पिछले साल जब लोग होली के त्योहार के बहाने पानी की बरबादी में मसरूफ थे तब हिंदी व मराठी फिल्म अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर त्योहारों के नाम पर पानी की बरबादी के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे. आमजन की उदासीनता देखिए कि बजाय इस विरोध में उन का साथ देने के, लोगों ने उन की पिटाई कर डाली. रुपहले परदे पर अपने अभिनय से लोगों के दिल जीतने वाले इस अभिनेता के साथ आखिरी दिनों में इस तरह का सुलूक चिंताजनक है. न तो उन के पास बहुत काम था और न ही लोगों की तवज्जुह.
इस तरह एक शानदार अभिनेता एक उपेक्षा भरा अंत ले कर 3 नवंबर को इस दुनिया से चला गया. फेफड़े में संक्रमण की वजह से वे लंबे समय से अस्वस्थ थे. उन्होंने मुंबई में अंतिम सांस ली. सदाशिव ऐसे अभिनेता थे जो समानांतर फिल्मों में भी उतने सक्रिय थे जितने कमर्शियल फिल्मों में. मराठी और हिंदी फिल्मों के साथ ही रंगमंच में उन के अभिनय की तूती बोलती थी. एक दौर में उन के पास काम की कमी नहीं थी लेकिन आखिरी समय वह न के बराबर काम कर रहे थे. अगर उन की आखिरी हिंदी फिल्म की बात करें तो वह 2012 में आई ‘बौंबे टाकीज’ थी.
वे सिर्फ अभिनेता नहीं, बल्कि समाजसेवा को ले कर भी सक्रिय थे. उस के बावजूद आज की पीढ़ी उन से लगभग अनजान ही थी. हिंदी, मराठी, बंगाली, उडि़या और हरियाणवी भाषा की 300 से भी ज्यादा फिल्म करने वाले सदाशिव ऐसे अभिनेता थे जो समानांतर और मुख्यधारा की फिल्मों यानी कमर्शियल सिनेमा के अंतर को अपनी बहुमुखी प्रतिभा से आसानी से पाट देते थे. आज हिंदी फिल्म जगत 100-200 करोड़ रुपए के क्लब बना रहा है. वह साल में सैकड़ों फिल्में रिलीज करता है लेकिन इस बेहतरीन कलाकार को न तो इस उद्योग ने पूरी तरह समझा, न उस की अभिनय प्रतिभा का सही इस्तेमाल किया.
आटो चालक से अभिनेता तक
सदाशिव की अभिनय यात्रा किसी हिंदी फिल्म की पटकथा सरीखी लगती है. वरना कौन जानता था कि एक आम घर का आटो चलाने वाला लड़का हिंदी फिल्मों में छा जाएगा. लेकिन सदाशिव को अभिनेता बनना था, इसलिए वे यहां तक पहुंचे. महाराष्ट्र के अहमदनगर में 11 मई, 1950 को जन्मे सदाशिव नासिक की गलियों में आटो चलाया करते थे. ब्राह्मण परिवार में जन्मे सदाशिव तब अमरापुरकर के नाम से नहीं बल्कि गणेश कुमार नोरवाड़े के नाम से जाने जाते थे. 1974 में उन्होंने अपना नाम सदाशिव रख लिया.
उन की शादी सुनंदा करमाकर के साथ हुई. दोनों के बीच हाईस्कूल की पढ़ाई करने के दौरान प्रेम की शुरुआत हो गई थी. रंगमंच का शौक भी उन्हें उसी दौरान लगा था. लिहाजा, वे अपने स्कूलकालेज में विभिन्न नाटकों में हिस्सा लेते रहे. वैसे बनना वे गायक चाहते थे लेकिन किसी की सलाह पर उन्होंने गायन छोड़ अभिनय का रुख किया. इस तरह वे मराठी नाटकों में व्यस्त हो गए. उन दिनों उन का हास्य मराठी नाटक ‘हैंड्स अप’ बड़ा चर्चित था.
