उत्तराखंड में हजारों लोग धर्म की बलि चढ़ गए. पूजापाठ और तीर्थयात्रा के लोभ में जकड़े धर्मभीरु लोग अब भले ही अपनों को खोने से गमजदा हो कर सरकार को कोस रहे हों पर शायद ही उन्हें धर्म का व्यापार करने वाले पंडेपुरोहितों की सुनियोजित साजिश समझ में आए कि किस तरह से ये लोग पापपुण्य का जाल बिछा कर अपने स्वार्थ के लिए जनता को इन खतरनाक जगहों पर जाने के लिए उकसाते हैं. पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट.

उत्तराखंड में पहाड़ों पर आई प्रलय सैकड़ों जानें लील गई. सरकार अभी तक जानमाल का सही अनुमान नहीं लगा पाई है. मरने वालों की तादाद हजारों में है. बचाव कार्यों के लिए जहां तक प्रशासन पहुंचा है हर ओर तबाही का मंजर है. 17 जून की देर शाम और 18 जून की सुबह ऐसी प्रलय उठी कि पानी के साथसाथ पहाड़ की मिट्टी और पत्थरों के मलबे का बहाव तेजी से सबकुछ तबाह कर गया. देखते ही देखते जिंदा लोग मलबे में बहने लगे.

प्रत्यक्षदर्शियों को ऐसा लग रहा था मानो पहाड़ पिघल कर तेजी से इंसानों को रौंदता हुआ चल रहा हो. इस वीभत्स कहर से चारों ओर हाहाकार मच गया. इमारतें रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर गईं. चारों ओर लाशों के ढेर नजर आने लगे. शाम की आरती के वक्त भक्तों की भीड़ से गुलजार दिख रहा केदारनाथ मंदिर और आसपास का समूचा इलाका श्मशान दिखने लगा.

तबाही का मामला गंभीर दिखने लगा तो सरकार को राहत और बचाव के लिए सेना, आईटीबीपी को तैनात करना पड़ा. फंसे हुए लोगों को बाहर निकालने के लिए सेना के 20 हैलिकौप्टर लगाए गए. पर्याप्त राहत न मिल पाने के चलते चार धाम यात्रा पर गए लोगों और अन्य जगहों पर बैठे उन के परिजनों का गुस्सा सामने आने लगा. नेताओं के हवाई दौरे शुरू हुए. फंसे हुए लोगों को हर संभव मदद के आश्वासन दिए गए.

1 हजार से ऊपर मौतें बताई जा रही हैं पर वास्तव में सरकार के पास मारे गए लोगों के ठीकठीक आंकड़े नहीं हैं. सरकारी आंकड़ों से कई गुना अधिक मौतें हुई हैं. मंदिर समिति का कहना है कि जून माह में रोजाना औसतन 25-30 हजार यात्री केदारघाटी के अलगअलग पड़ावों में होते हैं. यानी केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी चारों धामों के यात्रियों की संख्या जोड़ी जाए तो जानकारों का अनुमान है कि तबाही के वक्त यहां 70 से 80 हजार यात्री थे. सब से अधिक तबाही केदारनाथ धाम में हुई. यहां मंदिर समिति का दफ्तर, भंडारगृह, धर्मशालाएं सबकुछ नष्ट हो गया. भगवान शिव तेज बहाव से अपने मंदिर का मुख्यद्वार नहीं बचा पाए. मंदिर के भीतर पानी और मलबा घुस आया.

केदारनाथ के अलावा मंदाकिनी नदी ने रामबाड़ा, सोनप्रयाग को नक्शे से ही मिटा दिया. गौरीकुंड तबाह हो गया. अगस्त्य मुनि का आधा बाजार नदी में समा गया. रुद्रप्रयाग के कई घर और पुल नदी बहा कर ले गई. होटल, धर्मशालाएं, गेस्ट हाउस पानी के तेज बहाव में बह गए. पानी का बहाव ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन से नीलकंठेश्वर की प्रतिमा बहा ले गया.

फिर भी अंधविश्वासियों की आस्था की पराकाष्ठा तो देखिए, कह रहे हैं, देखो, भगवान केदारनाथ की मूर्ति का कुछ नहीं बिगड़ा. वह सहीसलामत है. जो बच कर आ रहे हैं, वे कहते फिर रहे हैं कि मौत ने पीछा किया पर भगवान की कृपा से बच गए.

