारे गए और कई जख्मी हुए. 20 दुकानें जला दी गईं और कई घरों को लूट लिया गया.
जमशेदपुर के मानगो क्षेत्र में छेड़छाड़ की एक घटना ने तोड़फोड़, बंद, जुलूस, कर्फ्यू का रूप अख्तियार कर लिया. शहर के लोगों को 2 हफ्ते तक तनाव व दहशत में रहना पड़ा.जूनजुलाई महीनों में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में पिछड़े वर्ग की एक लड़की द्वारा दलित युवक से प्रेमविवाह करने पर गांव में दोनों वर्गों के बीच झगड़ा फैल गया. पिछले साल मुजफ्फरनगर, मेरठ जिलों में जाटों और मुसलमानों के बीच हुए झगड़े में 47 लोग मारे गए थे. 10 हजार लोग गांवघर छोड़ कर अन्यत्र चले गए. हजारों लोगों को महीनों तक शरणार्थी कैंपों में रहना पड़ा. इन इलाकों में महीनों तक सुरक्षा बलों को तैनात रहना पड़ा.देश के 18 राज्यों में नक्सली फैले हुए हैं. आएदिन हिंसक वारदातें हो रही हैं. आरक्षण को ले कर देश के कई हिस्सों में तनाव बरकरार है. गुजरात में पटेल (पाटीदार) पिछड़े वर्ग में शामिल होने के लिए सड़कों पर हैं तो हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में जाट ओबीसी का दरजा हासिल करने के लिए रेल, सड़क रोकने के लिए आमादा हैं. पहले से जो जातियां ओबीसी में हैं उन जातियों का जाटों और पटेलों से टकराव चल रहा है. राजस्थान में गुर्जर और मीणा जातियों का आरक्षण के लिए टकराव बना हुआ है. यह टकराव पिछले 7 सालों की देन है जब गुर्जरों ने खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग पर आंदोलन शुरू कर दिया था. मीणा जाति वाले नहीं चाहते कि उन के हक का आरक्षण बंटे. अपने ही देश में, अपने ही लोगों से पुलिस व अन्य सुरक्षा बलों को निबटना पड़ता ही है, कई जगहों पर तो सेना को लगाना पड़ा है.
पिछले ढाईतीन दशक से देश में इस तरह की जातीय, धार्मिक हिंसा की वारदातों में वृद्धि हुई है. अब आएदिन इस तरह की घटनाएं आम हो गई हैं. आंकड़े बताते हैं कि देश के भीतर हर साल जातीय, धार्मिक घटनाओं में हजारों लोग मारे जाते हैं, हजारों घायल होते हैं, सैकड़ों के घरबार छूट जाते हैं, वे दरबदर होने पर मजबूर हो जाते हैं. और इन सब से अरबों की संपत्ति नष्ट हो रही है. ताजा सर्वे बताता है कि भारत में पिछले 2 सालों से धार्मिक हिंसा के मामले तेजी से बढे़ हैं. पिछले साल की तुलना में 24 प्रतिशत घटनाएं बढ़ी हैं और 65 प्रतिशत मौतों में वृद्धि हुई है. केंद्रीय गृहमंत्रालय द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, जनवरी से मई तक 43 मामले केवल सांप्रदायिकता से जुड़े हैं. इन में 961 लोग जख्मी हुए जबकि मई 2014 में ऐसी घटनाएं 26 थीं और घायलों की संख्या 701 थी. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और हरियाणा में ज्यादा घटनाएं हुईं. एक ही धर्म में होने वाले मामले इस में शामिल नहीं हैं. इस के आंकड़े ज्यादा मिलेंगे. देश की शिक्षण संस्थाओं पर धार्मिक, जातीय भेदभाव, विचारधाराओं को संरक्षण देने के आरोप लगते रहते हैं. पहले आईआईटी दिल्ली और अब पुणे स्थित भारतीय फिल्म एवं टीवी प्रशिक्षण संस्थान पर भगवाकरण के आरोप हैं. भारतीय इतिहास अनुसंधान संस्थान तो हमेशा निशाने पर रहा है.
