Adoption Law: बच्चों की खरीदफरोख्त चरम पर पहुंच गई है जबकि देश में गोद लेने की प्रक्रिया काफी जटिल और कठिन कर दी गई है. इच्छुक मातापिता कानूनी रास्ता छोड़ अवैध तरीके अपनाने को मजबूर हैं. आज हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता हो रहा है. एक ऐसी व्यवस्था बने जो न केवल बच्चों को सुरक्षित परिवार दे बल्कि उन को गलत हाथों में जाने से भी रोके. इस लेख में पढि़ए उन छिपे व अनसुलझे सवालों की पड़ताल जो हर निसंतान परिवार के जेहन में चलते रहते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने एक अखबार में प्रकाशित एक खबर पर खासी चिंता व्यक्त की, जिस के मुताबिक देश में हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने इसे गोद लेने की प्रक्रिया से जोड़ा और कहा कि भारत में बच्चा गोद लेने की सरकारी प्रक्रिया इतनी उलझाऊ और कठोर है कि इस का उल्लंघन होना स्वाभाविक है. लोग जल्दी से जल्दी बच्चा पाने के लिए अवैध तरीके अपनाते हैं.

जस्टिस बी वी नागरत्ना और आर महादेवन की पीठ ने केंद्र सरकार से बच्चा गोद लेने की प्रक्रिया को सरल और सुव्यवस्थित करने के लिए कहा है लेकिन सरकारी मशीनरी इस पर अमल करेगी, इस में संदेह है. कठिन प्रक्रिया से बहुतों को पैसा मिलता है जिसे वे हाथ से जाने नहीं देंगे.

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अनुमानतया हर वर्ष 96 हजार बच्चे लापता हो जाते हैं. दिल्ली पुलिस के रिकौर्ड के अनुसार बीते 10 सालों में सिर्फ दिल्ली से ही 1.8 लाख बच्चे गायब हो चुके हैं. इस के अलावा वर्तमान में भारत में लगभग 3 करोड़ बच्चे अनाथ हैं, जिन के मातापिता नहीं हैं. इन में से केवल 5 लाख बच्चे ही अनाथालयों जैसी संस्थागत सुविधाओं तक पहुंच सके हैं.

यह संख्या बहुत ही कम है. इन 5 लाख बच्चों में से भी केवल 4 हजार बच्चों को ही प्रतिवर्ष गोद लिया जा पा रहा है, जबकि बच्चा गोद लेने के इच्छुक लोगों की संख्या लाखों में है. हर निसंतान दंपती जल्द से जल्द बच्चा पाना चाहता है और कानूनी रास्ते से यदि बच्चा नहीं मिलता तो वे गैरकानूनी रास्ता अपनाने के लिए मजबूर हो जाते हैं.

इस से पहले 14 अक्तूबर, 2025 को एक गैरसरकारी संगठन गुरिया ने अदालत में याचिका दायर कर बच्चों के अपहरण और गुमशुदा होने के अनसुलझे मामलों के अलावा भारत सरकार द्वारा निगरानी किए जाने वाले खोया/पाया पोर्टल पर उपलब्ध सूचना के आधार पर की जाने वाली कार्रवाई का उल्लेख किया था. याचिका में पिछले साल उत्तर प्रदेश में दर्ज 5 मामलों के आधार पर अपनी दलील पेश की गई थी, जिन में नाबालिग लड़कों और लड़कियों का अपहरण कर उन्हें बिचौलियों के नैटवर्क के जरिए झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में तस्करी कर ले जाया गया था.

पीठ ने 14 अक्तूबर को ही केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को लापता बच्चों के मामलों को संभालने के लिए एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति करने और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा संचालित मिशन वात्सल्य पोर्टल पर प्रकाशन के लिए उन के नाम और संपर्क विवरण उपलब्ध कराने का निर्देश दे.

कोर्ट ने निर्देश दिया था कि जब भी पोर्टल पर किसी गुमशुदा बच्चे के बारे में शिकायत प्राप्त हो तो सूचना को संबंधित नोडल अधिकारियों के साथ साझा किया जाए. कोर्ट ने कहा था कि पोर्टल में प्रत्येक राज्य से एक विशेष अधिकारी हो सकता है जो सूचना प्रसारित करने के अलावा गुमशुदा संबंधी शिकायतों का प्रभारी भी हो.

