आम आदमी पार्टी यानी आप ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अद्भुत जीत हासिल की है. चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब 2 राष्ट्रीय दल मात्र 2 साल पुरानी एक नौसिखिया पार्टी से बुरी तरह परास्त हो गए. ‘आप’ की सुनामी में कांगे्रस का तो नामोनिशान ही मिट गया. राजनीति करना केवल राजनीतिक दलों का काम है. नेता उस शेर की तरह होता है जो अपनी मांद में किसी दूसरे का घुसना स्वीकार नहीं कर सकता. यह सोच पुरानी पड़ती जा रही है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता ने जिस तरह से आम आदमी पार्टी को उस की व सब की उम्मीदों से अधिक सीटें दे कर सरकार बनाने का मौका दिया है उस से राजनीति में एक नए कल्चर की शुरुआत हुई है.
दिल्ली देश का दिल है. यहां देश के हर राज्य के लोग रहते हैं. दिल्ली का वोटर राजनीतिक दलों को दूसरों से ज्यादा समझता है. वह दिल्ली और दिल्ली के बाहर इन के कामकाज को देखता है. उसे पता होता है कि उस के गृहप्रदेश, जहां का वह रहने वाला है और दिल्ली में जहां वह रहता है, के बीच क्या राजनीतिक दूरियां हैं. दिल्ली के वोटर ने ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल पर इसलिए भरोसा किया क्योंकि वे उन को अपने बीच के इंसान लगते हैं
दिल्ली में प्रचंड जीत के बाद अरविंद केजरीवाल ने अपनी पत्नी सुनीता के सहयोग की न केवल तारीफ की बल्कि मंच पर सब के सामने उन को गले लगा लिया. ऐसा काम नेता करने का साहस नहीं कर सकते. आम आदमी खुश हो कर इसी तरह गले लगा कर पत्नी को सम्मान देता है. बहुत सारे नेता अपने घरपरिवार को जनता के सामने लाने में संकोच करते हैं, पत्नी को गले लगाना तो दूर की बात होती है. भारतीय राजनीति में आजादी के बाद से अब तक राजनीतिक दलों का प्रभाव रहा है. विभिन्न दल जातिबिरादरी और धर्म के नाम पर वोट पा कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं. पहली बार जनता को लगा है कि राजनीतिक दलों से दूर रहते हुए भी न केवल चुनाव जीता जा सकता है बल्कि सरकार भी बनाई जा सकती है. विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 67 सीटें हासिल कर ‘आप’ ने प्रचंड बहुमत पा लिया जबकि भारतीय जनता पार्टी केवल 3 सीटें ही ले पाई. भाजपा की तरफ से घोषित मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी खुद चुनाव हार गईं. इस चुनाव में भाजपा ने 200 सांसद, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्रिमंडल के 2 दर्जन सदस्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और उस के सहयोगी संगठन, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तथा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विशाल फौज के साथ दिल्ली फतह करने उतरे थे.
भाजपा ने इस बार चुनावी घोषणापत्र नहीं, दृष्टिपत्र जारी किया, जिस में कोई नई बात नहीं थी. बिजली, पानी के बिल आधे करने के आश्वासन थे, झुग्गीझोपड़ी वालों को पक्के मकान बना कर देने के वादे थे. उस का दृष्टिपत्र आप के वादों का मुकाबला करने का आधाअधूरा ही प्रयास था. अन्ना आंदोलन में अरविंद केजरीवाल की सहयोगी रहीं किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया गया था. भाजपा की दुर्गति के जो कारण बताए जा रहे हैं उन में स्थानीय नेताओं की अनदेखी, अंतिम समय में पार्टी से बाहर की किरण बेदी को सेनापति बनाना, केजरीवाल पर व्यक्तिगत हमले, भाजपा नेताओं के बेतुके बयान और खुद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने भाषणों में केजरीवाल पर निजी हमले तथा विज्ञापनों में उस का निम्न स्तर तक पहुंच जाना प्रमुख हैं.
