संजीव का फोन आया था कि वह दिल्ली आया हुआ है और उस से मिलना चाहता है. मुकेश तब औफिस में था और उस ने कहा था कि वह औफिस ही आ जाए. साथसाथ चाय पीते हुए गप मारेंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे. संजीव और मुकेश बचपन के दोस्त थे, साथसाथ पढ़े थे. विश्वविद्यालय से निकलने के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए थे. मुकेश ने प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से केंद्र सरकार की नौकरी जौइन कर ली थी. प्रथम पदस्थापना दिल्ली में हुई थी और तब से वह दिल्ली के पथरीले जंगल में एक भटके हुए जानवर की तरह अपने परिवार के साथ जीवनयापन और 2 छोटे बच्चों को उचित शिक्षा दिलाने की जद्दोजहद से जूझ रहा था. संजीव के पिता मुंबई में रहते थे. शिक्षा पूरी कर के वह वहीं चला गया था और उन के कारोबार को संभाल लिया. आज वह करोड़ों में नहीं तो लाखों में अवश्य खेल रहा था. शादी संजीव ने भी कर ली थी, परंतु उस के जीवन में स्वच्छंदता थी, उच्छृंखलता थी और अब तो पता चला कि वह शराब का सेवन भी करने लगा था. इधरउधर मुंह मारने की आदत पहले से थी. अब तो खुलेआम वह लड़कियों के साथ होटलों में जाता था. कारोबार के सिलसिले में वह अकसर दिल्ली आया करता था. जब भी आता, मुकेश को फोन अवश्य करता था और कभीकभार मौका निकाल कर उस से मिल भी लेता था, परंतु आज तक दोनों की मुलाकात मुकेश के औफिस में ही हुई थी. मुकेश की जिंदगी कोल्हू के बैल की तरह थी, बस एक चक्कर में घूमते रहना था, सुबह से शाम तक, दिन से ले कर सप्ताह तक और इसी तरह सप्ताह-दर-सप्ताह, महीने और फिर साल निकलते जाते, परंतु उस के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन होता दिखाई नहीं पड़ रहा था. नौकरी के बाद उस के जीवन में बस इतना परिवर्तन हुआ था कि दिल्ली में पहले अकेला रहता था, शादी के बाद घर में पत्नी आ गई थी और उस के बाद 2 बच्चे हो गए थे परंतु जीवन जैसे एक ही धुरी पर अटका हुआ था. निम्नमध्यवर्गीय जीवन की वही रेलमपेल, वही समस्याएं, वही कठिनाइयां और रातदिन उन से जूझते रहने की बेचैनी, कशमकश और निष्प्राण सक्रियता, क्योंकि कहीं न कहीं उसे यह लगता था कि उस के पारिवारिक जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होने वाला है, सो जीवन के प्रति ललक, जोश और उत्तेजना दिनोंदिन क्षीण होती जा रही थी.

उधर से संजीव ने कहा था, ‘‘अरे यार, इस बार मैं तेरे औफिस नहीं आने वाला हूं. आज 31 दिसंबर है और तू मेरे यहां आएगा, मेरे होटल में. आज हम दोनों मिल कर नए साल का जश्न मनाएंगे. मेरे साथ मेरे 2 दोस्त भी हैं, तुझे मिला कर 4 हो जाएंगे. सारी रात मजा करेंगे. बस, तू तो इतना बता कि मैं तेरे लिए गाड़ी भेजूं या तू खुद आ जाएगा?’’ मुकेश सोच में पड़ गया. सुबह घर से निकलते समय उस के बच्चों ने शाम को जल्दी घर आने के लिए कहा था. वह दोनों शाम को बाहर घूमने जाना चाहते थे. घूमफिर कर किसी रेस्तरां में उन सब का खाना खाने का प्रोग्राम था. वह जल्दी से कोई जवाब नहीं दे पाया, तो उधर से संजीव ने अधीरता से कहा, ‘‘क्या सोच रहा है यार. मैं इतनी दूर से आया हूं और तू होटल आने में घबरा रहा है.’’

