प्रिय जैसा चाहा था मैं ने

दिल के पन्नों पर उकेर गया

दृष्टि वही, नयन वही

देह वही, छुअन वही

भवें वही, कमान वही

होंठ व मुसकान वही

मेरी हर कल्पना चितेरा

वो सच तुझ में कर गया

हृदय वही, विचार वही

मन का विस्तार वही

रुचियां, संस्कार वही

कविता संसार वही

कैसी यह कारीगरी

मैं अचरज से भर गया

हम न कभी जान सके

क्यों अपने कदम रुके

फिर क्यों तुम दूर चले

हम पर कब भेद खुले

कौन नयन अपलक

मेरी सूनी राहों पर धर गया.

           – आलोक यादव

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