भारतीय बाजार में मैगी बेहद लोकप्रिय थी. नूडल्स बाजार के 75 फीसदी हिस्से पर मैगी का कब्जा था. मैगी को बनाने वाली कंपनी नैस्ले ने देश में तकरीबन 2 हजार करोड़ रुपए की कमाई की थी. मैगी के कुछ पैकेटों में तय मात्रा से अधिक लेड यानी सीसा की मात्रा पाए जाने की खबर ने मैगी की लोकप्रिय छवि पर दाग लगा दिया. मैगी को ले कर पूरे देश में ऐसा माहौल बन गया जैसे मैगी से जहरीला कोई पदार्थ नहीं है. मैगी विवाद की बहती गंगा में हाथ धोने के लिए तमाम संगठन सामने आए. ये संगठन मैगी विवाद की आड़ में स्वदेशी बनाम विदेशी उत्पाद की राजनीति में हाथ सेंकना चाहते थे.   मैगी के खिलाफ ही नहीं, मैगी का प्रचार करने वाले अमिताभ बच्चन, प्रीति जिंटा और माधुरी दीक्षित के खिलाफ कई जगहों पर मुकदमे दर्ज हो गए. रातोंरात मैगी पर कई राज्यों में बैन लग गया. सेना की कैंटीन से ले कर बिग बाजार और वालमार्ट बाजार तक से मैगी को हटा दिया गया. सोशल मीडिया पर इस बात की भी चर्चा ने जोर पकड़ लिया कि जल्द ही कोई स्वदेशी कंपनियां देशी मैगी बना कर बाजार में उतारने वाली हैं. यह बात अपनी जगह पर दुरुस्त है कि मैगी के कुछ सैंपल जहां फेल हुए हैं वहीं कुछ पास भी हुए हैं. यह पता नहीं चल पा रहा है कि यह अलगअलग प्रयोगशालाओं में होने वाली जांच का कमाल है या मैगी का हर पैकेट खतरनाक नहीं है? 

मैगी के ताजा विवाद की शुरुआत उत्तर प्रदेश के बाराबंकी शहर से हुई है. बाराबंकी राजधानी लखनऊ से 27 किलोमीटर ही दूर है. बाराबंकी में तैनात एक खाद्य अधिकारी ने ईजी डे के स्टोर से मैगी का पैकेट खरीदा. इस पर लिखा था कि नो मोनोसोडियम ग्लूटामेट (एमएसजी). यह बात खाद्य अधिकारी को खटक गई. शक के आधार पर इस का सैंपल लिया गया. सैंपल पहली ही जांच में फेल हो गया. इस के बाद नैस्ले कंपनी ने अपने तर्क दिए जो माने नहीं गए. खाद्य सुरक्षा विभाग के नोटिस के बाद पूरे देश में मैगी के सैंपल लेने का काम तेजी से शुरू हो गया. कु छ राज्यों में मैगी के सैंपल में कोई नेगेटिव रिपोर्ट नहीं आई. देशभर में खाने वाली चीजों की टैस्ंिटग की अलगअलग लैब हैं. सब का रखरखाव अलग तरह से होता है. यहां लगी मशीनें एकजैसी नहीं हैं. नैस्ले कंपनी ने मैगी को खाने के लिए सुरक्षित बताते हुए कहा कि खाने की कुछ चीजों में प्राकृतिक रूप से मोनोसोडियम ग्लूटामेट (एमएसजी) पाया जाता है. कंपनी मैगी बनाते समय ऐसा कोई तत्त्व अलग से नहीं मिलाती जिस में सीसा या लेड पाया जाता हो.

खाद्य विशेषज्ञों का मानना है कि मैगी को चटपटा बनाने के लिए जिन मसालों का प्रयोग किया जाता है उन में प्राकृतिक रूप से लेड बनता है. यह मात्रा अधिक होने पर मैगी टैस्ट में फेल हो जाती है. ऐसा केवल मैगी के साथ ही नहीं हुआ है, ऐसा दूसरे नूडल्स के साथ भी हो सकता है. आज भारत के बाजार में चाइनीज और जापानी फूड का प्रयोग बढ़ने लगा है. केवल बडे़बडे़ होटलों में ही नहीं, सड़क के किनारे लगने वाले खाने के ठेलों में भी चाउमीन और मोमोज का प्रयोग तेजी से होने लगा है. उत्तर प्रदेश के बस्ती, गोरखपुर, सिद्धार्थनगर से ले कर लखनऊ, आगरा, मेरठ और कानपुर जैसे देश के तमाम शहरों में चाउमीन सब से ज्यादा बिकने वाला आइटम होता जा रहा है. इस को बनाने में नूडल्स का प्रयोग किया जाता है. चाउमीन के ही साथ मोमोज को भी खूब बेचा जाता है. यह छोटेमोटे रोजगार का एक साधन हो गया है. चाउमीन और मोमोज के साथ दिए जाने वाली टोमैटो सौस कद्दू से तैयार की जाती है. इस में टमाटर की मात्रा बेहद कम होती है. इस के बाद भी इस को बेचने से रोका नहीं जाता. इस तरह स्ट्रीटफूड तो मैगी से भी कहीं ज्यादा खतरनाक है.   