उधर, आप नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता की व्यावहारिक समस्याओं की बात की. आप की पिछली 49 दिन की सरकार के कामकाज में एक बदलाव की झलक लोगों को दिखाई दी थी. बिजली सस्ती, पानी, वाईफाई फ्री जैसे वादों ने आम मध्यवर्ग से ले कर, निचले गरीब और युवाओं तक को लुभाया. भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने संकल्प को पार्टी ने दोहराया. अरविंद केजरीवाल ने पिछली बार 49 दिन में सरकार छोड़ने की गलती के लिए जनता से माफी मांगी. चुनाव में आम आदमी पार्टी की भारी जीत की जितनी चर्चा देशदुनिया में हो रही है, उतनी ही भाजपा की हार की. आखिर ऐसा क्या कारण है कि 8 महीने पहले दिल्ली की सभी 7 लोकसभा सीटें और 60 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल करने, हाल में महाराष्ट्र, झारखंड जीतने और जम्मूकश्मीर विधानसभा चुनाव में जीत के नजदीक पहुंचने वाली भाजपा का विजयरथ दिल्ली में क्यों बुरी तरह फंस गया. जिन प्रधानमंत्री मोदी की दुनिया भर में वाहवाही हो रही थी, वे क्यों निशाने पर आ गए?
दरअसल, भाजपा की हार के जो कारण मीडिया में बताए जा रहे हैं, मसलन, स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, किरण बेदी को लाना, प्रचार में निचले स्तर तक गिर जाना, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भाषणों में कोरी लफ्फाजी करना और केजरीवाल को कोसना आदि सब सतही मात्र हैं.
सामंतशाही के खिलाफ गुस्सा
असल में यह मतदाताओं का महज चुनावी फैसला नहीं है, यह उस राजनीतिक और धार्मिक, सांस्कृतिक सामंतशाही के खिलाफ जनता का गुस्सा है जो सदियों से लोगों की बुनियादी और प्राकृतिक आवश्यकताओं पर अंकुश लगाने की कोशिशें करती आ रही है. सामंतशाही रूपी यह गठजोड़ समाज पर अपनी मरजी थोपने पर तुला हुआ है. विकास की आड़ में पुरानी सामाजिक सड़ीगली सोच को कायम रखने के प्रयास किए जा रहे हैं. राजनीतिक सत्ता उस रूढि़वादी, मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था की पैरोकार बनी दिखाई देती है जहां गैर बराबरी, मजहबी, जातीय भेदभाव, छुआछूत, ऊंचनीच, अमीरीगरीबी का फासला, भाग्यवाद समाज में हावी रहे हैं. जनता इस पुराने राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्था के शिकंजे से निकलना चाहती है पर उसे सत्ता का प्रश्रय मिलता रहा है.
आज की राजनीतिक सत्ता ने समाज पर नियंत्रण का काम मजहबी ठेकेदारों को सौंप रखा है. इस से दोनों का भाईचारा खूब मजे से चल रहा है. आसाराम, रामपाल, गुरमीत रामरहीम, शाही इमाम और शंकराचार्यों से समर्थन लेने वाली पार्टियां किस लोकतंत्र और किस समाज का निर्माण कर रही हैं? तकनीक के इस युग में अपनी आस्था, विश्वास लोगों पर थोपने की कोशिशें की जा रही हैं. दिल्ली में भाजपा की हार, संघ की विचारधारा की हार है. यह उस पुरानी, पीछे ले जाने वाली सोच पर मतदाताओं की चोट है जो उस पर लादने की कोशिशें कर रही है.