उल्लेखनीय है कि आज लाखों की संख्या में नन्हेनन्हे बच्चे अनाथाश्रमों में पड़े अपना बचपन काट रहे हैं. जिस नन्ही सी उम्र में उन्हें मांबाप का स्नेह और एक परिवार की सुरक्षा चाहिए, उस उम्र में वे अनाथाश्रमों के अंधेरे कमरों में रहते हुए वहां के कर्मचारियों की झाड़ और डांट सहते हैं. इस की वजह यह है कि भारत में गोद लेने की प्रक्रिया बहुत लंबी, उलझाऊ और बेहद कठिन है. इस में पैसा भी काफी लगता है.

बच्चा गोद लेने की प्रक्रिया जटिल

3 दशक पहले तक लोग अपने परिवार में ही किसी से बच्चा आसानी से धार्मिक प्रक्रिया के बाद गोद ले लेते थे. अनाथाश्रमों से भी सीधे बच्चे गोद ले लिए जाते थे. कभीकभी कोई बच्चा कहीं फेंका हुआ पाया जाता था तो इच्छुक दंपती पुलिस थाने जा कर पाए बच्चे को ही अपना लेते थे. तब कोई ज्यादा कानूनी दावंपेंच न थे लेकिन अब गोद लेने की प्रक्रिया पूरी तरह ‘केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण’ (सैंट्रल एडौप्शन रिसोर्स अथौरिटी : कारा) के हाथ में है, जो एक लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद ही किसी इच्छुक दंपती को बच्चा गोद लेने की परमिशन देता है.

इस के लिए इच्छुक मातापिता को सब से पहले कारा के चाइल्ड एडौप्शन रिसोर्स इन्फौर्मेशन एंड गाइडैंस सिस्टम पोर्टल पर अपना रजिस्ट्रेशन कराना होता है. उस में उन की उम्र, व्यवसाय, नौकरी, आर्थिक स्थिति, चलअचल संपत्ति का ब्योरा और परिजनों के ब्योरे के अलावा भी अनेक डिटेल्स भरनी पड़ती हैं. इस के बाद विशेष गोद ग्रहण एजेंसी (एसएए) द्वारा मातापिता का घरेलू अध्ययन (होम स्टडी) किया जाता है, जिस में उन की शारीरिक, मानसिक व वित्तीय स्थिति का मूल्यांकन होता है.

5-6 साल के लंबे इंतजार के बाद जब आवेदक का नंबर आता है तो कानूनी रूप से गोद लेने योग्य घोषित एक बच्चे की प्रोफाइल इच्छुक दंपती को भेजी जाती है और 96 घंटों के भीतर उन्हें उस बच्चे को रिजर्व करना होता है. यानी, वे उस बच्चे को गोद ले रहे हैं या नहीं, यह उन्हें 96 घंटे के भीतर तय कर के दर्ज करना होता है. यदि किसी कारणवश यह समय निकल गया तो उन को फिर से पूरी प्रक्रिया दोहरानी पड़ती है, जिस में फिर सालों का समय लगता है.

जब दंपती बच्चे के भेजे गए प्रोफाइल को स्वीकार कर रिजर्व कर लेते हैं तो कुछ दिनों के बाद उन को किसी सरकारी अनाथाश्रम में बुला कर बच्चा प्रिएडौप्शन फोस्टर केयर में सौंपा जाता है, यानी, मातापिता बच्चे को गोद लेने से पहले अस्थायी देखभाल के लिए ले सकते हैं. इस वक्त दंपती को वहां 50 हजार रुपए जमा करने पड़ते हैं.

इस के बाद एसएए द्वारा जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) के समक्ष एक याचिका दायर की जाती है जो गोद लेने का आदेश जारी करता है. जिस दिन आदेश मिलना होता है उस दिन मातापिता को बच्चे के साथ जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होना पड़ता है. जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जारी आदेश 10 दिनों के भीतर ईमेल के माध्यम से दंपती को उपलब्ध होता है.

