Winter Season : एकल घरों में कम स्पेस होने के चलते आजकल ऐसी गरम रजाइयां जो पतली हों लोगों की पहली पसंद बन रही हैं, जिन्हें आसानी से धोया व फोल्ड कर आलमारी व बेड के अंदर डाला जा सकता है. जानिए इन्हें कैसे चुनें.
”अम्मा जाड़े शुरू हो गए, मगर अभी तक किसी धुनिये की आवाज सुनाई नहीं दी. पुरानी रजाइयां खुलवा कर रुई धुनवा लेते तो कुछ गर्माहट बढ़ती.”
सरला आंगन की गुनगुनी धूप में बैठी अपनी बूढ़ी सास से बोली.
”हां बहू, पहले तो सितम्बर-अक्तूबर में ही आवाज देने लगते थे, अब तो नवम्बर चढ़ जाता है और धुनिया नहीं आते. मेरी वाली रजाई तो बिलकुल पिचक गई है, पिछले साल भी नहीं धुन पाई. पता नहीं अब की जाड़े में गरमी देगी या नहीं. तुम तो मेरे लिए कम्बल भी निकाल देना.”
इतने में सुरभि अंदर वाले कमरे से बाहर आई और बोली, ”क्या दादी, मार्केट में कितनी सुंदरसुंदर रजाइयां हैं, कितनी हल्की और गरम, इस बार मैं आप के लिए सुंदर सी जयपुरी रजाई ला दूंगा. अब छोड़ो ये धुनिये का चक्कर. अब नहीं आते धुनिये. सब लोग बनी बनाई रजाइयां खरीदते हैं. हल्की और गरम भी होती हैं और उन को वाशिंग मशीन में डाल कर धोया भी जा सकता है.”
सुरभि की बात तो सही थी. आज रजाइयों में भी इतनी वैरायटी मार्केट में है, कि चुनना मुश्किल होता है कि यह वाली खरीद लें कि वह वाली. सभी आकर्षक रंगों की, हलकीफुलकी और सस्ती भी. कांथा रजाई, सुझनी रजाई, जयपुरी रजाई, कश्मीरी रजाई, गुजराती रजाई, हिमाचली या कांगड़ा रजाई, फर की बनी रजाइयां, थरमल रजाइयां कितनी तरह की रजाइयां उपलब्ध हैं. हजार-डेढ़ हजार से शुरू हो कर पांच-छह हजार रुपए तक में इतनी अच्छी रजाइयां आ जाती हैं जो 10 साल तक खराब नहीं होती हैं.
“रजाई” या क्विल्ट जैसी चीज़ का इतिहास मानव सभ्यता की सबसे पुरानी आवश्यकताओं यानी शरीर को गर्माहट और सुरक्षा देने से जुड़ा हुआ है. लगभग 30,000–40,000 वर्ष पहले जब मनुष्य ने जानवरों की खालें पहननी शुरू कीं, तो वही रजाई जैसी पहली “गरमी देने वाली चादरें” मानी गईं. सैकड़ों वर्षों बाद में जब सूई और धागे का आविष्कार हुआ, तब लोगों ने कपड़ों की परतें सिल कर और उस में कपास की भराई कर के रजाइयां बनाईं, जो सर्दी में उन के शरीर को गरम रखती थीं.
प्राचीन मिस्र (लगभग 3400 ई.पू.) की कब्रों में ऐसी चित्रकारी मिली है जिस में सैनिकों के पास कपास से भरे वस्त्र हैं, यानी कपड़ों की परतों में भराई की तकनीक तब भी थी. चीन में रेशम का आविष्कार लगभग 3000 ई.पू. होने के बाद लोग रेशमी कपड़ों में रुई या ऊन भरने लगे. भारत में कपास की खेती बहुत प्राचीन है. सिंधु सभ्यता (2500 ई.पू.) में भी कपास के तंतु मिलते हैं. इस से रुई भरी चादरें या “गद्देदार कपड़े” बनाना संभव हुआ.
भारत में “रजाई” का उल्लेख सब से पहले मध्यकालीन काल में मिलता है. मुगल दरबारों में चटख रंगों में सुंदर कशीदाकारी वाली “रजाई” एक विलासी वस्तु थी. राजस्थान, लखनऊ, बनारस और जयपुर में हाथ से रुई भर कर बनाई गई रजाइयां प्रसिद्ध थीं. रजाई की रुई को “धुनाई” कर के बहुत महीन और हल्का बनाया जाता था. यही परंपरा आज भी लखनऊ और जयपुर की “हैंडमेड रजाइयों” में मिलती है. राजघरानों और नवाबों के लिए रेशम के कवर वाली और सुनहरे धागों की कढ़ाई वाली रजाइयां बनती थीं.