हद है अंधविश्वास की, किस कदर पत्थरों के भगवानों के प्रति लोगों में विश्वास कूटकूट कर भर दिया गया है. क्या भगवान तबाही ला कर खुश होता है? अगर त्रासदी आ ही गई तो भगवान को बचाव के लिए आना चाहिए था. लोग सरकार और सेना से सहायता के लिए क्यों अपेक्षा कर रहे हैं? राहत में कमी के लिए क्यों कोस रहे हैं? भगवान पर भरोसा करिए न. असल में लोगों की बुद्धि पर पंडोंपुजारियों ने पूरी तरह से कब्जा कर लिया है, इसलिए हर बात में उन्हें भगवान की मरजी नजर आती है.

सरकारी इमदाद का ऐलान हुआ और देशभर में जगहजगह सामाजिक संस्थाएं राहत सामग्री इकट्ठा करने में जुट गईं. हमेशा की तरह कुछ धार्मिक संस्थाएं राहत के नाम पर चंदा जुटाने में लग गईं. खास बात यह है कि इस तबाही में स्थानीय लोगों के बजाय बाहरी तीर्थयात्रियों को ज्यादा नुकसान हुआ है.

राज्य सरकार का कहना है कि 300 से अधिक गांवों का संपर्क पूरी तरह टूट चुका है. पहाड़ों में बसे गांव, कसबे और शहरों को जोड़ने वाली सैकड़ों सड़कें और पुल पानी के बहाव से चट्टानों के टूटने से नष्ट हो गए. ऋषिकेश से बद्रीनाथ, केदारनाथ और गंगोत्तरी व यमुनोत्तरी मार्ग पर जगहजगह पहाड़ दरक कर सड़क पर आ गए. जानकारों का कहना है कि कुदरती आपदाओं के पिछले 300 सालों के इतिहास में इतनी बड़ी त्रासदी नहीं आई.

चार धाम यात्रा हर साल होती है. यात्रियों की संख्या बढ़ रही है. धर्मस्थलों पर चढ़ावे के रूप में भारी रकम आती है. हमारे देश में धर्मस्थलों, धामों के प्रति लोगों की अपार श्रद्धा है. हर साल लाखों की संख्या में लोग वहां पहुंचते हैं.

पिछले डेढ़ दशक से चार धाम में आने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी तो गेस्ट हाउस, होटल, धर्मशालाएं, मंदिर बना लिए गए. सरकारों ने भी तीर्थयात्रियों की सुविधाओं का पूरा खयाल रखा. पंडों के आगे वे समर्पित रहीं. सरकारी खजाने से इन की सुखसुविधाओं के लिए खुल कर पैसा बहाया गया. पहाड़ों को तोड़ कर सड़कें, पुल बनाए गए बिना यह सोचे कि इस से पहाड़ों पर दबाव पड़ सकता है. लेकिन इस में दोष सरकारों का नहीं, वह तो पर्यटन के नाम पर धर्म के धंधे को बढ़ावा दे रही है.

प्राकृतिक आपदाओं को पंडे दैवीय प्रकोप कह कर प्रचारित करते हैं पर यह असल में दैवीय नहीं, पुरोहिताई आपदा है. धर्र्म के धंधेबाजों द्वारा आमंत्रित आपदा है क्योंकि उन केद्वारा धर्र्म के प्रचार के कारण इतनी बड़ी तादाद में लोग तीर्थस्थलों पर जुटते हैं. अगर ये लोग यहां नहीं आते तो इतनी जानें नहीं जातीं और सरकार को राहत व बचाव कार्यों में भारी धन खर्च नहीं करना पड़ता.

उत्तराखंड में धर्म के धंधे का जितना तेजी से विकास हो रहा है उतना दूसरे क्षेत्र में नहीं. यहां आपदा के समय साधुओं के कमंडलों व मंदिरों से लाखों रुपए बाहर निकल आए. अंदाज लगाया जा सकता है कि यह पैसा कहां से आ रहा है और किस के लिए आ रहा है. यानी देशभर से तीर्थयात्रा के नाम पर भोलेभाले यात्री मौत की घाटियों की ओर पंडों द्वारा धकेले जा रहे हैं. इस आशय के तकरीबन हर शहर में ‘अमरनाथ चलो’, ‘चलो चार धाम यात्रा’ जैसे बैनर और होर्डिंग्स लगे देखे जा सकते हैं.

उत्तराखंड में जितनी बड़ी तादाद में लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं इस के लिए काफी हद तक धार्मिक तीर्थयात्रियों की विशाल संख्या जिम्मेदार है. इस वक्त यहां चार धाम यात्रा चल रही थी. देशभर से लोगों को यहां हांकहांक कर भेजा जा रहा था. दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और यहां तक कि दक्षिण के राज्यों से भी चार धाम तीर्थों का पुण्य लूटने लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था. हजारों की संख्या में लोग केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी के मंदिरों में और इन के पहाड़ी रास्तों में थे.