इस के बाद शहर का नगरनिगम लंबे इंतजार के बाद बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र बनाता है, जिस के लिए दंपती को नगरनिगम के भी कई चक्कर काटने पड़ते हैं और वहां ‘चढ़ावा’ चढ़ाना पड़ता है. इतना होने के बाद भी जान नहीं छूटती. हर तीनचार महीने पर संस्था की ओर से कोई कर्मचारी यह देखने के लिए आता है कि बच्चे की परवरिश ठीक तरीके से हो रही है या नहीं. यह सिलसिला करीब डेढ़दो साल तक चलता है और हर विजिट पर उस की फीस करीब 2 हजार रुपए होती है. इस के अलावा वह अपनी रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कुछ न कुछ ‘अतिरिक्त चढ़ावे’ की उम्मीद भी रखता है.

गोद लिया बच्चा वापस नहीं

हिंदू दत्तक और भरणपोषण कानून 1956 की धारा 15 के अनुसार एक बार गोद लिया गया बच्चा वापस नहीं किया जा सकता. गोद लिए बच्चे के कानूनी अधिकार वही होते हैं जो प्राकृतिक ढंग से पैदा हुए बच्चे के होते हैं, चाहे इसे गोद लेते समय कोई बच्चा (दूसरे लिंग का) पहले से हो या बाद में हो. अगर गोद लेने की प्रक्रिया में कोई बड़ी कानूनी त्रुटि हो जैसे उसी लिंग का पहले ही एक बच्चा हो या लेने वाले और बच्चे की उम्र में अंतर 21 वर्ष से कम हो तो गोद लेना रद्द किया जा सकता है. यह अब नाममात्र के मामलों में होता है. 1956 के कानून से पहले ऐसे मामले 20-25 साल बाद संपत्ति के बंटवारे के समय खड़े किए जाते थे.

अवैध तरीके अपनाने को मजबूर दंपती

लंबी, कठिन, थकाऊ और खर्चीली प्रक्रिया के कारण ही अनेक दंपती अवैध तरीकों से बच्चा गोद लेने के लिए मजबूर होते हैं, जो बच्चा चोर गिरोहों के लिए बहुत फायदे का सौदा बन गया है. गिरोह के लोग देशभर में अस्पतालों, नर्सिंगहोम्स, डाक्टर्स के क्लीनिक्स से सीधे जुड़े हुए हैं. इन में बड़ी संख्या में औरतें सक्रिय हैं जो जच्चाबच्चा वार्ड में काम करने वाली नर्सों, दाइयों के संपर्क में रहती हैं. उन की मदद से ये बच्चा चोर औरतें अस्पतालों से नवजात बच्चों को चुरा लेती हैं.

इस के अलावा ये औरतें उन महिलाओं व लड़कियों पर भी नजर रखती हैं जो अनचाहे गर्भ ले कर अस्पतालों में आती हैं और अपना गर्भ गिराना चाहती हैं. नर्स, दाई या चोर गिरोह की सदस्य द्वारा उन लड़कियों को यह समझाया जाता है कि वे बच्चे को पैदा होने दें. बच्चा होने के बाद वे बच्चे के बदले में उसे खासे रुपए देंगी और बच्चा चुपचाप किसी ऐसे को दे दिया जाएगा जो उस की अच्छी परवरिश कर सके.

इस में अस्पताल के डाक्टर भी मिले होते हैं. दूसरी तरफ इन लोगों के पास उन दंपतियों के कौन्टैक्ट नंबर होते हैं जो किसी न किसी तरह कोई नवजात बच्चा पाना चाहते हैं. इन दंपतियों को ऐसे बच्चे 5 लाख से ले कर 8 या 10 लाख रुपए तक में दिए जाते हैं.

सौदा पक्का हो जाने के बाद बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र पर मां के नाम की जगह उसे खरीदने वाली मां का नाम दर्ज कर दिया जाता है. पैसे की बंदरबांट डाक्टर, नर्स, दाई और बच्चा चोर गिरोह की महिला के बीच होती है. कई बार अवांछित बच्चे को मांएं पैदा कर अस्पताल में ही छोड़ जाती हैं. कई बार बच्चा चोर गिरोह की औरतें छोटे जिलोंकसबों के अस्पतालों से बच्चे चुरा कर दूसरे शहरों में बेचती हैं.

