ये है सोशल मीडिया पर कांग्रेस के युवराज, गांधीनेहरू खानदान के चश्मेचिराग यानी शहजादे राहुल गांधी की छवि के संदेशों की एक झलक. सोशल मीडिया वाले तो उन के गोया दीवाने हैं. उन पर न जाने कितने चुटकुले गढ़े जाते हैं. उन्हें पप्पू, मुन्ना, राहुल बाबा कह कर संबोधित किया जाता है. यह बताने की कोशिश की जाती है कि राहुल गांधी की उम्र भले ही 43 साल की हो गई हो मगर दिमागी तौर पर वे अभी बच्चे हैं. उन्हें सामान्य सी चीजें समझ में नहीं आतीं. वे कार्टूनिस्टों के भी बहुत चहेते हैं. उन्हें राहुल के कार्टून बनाने में बड़ा मजा आता है. यह सिलसिला तब से ही चल रहा है जब से राहुल राजनीति में आए हैं. तब से उन की खैर नहीं है. लोग समझते हैं कि राहुल मुंह में चांदी की चम्मच ले कर पैदा हुए हैं. इस का मतलब यह लगाया जाता है कि राजनीतिक सफलता भी घुट्टी में ही मिल जाती है. लेकिन लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता. यहां की हकीकत और है, नेता वही जो वोटर मन भाए. कांग्रेसी भले ही राहुल बाबा की आरती उतारते हुए न थकते हों लेकिन देश की जनता ने कभी राहुल को नेता की तरह स्वीकार नहीं किया. भले ही वे 2 बार अमेठी से चुनाव जीत चुके हैं.

विडंबना यह है कि राहुल राजनीति में आना नहीं चाहते थे लेकिन खानदान और कांग्रेस के लिए उन्हें राजनीति की दुनिया में आना पड़ा. लेकिन  नानुकुर करते हुए राजनीति में आ भी गए तो इस तरह से राजनीति करने लगे जैसे गोया राजनीति पर ही एहसान कर रहे हों. ऐसी अदा से राजनीति करते रहे कि राजनीति के पिंजरे में उन्हें बंद तो कर दिया गया है लेकिन जब चाहेंगे वे पिंजरा ले कर उड़ जाएंगे. लेकिन वे भूल गए कि वे दिन हवा हो चुके हैं जब जनता कुलगोत्र जान कर नेता मान लेती थी. उस पर राहुल गांधी की राजनीति के प्रति अगंभीरता ने अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाने के बजाय उन्हें मजाक का पात्र बना दिया. जब से राहुल आए हैं, उन के नाम नाकामियां ही लिखी हुई हैं. कई बार तो लगता है कि राहुल की कांग्रेस की राजनीति में बिस्मिल्लाह ही गलत हुई. सब से पहले उन्हें बिहार के विधानसभा चुनाव की कमान दी गई, फिर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव अभियान की बागडोर थमाई गई. ये दोनों ही राज्य ऐसे थे जहां पिछले कई वर्षों में कांग्रेस का सफाया हो चुका था और अगले कई वर्षों तक उस के लौटने के कोई आसार नहीं हैं. इसलिए वही हुआ जो होना था यानी राहुल गांधी को कांग्रेस को पुनर्जीवित करने में नाकामी मिली. लेकिन राहुल गांधी पर जरूर हमेशा के लिए ठप्पा लग गया कि उन के नेतृत्व में कांग्रेस हमेशा हारती ही रही है. तब से मीडिया के लिए वे मजाक के पात्र बन गए हैं. उन से जुड़ी हर बात पर व्यंग्य किया जाता. वे छुट्टी पर जाते हैं तो व्यंग्य का निशाना बनते हैं, लौट कर आते हैं तो मजाक का केंद्र बनते हैं.