हिंसा और नस्लभेद
यह हालत गृहयुद्ध जैसी है जो अभी पनप रही है. भारत में ही नहीं, ऐसी स्थिति दुनियाभर में है. अमेरिका में आएदिन नस्लीय हिंसा की वारदातें सामने आ रही हैं. ताजा घटनाक्रम में दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन शहर में अश्वेतों के पुराने चर्च में डायलन रूफ नाम का एक श्वेत युवक घुस गया और उस ने गोलियां बरसा कर 9 लोगों को मार डाला. पिछले साल फर्ग्युसन शहर में अश्वेत युवक माइकल ब्राउन की पुलिस द्वारा हत्या और फिर ग्रै्रंड ज्यूरी के आए फैसले के मद्देनजर कई शहरों में आग भड़क उठी थी. अमेरिकी अदालतों पर नस्लीय मानसिकता से ग्रस्त हो कर फैसले सुनाने के आरोप लगने लगे थे. शायद इसीलिए बराक ओबामा को कहना पड़ा था कि अश्वेत अमेरिकियों और न्यायिक प्रक्रिया के बीच अभी और सुधारों की जरूरत है पर इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई है.
भारतीयों के साथ भी लगातार नस्लभेद की घटनाएं सामने आ रही हैं. 2 साल पहले विस्कोंसिन गुरुद्वारे (अमेरिका) पर हुए हमले में खून बहा था. इस तरह की बढ़ती घटनाओं के बाद ओबामा ने देश में बंदूक रखने के अधिकार पर सवाल उठाया. अमेरिका में इन घटनाओं के बाद एक अमेरिकी थिंक टैंक का कहना है कि अमेरिका में आतंकवाद से ज्यादा नस्लभेद में लोग मारे जा रहे हैं. हैरानी यह है कि अपने ही धर्म के लोग आपस में ऊंचनीच के भेद के चलते भी एकदूसरे को मार रहे हैं. बराक ओबामा दूसरी बार जब अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे तब धारणा बनी थी कि गोरों और कालों के बीच नस्लभेद खत्म हो जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ. ओबामा को मूल अमेरिकियों के मात्र 20 फीसदी वोट मिले थे. इस के विपरीत 39 प्रतिशत वोट गैर गोरे अमेरिकियों के मिले थे. उन में अफ्रीकी और एशियाई लोगों के थे. बावजूद इस के, नस्लीय वारदातों में बढ़ोतरी हुई है.
अमेरिका में हुए एक सर्वे के अनुसार वोटों के हिसाब से आशंका पैदा हुई थी कि वहां रंगभेद की खाई निरंतर चौड़ी हो रही है. रंगभेद वहां नई बात नहीं है. पिछले 125 से अधिक सालों से अमेरिका नस्लवाद का दंश झेल रहा है. 1965 से पहले तक अश्वेतों को नागरिक अधिकारों से वंचित रखा गया. इस साल पहली बार उन्हें मताधिकार दिया गया. कालों के साथ बुरा बरताव बरता जाता रहा है. दोनों के बीच सामाजिक, आर्थिक असमानता बनी हुई है. वहां गरीबी रेखा से नीचे गुजरबसर करने वाले 80 प्रतिशत लोग अश्वेत हैं. वहां की जेलों में अपराधियों की कुल तादाद में करीब आधे काले लोग हैं, इसीलिए भेदभाव, गैरबराबरी को ले कर आएदिन आपस में हिंसा होती रहती है. भारत में भी यही हाल है. यहां मृत्युदंड पाए तीनचौथाई कैदी पिछले वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक हैं. जेलों में बंद 75 प्रतिशत आर्थिक तौर पर कमजोर और 93.50 प्रतिशत सजायाफ्ता दलित व अल्पसंख्यक ही हैं. अमेरिका की तरह भारत के लीगल सिस्टम में भी जाति, धर्म, अमीर, गरीब का भेदभाव है.