प्राकृतिक संसाधनों का दोहन धर्म के विकास के लिए किया जा रहा है. किस का विकास हो रहा है? अकेले केदारनाथ मंदिर की सालाना आय 165 करोड़ रुपए है. इस के अलावा राज्य सरकार भी मंदिर को सालाना 80 करोड़ रुपए अलग से देती है. यह पैसा किस के लिए है? कहां से आता है? स्पष्ट है आम आदमी की मेहनत का पैसा धर्म के धंधेबाजों की सुखसुविधाओं के लिए जा रहा है.

केदारनाथ मंदिर को ही लीजिए. रावल भीमराव लिंगम केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी हैं. 21 जून को महाराष्ट्र से दिल्ली होते हुए वे देहरादून पहुंचे थे. इस के पहले उन्होंने 4 मई को पूरे विधिविधान से पूजापाठ कर केदारनाथ मंदिर के द्वार खुलवाए थे और तुरंत एक धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने बेंगलुरु उड़ गए. देहरादून के सहस्रधारा हैलीपेड पर उन्होंने बातचीत में पत्रकारों को बताया कि वे केदारनाथ मंदिर का पूजास्थल बदलने पर विचार कर रहे हैं, इस के लिए बद्रीकेदारनाथ मंदिर समिति व स्थानीय लोगों से बात की जाएगी. इसी बातचीत में उन्होंने एक और संक्षिप्त बात, जो बेहूदी दलील थी, कही कि देवताओं की पूजा का महत्त्व इंसानों की सुरक्षा से ही है.

जाहिर है उन्हें चिंता मरे और मारे जा रहे लोगों की नहीं, एक सधे व्यापारी की तरह धर्म की दुकान चलाए रखने में अपनी भूमिका बताने की थी. इस दिन केदारनाथ से पानी में बहीं सैकड़ों लाशें हरिद्वार और ऋषिकेश में मिली थीं. भीमराव जैसे लाखों महंत, पुरोहित और पंडेपुजारी अपने कारोबार की चिंता यह जताते कर रहे थे कि आदमी का क्या है, उस की जिंदगी तो नश्वर है पर धर्म का व्यापार शाश्वत है, यह बंद नहीं होना चाहिए.

इसे चलाए रखने की साजिश धर्माचार्यों ने किस अमानवीय और बेहूदे तरीके से रची इस की मिसाल एक शंकराचार्य स्वरूपानंद और भीमराव लिंगम का वाक्युद्ध था. मसला पूजा निदान था. स्वरूपानंद ने अप्रत्यक्ष रूप से हादसे की वजह पूजा दोष बताया तो भीमराव ने उन्हें मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा कि शंकराचार्य क्या जाने कि केदारनाथ में पूजापाठ किस पद्धति और निदान से होता है.

यह न समझें कि इन दोनों गुरुओं में कोई मतभेद या बैर है या था बल्कि इन दोनों का मकसद एक बेवजह का विवाद पैदा कर लोगों में फैल रहे इस अंधविश्वास को पुख्ता करना था कि यह हादसा दैवीय प्रकोप था बादलों का फटना तो बहाना था.

उत्तराखंड के हादसे पर छाती पीटने वाले लोगों को शायद ही धर्म का व्यापार करने वाले पंडेपुजारियों की साजिश और मंशा समझ आए कि कैसेकैसे कुचक्र रच कर ये ऐश करते हैं, मुफ्त के मालपुआ उड़ाते हैं और लोगों को मरने के लिए बेरहमी से केदारनाथ जैसी भट्ठी में झोंक देते हैं.

केदारनाथ मंदिर का रावल किस कमाई से देहरादून से हवाई जहाज से बेंगलुरु जाता है और किस कमाई से देशभर में हवाई जहाजों में सफर करता है, इस बात पर कोई विचार नहीं करता. और उस से निचले दरजे के पंडेपुजारी किस की कमाई पर पल रहे हैं, यह सोचने में आम और खास दोनों तरह के लोगों को परेशानी महसूस होती है. वजह, धर्म की पोल जब खुलने लगती है तो वे घबरा जाते हैं और उसी घबराहट से बचने के लिए वे फिर पंडेपुजारियों और न दिखने वाले भगवान की शरण में चले जाते हैं. जिस के बारे में धर्म के कारोबारियों का सारा वक्तव्य यह होता है कि सब ‘प्रभुइच्छा’ है.

