उस दिन स्कूल में फैंसी ड्रैस कंपीटिशन था. नर्सरी कक्षा से ले कर तीसरी कक्षा तक के बच्चों के बीच निर्णय होना था. अभिभावकों ने प्रतियोगिता के लिए खूब तैयारी की थी. भाग लेने के लिए ऐंट्रीज बहुत अधिक थीं. हर बच्चे पर मातापिता ने खूब मेहनत की थी. कोई बैस्ट आउट औफ वेस्ट बना था तो कोई दुलहन का वेश धरे था. कोई रोबोट था, कोई सिपाही. किसी ने सीताफल बन के संदेश दिया तो किसी ने पर्यावरण कैसे बचाएं, बताया. हर बच्चा उत्साहित था और सभी मातापिता चाह रहे थे कि उन का बच्चा ही जीते.

निर्णायकों के लिए निर्णय करना कठिन था कि किसे अवार्ड दें. पुरस्कारों की घोषणा होने पर कई अभिभावकों के चेहरे लटक गए. कई मातापिता ने तो निर्णय पर पक्षपात का आरोप तक लगा दिया.

प्रतियोगिता थी, तो किन्हीं 3 को ही जीतना था पर रिजल्ट के बाद मातापिता के साथ कई बच्चे भी मायूस नजर आए. बच्चों का रोना देख कर सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि बच्चे तो गीली मिट्टी जैसे होते हैं, उन के लिए तो हार या जीत एकसमान होती है. उन्हें हार या जीत से फर्क नहीं पड़ना चाहिए. शायद इन मस्त भोलेभाले बच्चों को हम ही हारने को बुरा और जीतने को अच्छा होना सिखाते हैं.

आज का दौर प्रतियोगिता का दौर है. जहां देखिए वहां गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा है. दुनिया में हुनर भरा पड़ा है, ऐसे में किसी भी प्रतियोगिता में जीतना प्रतिभागी की अक्लमंदी, हुनर या कबिलीयत की कसौटी नहीं होता, बल्कि परिस्थितियां, प्रतियोगिता में शामिल अन्य लोग व निर्णायकों की व्यक्तिगत सोच भी अव्वल आने न आने के लिए जिम्मेदार होती हैं.

अपने मन की इच्छाओं, कुंठाओं के चलते अभिभावक जो स्वयं न कर पाए वह करने का अपने बच्चों पर दबाव बनाते नजर आते हैं. पड़ोसी, रिश्तेदार, मित्रमंडली बच्चों की तुलना कर के अपने बच्चों को भी उसी सब में सफल होते देखना चाहते हैं. नतीजतन, वे उसे ‘जीत’ के लिए प्रेरित करते हैं.

कई पेरैंट्स बच्चे में जोश फूंकने के प्रयास में ‘तुम ही जीतोगे’ कह कर उसे बहुत उम्मीदें बंधा देते हैं और फिर जब बच्चे का सामना स्वयं से ज्यादा टैलेंटेड बच्चे से होता है तो वह स्वीकार नहीं कर पाता, उस का आत्मविश्वास खत्म हो जाता है और वह हिम्मत हार जाता है.

प्रतिस्पर्धा की भावना

दरअसल, किसी भी प्रतियोगिता में अव्वल आना सर्वश्रेष्ठ होने की कसौटी नहीं. किसी भी प्रतियोगिता में जीत न पाना बेकार हो जाना नहीं. प्रतियोगिता में बच्चे को भाग दिलवाइए पर उसे हार स्वीकारना भी सिखाइए. टीवी शोज के औडिशन में भी हम कई बार देखते हैं कि प्रतिभागी ऐसे रोते हुए बाहर निकलते हैं मानो उन की दुनिया उजड़ गई हो.

सिंगिंग, डांस, ऐक्ंिटग या कुकरी की प्रतियोगिता एक शो ही तो है, अगर आगे नहीं जा पाए तो क्या बिलकुल ही अयोग्य हो गए? गलती असल में अभिभावकों की है. हारजीत को प्रतिष्ठा, प्राण और जीवनमरण का प्रश्न हम ही बनाते हैं. कितना अच्छा हो यदि हम बच्चों को केवल भाग लेना सिखाएं.

आशान्वित होना, जोश फूंकना अच्छी बात है. बच्चों की क्षमताओं व उन की मेहनत का ध्यान रखा जाए और आकलन किया जाए तो बेहतर होगा. आप बच्चे को जीत के लिए प्रेरित कीजिए पर हार स्वीकारना भी सिखाइए. जीत या हार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जिंदगी में कभी हम जीतते हैं तो कभी हारते भी हैं, बच्चे को यह मालूम होना चाहिए.

हार स्वीकार न कर पाने की मनोदशा में बच्चा अवसाद का शिकार हो सकता है. उस का स्वाभिमान जाता रहेगा, उस का विश्वास उठ जाएगा व प्रतियोगिताओं से डरेगा और हीन भावना से ग्रसित भी हो सकता है. प्रतियोगिताएं हमेशा जीतने या हारने के लिए नहीं होतीं वे आनंद लेने के लिए, नया सीखने के लिए, टीम भावना पैदा करने के लिए, जिम्मेदारी उठाने के लिए और अपनी क्षमता को आजमाने के लिए होती हैं.

जीत या हार कोई इश्यू नहीं होगा तो बच्चे अपने कार्य में तनावमुक्त हो कर आनंद ले पाएंगे. प्रतियोगिताओं में छिपा होता है स्टेजफियर से मुक्ति का राज, कौन्फिडेंस बिल्ंिडग, नई जानकारी हासिल करने की खुशी, शेयर करने का सुख और दूसरे लोगों से घुलनेमिलने का प्रयत्न.

यदि आप का बच्चा प्रतियोगिता में हिस्सा ले कर खुश है, कुछ नया कर पा रहा है, उसे स्टेजफियर नहीं है और उसे प्रतियोगिता में मजा आ रहा है तो प्लीज, उसे हारजीत के फेर में मत डालिए. बिना रिजल्ट की चिंता किए, उसे प्रतियोगिता में भाग लेने दीजिए. जीत जाए तो बधाई दीजिए और हारे तो हौसला बढ़ाइए. आप अपनी उम्मीदें उस पर मत लादिए.

विजय निसंदेह एक अद्वितीय भावना है पर उस से ताकतवर है त्याग, सहचर्य व एकता की भावना. जीवन में हजारों तमगों, प्रमाणपत्रों और पुरस्कारों से बढ़ कर बच्चों का प्यार, अपनापन व विश्वास है जिसे आप हमेशा के लिए चाहेंगे, इसलिए बच्चे को हारना भी सिखाइए.

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