Friendship Issues : स्कूल के क्लास की आखिरी बैंच से ले कर होस्टल के कौरिडोर तक जहां कभी दोस्ती की गूंज सुनाई देती थी वहां अब सिर्फ नोटिफिकेशन की टनटनाहट बची है. जेन जी के आज के स्टूडैंट्स घंटों एकदूसरे की रीलें देखते हैं लेकिन आंखों में आंखें डाल कर बात करने का वक्त नहीं निकाल पाते. स्क्रीन के इस गहरे समंदर में उन की फ्रैंडशिप कब हलकी हो गई, शायद उन्हें खुद भी पता नहीं चला.
भारत का युवा आज इतिहास के उस मोड़ पर खड़ा है जहां दोस्ती का सब से ज़्यादा शोर औनलाइन है हालांकि सब से ज़्यादा खामोशी भी वहीं है. भारतीय युवा अपने दिन के कई घंटे मोबाइल, लैपटौप और टैबलेट की स्क्रीन पर बिताता है. सिर्फ सोशल मीडिया पर ही भारतीय युवा (18-25 साल का) लगभग 3 घंटे रोज दे रहा है, जो उन की कुल डिजिटल लाइफ़ का बड़ा हिस्सा है. अगर इसे महीने में बदलें तो 90 घंटे और साल के 1,095 घंटे. यह लगातार बढ़ता हुआ स्क्रीनटाइम उन की फ्रैंडशिप को भी बदल रहा है.
भारत में इंटरनैट की तेज़ी से बढ़ती पहुंच ने युवाओं को पहले से कहीं ज़्यादा कनैक्टेड तो बना दिया है लेकिन यह कनैक्शन गहराई से ज़्यादा ‘कन्टीन्यूज नोटिफिकेशन’ पर टिका हुआ है. 2024 में भारत में 462 मिलियन, यानी 46 करोड़ से कुछ अधिक ऐक्टिव सोशल मीडिया यूजर थे, जिन में बड़ी हिस्सेदारी 18–24 उम्र के युवाओं की है, यानी, वही जेन जी जो कालेज–ट्यूशन की उम्र में है.
रियल बनाम रील : दोस्ती का नया सेट
सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स जेन जी के लिए दोस्ती के एक्सपैरिमैंटल ग्राउंड बन गए हैं, जहां फौलोअर्स, लाइक और व्यूज ही रिश्ते की वैल्यू तय करते हैं. इस पीढ़ी का रोजमर्रा का जीवन इतना ‘रील’ और ‘स्टोरी’ सैंट्रिक हो चुका है कि दोस्त अब कम, कौन्टैक्ट्स ज़्यादा दिखते हैं-जिन्हें कभी भी ‘अनफौलो’ या ‘ब्लौक’ किया जा सकता है.
रील्स की तेज रफ़्तार ने बातचीत की रफ़्तार भी बदल दी है. देर तक चलने वाली एकदो गहरी बातचीत की जगह अब 50 छोटेछोटे चैट थ्रेड हैं, जो ज़्यादातर मीम, ट्रैंड या किसी वायरल मामले पर टिकी होती हैं.
स्क्रीनटाइम और अकेलापन : सब से कनैक्टेड, फिर भी सब से अकेला
भारत के कई बड़े शहरों में युवाओं के बीच लोनलीनैस एक बड़ा पब्लिक हैल्थ इश्यू बन चुका है. विशेषज्ञों के मुताबिक, लगातार औनलाइन रहने के बावजूद अच्छी फेसटूफेस बातचीत बेहद कम होती जा रही है. मनोवैज्ञानिकों का अनुभव है कि सोशल मीडिया फोमो (फियर औफ मिसिंग आउट) और आपस में कंपैरिजन की आदत को बढ़ाता है. जेन जी अपने दोस्तों की क्यूरेटेड लाइफ़ देख कर खुद को कमतर महसूस करता है और इसी असुरक्षा के साथ और ज़्यादा औनलाइन भागता है, जहां गहरा सपोर्ट नहीं, सिर्फ रिऐक्शन मिलते हैं.