उस ने बहाना बनाया, ‘‘यार, आज बच्चों से कुछ कमिटमैंट कर रखा है और तू तो जानता है, मैं कुछ खातापीता नहीं हूं. तुम लोगों के रंग में भंग हो जाएगा.’’ ‘‘कुछ नहीं होगा, तू भाभी और बच्चों को फोन कर दे. बता दे कि मैं आया हुआ हूं. और सुन, एक बार आ, तू भी क्या याद करेगा. तेरे लिए स्पैशल इंतजाम कर रखा है.’’ उस की समझ में नहीं आया कि संजीव ने उस के लिए क्या स्पैशल इंतजाम कर रखा है. स्पैशल इंतजाम के रहस्य ने उस की निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता की सोच के ऊपर परदा डाल दिया और वह ‘स्पैशल इंतजाम’ के रहस्य को जानने के लिए बेताब हो उठा. उस ने संजीव से कहा कि वह आ रहा है परंतु उस से वादा ले लिया कि उसे 10 बजे तक फ्री कर देगा. फिर पूछा, ‘‘कहां आना है?’’ संजीव ने हंसते हुए कहा, ‘‘तू एक बार आ तो सही, फिर देखते हैं. पहाड़गंज में होटल न्यू…में आना है. मेन रोड पर ही है.’’ मुकेश ने कहा कि वह मैट्रो से आ जाएगा और फिर फोन कर के पत्नी से कहा कि घर आने में उसे थोड़ी देर हो जाएगी. वह घर में ही खाना बना कर बच्चों को खिलापिला दे. आते समय वह उन के लिए चौकलेट और मिठाई लेता आएगा. उस की बात पर पत्नी ने कोई एतराज नहीं किया. वह जानती थी कि उस का पति एक सीधासादा इंसान है और बेवजह कभी घर से बाहर नहीं रहता. उसे अपनी पत्नी और बच्चों की बड़ी परवा रहती है.

मुकेश होटल पहुंचा तो संजीव उसे लौबी में ही मिल गया. बड़ी गर्मजोशी से मिला. हालचाल पूछे और कमरे की तरफ जाते हुए होटल के मैनेजर से परिचय कराया. मैनेजर बड़ी गर्मजोशी से मिला जैसे मुकेश बहुत बड़ा आदमी था. कमरे में उस के 2 दोस्त बैठे बातें कर रहे थे. संजीव ने उन से मुकेश का परिचय कराया. वे दोनों दिल्ली के ही रहने वाले थे. मुकेश से बड़ी खुशदिली से मिले, परंतु मुकेश शर्म और संकोच के जाल में फंसा हुआ था. होटल के बंद माहौल में वह अपने को सहज नहीं महसूस कर पा रहा था. इस तरह के होटलों में आना उस के लिए बिलकुल नया था. ऐसा कभी कोई संयोग उस के जीवन में नहीं आया था. कभीकभार पत्नी और बच्चों के साथ छोटेमोटे रेस्तराओं में जा कर हलकाफुलका खानापीना अलग बात थी. संजीव अपने दोस्तों की तरफ मुखातिब होते हुए बोला, ‘‘चलो, कुछ इंतजाम करो, मेरा बचपन का दोस्त आया है. आज इस की तमन्नाएं पूरी कर दो. बेचारा, कुएं का मेढक है. इस को पता तो चले कि दुनिया में परिवार के अतिरिक्त भी बहुतकुछ है, जिन से खुशियों के रंगबिरंगे महल खड़े किए जा सकते हैं.’’ फिर उस ने मुकेश की पीठ में धौल जमाते हुए कहा, ‘‘चल यार बता, तेरी क्याक्या इच्छाएं हैं, तमन्नाएं और कामनाएं हैं, आज सब पूरी करवा देंगे. यह मेरे मित्र का होटल है और फिर आज तो साल का अंतिम दिन है. कुछ घंटों के बाद नया साल आने वाला है. आज सारे बंधन तोड़ कर खुशियों को गले लगा ले.’’