ओबामा को देश के सर्वोच्च पद पर बैठाने के बावजूद गोरों को श्रेष्ठ ठहराने का संगठित आंदोलन चल रहा है. यहां ‘एंड एपैथी’ जैसे श्वेतों के कट्टर संगठन नफरत, हिंसा फैलाने में लगे हैं. कहा जा रहा है कि ऐसे संगठनों को दक्षिणपंथी बंदूक लौबी का समर्थन मिल रहा है. लिहाजा, अमेरिका में उग्रवादी श्वेतों के निशाने पर अफ्रीकी, हिंदू, सिख और मुसलिम आ रहे हैं. नस्लभेद की खाई कम होने के बजाय, और चौड़ी हो रही है. सामाजिक विज्ञानियों का मानना है कि इस नफरत के पीछे गैरअमेरिकियों यानी अफ्रीकी और एशियाईर् देशों से वहां जा बसे लोगों का वहां के बौद्धिक क्षेत्र में लगातार कब्जा करते जाना है. इन गैरअमेरिकी लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. जाहिर है नस्लभेद की सोच से अमेरिका मुक्त नहीं हो पा रहा है. यूएस डिपार्टमैंट औफ जस्टिस के तहत ब्यूरो औफ स्टैटिस्टिक्स, 2010 के अनुसार, 62,593 काले लोग गोरों की हिंसा से पीडि़त हुए थे.
विश्व के सब से पुराने लोकतंत्र में नस्लभेद की यह सब से बदरंग तसवीर है. इस तरह के हालात देख कर राष्ट्रपति ओबामा को कहना पड़ा था कि अमेरिका में काफी तरक्की के बाद भी नस्लभेद हमारे डीएनए में बना हुआ है. यह अमेरिका के विघटन का कारण बन सकता है. नेपाल में हिंदू राष्ट्र की मांग उठ रही है. वहां सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता हिंदू हैं. वे संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाना चाहते हैं. वहां निचली और पिछड़ी जातियों के बीच खूनी घटनाएं हो रही हैं. नेपाल में माओवाद ऊंचनीच से उत्पन्न हुआ है. वहां 2 दशकों में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. यूक्रेन बहुसांस्कृतिक देश है. वहां यहूदी, रशियन और रोमनी समुदायों के बीच गृहयुद्ध के हालात हैं. यहां ईसाई समुदाय के 2 गुटों में हिंसा इसलिए हो रही है कि दोनों अलगअलग चर्चों को मानने वाले हैं. पूर्वी यूरोप में स्थित यूक्रेन की सीमा एक तरफ पूर्व में रूस की तरफ लगती है. अरसे पहले रूस से यहां जा बसे लोग और पश्चिम में रहने वाले नागरिक दोनों अलगअलग चर्चों को मानते हैं. इस कारण उन के बीच हिंसा चल रही है. रब्बी और यहूदी छात्रों के बीच झगड़ा है. दोनों के अलगअलग चर्च और कब्रिस्तान हैं और एकदूसरे के सांस्कृतिक केंद्रों को तोड़फोड़ रहे हैं.
स्कौटलैंड में 2009-10 में नस्लीय हिंसा के 5 हजार मामले दर्ज हुए थे और अब ये बढ़ रहे हैं. फ्रांस में जातीय, नस्लीय भेदभाव की घटनाएं हो रही हैं. अरब देशों में मुसलमानों में शिया और सुन्नी के बीच पुरानी खूनी रंजिश चली आ रही है. सीरिया, सूडान, मिस्र, इराक, लीबिया में एक ही धर्म के लोग आपस में लड़ रहे हैं.