इसी नाटक ने उन के फिल्मों में आने की राह दिखाई. हुआ यों कि इस नाटक के मंचन के दौरान मशहूर निर्देशक गोविंद निहलानी की उन पर नजर पड़ी. उन दिनों निहलानी अपनी फिल्म अर्द्धसत्य बनाने की योजना पर काम कर रहे थे और उन्हें इस फिल्म के लिए मंझे हुए अभिनेता की दरकार थी. नाटक के बाद निहलानी ने न सिर्फ सदाशिव से मुलाकात कर उन के अभिनय की तारीफ की बल्कि उन्हें अपनी फिल्म में नाटक के हास्य के किरदार के उलट एक कू्रर डौन का किरदार औफर किया. उस के बाद की कहानी सब जानते हैं. फिल्म अर्द्धसत्य में सदाशिव अमरापुरकर ने डौन रामा शेट्टी का किरदार निभाया. इस फिल्म के लिए उन्हें 1984 में सर्वश्रेष्ठ सह कलाकार का अवार्ड मिला. इस तरह शुरू हुई उन की फिल्मी यात्रा 300 से ज्यादा फिल्मों तक चली. अर्द्धसत्य, सड़क, हुकूमत, आंखें, हम हैं कमाल के और इश्क जैसी फिल्मों में उन्हें काफी सुर्खियां मिलीं. फिल्म सड़क के लिए उन्हें बेस्ट विलेन की कैटेगरी में फिल्मफेयर अवार्ड मिला.
विलेन का दौर
सदाशिव वैसे तो हर तरह की भूमिकाओं में खुद को ढाल लेते थे लेकिन उन के द्वारा निभाई गई नकारात्मक भूमिकाओं ने उन्हें खास पहचान दी. खासतौर से महेश भट्ट की फिल्म सड़क में एक निर्मम हिजड़े महारानी के किरदार ने उन्हें सब से बड़ा विलेन बना दिया. 1991 में रिलीज हुई फिल्म सड़क के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्मफेयर अवार्ड मिला. बहुत कम लोग इस बात को जानते है ं कि फिल्मफेयर की ओर से बेस्ट विलेन का यह सब खिताब जीतने वाले सदाशिव पहले अभिनेता थे. इस फिल्म को याद करते हुए महेश भट्ट कहते हैं कि जब सदाशिव को उन्होंने महारानी के किरदार के बारे में बताया तो उन्होंने साथ में यह भी कहा था कि यह किरदार बुरी तरह से मजाक का पात्र बन सकता है और नाकाम भी हो सकता है. इस के बावजूद सदाशिव को अपने अभिनय पर पूरा भरोसा था, इसलिए उन्होंने न सिर्फ यह किरदार अपनाया बल्कि उम्मीद से कहीं बेहतर कर के दिखाया. उन दिनों रिलीज हो रही हर दूसरी फिल्म में सदाशिव अहम किरदार में होते थे. फिर चाहे वह अनिल शर्मा की सफल फिल्म हुकूमत हो या इंद्र कुमार की इश्क.
अमरापुरकर ने हिंदी और मराठी के अलावा कुछ बंगाली और उडि़या फिल्मों में भी काम किया. अमरापुरकर ने अपने 3 दशकों से भी लंबे कैरियर में चाहे खलनायक की भूमिका की हो या हास्य की, दोनों में ही वे दर्शकों को भाए.
धर्मेंद्र से जुगलबंदी
नब्बे का दौर था. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादातर ऐक्शन प्रधान फिल्में बन रही थीं. उसी दौर में धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे पुराने स्टार ऐक्शन कर रहे थे तो वहीं अपेक्षाकृत युवा अभिनेता अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, अजय देवगन अपनी ऐक्शन हीरो की छवि गढ़ रहे थे. इस दरम्यान विलेन के तौर पर सदाशिव सब की पसंद थे लेकिन अभिनेता धर्मेंद्र के साथ उन की जोड़ी कुछ खास ही जमती थी. 1987 में आई फिल्म हुकूमत में उन्होंने धर्मेंद्र के साथ काम किया. इस फिल्म में सदाशिव ने मुख्य खलनायक का किरदार निभाया और यह फिल्म ब्लौकबस्टर रही. इस के बाद इस जोड़ी ने एक के बाद एक 11 फिल्में दे डालीं. दोनों ने साथसाथ जो फिल्में कीं उन में शामिल हैं : रिटर्न औफ ज्वैलथीफ (1996), फूलन हसीना रामकली (1993), कोहराम (1991), दुश्मन देवता (1991), फरिश्ते (1991), वीरू दादा (1990), नाकाबंदी (1990), ऐलान-ए-जंग (1989), पाप को जला कर राख कर दूंगा (1988), खतरों के खिलाड़ी (1988), हुकूमत (1987).
