Film Story : आज फिल्में अपने उद्देश्य कि, कला हमेशा से भावनाओं, जिंदगी, दर्शन और साहित्य को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम होती हैं, को छोड़ चुकी हैं. फिल्मकार, लेखक, निर्देशक व कलाकार गुरुदत्त इस में अपवाद रहे हैं. ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’ और ‘साहिब बीबी और गुलाम’ के सर्जक गुरुदत्त ने इंसानों को एहसास कराने वाला अस्तित्ववादी सिनेमा व अवसादपूर्ण सिनेमा ही रचा. एक आकर्षक फिल्म निर्माता के रूप में गुरुदत्त की फिल्में मानवीय पीड़ा, कष्ट, जीवन और दर्शन का चित्रण करती हैं. वे ऐसे विरले कलाकार थे जिन की फिल्में व्यक्तिगत व्यक्तिपरक प्रभावों से प्रभावित होती थीं. उन्होंने अंतर्निहित मानवीय मूल्यों वाली फिल्में बनाईं और निर्देशित कीं और उन्हें घटनाओं के माध्यम से स्पष्ट रूप से चित्रित किया.
इतना ही नहीं, जब दूसरे तमाम फिल्मकार नईनई मिली आजादी के आशावाद से प्रेरित हो कर सिनेमा गढ़ रहे थे तब भी गुरुदत्त ने मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं, वर्गभेद, स्त्री की आतंरिक लालसा, पीड़ा, परित्याग और सफलता की कीमत को गहराई से अपनी फिल्मों में पेश किया. जिंदगी, हकीकत, अस्तित्व, दर्शन और कला व जिंदगी के रिश्तों को ले कर गुरुदत्त ने उस वक्त फिल्में बनाईं जब जिंदगी पर आधारित फिल्में बनाने की हिम्मत बहुत कम फिल्मकार करते थे.
गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में कलाकार के एकाकीपन, भौतिकवादी समाज की कठोरता और मानवता की भावनात्मक भेद्यता को गहराई से चित्रित किया. उन की प्रतिभा न केवल उन के द्वारा बनाई गई फिल्मों में बल्कि सिनेमा को एक गहन काव्यात्मक और भावनात्मक रूप से प्रभावशाली कला रूप में उभारने की उन की क्षमता में भी स्पष्ट है. उन की फिल्मों के संवाद और फिल्मों के गीत गुनगुनाते हुए लोग हमें आज भी मिल जाते हैं. उन के निधन के 60 वर्ष पूरे हो चुके हैं. हम 1924 में जन्मे गुरुदत्त की जन्म शताब्दी मना रहे हैं.
9 जुलाई, 1924 को बेंगलुरु में जन्मे गुरुदत्त का असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोणे था. उन्होंने 1950 और 1960 के दशकों में ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ और ‘चौदहवीं का चांद’ सहित कई उत्कृष्ट फिल्में बनाईं. उन की फिल्म ‘प्यासा’ को विश्व की 100 सार्वकालिक महान फिल्मों में शामिल किया गया. ऐसा सम्मान पाने वाली यह एकमात्र भारतीय फिल्म है जबकि 2002 में साइट एंड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण ने भी गुरुदत्त को सब से बड़े फिल्म निर्देशकों की सूची में शामिल किया.
उन्हें कभीकभी ‘भारत का और्सन वेल्स’ भी कहा जाता रहा है. 2010 में उन का नाम सीएनएन के सर्वश्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं की सूची में भी शामिल किया गया. गुरुदत्त 1950 के दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में कविता की लय लिए और कलात्मक फिल्मों के व्यावसायिक रूप से सफल होने की कला को विकसित करने के लिए भी मशहूर हैं. उन की फिल्मों को जरमनी, फ्रांस और जापान में अब भी प्रकाशित करने पर सराहा जाता है. इंडियन मेलोड्रेमैटिक ट्रेडिशन को निखारने का श्रेय भी गुरुदत्त को ही जाता है.
