नन्हेमुन्नों की रंगबिरंगी पत्रिका चंपक के चंपक क्रिएटिव चाइल्ड कौंटैस्ट के जरिए इस बार हम पहुंचे एक ऐसे शिक्षण संस्थान में जहां संवर रही है आदिवासी बच्चों की जिंदगी. आदिवासी बच्चों को पढ़ेलिखे सभ्य समाज का हिस्सा बनाते इस संस्थान की पूरी कहानी पढि़ए इस रिपोर्ट में.
देशभर के स्कूलों के बच्चों के हुनर को राष्ट्रीय मंच दे रही दिल्ली प्रैस पत्रिका समूह की नन्हेमुन्नों की रंगबिरंगी पत्रिका ‘चंपक’ का ‘चंपक क्रिएटिव चाइल्ड कौंटैस्ट 2013-14’ का पहला राउंड शबाब पर है. बच्चे इस में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. चंपक टीम उन के जज्बे को इनाम और खिताब से नवाज रही है.
बीते दिनों यानी जब बुलावे पर चंपक टीम आदिवासी बाहुल्य सूबे ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के कलिंग इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंस यानी ‘किस’ पहुंची तो ‘किस’ के बारे में जान कर उसे न केवल हैरानी हुई बल्कि सुखद एहसास भी हुआ.
चंपक की इस प्रतियोगिता में तकरीबन 1 हजार आदिवासी बच्चों ने हिस्सा लिया. ये बच्चे ‘किस’ के छात्रावासों में ही रहते हैं. ये बच्चे ‘किस’ में हैं इसलिए अच्छी शिक्षा पा रहे हैं वरना आदिवासी बच्चों की बदहाली, पिछड़ापन और स्कूल से दूरी किसी सुबूत की मुहताज नहीं.
एकसाथ 1 हजार बच्चों ने जब ड्राइंगशीट पर रंगों के जरिए अपना हुनर उकेरना शुरू किया तो नजारा सचमुच देखने लायक था. आदिवासी बच्चे कुदरती तौर पर ड्राइंग बनाने में माहिर होते हैं लेकिन उन का तरीका अलग होता है. आदिवासी इलाकों में रह रहे विभिन्न जातियों के लोग चित्र बनाते हैं, यह हुनर उन की संस्कृति और रहनसहन का हिस्सा है. लेकिन इस प्रतियोगिता में बच्चों ने बजाय गांव, पेड़, जानवरों और देवीदेवताओं के चित्रों के रेलवे स्टेशन, राष्ट्रीय मुद्दे और पार्क वगैरह की बेहतरीन ड्राइंग्स बनाईं जो दरअसल उन के ‘किस’ तक पहुंचने और उस के बाद की जिंदगी की दास्तां बयां करती प्रतीत हो रही थीं.
जंगल से स्कूल तक का सफर
चंपक टीम ने जब ‘किस’ के बच्चों और अधिकारियों से बातचीत की तो एक सुखद हैरानी के पीछे छिपा आदिवासी समुदाय का कसैलापन भी उजागर हुआ. बात वाकई पहली बार में यकीन करने लायक नहीं कि 100 एकड़ से भी ज्यादा रकबे में फैले इस इंस्टिट्यूट में 20 हजार आदिवासी लड़केलड़कियां एकसाथ रहते, खाते, पीते और पढ़ते हैं और किसी दूसरे नामी स्कूल के बच्चों के अनुशासन और अदब को मात भी देते हैं.
फर्क सिर्फ इतना है कि पढ़ाई के साथसाथ उन्हें यहां यह सब भी सिखाया जाता है जबकि घरों में रह रहे बच्चों को बहुतकुछ विरासत में मिला होता है और मांबाप से वे सीखते हैं. ‘किस’ के एक अधिकारी मारुति प्रसाद नंदा ने पूछने पर बताया कि हम लोग दूरदराज के आदिवासी इलाकों में घूमघूम कर इन बच्चों को यहां ला कर तमीजदार इंसान बनाते हैं.
आदिवासी इलाकों में कम उम्र के बच्चे स्कूल नहीं जाते, लिहाजा वे तालीम से महरूम, पिछड़ेपन और बदहाली का हिस्सा ही बने रहते हैं. तरहतरह की बीमारियों, कुपोषण और अंधविश्वासों सहित शोषण में उन की जिंदगी गुजर जाती है. सरकारी योजनाओं का सच और अंजाम भी किसी सुबूत का मुहताज नहीं और न ही सभ्य पढ़ेलिखे समाज का नजरिया किसी से छिपा है. पर ‘किस’ में आ कर जिंदादिली से रह कर आदमी बन रहे इन बच्चों को देख लगता है कि हकीकत में जिसे इंसानियत, समाजसेवा और देशभक्ति कहा जाना चाहिए, वे सब चीजें यहां पूरी शिद्दत से हैं. गरीब और आदिवासी बच्चों के मांबाप को समझाबुझा कर ‘किस’ के मुलाजिम बच्चों को यहां लाते हैं और उन्हें सभ्य समाज में शामिल होने के गुर सिखाते हैं, ट्रेनिंग देते हैं.