हिंदू धर्म के इन 4 शब्दों को अंतिम सत्य मान लिया जाए तो उत्तराखंड के भीषण हादसे पर किसी बात या चर्चा की गुंजाइश नहीं रह जाती. मगर जो बवाल मचा और अभी तक मच रहा है, वह साबित करता है कि लोग कतई आस्तिक या आस्थावान नहीं हैं बल्कि पाखंडों के चलते भाग्यवादी और भयभीत हैं. सारा फसाद एक नपातुला षड्यंत्र है जो सदियों से चल रहा है. उस का अगला चरण जो सामने आना शुरू हो गया है, वह है केदारनाथ मंदिर और धाम को दोबारा बसाया जाएगा. फिर भले ही इस के लिए गांवगांव, गलीगली जा कर भक्तों से चंदा क्यों न लेना पड़े. सरकार पर तो यथासंभव दबाव बनाया ही जाएगा लेकिन पहले लाशों का मसला सुलझ जाए.

रावल भीमराव लिंगम दरअसल यह बता रहे थे कि ईश्वर बसता नहीं है बल्कि बसाया जाता है. उसे मंदिरों में बिठा कर व्यापार किया जाता है और फिर पैसे वसूले जाते हैं. लोगों को भगवान, नर्क, मोक्ष और मुक्ति का डर प्रलोभन दिखा कर ठगा जाता है, जिस से ब्राह्मण वर्ग के लिए बैठेबैठाए मुफ्त में देशी घी की रोटी और पकवान मिलते रहें.

जहां तक देवताओं की पूजा से मानव जीवन की रक्षा की बात है तो शायद ही कोई महंत या पंडापुजारी बता पाएगा कि क्या केदारनाथ में नियमित पूजापाठ नहीं होता था? क्या 4 मई का पूजन दोषपूर्ण तरीके से कराया गया था और लाख टके की बात यह कि ईश्वर इतना क्रूर क्यों है कि अपने हजारों भक्तों को देखते ही देखते मौसम के कहर का शिकार बना कर मार डालता है? धर्म के व्यापार का एक बड़ा कड़वा सच यह है कि इस में न तो कोई सीधे रास्ते पर चलता है न सीधेसीधे सोचता है. अगर कारोबार चलाने की शर्त दोषपूर्ण पूजन, जो बेमतलब की बात है, मानी जाए तो यकीन मानें कि एक नहीं, हजारों रावल यह जिम्मा अपने सिर लेने को तैयार हो जाएंगे और हादसे से ज्यादा अफसोसजनक बात यह है कि ऐसा होना शुरू भी हो गया है. हिंदूवादी नेता, पंडेपुजारी और व्यापारी कैसे यह खेल खेल रहे हैं और कैसे मीडिया उन का साथ जानेअनजाने में दे रहा है इस से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिरकार उत्तराखंड का हादसा क्या था और हुआ कैसे?

उन्मादी भीड़

16 जून को हरिद्वार रेलवे स्टेशन पर भारी बारिश में तकरीबन 10 हजार लोग जमा थे. शहर में इस से 20 गुना ज्यादा बाहरी लोग थे. इन में से अधिकांश को ऋषिकेश होते हुए केदारनाथ जाना था. चूंकि सड़क मार्ग भारी बारिश के चलते बंद कर दिया गया था, इसलिए सारी भीड़ स्टेशन पर आ रही थी. हालत यह थी कि प्लेटफौर्म पर पांव रखने की जगह न थी. जो जहां आ कर खड़ा हो गया, उस का हिल पाना मुश्किल था. सिख समुदाय के भी हजारों लोग थे जो पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब जा रहे थे यानी तीर्थयात्रा की संक्रामक बीमारी सभी धर्मों में पसरी है.

भीड़ में हर तरह के लोग थे. देशभर के गांवदेहातों से आए लोगों के जत्थे जयजय भोले के नारे लगा रहे थे तो शहरी पढ़ेलिखे लोग सपरिवार एकलौती पैसेंजर ट्रेन का इंतजार करते उन्हें हिकारत से देख रहे थे. जब हम ने चंडीगढ़ से आए एक गुप्ता परिवार से बातचीत की तो पता चला कि वे सपरिवार केदारनाथ जाने का कार्यक्रम बना कर आए हैं. इस परिवार के मुखिया एक बुजुर्ग थे जो जैसेतैसे प्लेटफौर्म पर बैठ पाए थे. 2 छोटेछोटे बच्चे भीड़ और शोरशराबे से घबरा कर रो रहे थे, जिन्हें महिलाएं कभी समझा कर तो कभी डांट कर चुप कराने की असफल कोशिश कर रही थीं.

‘‘ऐसे मौसम में परेशान होने से क्या फायदा?’’ यों ही बातचीत में हम ने उन से सवाल, जो सुझाव ज्यादा था, किया तो उस परिवार के मुखिया तकरीबन भड़क कर बोले, ‘‘अब आए हैं तो भोले बाबा के दर्शन कर के ही जाएंगे. यह मौसम तो इम्तिहान भर है. हम भागने वालों में से नहीं.’’