जरूरी नहीं है कि जो बच्चे चुरा कर बेचे जा रहे हैं वे सभी उन दंपतियों की गोद में जा रहे हों जो सचमुच कोई बच्चा गोद लेना चाहते हैं और उन की अच्छी परवरिश करना चाहते हों. अधिकांश बच्चे, जो 2 से 10 वर्ष की आयुवर्ग के हैं, घर के बाहर खेलते हुए, स्कूल से लौटते हुए या अन्य जगहों से भी गायब किए जा रहे हैं. इन बच्चों को राजस्थान, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में अनेक तरह के कामधंधों में लगाया जाता है. खेती के क्षेत्र, कार्पेट बुनाई, कांच उद्योग आदि में ऐसे बच्चों को खूब लगाया जाता है. भिखारी गिरोह भी ऐसे बच्चों को मारपीट कर भीख मांगने के काम में लगाते हैं.

लड़कियों को देह के धंधे में उतारने के लिए तैयार किया जाता है. यह पूरा काला संसार रंगीन दुनिया की तहों में छिपा हुआ धड़ल्ले से चल रहा है.

नवजात बच्चों की खरीदफरोख्त इस समय चरम पर है क्योंकि अब लोगों की शादियां देर से हो रही हैं, जिस के कारण लाखों दंपती संतानसुख से वंचित हैं. कारा के जरिए यदि वे बच्चा गोद लेते हैं तो उन्हें नवजात बच्चे नहीं मिलते हैं. 40-45 वर्ष की आयुवर्ग के दंपती को 4 से 6 साल तक के बच्चे गोद दिए जाते हैं जो अपनी परिस्थिति को भलीभांति समझाने लगते हैं और पुरानी बातें भी उन्हें बहुत हद तक याद होती हैं. चूंकि उन्हें पता होता है कि वे जिन के घर जा रहे हैं वे उन के असली मातापिता नहीं हैं इसलिए वे उन्हें आसानी से अपना मांबाप स्वीकार भी नहीं कर पाते हैं.

अधिकांश दंपती यही चाहते हैं कि उन्हें नवजात शिशु ही मिले या ज्यादा से ज्यादा 2 साल तक का बच्चा मिले, ताकि वह उन्हें ही अपना असली मांबाप समझे. यही वजह है कि नवजात बच्चों की खरीदफरोख्त आजकल चरम पर है.

बहुतेरे लोग शादी नहीं करते, फिर भी वे चाहते हैं कि वे बच्चों के मातापिता बनें. फिल्म इंडस्ट्री में तो ऐसे तमाम लोग हैं जिन्होंने अविवाहित, शादी से पहले या शादी के बाद बच्चों को गोद लिया. इन में सब से आगे हैं सुष्मिता सेन, रवीना टंडन, मिथुन चक्रवर्ती, सलीम खान, सनी लियोनी आदि. हालांकि, ऐसे लोग कानूनी रास्ते पर चल कर ही बच्चा गोद लेते हैं.

आज के दौर में लड़कियों का फोकस पढ़ाई और नौकरी पर ज्यादा है. यह अच्छी बात है मगर इस की वजह से शादी और बच्चा पैदा करने की प्राकृतिक उम्र (20 से 28 वर्ष) निकल जाती है. आज ज्यादातर शादियां 30 से 35 साल के बीच हो रही हैं. इस के बाद 2-3 साल तक युगल शादी को ही एंजौय करना चाहता है. उम्र ज्यादा होने पर महिलाओं को गर्भ नहीं ठहरता या बारबार मिसकैरेज होने लगता है.

बहुत सारे कपल आईवीएफ सैंटर्स के चक्कर भी लगाते हैं. मगर वह प्रोसैस बहुत खर्चीला और थकाने वाला होता है. आईवीएफ तकनीक औरतों के शरीर पर बुरा असर डालती है और अधिकांश महिलाओं को टीबी की बीमारी अपनी चपेट में ले लेती है. आईवीएफ तकनीक में सिर्फ 30 फीसदी चांस होता है कि औरत प्रैग्नैंट हो जाएगी. अधिकतर केसेस में तीसरी या चौथी बार आईवीएफ कराने पर ही संतान की प्राप्ति होती है. एक बार के आईवीएफ में कम से कम 6 से 10 लाख रुपए लगते हैं. ऐसे में दंपती नवजात बच्चा खरीदने में ज्यादा कंफर्टेबल होता है.