कांगे्रस भी कट्टर
वैसे, इस मामले में भाजपा और कांगे्रस में कोई फर्क नहीं है. 1947 की कांगे्रस उतनी ही कट्टर हिंदूवादी थी जितनी आज भाजपा है. दोनों की विचारधारा में कोई बदलाव दिखाई नहीं देता. कांगे्रस धर्मनिरपेक्षता का झूठा राग अलाप कर देश की जनता पर धर्मों को थोपती रही. जातीय छुआछूत हटाने के नाम पर वह न तो जातीय भेदभाव खत्म कर पाई, न ‘गरीबी हटाओ’ जैसे नारे दे कर गरीबों की गरीबी खत्म कर पाई. धार्मिक पाखंडों को कांगे्रस ने खूब पाला, उतनी ही पैरवी आज भाजपा कर रही है. राजनीति में जब कट्टरवादी सोच की बात होती है तो सब से पहले भारतीय जनता पार्टी और जनसंघ जैसे दलों का नाम लिया जाता है. सही मानों में देखें तो भाजपा से अधिक कट्टरवादी सोच कांगे्रस की रही है. आजादी के बाद सब से पहले हिंदुओं को खुश करने के लिए कांगे्रस ने ही सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था. कांगे्रस ने राजेरजवाड़ों और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने का दिखावा किया पर इस के साथ ही साथ, समाज में एक नए प्रकार के राजा, रजवाड़ों और जमींदारों को स्थापित करने का काम भी किया.
हिंदू कोड बिल में सुधार की जरूरतों को लंबे समय तक लटकाने का काम कांगे्रस ने किया. कांगे्रस के बड़े से बड़े नेता कभी किसी मंदिर तो कभी किसी मजार पर जा कर इस बात को बताते रहे कि राजनीति के लिए धर्म का साथ जरूरी होता है. राजनीति में वे धर्म को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से भी कभी संकोच नहीं करते थे. इसी तरह से नेता को चुनाव लड़ाने से पहले जातीय समीकरण को देखने की शुरुआत भी कांगे्रस के जमाने से ही हुई.
धर्म के तराजू के एक पलड़े में वह हिंदू रखती थी तो दूसरे में मुसलिमों को रखना चाहती थी. इसी वजह से वह धर्मनिरपेक्ष हो कर काम नहीं कर पा रही थी. इंदिरा गांधी के समय तक जनता इन बातों को ठीक से समझ पाने में असफल रही थी. उन के बाद राजीव गांधी ने भी जब उसी कदम पर चलना चाहा तो कांगे्रस की पोल खुल गई. शाहबानो कांड और उस के बाद अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाने की घटना ने कांगे्रस की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छवि को उजागर कर दिया. केवल धर्म ही नहीं, सामाजिक सुधार और रूढि़वादी सोच को खत्म करने की दिशा में कांगे्रस ने हर कदम उठाने से पहले यह देखने की कोशिश की कि इस का धार्मिक प्रभाव क्या पड़ेगा? कांगे्रस की इसी परंपरा पर दूसरे दल भी चलने लगे, जिस का नुकसान देश को उठाना पड़ा. नएनए विरोधी पैदा करना फिर उन को दरकिनार करने की रणनीति बना कर कांगे्रस ने लंबे समय तक देश में राज करने का रास्ता निकाला था. जिस से एक बार चुनाव में कांगे्रस की हार हो भी जाती थी तो जल्दी वापसी भी हो जाती थी.
कट्टरवाद को नकारता वोटर
राजनीतिक दल वोटर के संदेश को तब तक पढ़ना और समझना नहीं चाहते जब तक उन को जोर का झटका नहीं लगता. राजनीति में धार्मिक कट्टरवाद को वोटर ने कभी स्वीकार नहीं किया. इस का सब से बड़ा उदाहरण 1992 में अयोध्या में बाबरी मसजिद विध्वंस के रूप में देखा जा सकता है. भारतीय जनता पार्टी को लगता था कि अयोध्या विवाद का राजनीतिक लाभ उसे मिलेगा. जबकि उस घटना के बाद पूरे देश में भाजपा को राजनीतिक नुकसान हुआ. 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अपने नेता लालकृष्ण आडवाणी की कट्टर छवि का लाभ उठाने का प्रयास किया. वहां उस को हार का ही सामना करना पड़ा. भाजपा के अटल बिहारी वाजपेई को जब सरकार बनाने का मौका मिला तो उस में उन की उदारवादी छवि का बड़ा हाथ था. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को जो समर्थन मिला वह उन की विकासवादी छवि की वजह से मिला था.