इस परिवार का क्या हुआ, पता नहीं पर यह जरूर साफ हो गया कि यह सोच और मानसिकता सिर्फ इन की नहीं बल्कि उन हजारों, लाखों लोगों की भी है जिन की बुद्धि धर्मस्थलों पर पहुंचते ही उन्माद की वजह से भ्रष्ट हो जाती है. ‘भगवान ने बुलाया है तो वही हिफाजत करेंगे’ जैसी पीढि़यों और सदियों से चली आ रही धर्मांध आस्था ने आखिरकार हजारों लोगों को बेवक्त मौत की नींद सुला ही दिया.

25 जून तक बच कर आए और मृतकों के परिजनों के इंटरव्यू न्यूज चैनल्स पर दिखाए जाते रहे. अखबारों में फोटो सहित उन की आपबीती और आंखोंदेखी छपी. लेकिन किसी ने अपनी गलती या बेवकूफी नहीं मानी कि हम खामखां एक जनून और उन्माद के चलते क्यों गए थे. उलटे यह कह रहे थे कि भगवान ने बचा लिया, यह उस की कृपा है. यानी जो मरे वे भगवान की कू्ररता के शिकार हुए. किसी ने यह न सोचा कि यह कैसा भगवान है जिस ने अपने हजारों भक्तों की जान ले ली जबकि वे तो उस का ही पूजनदर्शन करने केदारनाथ आए थे.

असल फसाद की जड़

18 जून को जब हम देहरादून से दिल्ली वापस आए तो नई दिल्ली के पहाड़गंज इलाके में देशबंधु गुप्ता रोड पर एक मंच सा दिखा जो तखत जोड़ कर बनाया गया था. इस स्टेज पर दर्जनभर खाने के तेल के पीपे, कुछ बोरियां जिन में अनाज व चीनी भरी थी और भी छोटीमोटी खाद्य सामग्री लोग चढ़ा गए थे. दरअसल, यह अमरनाथ यात्रा के लिए चंदा था. इस आशय का बोर्ड भी वहां लटका था. वहां मौजूद इकलौते तकरीबन 35 साल के युवक से जब यह पूछा कि ऐसे कितना सामान इकट्ठा हो जाता है तो वह केदारनाथ के हादसे को कोसता हुआ बोला, ‘‘इस साले मौसम ने काम बिगाड़ दिया नहीं तो अब तक तेल के 100 पीपे जमा हो जाते.’’

सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के हर छोटेबड़े शहर में ऐसे नजारे आम हैं. ये लोग तीर्थयात्रा के लिए लोगों को उकसाते हैं. टूर एंड ट्रैवल्स के नाम पर धंधा करते हैं, होटलों, लौजों से कमीशन खाते हैं और लंगर के नाम पर चंदा व खानेपीने का सामान इकट्ठा करते हैं. धर्म के नाम पर सड़क पर सरेआम चंदे का धंधा करने पर कोई एतराज नहीं जताता. आखिरकार, यह धर्म का काम है जिस में सब जायज होता है.

15 जून तक हरिद्वार, ऋषिकेश, केदारनाथ, प्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी जैसी धार्मिक नगरियों में लाखों लोग यों ही इकट्ठा नहीं हो गए, हकीकत में उन्हें तीर्थयात्रा के लिए उकसाया जाता है. बताया यह जाता है कि ‘एक ही जिंदगी मिली है उस में भी तीर्थ नहीं किया तो क्या फायदा’, ‘पाप धोने और लोकपरलोक सुधारने का मौका मत गंवाओ नहीं तो तुम में और कीड़ेमकोड़ों में क्या फर्क रह जाएगा’ जैसी अनगिनत सैकड़ों बातें धर्मग्रंथों का हवाला दे कर कही और समझाई जाती हैं.

तीर्थयात्रा करवाने के धंधे ने 70 के दशक से बड़े पैमाने पर जोर पकड़ा था. धर्म के धंधेबाजों को इस से चौतरफा फायदा होता है. पहला बड़ा फायदा पैसे का है व उसे दूसरा अंधविश्वासी माहौल बनाए रखने और बढ़ाने का होता है.