रंगमंच और सामाजिक सरोकार
पुणे कालेज से इतिहास में एमए करने वाले अमरापुरकर ने कालेज के दिनों में ही थिएटर और फिल्मों के लिए काम करना शुरू कर दिया था. 21 साल की उम्र में सदाशिव ने थिएटर और मंच का रुख कर लिया था. इस दौरान उन्होंने 50 से ज्यादा नाटकों में अभिनय किया. कहते हैं रंगमंच एक अभिनेता को मांझ कर बेहतरीन कलाकार बनाने के साथसाथ एक नेक इंसान भी बना देता है. यही वजह है कि रंगमंच से जुड़ने के बाद सदाशिव का अभिनय से जितना वास्ता रहा उतना ही वे सामाजिक मसलों पर भी सक्रिय रहे.
परदे पर अपने नकारात्मक किरदारों के जरिए लोगों में खौफ पैदा करने वाला यह अभिनेता असल जिंदगी में एक बेहद सज्जन किस्म का इंसान रहा, जिस का झुकाव समाज के वंचित तबके की ओर रहा. यही वजह रही कि सदाशिव कई सामाजिक संगठनों के साथ जुड़े. अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, स्नेहालय, लोकशाही प्रबोधन व्यासपीठ, अहमदनगर ऐतिहासिक वास्तु संग्रहालय जैसे संगठनों से वे प्रमुखता से जुड़े हुए थे.
गुमनामी का दौर
इतने सालों तक रंगमंच और फिल्मों में यादगार भूमिका निभाने वाले सदाशिव किसी खास माध्यम से नहीं बंधे. उन्होंने छोटे परदे पर भी काम किया. टीवी शो ‘शोभा सोमनाथ की’ में उन के काम को खूब सराहा गया. उन की बेटी भी टीवी के लिए एक शो प्रोड्यूस करने की तैयारी कर रही है. इस के अलावा धारावाहिक सीआईडी में भी उन के काम को सराहा गया. लेकिन इन सब के बावजूद उन के पास न जाने क्यों काम की कमी होती गई. अब इसे नए फिल्मकारों की उदासीनता कहें या अभिनय को ले कर छोटी सोच, उन्हें फिल्मों में न के बराबर काम दिया गया. हालांकि वे इस दौरान रंगमंच कर रहे थे लेकिन अपनी प्रतिभा के हिसाब से जो काम उन्हें मिलना चाहिए था, नहीं मिला.
एक समय जब हिंदी फिल्मों के विलेन बूढ़े होते जा रहे थे तब सदाशिव ने इस कमी को पूरा किया. नब्बे के दशक के आखिरी वक्त में उन्होंने हास्य भूमिकाएं भी कीं. मोहरा, इश्क, हम साथसाथ हैं, आंखें, कुली नंबर 1, जयहिंद और मास्टर जैसी फिल्मों में कई सहायक और हास्य भूमिकाएं निभाईं. 2000 आतेआते वे कम ही दिखे. और दिखे तो सालों बाद साल 2012 में दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘बौंबे टाकीज’ में. इस फिल्म में उन का किरदार बहुत बड़ा नहीं था लेकिन फिर भी उन के काम की तारीफ सब ने की. लेकिन तब तक शायद सदाशिव निराश हो चुके थे. कुछ काम की कमी, कुछ सामाजिक कामों में लोगों की उदासीनता ने उन को अंदर से तोड़ दिया था.
पैसा, शोहरत और ग्लैमर से भरी फिल्मी दुनिया में तेज चकाचौंध के बीच गुमनाम की अंधेरी खाई निकल ही आती है और लील जाती है रुपहले परदे पर यादगार किरदारों को जीवंत करने वाले बेहतरीन कलाकारों को. मराठी रंगमंच के प्रतिष्ठित और हिंदी फिल्मों में पौपुलर अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर को भी गुमनामी के अंधेरों में अपना आखिरी वक्त काटना पड़ा और इस दुनिया से गए भी तो गुमनाम से.