कहने को तो हैं कलाकार और साहित्यकार, लेकिन इन का कम्बख्त पापी पेट कलासाहित्य से नहीं, सरकारी पुरस्कारों से भरता है. तभी तो ये कामधाम, लिखनापढ़ना छोड़ कर रुपए, सांठगांठ, नेतागीरी और दलाली के रास्ते पद्मश्री का जुगाड़ लगाने से गुरेज नहीं करते. लेकिन तमाम कोशिशें फेल हुईं और महाशय अस्पताल में भरती हैं. भला क्यों?
नए साल का शुभारंभ यानी पहला महीना जनवरी कई कारणों से कुछ लोगों के लिए बहुत दुखदायी बन कर आता है. जनवरी आते ही दिल की धड़कनों पर असर होने लगता है. सीने में दर्द, बेहोशी, ब्लडप्रैशर का अचानक बढ़ जाना आम बात है. दिल का दौरा पड़ने की नौबत आ जाती है. यह कोई पहेली नहीं हकीकत है.
बुद्धिजीवी किस्म के समाजसेवियों के लिए यह माह निराशा का संदेश ले कर आता है. लोककलाकारों की अस्मिता पर चोट कर उन्हें असहनीय दर्द दे जाता है. साहित्यकारों को मर्मांतक पीड़ा पहुंचाने में कोई कसर नहीं रखता. कड़कड़ाती ठंड की वजह से देश का बहुत बड़ा हिस्सा बर्फ की चादर ओढ़ लेता है लेकिन इधर दुख की चादर तनी हुई दिखाई देती है. जनवरी में गणतंत्रदिवस समारोह मनाते हैं. अपने गणतंत्र को फलताफूलता बनाए रखने की शपथ लेते हैं. इसी बीच पद्म पुरस्कारों की घोषणा हो जाती है. दुख के घने बादलों का बरसना यहीं से शुरू होता है.गोपीकृष्ण ‘गोपेश’ पिछले 4 दिनों से अस्पताल में थे. टीवी समाचार देखते वक्त सीने में हलका दर्द हुआ. दर्द बढ़ने पर आपातकक्ष तक जाना पड़ा. वहां से वार्ड में शिफ्ट हुए. आज लौटे हैं. पिछले
4 वर्षों से पद्मश्री सम्मान के पीछे हाथ धो कर पड़े हैं. दिसंबर से ले कर मध्य जनवरी तक उत्साहित रहते हैं. फिर उत्सुकता बढ़ती है. ऐसा आश्वासन मिला था कि सम्मान पाना पक्का समझ बैठे थे.
टीवी में समाचार देख कर झटका लगा. घोषणा में उन का नाम नदारद था. अर्धबेहोशी में अस्पताल जाना पड़ा. पिछले वर्ष भी बीमार पड़े थे. कुछ वर्षों से लिखनापढ़ना बंद है. सरकार के कई पुरस्कार समेट कर बैठे हैं. 2 साल के लिए लालबत्ती लगी कार मिली थी. ऐशोआराम की जिंदगी बिता चुके हैं. ‘गोपेश’ के लिए साहित्य, सीढ़ी से ज्यादा कुछ नहीं है. कुछ किताबें भी प्रकाशित हुई हैं जो दोयम दरजे की भी नहीं हैं. कूड़े का मंजर है. उसी के बल पर पद्मश्री पाने का सफर है.
लोककलाकार शीतलदास को भी करारा झटका लगा. ठुमकना भूल कर पद्मश्री के पीछे दीवाने बन गए. अच्छे कलाकार हैं. बचपन से साधना की. विरासत में बहुतकुछ मिला. आगे बढ़े. राजधानियों तक पहुंचे. कई देशों की यात्राएं कीं. मान, सम्मान, मैडल और राज्य सरकार का पुरस्कार बटोर चुके हैं. लेकिन पापी पेट, खाली का खाली.
3 लोककलाकारों को पद्म पुरस्कार मिल चुका है. ये अभागे हैं. अपने को हर साल कोसते हैं. पद्म पुरस्कार के चक्कर में अपने परफौर्मेंस का सत्यानाश कर बैठे. अब अस्पताल में हैं. हलका दौरा आया. मुख्यमंत्री के निर्देश पर अच्छी व्यवस्था हो गई है. दौरे का कारण डाक्टर ने डिप्रैशन बताया. जनवरी का महीना बेहद तकलीफदेह हो कर गुजरता है. सरकार किस की सिफारिश करे. कितने लोककलाकारों को संभाले. तराजू के मेढक की तरह संभलते नहीं. तौले, तो कैसे तौले?