ब्रिटिश लोगों के भारत में आगमन के बाद यूरोपीय शैली के कंबल और रजाई भारत में फैले. वहीं भारत की पारंपरिक “कांथा” (बंगाल), “सुझनी” (बिहार), “रजाई” (उत्तर भारत) कला को भी अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली. “कांथा” में पुराने कपड़ों की परतों को हाथ से सिल कर रजाई जैसा बनाया जाता है. वहीँ आधुनिक रजाइयां मशीन से बनती हैं, जिन में पोलिएस्टर, माइक्रो फाइबर या डक डाउन (बतख के पंख) जैसी भराई होती है. लेकिन भारत में हैंडमेड कौटन रजाई अभी भी सर्दियों की पहचान है.
खासकर उत्तर भारत में. जयपुर की “संगानेरी रजाइयां” और लखनऊ की “मुर्गा रुई रजाई” अपने हल्केपन और गर्माहट के लिए प्रसिद्ध हैं. यानी रजाई आदिम काल की खालों से शुरू हो कर मुगल काल की विलासिता, ब्रिटिश काल की कला और आज की मशीन-निर्मित दुनिया तक एक लंबा सफर तय कर चुकी है.
भारत की वस्त्र-संस्कृति यूं भी अपने शिल्प, रंगों और क्षेत्रीय विविधता के लिए विश्व विख्यात है. बंगाल की कांथा, बिहार की सुझनी और राजस्थान की जयपुरी रजाई तीनों भारत के अलगअलग सांस्कृतिक परिदृश्यों की प्रतिनिधि हैं. इन में न केवल सिलाई की तकनीकी निपुणता है, बल्कि लोककथाओं, परंपराओं और जीवन-दर्शन की झलक भी मिलती है.
कांथा रजाइयां बंगाल की ग्रामीण महिलाओं के आत्मनिर्भरता का प्रतीक हैं. एनजीओ और एसएचजी समूहों के माध्यम से आज कांथा रजाइयों का अंतर्राष्ट्रीय निर्यात होता है. कांथा बंगाली गृहिणियों के लिए आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम भी है और घरेलू सृजन की आत्मीयता को भी दर्शाती है. पश्चिम बंगाल, ढाका और मुर्शीदाबाद में यह रजाइयां खूब बनाई जाती हैं जिस में पुरानी साड़ियों या कपड़ों के टुकड़ों का प्रयोग होता है. इन रजाइयों पर आमतौर पर लोककथाएं, पशु-पक्षी, देवी-देवता या जीवन दृश्य उकेरे जाते हैं.
सुझनी रजाइयां बिहार की हस्तकला उद्योग में अभी सीमित स्तर पर बनती हैं. परंतु मधुबनी आर्ट की तरह इसे भी ”जीआई टैग” मिला हुआ है. मिथिला समाज में महिलाओं के सामाजिक-सांस्कृतिक बोध का दस्तावेज; यह “कपड़े पर कथा” कहलाती है. यह स्त्री-जीवन पर आधारित रजाइयां हैं जिन में स्त्रियों को विभिन्न प्रकार के घरेलू कार्यों को करते हुए दिखाया जाता है. दरभंगा, मधुबनी, मुज़फ्फरपुर में सुझनी रजाइयां खूब बनाई जाती हैं. इस की खासियत यह है कि इन पर बारीक कढ़ाई और सांस्कृतिक सौहार्द को दर्शाया जाता है. दो सूती कपड़ों के बीच हल्की रुई भरी जाती और ऊपर की सतह पर सुई-धागे से सुजनी कढ़ाई होती है. डिजाइन में मिथिला चित्रकला जैसी आकृतियां – सूर्य, मछली, पेड़, पशु आदि बनाये जाते हैं. यह काम पूरी तरह महिलाओं द्वारा हस्तकला के रूप में किया जाता है. खास बात यह है कि सुझनी रजाई केवल गरमी ही नहीं देती बल्कि यह बिहार की स्त्री-कला और सामाजिक संदेशों की अभिव्यक्ति भी है.
जयपुरी रजाई राजस्थान की अर्थव्यवस्था में प्रमुख “हैंडलूम-टेक्सटाइल” उत्पाद है. “सांगानेर” और “बगरू” प्रिंट्स से सजी यह रजाइयां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हैं. राजस्थानी आतिथ्य और वैभव का प्रतीक; शादी-ब्याह और पर्यटन उद्योग में यह बहुत ही लोकप्रिय हैं. जयपुरी रजाई अपने हल्केपन और रंगीन सौंदर्य के कारण विश्व प्रसिद्ध है. जयपुर, सवाई माधोपुर, टोंक, सीकर में यह खूब बनाई जाती हैं. इस में अंदर भराव के लिए शुद्ध रुई का उपयोग होता है और बाहरी कपड़ा आमतौर पर सुतरी या मलमल का होता है जो बहुत ही मुलायम और शरीर को विलासिता का अहसास कराने वाला होता है. बाहरी कपड़े पर अकसर ब्लौक प्रिंटिंग की जाती है. “जयपुरी रजाई” इतनी हल्की होती है कि कहा जाता है कि “पूरा बदन ढक ले और वजन रुमाल जैसा लगे.”
