भारी बिकवाली से बाजार में निराशा की स्थिति

बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक 30 हजार अंक के स्तर को छूने के लिए तत्पर है. इस मनोवैज्ञानिक स्तर तक पहुंचने में कई बार यह गहरा गोता भी लगा रहा है तो कई बार ऊंची छलांग लगा रहा है. इस ऊहापोह के बीच 29 जनवरी को सूचकांक ने सर्वाधिक ऊंचाई हासिल की लेकिन अगले ही सत्र में 500 अंक का गोता लगा गया. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी औसतन इसी स्तर पर आगेपीछे हो रहा है. इन सब स्थितियों के बावजूद निवेशकों में देश की आर्थिक तरक्की को ले कर विश्वास का भाव है और उन का उत्साह लगातार बाजार को नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए बना हुआ है. हालांकि फरवरी के पहले दिन से ही बाजार में गिरावट का माहौल रहा और प्रथम सत्र में ही सूचकांक एक सप्ताह के निचले स्तर पर पहुंच गया. फरवरी की शुरुआत से सूचकांक लगातार 7 सत्र तक गिरावट के साथ बंद होता रहा. सप्ताह के आखिरी दिन यानी 5 फरवरी को बाजार रिजर्व बैंक के नीतिगत दरों में कटौती नहीं करने की वजह से निवेशकों में निराशा का माहौल बना और सूचकांक बिकवाली के भारी दबाव में 2 सप्ताह के निचले स्तर पर आ गया और 29 हजार के मनोवैज्ञानिक स्तर से उतर गया. बावजूद इस के, जानकारों को उम्मीद है कि बाजार उठेगा और इस का संकेत रुपए का मजबूत होता रुख दे रहा है. हालांकि राजनीतिक समीकरणों के बदले रुख के अनुमान से फरवरी के दूसरे सप्ताह की शुरुआत जोरदार झटके के साथ हुई और सूचकांक करीब 5 अंक टूट गया.

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कुशल कामगारों की कमी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ नीति कितनी कारगर होगी यह अनुमान लगाना फिलहाल आसान नहीं है. लेकिन इस बहाने देश के 10 करोड़ युवकों के लिए विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है उस से बेरोजगार युवकों में उत्साह है. इस के ठीक विपरीत स्थिति विनिर्माण क्षेत्र की कंपनियों की है. इस की वजह कौशल के आधार पर कामगारों की व्यवस्था पर नजर रखने वाले नैशनल एक्युपेशनल क्लासिफिकेशन कोड का वह डाटा है जिस में कहा गया है कि देश में विनिर्माण क्षेत्र के लिए कुशल कामगारों की भारी कमी है.

कोड का कहना है कि इस क्षेत्र में नौकरी पाने के लिए 90 फीसदी कामगारों का कुशल होना आवश्यक है जबकि 90 फीसदी युवक कालेजों से सीधे निकल कर नौकरी मांग रहे हैं. उन युवकों में ज्ञान, विज्ञान की अच्छी समझ है लेकिन विनिर्माण क्षेत्र के लिए जिस कौशल की आवश्यकता है उस का अभाव है. देश में 4 करोड़ लोग संगठित क्षेत्रों में काम कर रहे हैं लेकिन इन में मात्र 2 फीसदी ही व्यावसायिक प्रशिक्षणप्राप्त हैं. इसी तरह से 70 फीसदी कामगार प्राथमिक अथवा उस से कम स्तर तक पढ़ेलिखे हैं. मुश्किल से 10 प्रतिशत ही व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल किए हुए हैं जबकि निर्माण क्षेत्र में 10 में से एक ही कुशल श्रमिक है. इस की बड़ी वजह है कि आईटीआई कौशल विकास के उचित प्रबंध नहीं हैं. वहां से सर्टिफिकेट तो मिल जाता है लेकिन युवकों को व्यावहारिक ज्ञान उपकरणों की कमी आदि की वजह से नहीं हो पाता है.

राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद का हाल ही में एक सर्वेक्षण आया है जिस में कहा गया है कि हालात नहीं सुधरे तो 2022 तक आटोमोबाइल क्षेत्र में 3.50 करोड़, निर्माण क्षेत्र में 1.5 करोड़ तथा ज्वैलरी क्षेत्र में 5 करोड़ कुशल कामगारों की कमी हो जाएगी. सरकार को उस कमी को पूरा करने के लिए सरकारी के साथ ही निजी क्षेत्र के प्रशिक्षण संस्थानों को महत्त्व देने की जरूरत है.