एक लोककलाकार का और भी बुरा हाल है. 1 लाख रुपए दे बैठे. जमीन का कीमती टुकड़ा बेच कर रुपयों की व्यवस्था की. दलाल से सौदा हुआ. इधर पुरस्कार दिलाने के लिए दलाल भी सक्रिय हुए हैं. दिल्ली तक दौड़ लगाते हैं. पूरा एक गिरोह सक्रिय है. लोककलाकारों को ज्यादा फांसते हैं. आश्वासन की पुडि़या जेब में रख देते हैं. इस बार पूरा आश्वासन मिला था. अभी युवा हैं. सदमा झेल गए. 40 की उम्र पार नहीं कर पाए हैं. विदेश तो ठहरा गंगा घाट का पानी. सो पानी पी आए हैं. यानी विदेश हो आए. अच्छे कलाकार हैं. इस बार भी घोषणा से नाम गायब है.
पत्नी रोरो कर बेहाल है. कम उम्र में शादी हुई. बच्चे 20-22 के हो चले हैं. कहने लगे, ‘अंकल, पिताजी को बहुत समझाया. मानते नहीं. इतना कुछ मिल चुका है, जितना हमारी सात पुश्तों ने नहीं देखा होगा. फिर भी हर साल पद्मश्री के पीछे पड़ जाते हैं.’ उस की पत्नी स्वयं सिद्धहस्त लोककलाकार है. कहने लगी, ‘मैं हर साल समझाती हूं. मेरी समझाइश पर ध्यान नहीं देते. एक चुड़ैल है, जो इन को उकसाती है. एक बार विदेश हो आई है इन के साथ. 1 लाख रुपए दलाल को दे कर बैठे हैं. इतने में तो बेटी की शादी की तैयारी हो जाती. 30-35 ग्राम सोना आ ही जाता. 1 लाख रुपए और रखे हैं. कहते हैं कि पद्मश्री मिलने के बाद ऐसा जश्न मनाऊंगा कि पूरा खानदान याद रखेगा. मुख्यमंत्री को बुलाने की सोच कर बैठे हैं. जिस दिन से घोषणा हुई है, घर से बाहर नहीं निकले हैं.’
अक्तूबर माह भी पुरस्कार और सम्मान की लालसा में बैठेठाले लोगों के लिए खतरनाक साबित होता है. नवंबर में राज्योत्सव की शुरुआत होती है. अक्तूबर में घोषणाएं. राज्य सरकार के पुरस्कारों की संख्या कम नहीं है. 2 दर्जन के करीब हैं. भानुमति का पिटारा है. फिर भी कम पड़ते हैं. बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, समाजसेवियों व लोककलाकारों की छटपटाहट बढ़ती है. सीने में जकड़न, बेहोशी और हार्टअटैक के लक्षण वालों की संख्या भी बढ़ जाती है. यहां भी दलाल सक्रिय हैं. वे ऊंचे किस्म के सफेदपोश हैं. सिर्फ वाहनों में चलते हैं. बंगलों में पलते हैं. राज्य में जूरियों की लौबी तैयार हो गई है. बदलबदल कर वही चेहरे, जिन में दबंग युवा हैं. विशेषज्ञ टाइप के बुद्धिजीवी हैं. कुछ प्रतिष्ठित उम्रदराज हैं जिन का काम ही अब तथास्तु कहना है. मंत्रियों के वजनदार चमचे हैं. कुछ नारदमुनि की हैसियत वाले हैं जो लगातेबुझाते रहते हैं. पिछले कुछ वर्षों से ये लोग सम्मानों पर आखिरी मुहर लगाते हैं. फिर इन के ऊपर हाईकमान है जो रातोंरात किसी भी निर्णय को बदलने की क्षमता रखते हैं.
जूरियों का अपना दर्द है जो कुरेदने पर फूट कर बाहर निकलता है. इन में से कई सम्मान के हकदार हैं. लेकिन इन्हें रुतबेदार जूरी वगैरह बना कर संतुष्ट कर दिया जाता है. कई जूरी तो हर वर्ष अपने पद पर काबिज हो जाते हैं. हफ्तापंद्रह दिन स्वप्नलोक में गुजारते हैं. मोबाइल में सोते हैं, मोबाइल से जागते हैं. पारदर्शी बने रहते हैं. आप के चश्मे का लैंस ठीक हो तो इन की पारदर्शिता को तारतार होते देखा जा सकता है. पूरे प्रदेश में इन दिनों नूराकुश्ती का दृश्य दिखाई देता है. तुम मेरी प्रशंसा करो, मैं तुम्हारी प्रशंसा में लेख लिखता हूं. जरूरत पड़े तो थोड़ी आलोचना करो. मैं तुम्हारी आलोचना कर माहौल बनाऊंगा. जूरी लौबी, सम्मान पाने वालों की दुर्दशा देख कर सम्मान पाने का ख्वाब देखना ही छोड़ चुकी है.