लेकिन ऐसा नहीं था कि राहुल गांधी केवल मीडिया का ही निशाना बन रहे हैं बल्कि उन का सब से ज्यादा विरोध कांग्रेसियों की तरफ से हो रहा है. लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद तो  कांग्रेस में ही राहुल के बुरे दिनों की शुरुआत हो गई. कांग्रेसी नेता जो पहले उन का गुणगान करने के लिए ही मुंह खोलते थे, अचानक उन के मुंह में जबान आ गई. कोई राहुल को जोकर कहने लगा, कोई नेतृत्व करने में अक्षम. पार्टी में ओल्ड टीम और टीम राहुल के बीच सिविल वार शुरू हो गई. कैप्टन अमरिंदर सिंह, किशोर चंद्र देव, शीला दीक्षित और उन के बेटे संदीप दीक्षित जैसे कांग्रेसी नेताओं ने तो यह कहते हुए राहुल के प्रति अपने अविश्वास को स्पष्ट कर दिया था कि पार्टी की कमान सोनिया को अपने पास ही रखनी चाहिए. केवल सोनिया का नेतृत्व ही पार्टी में नए सिरे से जान फूंक सकता है. दूसरे शब्दों में, वे यह कहना चाह रहे थे कि राहुल गांधी राजनीति से दूरी ही बनाए रखें तो अच्छा. कुछ लोगों ने प्रियंका लाओ देश बचाओ’ का राग अलापना शुरू कर दिया.

माहौल से ऊब कर राहुल गांधी संसद का सत्र छोड़ कर छुट्टी पर चले गए तो उन की आलोचना की सारी हदें पार हो गईं. कहा गया, राहुल गांधी ने बहुत गैरजिम्मेदाराना हरकत की है. पार्टी को बीच मझधार में छोड़ कर चल दिए. ऐसा भगोड़ा व्यक्ति पार्टी का क्या नेतृत्व करेगा. यह कयास लगाए जाने लगे कि राहुल कहां गए हैं. किसी ने कहा उत्तराखंड में गए हैं, किसी ने कहा थाईलैंड गए हैं मसाज कराने तो किसी ने कहा मन शांति के ले विपश्यना कर रहे हैं. जितने मुंह उतनी बातें. गए तो 20 दिन के लिए लेकिन 59 दिन बाद लौटे. तब पार्टी का धैर्य जवाब दे चुका था. आखिरकार राहुल लौटे मगर कांग्रेसियों में उन को ले कर खास उत्साह नहीं था. फिर भी कुछ निष्ठावान  कांग्रेसियों ने पटाखे फोड़ कर उन का स्वागत जरूर किया. पुरानी पीढ़ी के कांग्रेसी उन के आगमन से ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आए. वे जानते थे कि कांग्रेस में सांगठनिक बदलावों और पुराने नेताओं की भूमिका को ले कर मांबेटे में मतभेद उभर आए हैं. पार्टी के ‘ओल्ड गार्ड’ के प्रति राहुल की अरुचि किसी से छिपी नहीं है और लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने यह भी कोशिश की थी कि खराब छवि वाले अनेक पुराने कांग्रेसी नेताओं को टिकट न दिया जाए. लेकिन सोनिया और उन के सलाहकार इस से सहमत नहीं हुए और पार्टी के प्रति परंपरागत रूप से वफादारी दिखाते आ रहे नेताओं को ही प्राथमिकता दी.