दोतीन दशकों पहले तक लोग संयुक्त परिवार में रहते थे. अगर 2 भाइयों के बच्चे हैं और एक भाई के पास बच्चा नहीं हैं तो भी भाई के बच्चे उस कमी को पूरी कर देते थे. जीवन में खालीपन महसूस नहीं होता था. कभीकभी एक भाई अपनी कोई संतान उस भाई को गोद भी दे देता था. मगर अब जबकि लोग एकल परिवार में रहते हैं और मर्द के काम पर चले जाने के बाद औरत घर पर अकेली रह जाती है तो बच्चे की कमी बेवजह महसूस होती है. अड़ोसीपड़ोसी भी गाहेबगाहे पूछने लगते हैं, ‘आप के बच्चे नहीं हैं?’ ऐसे में बच्चा गोद लेने की इच्छा जागती है.

कई बार बच्चे न होने पर कपल सोचते हैं कि कोई बात नहीं. एकदूसरे के साथ पूरा जीवन कट जाएगा. मगर 40-45 साल की उम्र में जब दोस्तोंसहयोगियों के बच्चों की शादियां होते देखते हैं तो मन में हूक उठती है कि अपना बच्चा भी हो. कभीकभी यह भय भी पैदा हो जाता है कि दोनों में से कोई जल्दी मर गया तो फिर अकेले जीवन कैसे काटेंगे? ऐसे में इस उम्र के लोग भी बच्चा गोद लेने की इच्छा में कानूनीगैरकानूनी रास्ता इख्तियार करते हैं.

गोद लेने के बाद संभावित परेशानियां

गोद लेना कोई समस्या नहीं है. यह प्यार से भरा निर्णय है. परेशानियां तब होती हैं जब समझा, धैर्य और तैयारी की कमी हो. सही ढंग से योजना बना कर और भावनात्मक संवेदनशीलता से इन चुनौतियों को आसानी से संभाला जा सकता है. याद रहे कि गोद लेना एक बेहद संवेदनशील, भावनात्मक और जिम्मेदारीभरा निर्णय है. गोद लिए बच्चे को अपना पूरा प्यार, सुरक्षा और सम्मान देना आवश्यक है. फिर भी वास्तविक जीवन में कुछ चुनौतियां सामने आ सकती हैं जिन्हें समझाना और उन के लिए पहले से तैयार रहना बेहद जरूरी है. ये परेशानियां हर किसी के साथ नहीं होतीं, पर कई परिवारों ने इन्हें अनुभव किया है.

त्यागे जाने का डर

कुछ बच्चे महसूस कर सकते हैं कि उन्हें पहले छोड़ दिया गया था. ऐसे में वे असुरक्षित महसूस कर सकते हैं. नए पेरैंट्स की जरा सी डांटफटकार भी उन के भीतर नकारात्मक सोच पैदा कर देती है. बच्चा जब अपनी किशोरावस्था में पहुंचता है तो कुछ और चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं. इस उम्र में बच्चे की जिज्ञासा चरम पर होती है, इस से विद्रोह या भावनात्मक टूटन की संभावना बन सकती है. बायलौजिकल पेरैंट्स की तलाश की इच्छा उठ सकती है.

रिश्तेदारों व समाज की अनचाही टिप्पणियां

कुछ लोग असंवेदनशील सवाल पूछ सकते हैं, जैसे तुम्हारे असली मातापिता कौन हैं? या तुम यहां आने से पहले कहां रहते थे? ऐसे रिश्तेदारों और दोस्तों को डपट देना ही सब से सटीक तरीका है चाहे रिश्ता या दोस्ती हमेशा के लिए खत्म ही क्यों न हो जाए.

भेदभाव

कभीकभी परिवार या समाज में तुलना या अलग नजर से देखना समस्या बन सकता है. कई बार बच्चा गोद लेने के बाद दंपती को अपना बच्चा भी हो जाता है. ऐसे में गोद लिए बच्चे के प्रति उन का प्यार कम हो जाता है और बच्चा भेदभाव का शिकार बनता है. जब यह भेदभाव ज्यादा हो जाए तो बड़ा होने पर उसे मांबाप की संपत्ति से भी बेदखल होने का खौफ होता है. इस के साथ ही कुछ पारिवारिक चुनौतियां भी होती हैं. नए भाईबहनों के साथ एडजस्टमैंट कुछ कठिन होता है. मातापिता का मानसिक दबाव- ‘क्या हम सही तरीके से पाल पा रहे हैं’ जैसी चिंता लगी रहती है. शुरू में अटैचमैंट बनाने में समय लगता है.