पंडेपुजारियों ने जब देखा कि लोग कुछ खास मौकों पर दानदक्षिणा देते हैं तो उन्होंने लोगों को तीर्थयात्रा के माहात्म्य बताने शुरू कर दिए. शुरुआत गांवदेहातों से की गई. अपनी घरेलू जिम्मेदारी पूरी कर चुके लोगों को धर्म का सार बताया जाने लगा कि उम्र के इस पड़ाव में अब करने को रखा क्या है, चलो चारों धाम का पुण्य ले लो. पुण्य कमाने वालों के लिए जरूरी यह भी था कि वे जाने से पहले गांव या जाति भोज दें और सकुशल वापस आ जाएं तो भी पुएपकवान खिलाएं. जाते वक्त पूजापाठ करवाने वाले पंडित को खासी दक्षिणा और यजमान अगर मालदार हो तो सोना, गाय और जमीन वगैरह भी दान में मिल जाती थी. तीर्थयात्री की हिम्मत बंधाए रखने के लिए उसे दूल्हों की तरह फूलमालाओं से सजा कर गाजेबाजे के साथ जुलूस की शक्ल में गांव की सीमा तक लोग बिदा करने जाते थे.

गांव व देहातों में ऐसा आज भी होता है, फर्क इतना भर आया है कि अब एकदो नहीं बल्कि दर्जनों की तादाद में लोग जत्थे की शक्ल में जाते हैं. उम्र की शर्त भी खास हो गई है. इन की सहूलियत के लिए पंडे, जो दलाल ज्यादा हैं, दुर्गम रास्तों में खानेपीने और ठहरने का इंतजाम भी करते हैं और साथ जाते भी हैं, ताकि तीर्थस्थल में भी इन का सिर मूंडा जा सके.

दरअसल, ब्राह्मणों और व्यापारियों यानी बनियों का खतरनाक गठजोड़ था जिन का आपसी अनुबंध यह था कि पंडा दानदक्षिणा लेगा और बनिया तीर्थयात्रियों को घुमानेफिराने का इंतजाम करेगा. इस के बाद हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता भी इस गठजोड़ से जुड़ गए जो हकीकत में धर्म प्रचार के अलावा हिंदूवादी दलों का वोटबैंक भी पकाते हैं. गांवशहरों में बारहों महीने जो धार्मिक कार्यक्रम भागवत, रामकथा प्रवचन और यज्ञहवन होते हैं, उन में इन लोगों का खासा रोल रहता है. सब का मकसद समान है, धर्म का धंधा चमकाए रखना. और इस पर वे एकजुट भी हैं.

देहातों में किसान कर्जे में डूबते चले गए. बनिया टूर एंड ट्रैवल्स के धंधे से उन्हीं से पैसा कमा कर उन्हें तगड़े ब्याज पर कर्ज भी तीर्थयात्रा के लिए देने लगा. केदारनाथ जैसे 2 दर्जन तीर्थस्थलों के व्यापारियों से भी इन्हें भारी कमीशन मिलता है. आलसी और परजीवी होने के कारण ब्राह्मणों ने कभी व्यापार नहीं किया. वे मंदिरों के चढ़ावे और यजमान की दक्षिणा से पलते हैं. दान की गाय का दूध इस्तेमाल करते हैं और जब दूध देना बंद कर देती है तो उसे खुले में चरने और गाभिन होने के लिए छोड़ देते हैं यानी चारे का खर्च भी वे बचाते हैं.

आइडिया यानी धंधा चल निकला तो ऐसा बड़े पैमाने पर किया जाने लगा. पहले चमत्कारी किस्सेकहानियों के परचे बंटवाए गए, जिन का सार होता था कि शिरडी वाले साईंबाबा, तिरुपति बालाजी, अमरनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम या पुरी के शंकरजी ने फलां किसान या व्यापारी को सपने में नागरूप में दर्शन दिए और उन के दर्शन करने आने का आदेश  दिया. फलां ने बात मानते हुए तीर्थयात्रा की तो उस की बेटी की शादी मालदार घराने में हो गई, बेटे की अच्छी नौकरी लग गई और लौटरी भी खुल गई. फलां ने बात नहीं मानी यानी दर्शन करने नहीं गया और हजार परचे छपवा कर नहीं बांटे तो उस के जितने हो सकते थे उतने अनिष्ट हो गए, जिन में जवान लड़के की मौत खास है.

इस तरह के अनिष्टों के डर और चमत्कारों के लालच में लोग जमापूंजी दांव पर लगा कर व कर्ज ले कर तीर्थयात्रा करने लगे. शहरों के पढ़ेलिखे लोगों को भले ही फूलमाला पहना कर स्टेशन या बस अड्डे तक जाने में शर्म आती हो पर तीर्थयात्रा के मामले में उन की मानसिकता देहातियों सरीखी है. इन लोगों को भी बढ़ते और बदलते प्रचार माध्यमों ने सोचनेमानने पर मजबूर कर दिया कि अगर किसी तीर्थस्थल की यात्रा कर ली तो बेटी की शादी भी वक्त रहते अच्छे घर में हो जाएगी और लड़के को भी किसी नामी कंपनी में नौकरी मिल जाएगी. लौटरी खुले न खुले, चिंता की बात नहीं पर आने वाले कथित और काल्पनिक अनिष्टों से तो बचे रहेंगे.

