जी हां, विवाहों के पिछले सीजन में मैं भी सास बन गई हूं. वैसे देखने में तो अपने 24 वर्षीय पुत्र की बड़ी बहन ही लगती हूं, पर हां, मेरा पद अवश्य बढ़ गया है. अब बारी आ गई है मेरी वे सभी कर्जे चुकाने की जो बहू बनने के बाद से आज तक मेरे माथे थे. रिश्तेदारों, मित्रों सभी की नजरों में मैं बहुत शांत स्वभाव की महिला हूं. लोग तो यहां तक कहते हैं कि मेरी बहू ने कितने अच्छे कर्म किए होंगे जो ऐसी सास उसे मिली. और कहें भी क्यों न, आज तक बहू को मैं ने कभी ऊंची आवाज में डांटा तक नहीं. यह अलग बात है कि घर आते ही बेटे को दैनिक घटनाओं से मैं तुरंत अवगत करा देती हूं. बहू को चढ़ाई सारी अच्छी साडि़यां, मैं ने रख ली हैं. अरे भई फैशन पलटते देर ही नहीं लगती. इतनी सारी एक ही फैशन की साडि़यों का वह क्या करेगी, उसी के लेनेदेने में ही तो ये साडि़यां कल काम आएंगी. और तो और, उस के गहने, हमारा चढ़ाया हीरे का सैट सब मेरे पास ही हैं. आजकल तो चोरउचक्कों का कोई अतापता नहीं, इसलिए मेरे लौकर में उस के सारे भारी गहने मैं ने रख छोड़े हैं. हां, कभीकभी उन्हें मैं पहन लेती हूं. अब भई, पता भी तो रहना चाहिए कि कहीं कुछ गायब तो नहीं हो गया.

घर में मित्रोंरिश्तेदारों के आते ही बहू जो काम रोज करती है, वह मैं उसे करने नहीं देती. अब देखिए, बेटीबहू सभी एकसमान हैं. हां, यह अलग बात है कि बहू को कुछ बनाना नहीं आता या खराब बनाया होता है तो मैं उसे चुपचाप से अपने संबंधियों को चखा देती हूं. खामख्वाह बहू के प्रति उन की उम्मीद बढ़ाने से क्या फायदा? बहू यों तो मायके कम ही जाती है पर उस के पीछे उस का कमरा, उस की अलमारियां सब मैं साफ करती रहती हूं, जमाती रहती हूं. आखिर मेरा भी तो कुछ फर्ज बनता है बहू के प्रति. यह बात अलग है कि उस दौरान मु झे बहू के पस और क्याक्या है, पता चल जाता है. एक तरह से अच्छा ही है. आकस्मिक पार्टियों में भेंट देने को ऐसे ही गिफ्ट तो काम आते हैं.

सुबहसवेरे सत्संग जाए बगैर मु झे चैन ही नहीं मिलता. अजी सत्संग के अनेक फायदे हैं, एक तो भगवान का ध्यान 1-2 घंटे का हो जाता है, दूसरे, सभी सहेलियों से उन की बहुओं की ताजातरीन खबरें और नुस्खे मिल जाते हैं और तीसरे, घर आते ही गरमगरम खाना टेबल पर तैयार मिलता है. बहू को फैशनेबल कपड़े मैं ने कभी पहनने नहीं दिए. अजी हमारी भी तो कोई संस्कृति है. यह सलवार, सूट, जींस वगैरह तो अपनी परंपरा नहीं है. साड़ी ही भारतीय परिधान है, फिर भले ही उस में भागदौड़ करते वक्त पैर फिसले और कोई गिर क्यों न पड़े. सिर ढकना तो हमारी सभ्यता की निशानी है. अब बहू भले ही विजातीय हो, बेटे की पसंद और लवमैरिज से आई हो, पर रह तो हमारे ही घर में रही है न. सास बन कर मैं बेहद प्रसन्न हूं. सारे पड़ोसी मेरा लोहा मानते हैं. बहू मेरी सारी बातें मानती, जो कभी नहीं भी मानती है तो मेरी तबीयत ही खराब हो जाती है. फिर ईसीजी के बिल, डाक्टर की दवाओं का बिल देख कर वह अपनेआप मान जाती है.

पोतेपोती भी मु झ से बहुत ही प्रसन्न रहते हैं. आतेजाते उन को टौफीचौकलेट जो मैं खिलाती रहती हूं. अब बहू मना करे तो भी क्या? इस उम्र में चौकलेट नहीं खाएंगे तो कब खाएंगे. अब दांतों में कीड़ा तो रोज रात को ब्रश नहीं करने से लगता है और यह तो बहू की ही जिम्मेदारी है न. दहेज की मैं ने कभी मांग ही नहीं की. इस उम्र में धनमाया का मैं क्या करूंगी. हां, पड़ोस की बहुएं जो तीजत्योहारों पर ससुराल वालों के लिए सौगातें लाती रहती हैं, वह जरूर बहू को बता देती हूं. अब अपने पासपड़ोस की भी तो आदमी को खबर रखनी चाहिए. अपनी बहू की कद्र करना तो कोई मु झ से सीखे. पीएचडी की उस की पढ़ाई को मैं ने रोका नहीं और उसे नौकरी भी करने दी. मेरा लाड़ बहू के कामकाजी होने की वजह से भी कभी कम नहीं हुआ. शाम को बहू ही आ कर अदरक वाली चाय और खाना बनाती है. भई, उस के हाथ की चाय के बिना उठा ही कहां जाता है बिस्तर से. भले ही शादियों, फंक्शनों में बहू दस्तूर दे आए, पर वहां से आए गिफ्ट तो मैं ही रखती हूं. अब भई, मिलना बरतना तो मु झे ही है. उस बेचारी को क्या पता कि कहां क्या देनालेना है. नारी सशक्तीकरण के चलते मैं ने कभी बहू को इमोशनली कमजोर नहीं होने दिया. जब भी वह रोती है, मैं उस के आंसुओं को मगरमच्छ के आंसू करार दे देती हूं, बस. बहू का रोना बंद हो जाता है. आखिर उसे स्ट्रौंग बनाना भी तो मेरा ही कर्तव्य है.

घर, औफिस, बच्चों से बहू जब भी थोड़ी फ्री होती है, मैं अपने ब्लाउज, साड़ीफौल उसे थमा देती हूं. आखिर सिलाईकढ़ाई के हुनर को जीवित रखना भी तो बेहद जरूरी है. सिलाईकढ़ाई करेगी नहीं तो दक्ष कैसे होगी और इन सब कामों से उसे टाइम न मिलने के कारण वह मेकअप भी कहां कर पाती है, तभी तो सिंपल रहती है. कहते भी हैं न, सादगी में भी सुंदरता है. घर का खर्च दोनों कमाऊ बेटाबहू से मैं बराबर लेती है. समानता का जमाना है भई. बड़े विवेकपूर्ण ढंग से उसे खर्च करती हूं. विवाहित बेटे और अविवाहित बेटे को बराबर खर्चा देती हूं. इसी अनुशासन दूरदृष्टि व सहयोगात्मक रवैए के कारण ही तो मैं इतनी प्रसिद्ध हूं. बहू की भावनाओं को जितना मैं सम झती हूं उतना और कोई नहीं. और सम झूं क्यों नहीं, आखिर सास भी तो कभी बहू थी.

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