धर्मजनित खूनी संघर्ष
इराक शिया और सुन्नी में बंटा हुआ है. इराक में कर्बला और नजफ शियाओं के 2 पवित्र नगर माने जाते हैं. प्रथम विश्व युद्ध के बाद शिया बाहुल्य वाले इराक पर सुन्नियों का शासन था. इराक पर अमेरिकी हमले में सद्दाम हुसैन के खात्मे के बाद अमेरिका ने यहां शियाओं का शासन कायम करा दिया. इस के बाद इन दोनों के बीच खूनी संघर्ष चल रहा है. सीरिया में अल्पसंख्यक शियाओं की सरकार है. शिया खुद को इसलामिक स्टेट का विरोधी कहते हैं. वहां आईएस जैसे संगठन दूसरे धर्म के अनुयायियों को तो मार ही रहे हैं, अपने धर्म के दूसरे पंथ वालों को भी खत्म कर रहे हैं. नाइजीरिया में 1990 से 2007 तक 20 हजार लोग धर्म के नाम पर मरमिटे. मुसलिम और ईसाई तथा आपस के एक ही धर्म की 2 संस्कृतियों के बीच झगड़ा आम है.
इसराईल, लेबनान, जोर्डन इसलामिक स्टेट की खूनी गिरफ्त में हैं. श्रीलंका में 1983 से सिंहली और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच युद्ध चल रहा है. हजारों लोग मारे जा चुके हैं. पाकिस्तान में आतंकवादियों के निशाने पर हर कोई है. शिया और सुन्नी का संघर्ष जारी है ही. पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक परवेज कियानी को कहना पड़ा कि आतंकवाद से लड़ें, नहीं तो गृहयुद्ध की स्थिति हो सकती है. आस्ट्रेलिया में जुलाई में नस्लभेद का मामला सुर्खियों में रहा. 3 साल की समारा अपनी मां रसेल मुई के साथ डिज्नी की थीम पर आधारित एक प्रतियोगिता में महारानी एल्सा बनी पहुंची थी. वह कतार में खड़ी हो कर जजों के बुलावे का इंतजार कर रही थी. तभी एक महिला आई और उस से बदसलूकी करने लगी. बच्ची को झिंझोड़ते हुए कहा कि तुम ने महारानी एल्सा का वेश क्यों धारण किया. एल्सा तो तुम्हारी तरह अश्वेत नहीं थीं. बच्ची की मां रसेल ने जब महिला का विरोध किया तो उस की बेटियां आगे आ गईं और समारा की ओर उंगली दिखाते हुए बोलीं कि तुम अश्वेत हो और अश्वेत लोग बदसूरत होते हैं. महिला और उस की बेटियों का सलूक देख कर बच्ची रोने लगी और प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से मना कर दिया. मामला मीडिया में खूब उछला और दुनियाभर में नफरत व नस्लभेद की इस घटना की खूब आलोचना की गई.
ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटैस्टैंट के बीच ही नहीं, इन के भीतर और्थोडौक्स, इवैंजल चर्चों के बीच भी हिंसा व्याप्त है.
श्रेष्ठता की होड़
भारत के हिंदुओं में लगभग 60 हजार जातियां, उपजातियां हैं. पिछड़ी, निचली जातियों में कई भेद हैं और ये आपस में खुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में लगी रहती हैं. धर्मों में हिंदू के अलावा मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी, जैन में एकदूसरे के बीच नहीं, एक ही धर्म में कई पंथ हैं और ये एकदूसरे के कुप्रचार, आपसी मारपीट में लगे रहते हैं. बौद्धों में हीनयान, महायान, जैनियों में श्वेतांबर और दिगंबर भारतभूमि में शैव और वैष्णवों के बीच हिंसा का इतिहास रहा है. रामायण में ब्राह्मण परशुराम द्वारा 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त करने की बात कही गई है. 1947 में भारत विभाजन के वक्त हजारों का कत्लेआम गृहकलह का नतीजा था. 1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन में हजारों लोग मारे गए थे. बाद में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजे आक्रोश में 10 हजार से ज्यादा लोगों की हत्या हुई.