वरिष्ठ नेताओं के प्रति राहुल के रवैए को ले कर सोनिया हमेशा से चिंतित रही हैं और वे राहुल को समझाती रही हैं. लोकसभा चुनावों में राहुल ने अपनी मां की बात मानी लेकिन पार्टी का बंटाधार ही हुआ. तभी यह साफ हो गया था कि कांग्रेस संगठन के स्तर पर दोफाड़ हो गई है. ऐसे घोर निराशा के माहौल में राहुल गांधी के छुट्टी से लौटने के बाद किसी को उन से कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन हुआ उलटा. जिस ने भी राहुल गांधी के एकदो भाषण सुने, उसे लगा यह तो चमत्कार हो गया. कांग्रेसियों और देशवासियों ने महसूस किया, बदलेबदले मेरे सरकार नजर आते हैं. कायाकल्प हो गया है राहुल गांधी का. ऐसा आत्मविश्वासभरा राहुल गांधी उन्होंने पहले नहीं देखा था.  सोशल साइट्स वालों ने भी महसूस किया कि उन का पप्पू पास हो गया है. 58 दिनों के ‘अज्ञातवास’ के बाद लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अब पहले से बेहतर फौर्म में नजर आ रहे हैं. कभी राहुल का भाषण शुरू होने के बाद श्रोता खिसकने लगते थे. इन दिनों हर जगह राहुल गांधी के भाषण के चर्चे हैं. अब वे अपने भाषणों में भारी आक्रामक हो गए हैं. वे यह बात समझ गए हैं कि मीडिया और लोग सरकार की तीखी आलोचना, उस का मजाक उड़ाया जाना पसंद करते हैं.

लौटने के बाद दिए पहले ही भाषण में उन्होंने मोदी सरकार की जम कर आलोचना की. उसे गरीब विरोधी और सूटबूट की सरकार बताया और कहा कि यह सरकार चंद कौर्पोरेट कंपनियों के लिए काम कर रही है. उन का यह भाषण ऐसा सुपर हिट रहा कि देश समझ गया कि यह राहुल गांधी नया है. उन का सूटबूट वाली सरकार जुमला बच्चेबच्चे की जबान पर चढ़ गया. इस के बाद तो उन के एक से बढ़ कर एक भाषणों का तांता लग गया. इस के अलावा वे देश के कई हिस्सों में पदयात्रा कर के आम लोगों से संवाद कर रहे हैं. छुट्टी से लौटने के बाद राहुल दिल्ली के रामलीला मैदान पर एक सभा को संबोधित कर चुके हैं, संसद में 20-20 मिनट के 2 ऊर्जावान भाषण दे चुके हैं और 16 किलोमीटर की केदारनाथ और 20 किलोमीटर की विदर्भ में पदयात्रा कर चुके हैं. वे पहले से कहीं सक्रिय व आक्रामक लग रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि इन कुछ ही दिनों में राहुल ने इतना कुछ कर लिया है, जितना कि वे अपने पूरे एक दशक के राजनीतिक जीवन में भी नहीं कर पाए थे.

बदला अंदाज

राहुल का एक और अलग अंदाज उस समय देखने को मिला जब भिवंडी जाते समय खारेगांव नाके के जाम में उन की गाड़ी फंस गई. तभी एक मूंगफली बेचने वाला उन की गाड़ी के शीशे के पास आ कर मूंगफली लेने के लिए जिद करने लगा, हालांकि राहुल गांधी के अंगरक्षकों ने उसे मना करने की कोशिश की लेकिन राहुल ने इशारे से उन्हें मना कर दिया और गाड़ी का शीशा नीचे कर के बोला कि देदे भाई, मूंगफली. पैसे देने के लिए जब बौडीगार्ड ने पैसे देने की पेशकश की तो राहुल ने उन्हें तब भी मना कर दिया और अपने पौकेट से 10 रुपए निकाल कर उस वैंडर को दिए जबकि बाकी के 10 रुपए उन के बगल में बैठे सहयोगी ने दिए. यही कारण है कि अब सक्रिय राजनीति में राहुल की वापसी कई धारणाओं को बदल देने वाली है. लेकिन अगर आज देश तक राहुल गांधी की आवाज पहुंच रही है, तो क्या इस का कारण खुद राहुल में आई नई ऊर्जा है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति देश के उत्साह में आई गिरावट? शायद दोनों ही. मोदी कभी राहुल, सोनिया और कांग्रेस की निंदा कर खूब तालियां बटोरते थे. यूपीए सरकार को मांबेटे की सरकार, राहुल को शहजादा कह कर लोगों को खूब हंसाते थे. अब राहुल भी इस कला में माहिर हो गए हैं. वे मोदी की सरकार को  उद्योगपतियों की सरकार कह कर खूब वाहवाही लूट रहे हैं.

बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से देश को चाहे जितना नुकसान हुआ हो, राहुल के राजनीतिक कैरियर के लिए ये घटनाएं एक वरदान की तरह साबित हुई हैं और आपदाग्रस्त किसानों की सहानुभूति जीतने में वे कामयाब होते दिख रहे हैं. पहली बार मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की आवाज मुखर हो रही है. किसानों की समस्याओं पर संसद में बोलते हुए राहुल गांधी ने जिस आत्मविश्वास के साथ अपनी बातें रखी थीं, उस ने कई भाजपा नेताओं को चकित कर दिया. मोदी सरकार पर उन्होंने करारे हमले किए और चुटकियां भी लीं. किसानों के मुद्दे पर राहुल बारबार एक सवाल उछालते हैं जो मोदी सरकार को बहुत चुभता है.वे सवाल करते हैं कि नरेंद्र मोदी विदेश जाते हैं तो किसानों के बीच क्यों नहीं जाते? राहुल की ऐसी आलोचना भाजपा के लिए भारी पड़ती जा रही है. राहुल मोदी सरकार को जिस तरह घेर रहे हैं उस से मोदी डालडाल तो राहुल पातपात वाली स्थिति पैदा होती जा रही है. राहुल जो मुद्दे उठा रहे हैं उन का जवाब भाजपा के मंत्रियों को देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. हाल ही में तो मोदी ने इंटरव्यू दे कर राहुल द्वारा उठाए मुद्दों के जवाब दिए हैं. छुट्टी के बाद पहली बार अमेठी पहुंचे राहुल में बदलाव की यह झलक वहां भी महसूस की गई. 8 महीने बाद अमेठी में जो भी राहुल से मिला, वह आश्चर्यचकित था. अकसर अमेठी में भी ‘रिजर्व’ रहने वाले राहुल इस बार किसान पंचायतों में जमीन पर बैठ कर किसानों की समस्याएं सुनते दिखे. लोगों का कहना था, राहुल के पास पहले एसपीजी का बहुत मजबूत घेरा रहता था. वे लोगों से मिलते थे लेकिन इतने रिलैक्स अंदाज में पहली बार मिले हैं.

मोदी पर तीखा हमला

मोदी सरकार का 1 साल पूरा होने पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हमलावर तेवर और तीखे हो गए हैं. पार्टी के छात्र संगठन एनएसयूआई के कार्यक्त्रम में सरकार को कोसने के बाद मोदीमनमोहन की मुलाकात से बैक फुट पर गई पार्टी को राहुल ने राह दिखाई है. मुलाकात को ले कर सियासी अंदाज में राहुल ने कहा कि ‘मोदीजी को समझ में नहीं आ रहा कि अर्थव्यवस्था कैसे चलती है? इसलिए अर्थव्यवस्था समझने के लिए मनमोहन सिंहजी को बुलाना पड़ा. मनमोहन सिंहजी ने अर्थव्यवस्था पर मोदीजी की 1 घंटे की पाठशाला लगाई. नरेंद्र मोदी के सब से महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम मेक इन इंडिया की भी राहुल ने  खूब खिंचाई की और कहा कि सरकार एक के बाद एक गलती कर रही है. मेक इन इंडिया से जीरो निकलेगा. सरकार को लगता है कि 2-3 कंपनियों को ताकत देने से काम हो जाएगा. लेकिन इस से कुछ नहीं होगा. बदलाव के लिए देश की जनता को ताकत देनी होगी. उन्होंने कहा कि 1 साल में किसी को भी रोजगार नहीं मिला. 