स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे

कई केसेस में बच्चे की मैडिकल हिस्ट्री की पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं होती है. उसे कोई वैक्सीन लगी है या नहीं, इस की जानकारी भी नहीं मिलती. किसी आनुवंशिक रोग के बारे में भी बाद में पता चलता है.?

प्रक्रिया का सरल होना जरूरी

गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया असल में सरल, पारदर्शी, व्यावहारिकता और तेज होनी ही चाहिए. यह उन हजारोंलाखों बच्चों के हित में भी है जो अनाथालयों में एक परिवार की प्रतीक्षा करते हैं, लेकिन लंबी कानूनी प्रक्रिया के कारण वे वहीं रह जाते हैं. हमारे देश के अनाथालय जेलों से भी बदतर हैं क्योंकि थोड़े दिनों में स्टाफ की सेवा की भावना खत्म हो जाती है और जिद्दी, उद्दंड, बीमार बच्चे आफत लगने लगते हैं.

कानूनी प्रक्रिया सरल और तेज होगी तो उन दंपतियों को सहूलियत होगी

जो जटिल प्रक्रियाओं, दस्तावेजी औपचारिकताओं और वर्षों की प्रतीक्षा से थक कर पीछे हट जाते हैं. प्रक्रिया जितनी खुली और औनलाइन होगी, उतनी पारदर्शिता बढ़ेगी और गलत तरीकों की गुंजाइश कम होगी. इस से भ्रष्टाचार और बिचौलियों की रोकथाम भी होगी. आसान प्रक्रिया गोद लेने की संख्या बढ़ाएगी और समाज में इस की स्वीकृति भी मजबूत होगी.

अस्पताल में प्रसव तो जन्म पंजीकरण जरूरी

भारत में अस्पतालों में पैदा होने वाले बच्चों की तादाद बढ़ गई है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में अस्पतालों में पैदा होने वाले बच्चों की संख्या 79 फीसदी से बढ़ कर 89 फीसदी हो गई है. ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 87 फीसदी है. शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 94 फीसदी तक पहुंच जाता है. इस के पीछे सब से बड़ी वजह राज्य सरकारों द्वारा नियुक्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता ‘आशा बहू’ हैं. वे गांवगांव से महिलाओं को प्रसव के लिए सरकारी अस्पताल ले कर जाती हैं. इस के बदले उन्हें 3 से 6 हजार रुपए प्रतिमाह का मानदेय मिलता है. हर प्रसव पर अलग से भी पैसा मिलता है.

आशा बहू योजना की शुरुआत केंद्र सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत की गई. इस का उद्देश्य मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य परिणामों में सुधार करना था. मुख्य रूप से यह योजना महिलाओं और बच्चों के बीच काम करती है. आशा बहू का चयन पंचायत स्तर पर होता है. आशा बहू कार्यकर्ताओं का काम होता है कि वे गांव में गर्भवती महिलाओं की जानकारी रखें. उन को सरकारी अस्पताल में प्रसव के लिए रजिस्टर्ड कराएं.

प्रसव से पहले के टैस्ट और जरूरी जांचें कराने में वे मदद करें. वे गांव से सरकारी अस्पताल तक ले जाने के लिए सरकारी एंबुलैंस का प्रयोग करती हैं. हर प्रसव के हिसाब से उन को 600 से 900 रुपए तक का मानदेय मिलता है जो उन के वेतन से अलग होता है.

यह योजना पूरे देश में काम कर रही है. उत्तर प्रदेश में लगभग 1,50,000 आशा बहू कार्यकर्ता हैं जो राज्य की 28 करोड़ की विशाल आबादी की सेवा करती हैं. भारत सरकार के मानदंडों के अनुसार, प्रति एक हजार की जनसंख्या पर एक आशा कार्यकर्ता तैनात है. आशा बहू की गतिविधियों पर सौफ्टवेयर एप्लिकेशन के माध्यम से नजर रखी जाती है. लगभग 1.5 लाख आशा बहुओं को सितंबर 2018 से मार्च 2022 तक कुल 2,887 करोड़ रुपए वितरित किए गए. इस बीच आशा बहुओं को लगभग 193 लाख एसएमएस भेजे गए हैं.

