‘‘ममा, आप की चिट्ठी,’’ बेटे ने डाक देखते हुए कहा.
‘‘चिट्ठी? आजकल तो डाक के नाम पर बिजली, टैलीफोन का बिल या कोई औफिशियल लैटर ही होता है. मोबाइल और ईमेल के जमाने में चिट्ठी लिखने की फुरसत ही किसे है?’’
‘‘हां, देखिए तो, पता हिंदी में लिखा है…’’ मानो चिट्ठी के साथ ही हिंदी में लिखा पता भी एक अजूबा ही हो.
मैं ने चिट्ठी हाथ में ले कर पहले पते पर नजर डाली. मोती से पिरोए अक्षर कुछ जानेपहचाने से तो लगे पर स्मृति पर जोर डालने पर भी याद नहीं आया कि किस के लिखे हुए हो सकते हैं. ऊपर भेजने वाले का नाम नहीं था. चिट्ठी खोल कर पढ़ते ही चौंक उठी, ‘अरी गुड्डो.’ एक नातीपोते वाली अधेड़ स्त्री के लिए गुड्डो उद्बोधन अजीब ही लगेगा. मैं तो स्वयं भी भूल चुकी थी कि बचपन के कुछ वर्ष मुझे इसी नाम से पुकारा जाता था. पुरानी नौकरानी अवश्य मेरे काफी बड़े हो जाने के बाद भी मुझे ‘गुड्डो बाई’ कह कर पुकारती रही, पर अब तो उसे मरे भी जमाना बीत चुका था.
‘अरी गुड्डो, इतने साल बाद मेरी चिट्ठी पा कर तू हैरान हो रही होगी, है न? तेरी शादी के भी कई साल बाद तक हम दोनों एकदूसरे को चिट्ठी लिखती रही थीं. याद है न? पर जीजाजी के बारबार के तबादलों में यह सिलसिला कब खत्म हो गया, पता ही नहीं चला. खैर, मैं तो बराबर नागपुर में ही बनी रही और मेरा पता भी बराबर वही रहा. तू तो बीचबीच में अपनी खबर दे सकती थी. पर जाने दे, शिकायत नहीं कर रही, बुरा मत मानना. हम स्त्रियों की जिंदगी ही ब्याह के बाद कुछ ऐसी हो जाती है कि बचपन का सबकुछ पीछे छूट जाता है. ‘अब तो मैं तुझे निमंत्रण दे रही हूं. हमारी शादी की 50वीं सालगिरह है. यों हम ने पहले तो कभी शादी की सालगिरह नहीं मनाई पर इस बार तेरे भांजेभांजियां कुछ धूमधाम करने पर तुले हुए हैं, सो तुझे जीजाजी और बच्चों के साथ जरूर आना है. अब तो तू भोपाल में ही है, सो ज्यादा दूर भी नहीं है. देख, कोई बहाना नहीं चलेगा. जो तू न आई तो अब की मेरी पक्कीपक्की कुट्टी. जीजाजी को नमस्कार, बच्चों को प्यार, जरा जल्दी में हूं, बाकी मिलने पर.
तेरी अंगूरी.’
पत्र पढ़ कर मैं यादों में खो गई. मेरे बचपन की सहेली अंगूरी. गोरीचिट्टी, गुलगोथनी सी, बातबात पर हंसने वाली, जिस के लिए दिन में कई बार अपनी दादी की डांट खाती, ‘छोरियों का इत्ता हंसना अच्छा नहीं न होवे…’ पर अंगूरी की हंसी तो निर्झर बहते झरने सी झरती रहती. मध्य प्रदेश का छोटा सा गांव जहां विभाजन से पहले ही आ कर बसे 6-7 पंजाबी और 12-13 मारवाड़ी परिवार बाकी लोकल रहवासी. आपस में काफी भाईचारा. अंगूरी का परिवार हमारा पड़ोसी होने के कारण, हम दोनों हमउम्र सखियों का अधिकांश समय साथ ही बीतता. उस में व्यवधान तब आया जब गांव के प्राइमरी स्कूल से पास होने पर मैं आगे पढ़ने के लिए जबलपुर चली गई. उस समय गांव के मारवाड़ी समाज में लड़कियों को होस्टल भेजने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता था. छुट्टियों में घर आने पर पुराना सिलसिला जारी रहता. मैं उसे अपने स्कूल और होस्टल की बातें बताती और वह मेरे पीछे गांव में घटी हर घटना से मुझे अवगत कराती. चिट्ठियों का सिलसिला भी बदस्तूर जारी रहता. पढ़ने का शौक होने के कारण अपने पिता को पटा कर उस ने किसी तरह प्राइवेट मिडिल पास कर लिया. फिर उस की शादी हो गई. छुट्टियां न होने के कारण मैं उस की शादी में नहीं आ पाई थी.