चंपक प्रतियोगिता के लिए स्कूली यूनिफौर्म में बैठे ड्राइंग, पेंटिंग बना रहे ये बच्चे अगर यहां नहीं लाए गए होते तो कई सहूलियतों को न समझ पाते, न देख पाते. स्कूल के एक टीचर का कहना है कि शुरू में बच्चे हिचकिचाते हैं पर धीरेधीरे यहां के माहौल में रम जाते हैं. ‘किस’ के इंतजाम किसी बड़े इंस्टिट्यूट जैसे हैं. तयशुदा वक्त पर बच्चे उठते हैं, रोजमर्राई काम निबटाते हैं, पढ़ाई करते हैं, खेलते हैं. सभी बच्चों जैसे सपने उन के मन में भी पलते हैं.
5वीं कक्षा की एक छात्रा सुजाता की मानें तो जब वह अपने गांव में थी तो कुछ नहीं समझती थी. साबुन और टूथपेस्ट जैसी चीजें तो वहां देखने को भी नहीं मिलतीं. सुजाता पढ़लिख कर डाक्टर बनना चाहती है. उस का मकसद आदिवासियों का मुफ्त इलाज करना है.
सुजाता जैसे हजारों बच्चे अगर ‘किस’ में हैं तो इस का जिम्मा एक सुर में सारे लोग डा. अच्युत सामंत को देते हैं जिन की वजह से ‘किस’ दुनियाभर के शिक्षाविदों, समाजशास्त्रियों और अब पर्यटकों के भी आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है.
सभ्य व्यक्ति बनाना है मकसद
अच्युत सामंत बहुत छोटे थे जब उन के पिता का निधन हो गया था. गरीबी उन्होंने बहुत नजदीक से देखी, भुगती पर हारने के बजाय उस से लड़ने का फैसला लिया और लड़ कर वे जीते भी. अब से 20 साल पहले उन्होंने आदिवासी बच्चों के लिए अपने कुछ दोस्तों के साथ एक छोटा इंस्टिट्यूट खोला और तय किया कि इन बच्चों से कुछ नहीं लिया जाएगा. इंस्टिट्यूट चलाने के लिए खर्च का इंतजाम दूसरे खोले गए एक इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट की आमदनी से किया जाता है.
आदिवासी बच्चे ‘किस’ में आ कर पढ़ने लगे और तादाद बढ़ने लगी तो ‘किस’ भी बड़ा होता गया. कई होस्टल और इमारतें बनती गईं. इस बीच कई मुसीबतें आईं पर अच्युत सामंत ने हार नहीं मानी. इसे अपना इतना बड़ा मकसद बना लिया कि आज तक उन्होंने शादी नहीं की.
राजनीति को भ्रष्टाचार की दलदल मानने वाले इस शिक्षाविद और समाजसेवी का कहना है कि नक्सली अपनी बात गलत तरीके से कहते हैं. आदिवासियों की बदहाली और पिछड़ेपन को दूर करने का इकलौता तरीका उन्हें तालीम देना है, सभ्य आदमी बनाना है, जो न नक्सलवाद से मुमकिन है न ही सियासत से. क्योंकि उन की आदिवासी समुदाय में दिलचस्पी सियासी है, दिली या जज्बाती नहीं.
न केवल ओडिशा बल्कि छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और असम सहित कई प्रदेशों के आदिवासी बच्चे ‘किस’ में पढ़ कर अपनी जिंदगी संवार रहे हैं. अच्युत सामंत ने अब दिल्ली में भी अनाथ बच्चों के लिए आश्रम खोला है.
‘किस’ घूमने में चंपक टीम को पूरा दिन लग गया. यहां के अधिकारियों ओ एस राजारमन, विनापानी पांडा और मारुती प्रसाद नंदा ने दिल्ली प्रैस पत्रिका समूह का शुक्रिया किया कि उस की पत्रिकाएं समाज निर्माण में अपना रोल बखूबी निभा रही हैं.
आज हजारों बच्चे ‘किस’ में पढ़ कर कई अच्छी जगहों पर नौकरी कर रहे हैं. कुछ यहीं रुक कर ‘किस’ का हिस्सा बन जाते हैं. इन का मकसद अच्युत सामंत के मिशन में हाथ बंटाना है. ‘किस’ के बच्चों को यह जान कर हैरानी हुई कि चंपक देश की सभी प्रमुख भाषाओं में छपती है. चंपक टीम को विदा करते उन्होंने मांग की कि चंपक को उडि़या भाषा में भी छापा जाए.