नरेंद्र मोदी की अगुआई में सरकार बनने के बाद ही भाजपा के कुछ कट्टरवादी छवि के नेताओं ने विकास की बातों को छोड़ कर कट्टरवादी राजनीतिक काम करने शुरू कर दिए. भाजपा के कुछ ऐसे सांसद खुल कर सामने आने लगे जो अपनी कट्टरवादी छवि के लिए पहले से ही मशहूर थे. उत्तर प्रदेश सरकार को घेरने के चक्कर में भाजपा ने कभी मसजिद में लगने वाले लाउडस्पीकर को मुद्दा बनाया तो कभी लव जिहाद को ले कर राजनीति शुरू की. बीचबीच में ऐसे कट्टरवादी बयान भी आने लगे जिन्हें सुन कर ऐसा लगा जैसे नरेंद्र मोदी का अपने इन सांसदों पर कोई दबाव नहीं रह गया है. दिल्ली चुनावों के समय आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने इस बात को समझते हुए अपने को धार्मिक धु्रवीकरण से दूर रखा.
दिल्ली की जामा मसजिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी ने जब आम आदमी पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए मुसलमानों से अपील की तो अरविंद केजरीवाल ने उस को मना कर दिया. इस के उलट जब रामरहीम ने भाजपा के समर्थन की घोषणा की तो पार्टी के बड़े नेताओं ने उस को स्वीकार कर लिया. राजनीतिक चिंतक, समाजसेवी और मैगसेसे पुरस्कार विजेता डा. संदीप पांडेय कहते हैं, ‘देश का जनमानस अब बदल चुका है. कट्टरवादी सोच से उस को लुभाया नहीं जा सकता. भाजपा इस बात को समझना नहीं चाहती. नरेंद्र मोदी की जीत की सब से बड़ी वजह कांगे्रस का शासनकाल था जिस में जनता पूरी तरह से निराशहताश हो चुकी थी. सरकार बनाने के बाद नरेंद्र मोदी उन बातों को भूलने लगे. दिल्ली की हार से उन को सबक लेना चाहिए.’
दिल्ली के 1.70 करोड़ मतदाताओं का यह आक्रोश इसी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ है जो उस की तरक्की, सम्मान में बाधक बनी रही है. यह आक्रोश एक दिन का नहीं है, पीढि़यों का है. आजादी के बाद से ये दल वर्णव्यवस्था का पोषण करते आ रहे हैं. वे सामाजिक भेदभाव बरकरार रखना चाहते हैं. सत्ताधारी धार्मिक, सांस्कृतिक ठेकेदारों की मदद कर स्त्रियों को पैर की जूती ही बनाए रखना चाहते हैं. युवाओं से उन का प्राकृतिक प्रेम का अधिकार अपने नियंत्रण में चाहते हैं. लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांगे्रस की अगुआई वाली संप्रग सरकार से इन्हीं वजहों से उकताई जनता ने मोदी को उन के विकास और सुशासन पर भरोसा कर पूरे बहुमत के साथ जिताया. पर 8 महीने आतेआते आम आदमी खुद को ठगा सा महसूस करने लगा. न तो उसे आर्थिक मोरचे पर कहीं कुछ राहत मिल पाई, न ही सामाजिक व सुरक्षा की दिशा में.
मोदी ने खुद को गरीब, पिछड़ा व एक चाय वाले का बेटा बताया था, लोगों ने सोचा यह तो हमारे ही बीच का है. लेकिन अब जब देखा कि मोदी 10 लाख का सोने की नक्काशी वाला कोट पहने हुए अहंकार से भरे हुए उन लोगों के भले की कोई बात नहीं कर रहे हैं, अब तक उन्होंने जो कुछ किया वह अंबानी और अदानी जैसों के लिए ही किया और ऊपर से उन की पार्टी के सांसद साक्षी महाराज औरतों को 5 बच्चे पैदा करने का फतवा जारी कर रहे हैं, मोहन भागवत हिंदू राष्ट्र बनाने का मंत्र जप रहे हैं और इसी मंडली के लोग मिल कर ‘लव जिहाद’, ‘घर वापसी’ के नाम पर धर्मांतरण जैसे मुद्दे आगे बढ़ा रहे हैं फिर भी मोदी मौन हैं, तब जनता ने भाजपा व नरेंद्र मोदी को सबक सिखा दिया.