नृत्य भी एक किरदार था
इस की मूल वजह यह है कि गुरुदत्त को स्कूली दिनों से ही संगीत, नाट्य व डांस में ट्रेनिंग मिलने लगी थी, जोकि उन के सिनेमा में नजर आता है. यही वजह है कि वे अपनेआप में बेहतरीन नृत्य निर्देशक थे. तभी तो गीतों के फिल्मांकन में गुरुदत्त को महारत हासिल थी. उन के फिल्माए गए सभी गीत लोकप्रिय हैं. उन के गीतों में संगीत के साथ ही लाइट व मूवमैंट की भी कोरियोग्राफी नजर आती है.
गुरुदत्त का जन्म बेंगलुरु में शिवशंकर राव पादुकोणे व वसंती पादुकोणे के यहां हुआ था. उन के मातापिता कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण थे. उन के पिता शुरुआत के दिनों में एक विद्यालय के हैडमास्टर थे जो बाद में एक बैंक के मुलाजिम हो गए. उन की मां एक साधारण गृहिणी, घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने वाली महिला थीं, जो बाद में एक स्कूल में अध्यापिका बन गई थीं. बाद में जब गुरुदत्त के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘बाजी’ हिट हो गई तब गुरुदत्त ने अपनी मां से शिक्षक की नौकरी छोड़ने का आग्रह किया था. यदि यह कहा जाए कि गुरुदत्त को लेखन उन की मां से विरासत में मिला था तो गलत न होगा.
उन की मां वसंती लघुकथाएं लिखने के साथ ही बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं. उन की मां ने एक बंगाली उपन्यास ‘मिथुन’ का कन्नड़ में अनुवाद भी किया था. ऐसा उन्होंने तब किया था जब वे कम शिक्षित थीं. गुरुदत्त की मां ने गुरुदत्त के हाईस्कूल पास करने के बाद हाईस्कूल की परीक्षा पास की थी, उसी के बाद उन्हें स्कूल में नौकरी मिली थी. मां वसंती की ही वजह से गुरुदत्त का भी साबका बंगाली साहित्य से पड़ा था.
गुरुदत्त ने अपने बचपन के शुरुआती दिन कलकत्ता के भवानीपुर इलाके में गुजारे, इस का भी उन पर बौद्धिक व सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा. उन पर बंगाली संस्कृति व साहित्य की इतनी गहरी छाप पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोणे से बदल कर गुरुदत्त रख लिया था. इतना ही नहीं, आगे चल कर बंगला लेखक बिमल मित्र के उपन्यास पर गुरुदत्त ने फिल्म बनाई थी और वे शरत चंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ को ले कर भी काफी औब्सेस्ड थे. गुरुदत्त भी देवदास पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन शरत चंद्र ने जिस तरह से चंद्रमुखी का किरदार लिखा था, उस से वे सहमत नहीं थे, इसी वजह से यह फिल्म बन नहीं पाई.
कला और अकेलेपन की कहानी
उन का बचपन वित्तीय कठिनाइयों और मातापिता के तनावपूर्ण रिश्ते की परछाईं में गूंजा. गुरुदत्त ने 1957 में फिल्म ‘प्यासा’ बनाई थी, जिस की कहानी उन्होंने 1946 में लिखी थी. इस फिल्म के संदर्भ में एक बार गुरुदत्त की छोटी बहन ललिता लाजमी ने हम से कहा था, ‘‘फिल्म ‘प्यासा’ की कहानी उस ने अपने पिता से प्रभावित हो कर लिखी थी.’’
