देर आए दुरुस्त आए

बात कतई हैरत की नहीं कि कांग्रेस के छुटभैये नेता ही राहुल गाधी को पानी पीपी कर कोस रहे हैं. राहुल में समझ नहीं है, उन्हें राजनीति नहीं आती, वे जमीनी नेता नहीं हैं और राहुल की खामोशी कांग्रेस को ले डूबी जैसे दर्जनों वाक्य  सुनने में आ रहे हैं. सीधेसाधे कहा जाए तो यह है कि कांग्रेसियों को लोकसभा चुनाव की करारी हार के 4 महीने बाद होश आया है.

इसी समीकरण को उलट कर देखें तो हकीकत यह है कि 4 महीने बाद कांग्रेसियों में सच बोलने की हिम्मत आ रही है हालांकि यह भड़ास है पर देर से निकली कि जब कांग्रेस के हाथ में कुछ भी नहीं है. राहुल के साथ दिक्कत हमेशा से यह रही है कि उन्हें नहीं मालूम कि वे चाहते क्या हैं, अभी भी इस संकट से वे उबर नहीं पा रहे हैं. इसलिए यह कहा जा सकता है कि असमंजस भी गरीबी की तरह एक मानसिक अवस्था है.

लहर की खुरचन

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को करिश्माई कहने और प्रयोगवादी नेता मानने की एक वजह यह भी है कि वे जोखिम उठाने में भरोसा करते हैं. सितंबर के पहले हफ्ते उन्होंने मुंबई में बगैर किसी झिझक के मान लिया कि मोदी लहर धीरेधीरे कमजोर पड़ रही है. इस बयान के सियासी माने सभी अपने हिसाब से लगा रहे हैं पर यह संदेश जरूर अमित शाह ने दे दिया कि जरूरत पड़ने पर भाजपा मोदी की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा की खुरचन को भी दांव पर लगा सकती है यानी भुना सकती है. यह राजनीति की विचित्रता नहीं बल्कि उस का मूलभूत सिद्धांत है.

दिल्ली का संकट

दिल्ली में सरकार कोई भी कैसे भी बनाए यह उतनी महत्त्वपूर्ण बात नहीं रही जितनी यह है कि अगर आप की जेब में ज्यादा नहीं सवा अरब रुपए भी हैं तो आप दिल्ली के शहंशाह बन सकते हैं. भाजपा, कांग्रेस और ‘आप’ के आरोपप्रत्यारोप और खरीदफरोख्त की बातें सुन लगता ऐसा ही है कि संकट संवैधानिक कम, आर्थिक ज्यादा है. लोकतंत्र में सरकार जनता चुनती है, यह बात भी गलत साबित हो रही है. अब न्यायपालिका दिल्ली संकट का हल ढूंढ़ रही है. दिल्ली के विधायकों को चिंता कैरियर, पगार और पैंशन की है, जनता की नहीं. जनता तो त्रिशंकु विधानसभा देने की अपनी गलती की सजा भुगत रही है.

झूम जीतन झूम

बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का ‘रोज पउवा भर शराब पीने में हर्ज नहीं’ वाला बयान दरअसल दलित तबके की व्यथा का चित्रण करता है जिस से होते हुए वे इस मुकाम तक आए हैं. राजनेताओं का सामाजिक जागृति से कोई सरोकार नहीं, यह तो मांझी की दारू वकालत से उजागर हुआ ही पर चिंता की बात उन का इस की हिमायत करना है. जिस तबके को ले कर उन्होंने यह बयान दिया है वह सदियों से हताशा की जिंदगी जी रहा है, शोषित है और समझौतावादी भी है. जरूरत उसे जगाने की है न कि यह मशवरा देने की कि गम भुलाने के लिए शाम को पाव भर शराब हलक के नीचे उतार कर सो जाओ. यह हल नहीं है बल्कि शराब जैसे ऐब के नाम पर वोट भुनाने की चालाकी है जिस के लिए जीतन राम मांझी को माफ नहीं किया जा सकता. 

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