मैगी के बंद पैकेट के मुकाबले इस तरह के चाउमीन और मोमोज के ठेले सेहत के ज्यादा बडे़ दुश्मन हैं. इन दुकानों पर नैस्ले जैसी कंपनी का ब्रैंड नेम नहीं है. इसलिए इन से होने वाले नुकसान की न तो खाद्य सुरक्षा विभाग को परवा है और न ऐसे विवाद को इमरजैंसी जैसा माहौल बनाने वाले दूसरे लोगों को. केवल चाउमीन और मोमोज ही नहीं, पूड़ी, खस्ता कचौड़ी, गोलगप्पे, बर्गर और समोसा भी सेहत के लिए खतरनाक हैं. सड़क किनारे चल रही तमाम दुकानों पर इन को सही खाद्य सामग्री से नहीं बनाया जाता. इन को खाना मैगी खाने से ज्यादा खतरनाक है. मैगी विवाद के बाद नैस्ले कंपनी बाजार से मैगी को वापस ले लेगी पर इन स्ट्रीट फूड पर क्या कोई असर पड़ेगा, यह सोचने वाली बात है.

लेड से किडनी को खतरा

खाने की चीजों में पाए जाने वाले लेड और मोनोसोडियम ग्लूटामेट यानी एमएसजी सेहत के लिए खतरनाक माने जाते हैं. डाक्टरों का कहना है कि लेड की वजह से किडनी खराब हो जाती है. इस से आदमी का नर्वस सिस्टम भी खराब हो सकता है. लेड एक तरह का विषैला द्रव्य है. तय मानक के अनुसार, किसी भी फूड प्रोडक्ट में लेड की मात्रा  2.5 पीपीएम तक ही होनी चाहिए. इस वजह से लेड को एमएसजी से भी खतरनाक माना जाता है. लेड के शरीर में ज्यादा मात्रा में चले जाने से इस का असर शरीर के न्यूरो सिस्टम पर पड़ता है. इस की वजह से ब्रेन प्रभावित होता है.

कुछ मामलों में लेड ब्लड सप्लाई को भी प्रभावित कर सकता है. लेड किडनी पर भी खतरनाक असर डालता है. यह शरीर के इम्यून सिस्टम को प्रभावित करता है जिस से शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता खत्म हो जाती है. लेड पानी, मिट्टी या फिर कंपनी में पाई जाने वाली खराब चीज (इंडस्ट्रियल वेस्ट) से खाने में पहुंचता है. लेड अगर वातावरण और मिट्टी में है तो वह अनाज में चला जाएगा. उसी अनाज का प्रयोग खाने की सामग्री को बनाने में किया जाएगा तो खाने में लेड की मात्रा मिल सकती है. दूसरी ओर, एमएसजी खाने की चीजों में ऊपर से मिलाया जाता है. इस के मिलाने से खाने का फ्लेवर अच्छा होता है. 

इमेज को लगा धक्का

मैगी के नमूने सही नहीं पाए गए. उस की ब्रैंड इमेज को जो धक्का लगा है उस की भरपाई नहीं हो सकती. संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल खाद्य असुरक्षा के 10,200 मामले सामने आए थे. इन में से केवल 913 को ही सजा मिल सकी. मिलावट के मामले में केवल 10 फीसदी लोगों को सजा मिलने से पता चलता है कि कहीं न कहीं इस में लंबी गड़बडि़यां हो जाती हैं. देश में कानून का सहारा ले कर जिस से रिश्वत ली जाती है उस से इस बात की भी प्रबल आशंका होती है कि लोगों को डराने के लिए तो सैंपलिंग का सहारा नहीं लिया जाता. दीवाली और होली के आसपास खोए के सैंपल भरने की घटनाएं बढ़ जाती हैं. कई खोया बेचने वालों और मिठाई की दुकान चलाने वालों के यहां छापे मारे जाते हैं. दीवाली और होली पर मिठाई की ब्रिकी ज्यादा होती है. होली, दीवाली के अलावा खोया मंडी या मिठाई की दुकानों पर सैंपल नहीं लिया जाता है. इस से कहीं न कहीं साजिश की बू आती है.

फूड सेफ्टी बिल आने के बाद खाद्य सुरक्षा विभाग को बहुत ही मजबूत कानून का सहारा मिल गया है. फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स अथौरिटी औफ इंडिया यानी एफएसएसएआई का गठन 2011 में किया गया था. यह प्राधिकरण खाद्य उत्पादों के सुरक्षित निर्माण, भंडारण, वितरण, बिक्री और आयात को वैज्ञानिक आधार पर बनाने के मानक तय करता है जिस से खाने के रूप में इस्तेमाल होने वाली चीजें पूरी तरह से सुरक्षित रहें. यह खाद्य पदार्थ के प्रचार की निगरानी का काम भी करता है. एफएसएसएआई और राज्यों के खाद्य सुरक्षा विभाग ऐसे मामलों में नमूनों की जांचपड़ताल करते हैं. फूड सेफ्टी बिल आने के बाद से सैंपलिंग के नाम पर शोषण का काम हो रहा है. यही वजह है कि 10,200 मामलों में से केवल 913 के खिलाफ ही कार्यवाही की जा सकी. एक तरह से यह कानून दहेज कानून जैसा बन गया है जिस के जरिए शिकायत के आधार पर किसी का भी उत्पीड़न किया जा सकता है. खाने के कारोबार से जुडे़ व्यापारी चाहते हैं कि इस कानून में सुधार हो. सैंपल भरने के बाद जल्द से जल्द कार्यवाही हो. अगर सैंपल में कोई गलती नहीं पाई जाती है तो सैंपल भरने वाले के खिलाफ वैसी ही कार्यवाही की जाए जैसी सैंपल में गलती पाई जाने पर कारोबारी के साथ होती. जब तक सैंपल भरने वालों की जवाबदेही तय नहीं होगी तब तक यह कानून उत्पीड़न का जरिया बना रहेगा.

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