कभी जो खिलखिलाते थे
जिंदगी में रंग लाते थे
किताबों के सफों में
दबे खामोश बैठे हैं
मगर लगते मुसकराते से
आंखें अब नहीं करतीं
नमी का जिक्र भी उन से
खुशियों के अवसर
लगते झरते से पासपास
मोती के पहने लिबास
झरती हैं बूंदें बारबार
जी चाहे अंजुरी में भर लूं
आंखों से पी लूं
या आंचल में इन्हें छिपा लूं
दर्द के बोझिल पलों के कारवां
जिंदगी के साथ चलते रहे
डरे, सहमे पलकों के पीछे छिपते
विश्राम के लिए
कभी मुसकराने के जतन भी किए
अंधेरों के सिरहाने मिले
तो बहने भी लगे.
निर्मला जौहरी
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
सब्सक्रिप्शन के साथ पाए
500 से ज्यादा ऑडियो स्टोरीज
7 हजार से ज्यादा कहानियां
50 से ज्यादा नई कहानियां हर महीने
निजी समस्याओं के समाधान
समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...
सरिता से और