संजीव कहता जा रहा था. ‘पहले तो कभी इतना अधिक नहीं बोलता था,’ मुकेश मन ही मन सोच रहा था. पहले वह भी मुकेश की तरह शर्मीला और संकोची हुआ करता था. दोनों एक कसबेनुमां गांव के रहने वाले थे. उन के संस्कारों में नैतिकता और मर्यादा का अंश अत्यधिक था. मुकेश दिल्ली आ कर भी अपने पंख नहीं फैला सका था. पिंजरे में कैद पंछी की तरह परिवार के साथ बंध कर रह गया था, जबकि संजीव ने मुंबई जा कर जीवन को खुल कर जीने के सभी दांवपेंच सीख लिए थे. सच कहा गया है, संपन्नता मनुष्य में बहुत सारे गुणअवगुण भर देती है, परंतु उस के अवगुण भी दूसरों को सद्गुण लगते हैं. जबकि गरीबी मनुष्य से उस के सद्गुणों को भी छीन लेती है. उस के सद्गुण भी दूसरों को अवगुण की तरह दिखाई पड़ते हैं. संजीव के एक दोस्त अमरजीत ने कहा, ‘‘आप के मित्र तो बड़े संकोची लगते हैं, लगता है, कभी घर से बाहर नहीं निकले.’’

मुकेश वाकई संकोच में डूबा जा रहा था. जिस तरह की बातें संजीव कर रहा था, उस तरह के माहौल से आज तक वह रूबरू नहीं हुआ था. वह किसी तरह के झमेले में पड़ने के लिए यहां नहीं आया था. वह तो केवल संजीव के जोर देने पर उस से मिलने के लिए आ गया था. उस ने सोचा था, कुछ देर बैठेगा, चायवाय पिएगा, गपशप मारेगा, और फिर घर लौट आएगा. रास्ते में बच्चों के लिए केक खरीद लेगा, वह भी खुश हो जाएंगे. दिसंबर की बेहद सर्द रात में भी मौसम इतना गरम था कि उसे अपना कोट उतारने की इच्छा हो रही थी. पर मन मार कर रह गया. सभी सोचते कि वह भी मौजमस्ती के मूड में है. उस ने संजीव के मुंह की तरफ देखा. वह उसे देख कर मुसकरा रहा था, जैसे उस के मन की बात समझ गया था. बोला, ‘‘सोच क्या रहा है? कपड़े वगैरह उतार कर रिलैक्स हो जा. अभी तो मजमस्ती के लिए पूरी रात बाकी है.’’ संजीव का एक दोस्त मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था और दूसरा दोस्त इंटरकौम पर खानेपीने का और्डर कर रहा था. संजीव स्वयं मुकेश से बात करने के अतिरिक्त मोबाइल पर बीचबीच में बातें करता जा रहा था. गोया, उस कमरे में मुकेश को छोड़ कर सभी व्यस्त थे. उन की व्यस्तता में कोई चिंता, परेशानी या उलझन नहीं दिखाई दे रही थी. मुकेश व्यस्त न होते हुए भी व्यस्त था, उस के दिमाग में चिंता, उलझन और परेशानियों का लंबा जाल फैला हुआ था, जिस में वह फंस कर रह गया था. उस के जाल में उस की पत्नी फंसी हुई थी, उस के मासूम बच्चे फंसे हुए थे. उस के बच्चों की आंखों में एक कातर भाव था, जैसे मूकदृष्टि से पूछ रहे हों, ‘पापा, हम ने आप से कोई बहुत कीमती और महंगी चीज तो नहीं मांगी थी. बस, एक छोटा सा केक लाने के लिए ही तो कहा था. वह भी आप ले कर नहीं आए. पापा, आप घर कब तक आएंगे? हम आप का इंतजार कर रहे हैं.’