धर्म से असुरक्षा का माहौल
दिल्ली के चुनावों में भाजपा के धार्मिक एजेंडे ने उसे धूलधूसरित किया है. सत्ता और धर्म की सांठगांठ सदियों से चली आई है. भाजपा ने पिछले 8 महीने से धार्मिक कट्टरता को प्रश्रय दिया. धर्म के नाम पर आतंक का माहौल बनाया. गोडसे पूजकों को बढ़ावा दिया. आज दुनियाभर में पाकिस्तान से पेरिस तक मजहबी आतंक और हिंसा का बोलबाला है, दिल्ली की जनता को इस ने भयभीत किया है. धर्म के नाम पर लोगों के भीतर असुरक्षा, भय फैल रहा है. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, फ्रांस, नाइजीरिया, सूडान जैसे देशों में हो रही मजहबी, नृशंस, अमानवीय घटनाओं ने दिल्ली के लोगों में भी दहशत पैदा की है अगर भारत की सरकार भी अपने यहां धार्मिक कट्टरपंथियों को अपने ही धर्म के लोगों को नियंत्रित करने और दूसरे मजहब को भड़काने की स्वतंत्रता देगी तो जाहिर है जनता ऐसी सोच वाली सरकार को गहरा सबक सिखाने से नहीं चूकेगी.
भारतीय राजनीतिक दल विकास, सुशासन की बातें तो करते हैं पर वे धर्म, वर्ग, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता के संकीर्ण दायरे से बाहर नहीं निकल पाए हैं. धर्म का पतित रूप सब जगह काबिज हो रहा है. इसी धार्मिक सोच की वजह से आज भी जनता बिजली, पानी, शिक्षा, घर, रोजगार जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रही है. चुनाव जीतने के लिए नेता दलबदल, जातिधर्म समीकरण, बेमेल गठबंधन और बाहुबल जैसे कई टोटकों का सहारा लेते रहे हैं. नेताओं के इन टोटकों से वोटर दूर होता जा रहा है. दिल्ली में किरण बेदी की हार को इस रूप में देखने की जरूरत है. आजादी के बाद बहुत समय तक राजनीतिक दलों ने अपनेअपने वोटबैंक बनाए और उस के बल पर राज किया.
कांगे्रस को इस बात का लाभ मिलता रहा कि वह आजादी से जुड़ी थी. इस के बाद गांधीनेहरू के नाम और उन के परिवार का सहारा मिला. भाजपा ने हिंदू वोटबैंक बनाने की कोशिश की तो कुछ दलों ने जाति के आधार पर अपनेअपने वोटबैंक बना लिए. देश का एक बड़ा जनमानस इस तरह के वोटबैंक से अपने को दूर करने में लग गया है. शहर और देहात का जागरूक वर्ग वोटबैंक राजनीति से अपने को दूर करने में सफल होता दिख रहा है. दिल्ली में 60 लाख से ज्यादा मतदाता गरीब, निचले, पिछड़े तबकों के हैं जो झुग्गी बस्तियों, स्लम कालोनियों और निम्न व मध्य बस्तियों में रहते हैं. इन में से ज्यादातर लोग देश के दूसरे राज्यों से आए हुए हैं. ये जहां से आए हैं, अपने पीछे छुआछूत, जातीय भेदभाव, विद्वेष से जलालतभरी जिंदगी में कुछ बदलाव, बेहतरी की उम्मीद पाले हुए हैं. यहां आ कर उन्हें कम से कम थोड़ा सम्मान मिलने लगा. जातीय भेदभाव से राहत मिलने लगी पर सत्ता और धर्म की सांठगांठ उन्हें फिर उसी जलालत की ओर धकेल रही है, जिसे वे पीछे छोड़ चुके हैं.