परिवार की आर्थिक हालत को देखते हुए गुरुदत्त ने कोशिश की और उन्हें 16 वर्ष की उम्र यानी कि 1941 में पूरे 5 साल के लिए 75 रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति पर अल्मोड़ा जा कर पंडित रविशंकर के बड़े भाई उदयशंकर की नृत्य, नाटक व संगीत अकादमी में शिक्षा लेने का अवसर मिला पर वहां वे सिर्फ 3 साल ही रुक पाए. इस संदर्भ में दो अलगअलग बातें कही गईं. पहली, यह कि 1944 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण ‘उदयशंकर इंडिया कल्चर सैंटर’ के बंद हो जाने पर गुरुदत्त को घर लौटना पड़ा लेकिन कहीं यह भी लिखा हुआ है कि अल्मोड़ा में उदयशंकर के नृत्य और नृत्यकला विद्यालय की प्रमुख महिला के साथ संबंध होने के बाद 1944 में उन्हें वहां से निकाल दिया गया था.
अल्मोड़ा से वे कलकत्ता (अब कोलकाता) आए और लीवर ब्रदर्स की एक फैक्ट्री में टैलीफोन औपरेटर के रूप में नौकरी शुरू की और इस की जानकारी मुंबई, उस वक्त के बंबई, में रह रहे मातापिता को भेज दी थी. हालांकि जल्द ही उन का इस नौकरी से मोह भंग हो गया और वे उस वक्त के बंबई, अब मुंबई, में अपने मातापिता के पास लौट आए थे.
कोरियोग्राफर की नौकरी
कुछ समय बाद अल्मोड़ा में ली थ्रिलर, ऐक्शन, कौमेडी की शिक्षा से आगे बढ़ कर गुरुदत्त अब कुछ और भी गहरा व गंभीर बनाने की इच्छा रखते थे तब उन्होंने दस साल से जी रहे अपनी कहानी पर फिल्म ‘कशमकश’ बनाने का निर्णय लिया. एक बार गुरुदत्त के बेटे अरुण दत्त ने मु झ से कहा था कि उन के पिता ने ‘कशमकश’ कहानी स्कूल के दिनों में लिखी थी, जब वे हाईस्कूल में पढ़ रहे थे लेकिन गुरुदत्त की छोटी बहन और चित्रकार ललिता लाजमी ने मु झ से कहा था कि गुरुदत्त ने 1946 में पुणे में रहते हुए ‘कशमकश’ नामक कहानी लिखी थी. उसी पर ‘प्यासा’ बनी थी. अबरार अलवी की मानें तो गुरुदत्त ने ‘प्यासा’ की कहानी इस तरह से लिखी थी कि फिर पटकथा लिखने की जरूरत नहीं पड़ी. सिर्फ संवाद अलग से लिखवाए और जौनी वाकर का सत्तार का किरदार व गाना जोड़ा गया था.
1957 में जब ‘प्यासा’ रिलीज हुई तो इस ने दर्शकों और आलोचकों को चौंका दिया. फिल्म ने आलोचकों की प्रशंसा और व्यावसायिक सफलता दोनों ही हासिल की. ‘प्यासा’ में वहीदा रहमान गुलाब नामक वेश्या हैं लेकिन वेश्या के किरदार को गुरुदत्त ने शुद्धता की ऊंचाई प्रदान की. यह फिल्म एक कालातीत क्लासिक बन गई, जिस ने ‘टाइम’ मैगजीन की मरने से पहले देखने वाली 100 फिल्मों की सूची में जगह बनाई.
‘प्यासा’-फिल्म जो सिनेमा से ज्यादा साहित्य बन गई
फिल्म ‘प्यासा’ में गुरुदत्त ने पितृसत्तात्मक सोच पर आघात करने के साथ ही नारी व नर की समानता की बात की. इस फिल्म में एक सीन है जिस में विजय खाना खा रहे हैं लेकिन विजय के पास पैसे नहीं हैं. उस वक्त गुलाब जा कर उसे पैसा देती है और कहती है कि तुम खाओ. तब जो समानता का भाव आता है वह बहुत कम फिल्मों में नजर आता है. ‘प्यासा’ में वह पनप रहे अमीर समाज पर आघात करने के साथ ही प्रकाशन जगत का नंगा चेहरा भी सामने रख देते हैं. उन की फिल्मों में विलेन में कई स्तरीय परतें नजर आती हैं. उन की फिल्मों के ज्यादातर किरदार ग्रे शेड्स वाले हैं, कोई न दूध का धुला सफेद, न कोयले जैसा काला.