कल तक परचे प्रिंटिंग प्रैस वाले थोक में छाप कर रखते थे. उन की जगह आज मीडिया ने ले ली है. धार्मिक चैनल्स जम कर अंधविश्वास फैलाते हुए लोगों को तीर्थयात्रा का झूठा महत्त्व बता कर उकसा रहे हैं तो पत्रपत्रिकाएं भी पीछे नहीं.

हादसे का सच

25-30 साल पहले तक केदारनाथ एक पहाड़ सा हुआ करता था. उस वक्त लोग केदारनाथ जाने के नाम पर घबराते थे, अब बेखौफ जाते हैं. वजह, रास्तों का बन जाना और वहां मिलने वाली सहूलियतें. अब तो लोगों ने इसे हनीमून स्पौट और ऐयाशी का अड्डा भी बना डाला है.

हकीकत में केदारघाटी में मौसम ने जो कहर ढाया उस की वजह मंदाकिनी से उठे बादलों का फटना था. तमाम मौसम विज्ञानी इस बात पर एक मत हैं कि बादलों के फटने का लंबा पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. इस की जानकारी कुछ घंटों पहले ही मिल पाती है. हिमालय व उत्तराखंड इलाकों में बादलों का फटना एक नियमित और अपेक्षित घटना है. इस में सीमित स्थान पर तेज बारिश और भूस्खलन होता है.

उत्तराखंड सरकार को कोस रहे लोग इस विज्ञान से मतलब नहीं रखते. शायद ही धर्मांध लोग बता पाएं कि अगर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा केदारनाथ न आने की अपील उन से करते तो क्या वे मानते? उलटे, ज्यादा तादाद में लोग पहुंचते. मकसद, ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना भर होता जो गलत साबित होता और हुआ भी. हिंदूवादी संगठन और दल तो इतनी हायतौबा मचा डालते कि हालात संभालना मुश्किल हो जाता.

आतंकी खतरा अमरनाथ यात्रा पर भी मंडरा रहा है. अगर जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला श्रद्धालुओं से  वहां न आने की अपील जानमाल की हिफाजत के मद्देनजर करें तो क्या लोग मान जाएंगे? इस पर हां कहने की कोई वजह नहीं क्योंकि देश के हजारों स्थलों पर अमरनाथ यात्रा के बोर्ड, फ्लैक्स लगे हैं और धर्मांध लोग उत्तराखंड के हादसे से सबक न लेते हुए अपनी जान जोखिम में डाल वहां जाने की तैयारियां कर रहे हैं.

इस हादसे की दूसरी वजह नियम, कायदेकानून तोड़ कर बनाई गई बेजा इमारतें हैं जिन में होटल, मठ, मंदिर, लौज और रैस्टोरैंट सैकड़ों की संख्या में खुले और गंगा किनारे ही बने जबकि कानून यह है कि गंगा तट से 150 मीटर की दूरी तक कोई निर्माण नहीं होना चाहिए. पहाडि़यों की इस जमीन पर गैर पहाड़ी लोगों यानी बनियों ने कानन तोड़ते   हुए पूरा गंगा किनारा निर्माण से पाट दिया.

अवैध निर्माण देशभर में हो रहे हैं. गंगा किनारे के तीर्थस्थल इस के अपवाद नहीं हैं. जाहिर है जिन्होंने ये निर्माण किए उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए.

सरकार का कितना दोष

25 जून तक इस पहाड़ी पर फंसे लोग सरकार को पानी पीपी कर कोसते रहे कि उस ने ध्यान नहीं दिया, सहूलियतें मुहैया नहीं कराईं और हमें 1 रोटी 100 रुपए की मिल रही है. पानी की बोतल 200 रुपए की और चिप्स का 5 रुपए वाला पैकेट भी 100 रुपए में मिला. ये वही लोग थे जो अपनी गाढ़ी कमाई का लाखोंकरोड़ों नहीं बल्कि अरबों रुपया पंडों को दान में देते हैं और दान पेटियों में डाल देते हैं. तब इन के मुुंह से चूं भी नहीं निकलती. पेट भरने की कुछ ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ी तो तिलमिला उठे.

यह रोनागाना अव्वल तो उस भगवान के सामने करना चाहिए था जिस के दर्शन का पुण्य लाभ लेने के लिए लोग वहां गए थे. सरकार को कोस कर खुद की गलती ढंकने की गलती या चालाकी श्रद्धालुओं ने जानबूझ कर की जिस से कोई उन के भगवान पर उंगली न उठाए.