काश्मीरी रजाई को श्रीनगर और बारामूला की महिलाएं बड़े पैमाने पर तैयार करती हैं. यह अत्यंत गरम, ऊनी या रेशमी परत वाली रजाइयां हैं इन के भीतर शुद्ध ऊन या ऊनी रुई भरी होती है. बाहर का कपड़ा रेशम या मखमल का होता है जिस पर अकसर कश्मीरी कढ़ाई जिसे सोज़नी या आरी वर्क कहते हैं, की जाती है. कुछ रजाइयां “नमदा” तकनीक (फेल्टिंग वूल) से भी बनती हैं. खास बात यह है कि कश्मीर की रजाइयां ठंड के मौसम में लकड़ी के अंगीठी (कांगड़ी) के साथ पारंपरिक जीवन का हिस्सा हैं.
गुजराती रजाई कच्छ, भुज और सौराष्ट्र में बड़े पैमाने पर तैयार की जाती हैं. इन की विशेषता इन पर हुई रंगीन कढ़ाई, मिरर वर्क और पैचवर्क है. वहां की घरेलू महिलाएं पुराने कपड़ों के टुकड़े जोड़जोड़ कर सुंदर पैचवर्क की रजाई बनाती हैं. इस में काफी मेहनत लगती है. इस खोल के बीच में रुई या ऊन भरा जाता है और इस के ऊपर से गुजराती कढ़ाई और मिरर वर्क किया जाता है. गुजराती रजाइयों की खासियत यह है कि यह रजाइयां सिर्फ ओढ़ने के उपयोग में ही नहीं आतीं बल्कि यह लोकनृत्य और विवाह सजावट का भी हिस्सा होती हैं.
हिमाचली या कांगड़ा रजाई कांगड़ा, मंडी और कुल्लू में बनती हैं. यह स्थानीय ऊन से बनी, भारी और बेहद गरम रजाइयां होती हैं. इन को पहाड़ी भेड़ों के ऊन से हाथ से कताई और धुनाई के बाद बनाया जाता है. इस के अंदर ऊन और बाहर सूती कपड़ा या रेशम का खोल होता है और यह सर्दियों के लिए बेहद उपयुक्त होती हैं.
आजकल फर की रजाइयों का खूब चलन है. इन रजाइयों की खरीद रेंज काफी बड़ी है. एक हजार रुपए से ले कर 10 हजार रूपए तक में ये आ सकती हैं. उठाने में बेहद हल्की और गरम इन रजाइयों के भीतर फर का प्रयोग किया जाता है. यह फर दो तरह के होते हैं – कृत्रिम फर जो नायलोन, पोलिएस्टर या ऐक्रेलिक से बने होते हैं और दूसरा प्राकृतिक फर जो खरगोश, ऊंट, बकरी (पश्मीना) या मिंक जैसे जानवरों के बालों से तैयार किया जाता है. यह बहुत गरम होती हैं. प्राकृतिक फर की रजाइयां सर्द इलाकों जैसे हिमालय, कश्मीर, लद्दाख, शिमला आदि के लिए सब से उपयुक्त मानी जाती हैं.
कृत्रिम फर की रजाइयां भी गरम होती हैं लेकिन लंबे समय तक इन को इस्तेमाल करने से इन में बदबू या घुटन सी महसूस होने लगती है. कृत्रिम फर की रजाइयां 1500 से 4000 रुपए तक में आसानी से मिल जाती हैं जबकि ऊन-मिश्रित फर की रजाई 4000 से 8000 रुपये तक आती है. पश्मीना या असली फर की रजाई की कीमत 10,000 से 50,000 रुपए तक हो सकती है. यह लग्जरी आइटम है. फर की रजाइयों को घर पर धोना ठीक नहीं है, इन्हें ड्राई क्लीनिंग कराना ही ठीक होता है. यदि बजट कम है तो पोलिएस्टर-फर या माइक्रोफाइबर रजाइयां बेहतर विकल्प हैं. यह सस्ती और मशीन-वाशेबल होती हैं. इन्हें छोटे से स्थान पर रखना भी आसान होता है.
आजकल जिस तरह एकल परिवारों की संख्या बढ़ रही है, लोगों के रहने के स्थान छोटे होते जा रहे हैं. फ़्लैट कल्चर बढ़ रहा है जिस में एक, दो या तीन बैडरूम होते हैं. दीवार में अलमारियां बनी होती हैं. जिस में आप को अपने कपड़े, जेवर और अन्य सामान रखने हैं. ऐसे में चादर, दरी, परदे, कम्बल, रजाइयां आदि चीजें अधिकतर बौक्स-कम-पलंग या बौक्स-कम-दीवान में ही रखने पड़ते हैं.
अब घरों में इतनी जगह नहीं होती कि रजाई-गद्दे बड़ेबड़े संदूकों में रख सकें. ऐसे में हल्की, पतली और गरम रजाइयां लोगों की पहली पसंद बनती जा रही है जो जाड़ा ख़त्म होने के बाद फोल्ड कर के आप की अलमारी के ही निचले खाने में आसानी से समा जाती है. Winter Season.