प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिवादी कार्यशैली पर सीधे प्रहार करने से भी नहीं चूकते राहुल, वह भी व्यंग्यात्मक शैली में. सुनिए उन की जबानी. ‘हर बात आजकल एक ही व्यक्ति जानता है. शिक्षा की बात हो या कपड़ों की बात. सिर्फ एक व्यक्ति जानता है.’ उन के अनुसार, ‘कांग्रेस में हम सब से बात करते हैं और हल निकालते हैं. जो पार्टी कहती है, हम तय करते हैं, हमारे यहां आंतरिक बातचीत होती है, लेकिन वहां (भाजपा) यह सब नहीं है. अब देश को एक ही सोच चला रही है. हम गरीबों की मदद की बात करते हैं. वह फ्रांस, अमेरिका, नेपाल यहां तक कि मंगोलिया भी हो आए, लेकिन किसान, मजदूर व गरीब के घर नहीं गए.’

राहुल यहीं तक सीमित नहीं. उन्होंने भाजपा के मूल आधार संघ पर भी हमला करना शुरू कर दिया है. वे बताते हैं कि किस तरह आरएसएस की सोच तानाशाहीपूर्ण है तो कांग्रेस की सोच लोकतांत्रिक. उन्होंने कहा, ‘10 साल में मुझे एक बात समझ में आई है. पहले संगठन में मैं अनुशासन के पक्ष में था. सोचता था कि कांग्रेस में ऐसा क्यों नहीं है. लेकिन अब मैं समझ गया हूं. यह संगठन हर समय सब की सुनना चाहता है. हम सब की बात सुनना चाहते हैं.’ आरएसएस की तुलना नाजियों से करते हुए कहा कि उन की शाखा में लाइन एकदम सीधी लगती है. चूं करने वाले पर लाठी चल जाती है. आरएसएस व भाजपा एक जैसी चलती हैं. अनुशासन उन के लिए विरोध की आवाजों की हत्या करने का बहाना है. आज यही सोच हिंदुस्तान को चला रही है. कहना न होगा कि राहुल गांधी के इस हमले से भाजपा और आरएसएस तिलमिलाए हैं. आरएसएस ने तो राहुल की आलोचना का जवाब देते हुए तुरंत बयान जारी किया है, जिस में राहुल की आलोचना का करारा जवाब दिया गया है. यानी केवल मोदी ही नहीं, संघ को भी राहुल की आलोचना का जवाब देने को मजबूर होना पड़ा है. बदले हुए राहुल के तेवरों को देख कर सवाल उठने लगे हैं कि क्या अतीत में राहुल का उचित मूल्यांकन किया गया था? क्या उन्हें कांग्रेस पार्टी पर एक बोझ बताने वाले लोग गलत थे? या फिर कांग्रेसी अपने ‘युवराज’ के फौर्म में लौट आने पर जरूरत से ज्यादा उत्साह का प्रदर्शन कर रहे हैं?

सक्रिय राजनीति में वापसी के बाद उन में इस बात की समझ नजर आई है कि उन्हें किस वर्ग को संबोधित करना है और किस भाषा में. उन्होंने इस बात को भी अच्छे से समझा है कि वामदलों की विश्वसनीयता क्षीण होने के बाद से कोई भी पार्टी किसानों, गरीबों और वंचितों के हितों की हिमायती होने की अपनी भूमिका को बहुत अच्छे से निभा नहीं पाई है. कांग्रेस को यह भूमिका निभानी चाहिए. लोकसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी जिस तरह बिखरेबिखरे लग रहे थे उस लिहाज से ये राहुल गांधी अलग हैं.लेकिन लाख टके का सवाल तो यही है कि राहुल गांधी मोदी सरकार को घेरने और एक सफल विपक्षी नेता के तौर पर उभरने में भले ही कामयाब हुए हों लेकिन उन की ये तमाम कोशिशें मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस में क्या प्राण फूंक पाएंगी या कहीं राहुल अपनी पुरानी आदत के वशीभूत हो कर खुद ही तो खराब सेहत की समस्या से जूझ रही अपनी मां को फिर से पार्टी चलाने की जिम्मेदारी सौंप कर कहीं गायब तो नहीं हो जाएंगे? यही वजह है कि राहुल की राजनीति की दिशा के बारे में कोई भी निर्णय लेने से पहले थोड़े समय और इंतजार करने की जरूरत है.

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