जब कोई भी महिला गर्भ के समय सरकारी अस्पताल जाती है तो एक परचा बनता है. उस की औनलाइन डिटेल दर्ज की जाती है. अगर परचा हाथ से बना है तो भी एक बारकोड उस पर चिपकाया जाता है जिस में उस महिला का पूरा विवरण दर्ज होता है. उस में उस की दवा और जांच का हिसाब होता है.

जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम के तहत गर्भ के दौरान सरकारी और निजी दोनों अस्पतालों के लिए जरूरी होता है कि वे एक्सरे, सिटीस्कैन का पूरा हिसाब रखें. जब बच्चा पैदा होता है तो उसी अस्पताल से एक जन्म प्रमाणपत्र मिलता है. यही जन्म प्रमाणपत्र नगरनिगम में दिखाने पर वहां से अलग जन्मप्रमाण पत्र मिलता है जिस का प्रयोग स्कूल में बच्चे को दाखिल कराने के समय किया जाता है.

अगर कोई बच्चा अस्पताल में पैदा नहीं हुआ है तो गांव में प्रधान और शहरों में पार्षद एक जन्म प्रमाणपत्र देते हैं. इसी आधार पर नगरनिगम या तहसील से इस के बाद जन्म प्रमाणपत्र बनवाना होता है. इस के लिए औनलाइन फौर्म भरना होता है, तभी प्रमाणपत्र बनता है.

सरकार के पास हर बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र होता है. अगर कोई चाहे कि वह बिना सरकारी जन्म प्रमाणपत्र के स्कूल में दाखिला ले ले या किसी सरकारी योजना का लाभ ले तो नहीं ले सकता. निजी अस्पतालों के लिए यह जरूरी है कि वे अपने अस्पताल में पैदा होने वाले हर बच्चे का विवरण पोर्टल के माध्यम से अपने क्षेत्र के रजिस्ट्रार को दें.

कांग्रेस सरकार के दौरान बना जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम 1969 भारत में जन्म और मृत्यु के पंजीकरण को अनिवार्य करने वाला कानून है. इस अधिनियम के तहत जन्म या मृत्यु की घटना के स्थान पर पंजीकरण कराना अनिवार्य है. यह काम राज्य सरकारों द्वारा नियुक्त अधिकारियों द्वारा किया जाता है.

2023 में इस अधिनियम में बदलाव कर के पंजीकरण प्रक्रिया को डिजिटल बनाने और विभिन्न डेटाबेस को जोड़ने के लिए औनलाइन कर दिया गया है. इन तमाम कानूनों के मद्देनजर अब बच्चों की जानकारी छिपाना संभव नहीं है. – शैलेंद्र सिंह

पहचान का संकट

जैसेजैसे बच्चा बड़ा होता है, उसे अपनी असली पहचान और जन्मदाता मातापिता के बारे में जिज्ञासा हो सकती है. जब बच्चा गोद लिए जाने के वक्त 4 साल से अधिक उम्र का होता है तो वह इस बात को समझाता है कि जिन के साथ वह रहने जा रहा है वे उस के असली मांबाप नहीं हैं. कई बार बच्चे को अपने असली मांबाप की याद रहती है.

ऐसे में जब वह किशोर अवस्था में पहुंचता है तो उन्हें ढूंढ़ने और पाने की इच्छा बलवती होने लगती है. कई बार बच्चा गोद लिए जाने के वक्त बहुत छोटा होता है और उस को पिछला कुछ भी याद नहीं होता मगर बड़े होने के दौरान घरपरिवार के अन्य सदस्यों द्वारा अगर यह राज उस के सामने खुल जाए कि उसे गोद लिया गया है तो वह अपने असली मांबाप के बारे में जानने को व्याकुल हो उठता है.

जिन्होंने बच्चे को गोद लिया हो उन्हें बच्चे को असली मांबाप ढूंढ़ने का मौका अवश्य देना चाहिए, हालांकि आमतौर पर असली मां की छोटे बच्चों से मिलने में खास रुचि नहीं होती है. Adoption Law.

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