कुछ इंटरनैशनल रिसर्च बताती हैं कि दुनियाभर के लोगों का रोज का औसत स्क्रीनटाइम 6.5 घंटे के आसपास पहुंच चुका है, जबकि जेन जी इस औसत से काफी ऊपर है और अकसर 8–9 घंटे स्क्रीन पर बिताता है. भारतीय संदर्भ में भी, एक विश्लेषण बताता है कि अरबन जेन जी में 6–8 घंटे प्रतिदिन स्क्रीन के सामने बिताने वाले युवाओं की संख्या करोड़ों में है. जब दिन का इतना बड़ा हिस्सा डिजिटल दुनिया में खप जाता है, तो परिवार, लोकल दोस्तों, महल्ले, कालेज, कैंपस जैसी जगहों पर काम के रिश्तों के लिए समय ही नहीं बचता.
कालेजस्कूल भी ‘स्क्रीन मोड’ में
कोविड के बाद से भारत की शिक्षा व्यवस्था ने भी डिजिटल और ब्लेंडेड लर्निंग को मुख्यधारा बना लिया है. रिपोर्ट्स दिखाती हैं कि भारत में औनलाइन एजुकेशन मार्केट तेज़ी से बढ़ रहा है और आने वाले वर्षों में इस के अरबों डौलर के उद्योग बनने का अनुमान है. विश्वविद्यालय यूजीसी–स्वीकृत औनलाइन डिग्री, डिस्टेंस एमबीए और डिज़िटल स्किल कोर्सेस को जोरों से बढ़ावा दे रहे हैं.
एक अनुमान के मुताबिक, 2023 में ही भारत में 60 लाख से अधिक छात्रों ने औनलाइन यूजी और पीजी प्रोग्राम्स में नामांकन कराया, जिन में से लगभग आधे छोटे शहरों और कसबों से आए थे. स्कूल स्तर पर भी ब्लेंडेड लर्निंग यानी औफलाइन–औनलाइन के मिश्रण को भविष्य की मुख्य दिशा माना जा रहा है. नतीजा यह कि जो समय पहले कैंपस, लाइब्रेरी, होस्टल, मैदान, चाय की दुकान और कैंटीन में दोस्तों के साथ बीतता था, उस का बड़ा हिस्सा अब स्क्रीन पर लैक्चर, असाइनमैंट, क्विज और रिकौर्डेड क्लासेस में चला जाता है. जिसे लेने न लेने की कोई बाध्यता कई जगह नहीं है.
शब्द छोटे, भाव और छोटे
जेन जी की डिजिटल भाषा सिर्फ स्माइली और जीआईएफ तक सीमित नहीं है. यह एक पूरी ‘शौर्टकट कल्चर’ बन चुकी है. ASAP, LOL, BRB, TBH, IDK जैसे सैकड़ों संक्षिप्त रूप रोज की चैटिंग का आधार हैं, जो सोचने और महसूस करने की भाषा को भी सीमित कर रहे हैं. जब वोकैबुलरी सीमित हो जाती है तो भाव व्यक्त करने की क्षमता भी सिकुड़ जाती है. गुस्सा, प्यार, नाराजगी, दुख सब या तो एक एमोजी में समां जाते हैं या दोतीन शब्दों के स्लैंग में. नतीजा, युवा अपने भाव नहीं प्रकट कर पा रहे हैं, न ही भाव प्रकट करने वाली कोई चीज वे देख या पढ़ रहे हैं.
रिसर्च यह भी दिखाती है कि जेन जी का बड़ा हिस्सा अपना आधा से ज़्यादा स्क्रीनटाइम यूजर जेनरेटेड कंटैंट जैसी रील्स पर बिताता है, जहां भाषा तेज, मज़ेदार और इंस्टैंट होती है, गहरी नहीं. इस आदत का असर औफलाइन बातचीत पर यह पड़ता है कि लंबे वाक्य असहज लगने लगते हैं, साइलैंस बरदाश्त नहीं होता और दोस्ती में धैर्य की जगह जल्दी से रिऐक्शन देने की प्रवृत्ति में वृद्धि ले लेता है. जहां पहले दोस्त अरसे तक बैठ कर बात करते थे, अब दो शब्द, एक स्टीकर उन की दोस्ती का पूर्णविराम हैं.