फरवरी 1981 में फूलन देवी ने उत्तर प्रदेश के बेहमई गांव के 22 ठाकुरों को गोलियों से भून दिया था. बाद में दलित फूलन समर्थकों और ठाकुरों के बीच वर्षों बदले की भावना में कई खून हुए. आखिर एक ठाकुर युवक ने सांसद बन चुकी फूलन की गोली मार कर हत्या कर दी. बिहार में सालों से ऊंची जाति के भूमिहारों के संगठन रणवीर सेना की दलितों के साथ खूनी रंजिश चलती रही है. जुलाई 1996 में रणवीर सेना ने 21 दलितों को भोजपुर के बढ़ानी टोला में मार दिया था. 1997 में बाथेपुर और संकरबीघा में अगड़ों की इस सेना ने 81 दलितों को मार डाला था. इस से पहले निचली जातियों के नक्सलियों ने ऊंची जाति के भूमिहार व अन्य जातियों के 500 लोगों की जानें ले ली थीं. महाराष्ट्र में मुंबई की रमाबाई दलित कालोनी में अंबेडकर की प्रतिमा तोड़ने पर पुलिस फायरिंग में 10 लोग मारे गए और 26 घायल हो गए थे. अगड़ी और निचली जातियों के बीच प्रदेश में आएदिन झगड़े की वारदातें होती रहती हैं. सितंबर, 1996 में महाराष्ट्र की बहुचर्चित खैरलांजी घटना में पिछड़ी कुनबी जाति के लोगों ने 4 महार दलितों की नृशंस हत्या कर दी थी. भंडारा जिले में खैरलांजी गांव में दलित महिलाओं को नंगा कर गांव में घुमाया गया था. दोनों जातियों के बीच तनाव कायम रहा.
पंजाब में सिखों में ही जटसिख और रामदासिया के बीच खूनखराबा जारी है. दोनों के अलगअलग गुरुद्वारे बने हुए हैं. 2011 में हरियाणा के मिर्चपुर में जाटों की भीड़ ने 2 दलितों को जिंदा जला दिया था. दर्जनों घरों में आग लगा दी गई और लूटपाट की गई. गांव के दलित आज तक वापस लौटने की हिम्मत नहीं कर पाए हैं. राजस्थान में 1999 से 2002 के बीच दलितों पर अत्याचार के औसत 5024 मामले सामने आए. इन में 44 हत्याएं और 138 बलात्कार की घटनाएं थीं. गुजरात में 2002 के दंगों में एक हजार लोग मारे गए थे. इन में ज्यादातर मुसलिम थे. इस से पहले गोधरा में 50 हिंदू मारे गए. बाबरी मसजिद विध्वंस के बाद मुंबई में हुए बम विस्फोटों में 200 से अधिक लोग मारे गए.