छुट्टियों में घर आने पर मैं सब से पहले उस से ही मिलने गई. पर अंगूरी को देख कर मुझे धक्का सा लगा. इन चंद महीनों में ही वह बिलकुल बदल गई थी. उस का गोरा गुलाबी रंग पीला पड़ गया था. उस की निर्झर सी हंसी भी गायब हो गई थी.
‘अंगूरी, तू बीमार है क्या? तू ने चिट्ठी में तो कुछ लिखा ही नहीं? क्या हो गया तुझे…?’
चिंतित काकी ने बताया, ‘पता नहीं बेटी, इसे क्या हो गया है. न पहले की तरह हंसतीबोलती है न ठीक से खातीपीती है. पिछले महीने गौने का मुहूर्त निकला, सब तैयारी हो गई पर यह बीमार पड़ गई. अंगूरी को पहले तो कभी बीमार पड़ते नहीं देखा. तेज बुखार और उल्टी. जबरदस्ती खिलाओ तो उसी समय सब निकल जाता है. इटारसी ले जा कर डाक्टर से इलाज कराया पर कोई फायदा नहीं हुआ. लोग कहते हैं कि किसी ने कुछ कर दिया है. सो, झाड़फूंक भी बहुत करवाया. पर यह वैसी की वैसी है. अब इस की ससुराल वाले फिर से मुहूर्त निकलवाने को कह रहे हैं. आखिर ब्याही छोरी को कब तक घर में रखेंगे. लोग पचास तरह की बातें करते हैं. यह बस चुप, घुन्नी सी बैठी रहती है. कुछ बताती भी तो नहीं. तू पूछ न, गुड्डो, तेरी सहेली है, बहन जैसी. शायद तुझे कुछ बताए.’ और काकी आंसू पोंछती वहां से उठ गईं.
मैं ने खोदखोद कर उस की ससुराल के बारे में पूछने की बहुत कोशिश की पर उस ने यही कहा कि वहां सब लोग बहुत अच्छे हैं.
‘पर कोई बात तो होगी. पहले तो तू ऐसी न थी. क्या जीजाजी…’
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,’ उस ने जल्दी से मेरी बात काट दी.
‘फिर क्या है?’
‘क्या बताऊं, गुड्डो, तू नहीं समझेगी.’
मैं ने इसी साल मैट्रिक कर के कालेज में दाखिला लिया था, चिढ़ कर बोली, ‘हां, मैं भला कैसे समझूंगी, तू तो शादी के बाद पुरखिन हो गई. दुनियाभर की समझ तो तुझ में ही पैदा हो गई है न?’ मैं खीझ कर उठ गई. मेरे वापस होस्टल जाने से 2 दिन पहले पता लगा कि अंगूरी की सास आई हैं. उन दिनों उन की बिरादरी में महिलाएं बहुओं के मायके नहीं जाती थीं. इसलिए सब को आश्चर्य हुआ. वे अंगूरी के साथसाथ उस की छोटी बहनों और सहेलियों के लिए भी ढेरों उपहार लाई थीं. अंगूरी के लिए उन की आंखों में छलकते प्यार में कोई बनावट नहीं थी. उन्होंने अंगूरी से क्या बातें कीं, यह तो पता नहीं चला पर अगली बार गौने का मुहूर्त निकलने पर अंगूरी बीमार नहीं पड़ी. बाद में उस के साथ मुलाकात होने या उस के पत्रों से भी उस के व्यवहार में कोई अस्वाभाविकता नजर न आने के कारण मैं ने भी फिर कभी उस से कुछ नहीं पूछा. इसी बीच, बेटे ने आवाज लगाई तो मैं वर्तमान में लौट आई.
