घटना बहुत पुरानी है. मैं किसी कार्यवश बदायूं गया. उसी दिन दोपहर में वहां दंगा हो जाने के कारण  72 घंटे का कर्फ्यू लग गया. आवागमन रुक गया. 4 दिन बाद पुलिसलाइन से कुछ गिनीचुनी बसें लोगों को मात्र बदायूं की सीमा पार करा रही थीं. उस बस में सवार हो कर सीमा तक पहुंचा. वहां एक छोटा सा कसबा था. रेलवे स्टेशन या बस अड्डे पहुंचने के लिए भी कोई सवारी नहीं मिल पा रही थी. माहौल में भय व सन्नाटा व्याप्त था. तभी एक बस आती दिखाई दी. बस की सीढि़यों पर खड़े हो कर सवारियों पर एक नजर डाली. सभी यात्री दूसरे संप्रदाय के थे.

मैं उलटे पांव उस बस से उतरने को हुआ. तभी एक सज्जन मेरी मुश्किल भांप गए. दंगे के माहौल में, विश्वास टूटने से दोनों वर्गों के लोग एकदूसरे को आशंकाभरी नजरों से देखते हैं.

वे कहने लगे, ‘‘मानवीय संवेदनाओं का कोई मजहब नहीं होता. अपनी स्वार्थपूर्ति करने वाले लोग ही भाईचारे का माहौल बिगाड़ने की कोशिश करते हैं. दंगाई सिर्फ दंगाई ही होते हैं.’’

उन की बातों से मेरा हौसला बंध गया. रास्तेभर बातें करते हम लोग बरेली बस अड्डे पर पहुंचे. हाथ मिला कर एकदूसरे से विदा ली.

इस तरह उन अनजान महोदय के कारण मेरा सफर सुहाना बन गया. आज भी स्मृतियों में उन का चेहरा घूम जाता है.
शशि, कानपुर (उ.प्र.)

मैंऔर मेरे पति 2 वर्ष पहले रेलयात्रा कर रहे थे. बीच में दिल्ली से गाड़ी बदलनी थी. हम सुबह 9 बजे ही दिल्ली पहुंच गए जबकि अगली गाड़ी 2 बजे आनी थी. लगभग सवा 2 बजे घोषणा हुई कि लुधियाना जाने वाली गाड़ी प्लेटफौर्म नंबर 5 पर आ रही है. हम दोनों सामान सहित प्लेटफौर्म तक पहुंचे. 2.30 बजे गाड़ी आई और हम भीड़ में जगह बनाते हुए गाड़ी में चढ़ गए. लग रहा था कि जैसे जंग जीत ली हो, पर कहां जनाब.

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