मुकेश के मन में एक तरह की अजीब सी बेचैनी और दिल में ऐसी घबराहट छा गई. जैसे वह अपने ही हाथों अपने बच्चों का गला घोंट रहा था, उन के अरमानों को चकनाचूर कर रहा था. पत्नी के साथ छल कर रहा था. वह उठ कर खड़ा हो गया और संजीव से बोला, ‘‘यार, मुझे घर जाना है, आप लोग एंजौय करो. वैसे भी मैं आप लोगों का साथ नहीं दे पाऊंगा.’’ ‘‘तो क्या हो गया? जूस तो ले सकता है, चिकन, मटन, फिश तो ले सकता है.’’

‘‘क्या 10 बजे तक फ्री हो जाऊंगा?’’ मुकेश ने जैसे हथियार डालते हुए कहा. ‘‘क्या यार, तुम भी बड़े घोंचू हो. बच्चों की तरह घर जाने की रट लगा रखी है. पत्नी और बच्चे तो रोज के हैं, परंतु यारदोस्त कभीकभार मिलते हैं. नए साल का जश्न मनाने का मौका फिर पता नहीं कब मिले,’’ संजीव थोड़ा चिढ़ते हुए बोला. थोड़ी देर में चिकनमटन की तमाम सारी तलीभुनी सामग्री मेज पर लग गई. मुकेश मन मार कर बैठा था, मजबूरी थी. अजीब स्थिति में फंस गया था. न आगे जाने का रास्ता उस के सामने था, न पीछे हट सकता था. संजीव उस की मनोस्थिति नहीं समझ सकता था. अपनी समझ में वह अपने दोस्त को जीवन की खुशियों से रूबरू होने का मौका भी प्रदान कर रहा था. परंतु मुकेश की स्थिति गले में फंसी हड्डी की तरह थी, जो उसे तकलीफ दे रही थी.

मुकेश के हाथ में जूस का गिलास था, परंतु जब भी वह गिलास को होंठों से लगाता, जूस का पीला रंग बिलकुल लाल हो जाता. खून जैसा लाल और गाढ़ा रंग देख कर उसे उबकाई आने लगती और बड़ी मुश्किल से वह घूंट को गले से नीचे उतार पाता. संजीव और उस के दोस्त बारबार उसे कुछ न कुछ खाने के लिए कहते और वह ‘हां, खाता हूं’ कह कर रह जाता, चिकनमटन के लजीज व्यंजनों की तरफ वह हाथ न बढ़ाता. उस के कानों में सिसकियों की आवाज गूंजने लगती, अपने बच्चों के सिसकने की आवाज… कितने छोटे और मासूम बच्चे हैं, अभी 7 और 5 वर्ष के ही तो हैं. इस उम्र में बच्चे मांबाप से बहुत ज्यादा लगाव रखते हैं. उन की उम्मीदें बहुत छोटी होती हैं, परंतु उन के पूरा होने पर मिलने वाली खुशी उन के लिए हजार नियामतों से बढ़ कर होती है.