विचार करने की ताकत घटती
भारत में एक स्टडी दिखाती है कि 91 फीसदी जेन जी वाले सोशल मीडिया से न्यूज लेते हैं. यानी, ख़बरों, बहसों और मुद्दों पर उन की पहली नजर वही एल्गोरिदम तय करता है जो एंगेजमैंट बढ़ाने के लिए काम करता है. युवाओं की एक बड़ी दिक़्क़त यह है कि वे अकसर लंबे कंटैंट को पढ़ने, किताब या गहराई वाले लेखों से दूरी बना कर रखते हैं, वे अपनी राय सोशल मीडिया, शौर्ट पोस्ट्स, इन्फ्लुएंसर्स की ओपिनियन या मीम के जरिए जाहिर करते हैं.
जब दोस्त आपस में बात करते हैं तो उन के पास चर्चा के लिए ज़्यादातर वही तैयार राय होती है जो हालिया टाइमलाइन ने उन्हें दी है. ज्यादा व गहरी जानकारी लौंग फौर्मेंट की किताबों, लेखों को पढ़ने से बनती है जबकि वे अपनी चर्चा बहुत छोटे में निबटा देते हैं. ऐसे में बहस जल्दी पोलराइज्ड हो जाती है या तो एग्री, या फिर फुल्ली डिसएग्री.
इमोशन की जगह ट्रोलिंग
भारत में औनलाइन ट्रोलिंग अब छिपछिपा कर नहीं हो रही बल्कि यह कल्चर का हिस्सा बन चुकी है; ट्रोलर्स अब गंभीरता का विषय नहीं बल्कि मजाक का विषय बन गए हैं. सरकाज्म, मीम और गालीगलौज के मिलेजुले पैटर्न ने जेन जी की फ्रैंडशिप को भी प्रभावित किया है, जहां हलकाफुलका मज़ाक और ‘लेग पुलिंग’ की जगह अब ‘रोस्ट कल्चर’ और ‘सैवेज रिप्लाई’ ने ले ली है.
ऐसी औनलाइन भाषा में संवेदनशीलता के लिए बहुत कम जगह होती है. जो दोस्त अपनी किसी पर्सनल परेशानी, मैंटल हैल्थ या रिश्तों की दिक़्क़त पर बात करना चाहता है वह अकसर डरता है कि कहीं उस का दर्द मजाक या मीम न बन जाए, या उस के शब्दों के स्क्रीनशौट किसी ग्रुप में फौरवर्ड न कर दिए जाएं. नतीजा यह कि युवा या तो खुद ट्रोल बन जाते हैं ताकि कमजोर न दिखें, या फिर चुप हो जाते हैं. दोनों ही स्थितियों में दोस्ती से भावनात्मक सुरक्षा गायब हो जाती है.
थ्योरी नहीं, टाइमलाइन
सोशल मीडिया के दौर में ‘क्या ट्रैंडिंग है’ यह तय करता है कि आज दोस्तों की बातचीत किस पर होगी. भारत में डिजिटल पापुलेशन 80 करोड़ से ऊपर है और करोड़ों जेन जी यूजर रोज़ाना अलगअलग प्लेटफौर्म पर ऐक्टिव हैं. इन की टाइमलाइन पर जो बहसें चल रही होती हैं वही उन के छोटेछोटे सर्कल में भी दोहराई जाती हैं.
समस्या तब गहरी हो जाती है जब सैद्धांतिक समझ चाहे वो राजनीति की हो, जैंडर की, समाज की या अर्थव्यवस्था की हो, लगभग न के बराबर रह जाती है, डिस्कशन सिर्फ वनलाइनर तक सीमित हो जाता है.
ये सब कारण कहीं न कहीं जेन जी की फ्रैंडशिप पर असर डाल रहे हैं. जेन जी आपस में मस्तीमजाक करते तो दिख जाते हैं जैसा उन्हें रील में भी दिखाई देता है मगर जहां इमोशन शेयर करने की बात आती है वहां वे अपनी बात को न तो रख पाते हैं न ही दूसरे के इमोशन को समझ पाते हैं. यह स्थिति उन की दोस्ती को गहरा करने से रोकती है. Friendship Issues :