2011 में दिल्ली के जंतरमंतर पर राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ जो आंदोलन हुआ उस में देशभर में जनाक्रोश का सैलाब उमड़ा. यह असल में उसी राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा था. ऐसा ही जनाक्रोश मिस्र, सीरिया, अल्जीरिया जैसे देशों में भी चला. जंतरमंतर के इस आंदोलन से अरविंद केजरीवाल निकले और उन्होंने 2 साल पहले आम आदमी पार्टी बना कर सत्ता की उन ताकतों को ललकारा जो दशकों से संसाधनों की लूटखसोट और जनता का शोषण करती आ रही थीं. आम आदमी पार्टी ने चुनाव में जाति, धर्म, वर्ग, भाषा जैसी संकीर्णता की कोई बात नहीं की. उन्होंने तो शाही इमाम की मुसलमानों से की गई अपील को भी ठुकरा दिया. दिल्ली में रहने वाले हर प्रांत, हर जाति, धर्म, वर्ग, भाषा के लोगों को लगा कि यह व्यक्ति और उस की आम आदमी पार्टी ही व्यवस्था में परिवर्तन कर सकती है. लिहाजा, पिछले चुनावों में आम आदमी पार्टी ने भ्रष्ट कांगे्रस का 15 साल का शासन उखाड़ फेंका और अब भाजपा की केंद्र सरकार और पार्टी की भजभज मंडली की विचारधारा पर बुरी तरह चोट कर के उसे चेता दिया है.
आप ने बदली राजनीति की दिशा
दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत का सब से बड़ा संदेश है कि नेताओं को अपने अंदर बदलाव लाना होगा. जनता सफेद, लकदक कुरतापजामा, सूटबूट, महंगी गाड़ी, हथियारबंद गनर के बीच चलने वाले नेताओं को बहुत देख चुकी. उस को लगता है कि ये चीजें नेता को जनता से दूर करती हैं. चुनाव जीतने तक जो नेता जनता का करीबी होता था, अचानक वह जनता से दूर क्यों हो जाता है? दिल्ली चुनाव में भाजपा ने अरविंद केजरीवाल के मफलर और उस की खांसी का खूब मजाक उड़ाया. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केजरीवाल पर तंज कसते हुए उन को बदनसीब कहा. केजरीवाल ने बड़ी ही खूबी से अपने ऊपर किए जा रहे मजाक को ही हथियार बनाया. केजरीवाल के मफलर का मुकाबला मोदी के महंगे सूट से हो गया. नतीजा जनता ने केजरीवाल को अपना बहुमूल्य वोट दिया.
राजनीतिक विश्लेषक हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘सही मानों में देखें तो अब लोकतंत्र की कल्पना साकार होती दिख रही है. जनता को इस बात का पूरा एहसास हो चुका है कि नेता आपस में मिल कर उन को बेवकूफ बना रहे हैं. ऐसे में उस ने अब खुद को किसी दल का वोटर बनाने से अलग कर लिया है. भाजपा के कट्टरवाद का समर्थन करने वाले केवल 6 फीसदी लोग हो सकते हैं. परेशानी की बात यह है कि राजनीतिक दल इस बात को स्वीकार नहीं करते. भाजपा हर पूजा करने वाले को कट्टर हिंदू मानने की गलती करती है. ऐसी गलती दूसरे दल भी करते हैं.’’
बहरहाल, आप की जीत ने देश की राजनीति की दिशा बदल दी है. राजनीतिक दलों को अब समझ लेना चाहिए कि जनता वोटबैंक नहीं रह गई है. वह देश का विकास चाहती है. रोजगार, सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल और अपनी सुरक्षा चाहती है. अगर दलों ने जनता को भटकाने की कोशिश की तो चुनाव परिणाम ऐसे ही आएंगे जैसे भाजपा व कांगे्रस को दिल्ली में देखने पड़े हैं.
– जगदीश पंवार के साथ शैलेंद्र सिंह