केदारनाथ में कुछ इमारतें सलामत बच गईं यानी केदार के कणकण में शंकर नहीं पर बात श्रद्धालु सोचसमझ रहे हैं पर कहना तो दूर की बात है सोचने में भी डर रहे हैं.

जब भगवान कुछ नहीं कर पाया तो सरकारों से चमत्कारों की उम्मीद क्यों? एक दुर्गम पहाड़ी पर रातोंरात सुरक्षित मकान बनाना किसी सरकार के लिए नहीं बल्कि चमत्कारी भगवान के लिए ही मुमकिन था. छप्पन भोग वाली थाली देने की सामर्थ्य भी उसी की है. लिहाजा, उसी से मांगा जाना चाहिए था. नहीं दिया तो प्रभुइच्छा मानते हुए संतोष करना ही बेहतर रास्ता था. उत्तराखंड सरकार ने देशभर में न्यौते के पीले चावल नहीं बंटवाए थे, जो लाखों लोग मुंह उठा कर वहां पहुंच गए और सरकार पर एहसान जताते उसे कोसते रहे मानो कोई आकाशवाणी इस हादसे की बाबत हुई थी. लोग अपने जोखिम पर अनापशनाप तादाद में गए थे. लिहाजा, राज्य या केंद्र सरकार को इस बाबत दोष दिया जाना कतई तर्कसंगत नहीं लगता.

भगवान कहीं होता तो जरूर भूखे भक्तों के खाने का इंतजाम करता. उन्हें तड़पनेतरसने न देता और औरतों की इज्जत न लुटने देता. पर ऐसा हुआ तो साफ है कि ईश्वर एक परिकल्पना भर है जिस का खौफ दिखा कर धर्मांध लोगों से पैसे ऐंठे जाते हैं, उन्हें थोक में दुर्गम पहाडि़यों पर जानलेवा मौसम में जाने के लिए उकसाया जाता है. इन असल दोषियों की बात कोई नहीं कर रहा, इसलिए उन के हौसले बुलंद हैं और इसीलिए बेशर्मी से लाशों के ढेर पर अपनी दुकानदारी की बात करते नजर आए जो अमानवीय थी कि केदारनाथ का मंदिर फिर बनाया जाएगा या पूजास्थल बदला जाएगा. और तो और, असल बात से ध्यान भटकाने के लिए देशभर में ही फंसे तीर्थयात्रियों को बचाने को पूजापाठ, कीर्तन, हवन, यज्ञ जैसे सामूहिक कार्यक्रम शुरू हो गए. अक्ल के मारे ये धर्मांध शायद ही बता पाएं कि उस भगवान के सामने गिड़गिड़ाने से क्या फायदा जो अपनी नगरी में ही भक्तों को नहीं बचा पाया. दरअसल, यह पंडों, बनियों और हिंदूवादियों की चाल थी ताकि भविष्य में लोग हतोत्साहित हो कर तीर्थयात्रा करने से कतराने न लगें.

मीडिया और उमा भारती जैसी साध्वी नेताओं की भूमिका भी खलनायक की ही कही जाएगी. उमा ने इसे एक देवी की मूर्ति को हटाने का श्राप बताया तो उन की चालाकी उजागर हुई कि वे कैसे अंधविश्वास फैला रही हैं. इस हादसे पर राजनीति भी जम कर हुई. भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को इसे बजाय राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग के दैवीय आपदा घोषित करने की मांग करनी चाहिए थी. उमा भारती के रास्ते पर चलने में न्यूज चैनल्स भी पीछे नहीं रहे जो कुछ रुकरुक कर यह साबित करने की कोशिश में लगे रहे कि यह इस या उस धार्मिक वजह से हुआ. कुछ चैनल वाले तो जाहिर है पंडेपुजारियों की मदद से किसी काल्पनिक गं्रथ से खोज लाए कि यह आपदा शंकर की फलां वजह से पेश आई नाराजगी से हुई. यह बात साबित करने के लिए पंडेपुजारियों को स्टूडियो में बुला कर उन के साक्षात्कार भी प्रसारित किए गए.

यह हादसा धर्म के मारों के अलावा देशभर को सबक है कि धर्म के नाम पर मूर्खतापूर्ण हरकतें और यात्राएं न की जाएं वरना ऐसे हादसे यों ही होते रहेंगे और अरबों रुपए जो विकास व जनहित कार्यों में इस्तेमाल होते, यों ही जाया होंगे. कठघरे में देशभर में फैले उन पंडेपुजारियों, संतोंमहंतों को खड़ा किया जाना चाहिए जो अपने धंधे, स्वार्थ और मौज के लिए आम लोगों को तीर्थयात्रा के लिए उकसाते हैं.

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