हम लोग पढ़लिख कर अपने को काफी मौडर्न समझने लगते हैं. विकास की बातें करते नहीं अघाते, मगर जहां धर्म, कर्म, लोकपरलोक की बातें पंडेपुरोहितों द्वारा की जाती हैं वहां हम चारों खाने चित पड़ जाते हैं. पंडेपुरोहित हमारे सामने धर्मकर्म व सामाजिकता के नाम पर ऐसा जाल बुनते हैं कि हम उस में फंसते जाते हैं. उस समय हमारा सारा मौडर्निज्म कहीं चला जाता है.

पिछले साल हमारे एक रिश्तेदार की मृत्यु हो गई. उन की दसवीं व तेरहवीं के दिन पंडेपुरोहितों ने अन्न, कपड़ा व रुपए इतने ज्यादा उगाहे कि उन के परिवार सालभर बिना किसी मेहनत के मौज करेंगे. ये लोग धर्म के नाम पर हमें इतना भीरु बना देते हैं कि जो कुछ मांगते जाते हैं, हम देते चले जाते हैं. इस में अपनी बड़ाई के लिए?भी कुछ लोग अंधाधुंध खर्च करते हैं. पता नहीं कब हम इन

के चंगुल से नजात पाएंगे क्योंकि हमारे दिलोदिमाग पर अंधविश्वास डेरा डाले है.
कैलाश राम (उ.प्र.)

बहनोई की मौत के चलते हमें जनवरी में दिल्ली जाना पड़ा था. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी और मेरी बहन के घर कई और रिश्तेदार जमा थे. हम वैसे दिल्ली अकसर जाते रहते हैं और हमेशा अपनी बेटी के पास ही रहते हैं पर इस बार अफसोस का मामला था, इसलिए हम ने उस को मना कर दिया और सोचा कि जो भी होगा देखा जाएगा, बहन के पास ही ठहरते हैं. पर बेटीदामाद को कहां चैन, वे हमें आराम देना चाहते थे.

उन्हीं दिनों हमारी समधन यानी हमारी बेटी की सास भोपाल से उन के पास आई हुई थीं. अपने बेटेबहू को परेशान देख कर हमारी समधन ने उन से परेशानी का कारण पूछा. कारण पता लगने पर उन्होंने एकदम ही हल भी सुझा दिया और बोलीं, ‘‘इस में क्या है, उन को बोलो, सीधे यहीं आ जाएं और फिर नहानेधोने के बाद चले जाएं तो कोई बात नहीं है.’’ हमारे मना करने पर भी वे लोग नहीं माने और हमें अपने घर ले गए. मेरी बहन के घर पर भी हमारी बेटी ने अच्छी तरह समझा दिया था ताकि उन्हें बुरा न लगे.

हम दिल्ली 4 दिन रहे. रोज सबेरे तैयार हो कर दिनभर के लिए बहन के पास चले जाते और शाम को वापस आ जाते थे. बेटी, दामाद और समधन की सूझबूझ से हम ठंड से भी बचे रहे, बीमार भी नहीं पड़े और अफसोस में भी शामिल रहे. यह सही बात है कि पुरानी बातों को डर या अंधविश्वास की वजह से हम ने ही उन्हें बेडि़यां बना रखा है, चाहें तो उन्हें उतार फेंक सकते हैं और एक अच्छा प्रैक्टिकल जीवन व्यतीत कर सकते हैं.
ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

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