तभी एक सुंदर, छरहरे बदन की युवती ने वहां कदम रखा. उस ने हंसते हुए संजीव के बाकी दोनों दोस्तों से हाथ मिलाया, फिर प्रश्नात्मक दृष्टि से मुकेश की तरफ देखने लगी. संजीव ने कहा, ‘‘मेरा यार है, बचपन का, थोड़ा संकोची है.’’ बीना ने अपना हाथ मुकेश की तरफ बढ़ाया. उस ने भी हौले से बीना की हथेली को अपनी दाईं हथेली से पकड़ा. बीना का हाथ बेहद ठंडा था. उस ने बीना की आंखों में देखा, वह मुसकरा रही थी. उस का चेहरा ही नहीं आंखें भी बेहद खूबसूरत थीं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था, होंठों पर लिपस्टिक नहीं थी, बावजूद इस के वह बहुत सुंदर लग रही थी. मुकेश अपनी भावनाओं को छिपाते हुए बोला, ‘‘संजीव, अगर बुरा न मानो तो मुझे जाने दो. तुम लोग एंजौय करो. मैं कल तुम से मिलूंगा,’’ कह कर उठने का उपक्रम करने लगा. हालांकि यह एक दिखावा था, अंदर से उस का मन रुकने के लिए कर रहा था, परंतु मध्यवर्गीय व्यक्ति मानमर्यादा का आवरण ओढ़ कर मौजमस्ती करना पसंद करता है. बदनामी का भय उसे सब से अधिक सताता है, इसीलिए वह जीवन की बहुत सारी खुशियों से वंचित रहता है.

संजीव ने उस की बांह पकड़ कर फिर से कुरसी पर बिठा दिया, ‘‘बेकार की बातें मत करो.’’ संजीव की बात सुन कर मुकेश का हृदय धाड़धाड़ बजने लगा, जैसे किसी कमजोर पुल के ऊपर से रेलगाड़ी तेज गति से गुजर रही हो. वह समझ नहीं पाया कि यह खुशी के आवेग की धड़कन है या अनजाने, आशंकित घटनाक्रम की वजह से उस का हृदय तीव्रता के साथ धड़क रहा है? बीना ने मुकेश की तरफ देख कर आंख मार दी. वह झेंप कर रह गया.

संजीव बाहर निकलते हुए बोला, ‘‘चलो, जल्दी करो. मुकेश को घर जाना है.’’ संजीव बगल वाले कमरे में चला गया. मुकेश कमरे में अकेला रह गया, विचारों से गुत्थमगुत्था. उस ने अपने दिमाग को बीना के सुंदर चेहरे, पुष्ट अंगों और गदराए बदन पर केंद्रित करना चाहा, परंतु बीचबीच में उस की पत्नी का सौम्य चेहरा बीना के चंचल चेहरे के ऊपर आ कर बैठ जाता. उस के मन को बेचैनी घेरने लगती, परंतु यह बेचैनी अधिक देर तक नहीं रही. मुकेश चाहता था, वह बीना के शरीर की ढेर सारी खुशबू अपने नथुनों में भर ले, ताकि फिर जीवन में किसी दूसरी स्त्री के बदन की खुशबू की उसे जरूरत न पड़े. परंतु यहां खुशबू थी कहां? कमरे में एक अजीब सी घुटन थी. उस घुटन में मुकेश तेजतेज सांसें लेता हुआ अपने फेफड़ों को फुला रहा था और एकटक बीना के शरीर को ताक रहा था, जैसे बाज गौरैया को ताकता है. परंतु यहां बाज कौन था और गौरैया कौन, यह न मुकेश को पता था, न बीना को.

बीना तंदरुस्त लड़की थी और उस के हावभाव से लग रहा था कि वह किसी भले घर की नहीं थी. उस ने हाथ पकड़ कर मुकेश को खड़ा किया और बोली, ‘‘क्या खूंटे की तरह गड़े बैठे हो? कुछ डांसवांस नहीं करोगे? जल्दी करो. आज सारी रात जश्न मनेगा,’’ उस ने मुकेश के सामने खड़े हो कर अपने बाल संवारते हुए कुछ तल्खी से कहा. वह चुप बैठा रहा तो बीना ने बेताब हो कर अपने हाथों से उसे उठाते हुए कहा,  ‘‘आओ, अब डांस करो.’’ वह अचानक उठ खड़ा हुआ, जैसे उस के शरीर में कोई करंट लगा हो.