उस के निमंत्रण पर हम ने उस की शादी की वर्षगांठ में जाने का निश्चय कर लिया. नागपुर स्टेशन पर अंगूरी और उस के पति हम लोगों को रिसीव करने आए. अंगूरी के बालों में भी मेरी तरह उजले तार चमक रहे थे और उस के पति कुछकुछ गंजे हो चले थे. पर दोनों के ही चेहरों पर खुशी और संतोष साफ झलक रहा था. दूसरी रात पार्टी समाप्त होने के बाद हम दोनों सहेलियां जब कमरे में लेटीं तो उस ने अपने जीवन की पुरानी कहानी से परदा उठाया. उस ने लजाते हुए बताया कि शादी के समय उसे सैक्स के विषय में कोई जानकारी नहीं थी. गांव की हमउम्र लड़कियों में उसी की शादी सब से पहले हुई थी. घर में भी कोई बड़ी बहन या भाभी के अभाव में उसे कौन कुछ बताता. पहली रात पति के प्रस्ताव पर वह एकदम भौचक रह गई थी. जब पति ने उसे समझाने का यत्न किया कि यह तो शादी का ही एक हिस्सा है तो वह घबरा कर पलंग से उठ कर खड़ी हो गई. जब पति ने उसे हाथ पकड़ कर बैठाने की कोशिश की तो वह चीख मार कर बेहोश हो गई. चीख सुन कर घरभर इकट्ठा हो गया. मेहमान स्त्रियां दबे स्वरों में टिप्पणियां कर रही थीं पर सास ने सब को समझा कर वहां से हटा दिया कि बहू को किसी कीड़े ने काट लिया है. पति को बुला कर भनभनाते बेटे को अपने साथ ले जाने को कह कर उसे पुचकारते हुए अपने साथ लिटा लिया. वह रोती हुई बारबार कहे जा रही थी कि मुझे यहां नहीं रहना. उस के बाद 3-4 दिन वह ससुराल में रही, सास अपने ही साथ सुलाती रही. पति अत्यंत क्रोध में थे. बहुत समझाने पर ही उन्होंने उस के साथ सब नेगवेग पूरे किए.
गौने की बात चलने पर उस की बीमारी का पता चला तो सासूमां बिरादरी में चलने वाली कानाफूसियों की परवा न करते हुए स्वयं ही उस के मायके आ पहुंचीं. उन की अनुभवी नजरों ने देख लिया कि अंगूरी की अपनी और चचेरी बहनें बहुत छोटी हैं और उस की सभी सहेलियां भी अभी अविवाहित हैं, सो वे अंगूरी की परेशानी समझ गईं. कुछकुछ अंदाजा तो उन्हें बेटे की शिकायत से ही हो गया था. उन्होंने उसे कोई उपदेश नहीं दिया, सिर्फ इतना कहा कि अब जब तुम्हारी शादी हो चुकी है तो यदि तुम ससुराल नहीं गईं तो तुम्हारे मातापिता की बदनामी होगी. छोटे भाईबहनों, खासकर बहनों की शादी में भी मुश्किलें आएंगी. तुम अपने मातापिता के दुख का कारण तो नहीं बनना चाहोगी न, जिन्होंने तुम्हें इतने लाड़प्यार से पाला है. हां, तुम्हें मेरे बेटे से संबंध रखने की जरूरत नहीं, तुम मेरे ही साथ रहोगी और अपनी छोटी ननद के साथ सोओगी. यहां वे हमेशा सब से उस की तारीफ करतीं और हर बात में उस का परामर्श लेने व आगे रखने की कोशिश करतीं. फिर पता नहीं कैसे एक ही घर में रहते, कब उस के पति का क्रोध और स्वयं उस का उन के प्रति डर गायब हो गया. अब तो दुनिया देख ही रही है. उसे किसी से किसी बात की शिकायत नहीं है. कभीकभी सोचती है कि उस की सास के स्थान पर कोई और सास होती तो क्या हुआ होता. हठात, उस की नजरें माला चढ़ी सास की तसवीर की ओर उठ गईं. उस की नजरों में अथाह श्रद्धा थी. मेरी नजर भी उधर ही उठ गई. उस नारी को मैं ने जीवन में बस एक बार ही देखा था. उस साधारण गृहस्थ निरक्षर नारी ने मनोविज्ञान और मैरिज काउंसलिंग जैसे शब्द कभी सुने भी न होंगे. पर नारी मन की उन छोटीमोटी उलझनों को खूब समझती थी जिन के चलते कई जीवन बरबाद हो जाते हैं.