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डिजिटल इंडिया का ‘कमजोर’ सिगनल

देश में इंटरनैट और मोबाइल फोन उपभोक्ताओं की संख्या जिस गति से बढ़ रही है उस रफ्तार से उन्हें यह सेवा उपलब्ध नहीं हो पा रही है. सिगनल्स बहुत ही कमजोर हैं, उपभोक्ता इस से बेहद आहत है. संचार मंत्री और प्रधानमंत्री इस समस्या से अवगत हैं. प्रधानमंत्री ने तो देश में इंटरनैट की गति धीमी होने की वजह जानने के लिए संचार सचिव को रिपोर्ट प्रस्तुत करने को भी कहा था, इसी तरह से संचार मंत्री भी मोबाइल कनैक्टिविटी के कमजोर होने से परेशान हैं. संचार मंत्री का दावा है कि उन्होंने सेवा प्रदाताओं को सेवा में सुधार के लिए सख्त आदेश दिए हैं और जल्द ही उपभोक्ताओं को बेहतर सेवा मिलनी शुरू हो जाएगी. उन का कहना है कि ब्रौडबैंड का सीधा संबंध सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी से है और इस के स्तर पर समझौता नहीं किया जा सकता है.

मंत्री का कहना है कि संचार क्षेत्र में अरबों का कारोबार हो रहा है और उस से 10 लाख लोगों को सीधे और 30 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मिल रहा है. देश में 90 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता और 30 करोड़ लोग इंटरनैट का इस्तेमाल कर रहे हैं. इतने बड़े स्तर पर जिस सेवा की सेवाएं ली जा रही हैं उस में सुधार किया जाना समय की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि इस सेवा क्षेत्र पर निगरानी रखने वाले दूरसंचार नियामक यानी ट्राई के द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार सेवा उपलब्ध कराई जा रही है. इस स्थिति में या तो सेवा प्रदाता के स्तर पर कुछ गड़बड़ी है या फिर ट्राई ने उचित स्तर पर मानक तय नहीं किए हैं. स्थिति जो भी हो, जब सरकार ही इस क्षेत्र की सेवा से खुश नहीं है तो आम उपभोक्ता के संतुष्ट होने की जगह ही नहीं बचती है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो सिगनल्स मिलते ही नहीं हैं. उपभोक्ता को बात करने के लिए छतों पर या ऊंचे स्थान पर जाना पड़ता है. सरकारी क्षेत्र के उपभोक्ता तो महानगरों में भी परेशान हैं. पोर्टिबिलिटी में यदि यही स्थिति रही तो डिजिटल इंडिया का सपना किस तरह पूरा हो सकता है.

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जनधन योजना का ‘आधार’ चरण

केंद्र सरकार जनधन योजना को अपनी उपलब्धि की अब तक की सब से सफल योजना बता रही है. यह सचाई भी है. इस से गरीबों के खातों में पैसा भले ही नहीं हो लेकिन उस के हाथ में पासबुक है. इस से कई गरीबों का बैंक खाता होने का सपना पूरा हुआ है. रिकौर्ड समय में रिकार्ड खाते खुले. योजना को कम समय में सर्वाधिक खाता खोलने के लिए गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में भी जगह मिली. जीरो बैलेंस के इन खातों में सूखापन नहीं रहे इसलिए विभिन्न सरकारी योजनाओं में मिलने वाली सब्सिडी को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण यानी डीवीटी के जरिए इस योजना से जोड़ दिया गया. मतलब कि रसोई गैस का सिलेंडर दोगुनी कीमत पर खरीदिए और सब्सिडी का पैसा डीवीटी में आ जाएगा. इस का तात्पर्य यह हुआ कि आप का बटुआ तत्काल भरा होना चाहिए. इस से गरीब परेशान है.

बहरहाल, सरकार का कहना है कि योजना का पहला चरण पूरा हो चुका है और दूसरे चरण में इन खातों का उपयोग अब खाताधारक को कर्ज देने, उस के बीमा करने और यहां तक कि उस की पैंशन योजना के लिए भी किया जाएगा. इस के लिए जनधन योजना के सभी खातों को आधार से जोड़ा जा रहा है. ठीक है कि गरीब के लिए आधार नया प्लेटफौर्म होगा लेकिन जरूरत योजनाओं के क्रियान्वयन की है. वृद्धावस्था पैंशन अथवा विधवा पैंशन समय पर मिले, इस के लिए गरीब को तंग नहीं होना पडे़. पैसा आधार से जुड़े या पोस्ट औफिस के जरिए पहुंचे, उस से फर्क नहीं पड़ता. कर्ज मिले अथवा पैंशन, वह समय पर गरीब को उपलब्ध हो, उसे इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. गरीब के लिए योजनाएं तब ही फायदेमंद हैं जब जरूरत के समय उसे उन का लाभ मिले. लाभ तब ही मिलेगा जब समय पर उस के पास पैसा पहुंचेगा.

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