कब लेंगे सबक
दक्षिण भारत में भी निचली और पिछड़ी जातियों के बीच संघर्ष चला आ रहा है. यह सब धर्म की सीख के प्रचारप्रसार के बावजूद हो रहा है. हर धर्म में हजारों नए धर्मगुरु पैदा हो गए हैं जो अपने अनुयायियों को धर्म के रास्ते पर चलने की सीख देते रहते हैं. यह धर्म का रास्ता कैसा है जहां आपस में प्रेम, शांति, भाईचारे की जगह परस्पर एकदूसरे की जानें ली जा रही हैं. साफ है जातीय, धार्मिक, नस्लभेद दुनिया की कड़वी सचाईर् है. धर्म ने मानवता को अलगअलग ही नहीं किया, खत्म भी किया. भारत में गृहयुद्ध जैसी यह स्थिति मुगलों और अंगरेजों के समय भी थी लेकिन उन शासकों ने गृहयुद्ध को थामे रखा. जाट, मराठा शासकों ने कुछ नहीं किया. मराठा तो ब्राह्मणों के पिछलग्गू बने रहे. हिंदू शासक खुद बंटे रहे और अपनाअपना साम्राज्य विस्तार तथा एकदूसरे को लूटने में जुटे रहे. आजादी के बाद आई सरकारों ने जाति, धर्म की हिंसा से कोई सबक नहीं लिया जबकि वोटों के लिए जातिवाद को प्रश्रय दिया. जातीय, धार्मिक संगठन खड़े हो गए. हिंदुओं में आजादी से पहले की हिंदू महासभा, मुसलिम लीग, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बाद में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, जमात-ए-इस्लाम के साथसाथ अन्य कई जातियों के संगठन बने और मजबूत होते गए. इन के नेता बेखौफ हो कर एकदूसरे के खिलाफ आग उगलने लगे.
दलितों और पिछड़ों को लीडरशिप तो मिल गई पर वे खुद को ब्राह्मण समझने लगे और अपनी ही जातियों के अंदर एक नई वर्णव्यवस्था कायम कर ली. दलितों में जो थोड़ा ऊपर उठ गए वे सवर्ण बन बैठे, पिछड़ों में जिन के पास पद, पैसा आ गया, वे ब्राह्मण बन गए. वे अपनी जाति के गरीबों पर अत्याचार करने में जुट गए. असल में यह हिंसा इसलिए बढ़ रही है क्योंकि अब समाज में विचारकों की कमी हो गई है. जो बचे हैं उन की आवाज दबी पड़ी है. आगे बढ़ने की अंधी होड़ में हम अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं. दूसरा, सरकारों ने निचली जातियों की परवा करनी छोड़ दी है. अब सरकारें अमीरों, कौर्पोरेटों के साथ हो गई हैं. हिंसा करने वाली जातियां और संप्रदायों को रोकना अब मुश्किल है. 18 फीसदी मुसलिमों को रोकना आसान नहीं है, पिछड़ों में ताकतवर जाटों, यादवों, ऊंचे पद और पैसा पा गए दलितों को दबाना अब मुश्किल हो गया है. जातियों की आपसी हिंसा पैसा और राजनीतिक ताकत के बल पर बढ़ रही है. क्या अब देश में गृहयुद्ध के हालात को रोका जा सकेगा?
बदलाव की दरकार
हर देश में धार्मिक, जातीय, सांप्रदायिक संगठन मजबूत हो रहे हैं. इन्हें सरकारों और राजनीतिक दलों का भरपूर समर्थन मिल रहा है. लोग धर्र्म परिवर्तन कर लेते हैं पर वे अपनी सोच नहीं बदलते. एक ही धर्म होने के बावजूद अलगअलग जातियों का अलगअलग आंगन, मैदान, कुआं, नल, तालाब, पूजा का स्थान होगा. यह हर धर्म में है. मजे की बात यह है कि मजहब, जाति, हिंसा की प्राचीनतम मानसिकता, विचारों को नए वैज्ञानिक युग की आधुनिक विचारधारा भी नहीं तोड़ पाईर् है. ऐसे में भारत सहित दुनिया में चल रहे गृहयुद्ध के हालात कैसे खत्म होंगे, यह सवाल बना हुआ है. गृहयुद्ध की स्थिति से उबरने के लिए देश को जातियों, धर्मों के बीच व्याप्त असंतोष को खत्म करना होगा. हर व्यक्ति को, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, वर्ग से ताल्लुक रखता हो, बराबरी का हक मिले. समानता का व्यवहार मिले लेकिन धर्म, जाति का स्वभाव इस के विपरीत गैर बराबरी वाला है. इस व्यवहार में बदलाव से ही शांति, तरक्की कायम हो सकती है.