बीना बोली, ‘‘यह क्या? तुम्हें तो कुछ आता ही नहीं, वैसे के वैसे खड़े हो, खंभे की तरह…’’ परंतु मुकेश ने उस की तरफ दोबारा नहीं देखा. लपक कर वह बाहर आ गया. संजीव से भी मिलने की उस ने आवश्यकता नहीं समझी. गैलरी में आ कर उस ने इधरउधर देखा. इक्कादुक्का वेटर कमरों में आजा रहे थे. बाहर का वातावरण शांत था और हवा में हलकीहलकी सर्दी का एहसास था. वह होटल के बाहर आ गया. होटल के बाहर आ कर उसे चहलपहल का एहसास हुआ. उस ने समय देखा, 10 बजने में कुछ ही मिनट शेष थे. गोल मार्केट की दुकानें खुली होंगी, यह सोच कर वह गोल मार्केट की ओर चल दिया. साढ़े 10 बजे के लगभग जब हाथ में केक और मिठाई का डब्बा ले कर वह घर पहुंचा तो उस के मन में अपराधबोध था. आत्मग्लानि के गहरे समुद्र में वह डुबकी लगा रहा था. पत्नी ने जब दरवाजा खोला तो वह उस से नजरें चुरा रहा था. पत्नी को सामान पकड़ा कर वह अंदर आया. दोनों बच्चे उसे जगते हुए मिले. वे टीवी पर नए साल का कार्यक्रम देख रहे थे. उसे देख कर एकदम से चिल्लाए, ‘‘पापा आ गए, पापा आ गए. क्या लाए पापा हमारे लिए?’’

उस ने पत्नी की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे मम्मी की तरफ देखने लगे तो उस ने लपक कर बारीबारी से दोनों बच्चों को चूम लिया. तब तक उस की पत्नी ने सामान ला कर मेज पर रख दिया, ‘‘वाउ, मिठाई और केक…अब मजा आएगा.’’ मुकेश के मन में एक बहुत बड़ी शंका घर कर गई थी. और वह शंका धीरेधीरे बढ़ती जा रही थी. उसे तत्काल दूर करना आवश्यक था. वह इंतजार नहीं कर सकता था. मुकेश दोनों बच्चों को नाचतागाता छोड़ कर पत्नी के पीछेपीछे किचन में आ गया. पत्नी ने उसे ऐसे आते देख कर कहा, ‘‘आप जूतेकपड़े उतार कर फ्रैश हो लीजिए. मैं पानी ले कर आती हूं.’’ ‘‘वह बाद मे कर लेंगे,’’ कह कर उस ने पत्नी को पीछे से पकड़ कर अपनी बांहों में भर लिया. पत्नी के हाथ से गिलास छूट गया. फुसफुसा कर बोली, ‘यह क्या कर रहे हैं आप?  ऐसा तो पहले कभी नहीं किया, बिना जूतेकपड़े उतारे और वह भी किचन में…’

‘‘पहले कभी नहीं किया, इसीलिए तो कर रहा हूं,’’ उस ने पूरी ताकत के साथ पत्नी के शरीर को भींच लिया. उस के शरीर में जैसे बिजली प्रवाहित होने लगी थी.

‘बच्चे देख लेंगे?’ पत्नी फिर फुसफुसाई. मुकेश के मन में हजार रंगों के फूल खिल कर मुसकराने लगे. उस के मन का भटकाव खत्म हो चुका था. अब उस के मन में कोई शंका नहीं थी, परंतु मुकेश को एक बात समझ में नहीं आ रही थी. कहते हैं कि आदमी को पराई औरत और पराया धन बहुत आकर्षित करता है. इन दोनों को प्राप्त करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है. मुकेश को पराई नारी वह भी इतनी सुंदर, बिना किसी प्रयत्न के सहजता से उपलब्ध हुई थी, फिर वह उसे क्यों नहीं भोग पाया? यह रहस्य कोई मनोवैज्ञानिक ही सुलझा सकता था. मुकेश के लिए यह रहस्य एक बड़ा आश्चर्य था.

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