गुरुदत्त अपनी फिल्म ‘प्यासा’ में दिलीप कुमार को लेना चाहते थे, पर जब दिलीप कुमार ने बहाना बना दिया तब गुरुदत्त ने खुद विजय का किरदार निभाया. वास्तव में वे शरतचंद्र जैसे बड़े लेखक से मतभेद रखते हुए लेखन कर रहे थे. माना जाता है कि इसी वजह से दिलीप कुमार ने ‘प्यासा’ में अभिनय करने से बहाना बना कर मना कर दिया था. शरतचंद्र व बिमल राय की सोच वाली एक फिल्म दिलीप कुमार पहले ही कर चुके थे और शरतचंद्र से वे सहमत थे.
‘कागज के फूल’ की असफलता ने तोड़ दिया
‘प्यासा’ को मिली अपार सफलता के बाद गुरुदत्त ने प्रमोद चक्रवर्ती के निर्देशन में जी पी सिप्पी की फिल्म ‘12 ओ क्लौक’ में वहीदा रहमान के साथ अभिनय किया. तो वहीं बतौर निर्माता, निर्देशक व अभिनेता वे 2 जनवरी, 1959 को फिल्म ‘कागज के फूल’ ले कर आए. इसे एक कालजयी फिल्म माना जाता है. इस फिल्म का कुछ हिस्सा मद्रास के विजय वाहिनी स्टूडियो में फिल्माया गया था. फिल्म की कहानी एक प्रसिद्ध निर्देशक सुरेश सिन्हा (गुरुदत्त) की है जो अभिनेत्री शांति (वहीदा रहमान) से प्रेम करने लगता है. उन दिनों वास्तविक निजी जीवन में भी गुरुदत्त व वहीदा रहमान की प्रेम कहानी चर्चा में थी.
अफसोस यह कि फिल्म बुरी तरह से असफल हुई और इस ने गुरुदत्त को बुरी तरह से तोड़ दिया. ‘कागज के फूल’ से गुरुदत्त को 17 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था, यह 1959 की बात है. आज की तारीख में यह रकम 200 करोड़ रुपए से अधिक मानी जाएगी. उन दिनों गुरुदत्त के वैवाहिक जीवन में भी काफी उथलपुथल मची हुई थी. जब ‘कागज के फूल’ बनी, तब तक गुरुदत्त की गीता दत्त के साथ शादी लगभग टूट चुकी थी जिसे सुधारा नहीं जा सकता था. यह एक चिंताजनक, अर्धआत्मकथात्मक फिल्म थी जिस में उन के अपने ही जीवन को दर्शाया गया था.
पत्नी के साथ उन की नाखुश शादी और उन की प्रेरणा के साथ उन के उल झे हुए रिश्ते थे. यह फिल्म भी फिल्म निर्माता की मृत्यु के साथ समाप्त होती है जो अपने अकेलेपन और बरबाद रिश्तों को स्वीकार करने में विफल रहता है. ‘कागज के फूल’ असफल रही लेकिन यह फिल्म सीख देती है कि दर्द जिंदगी का हिस्सा है, लेकिन वह अंत नहीं है.
फिल्म ‘कागज के फूल’ के संदर्भ में फिल्म इतिहासकार और वृत्तचित्र निर्माता नसरीन मुन्नी कबीर ने अपनी पुस्तक ‘गुरुदत्त: अ लाइफ इन सिनेमा’ में लिखा है कि उन के करीबी और उन के साथ काम करने वाले ज्यादातर लोग कहते हैं कि यह एक काल्पनिक आत्मकथात्मक फिल्म थी जिसे उन्होंने खुद बनाया था. उन के अनुसार, संगीतकार एस डी बर्मन ने उन से कहा था, ‘गुरु, यह फिल्म मत बनाइए, यह आप के जीवन के बारे में है.’ इस पर उन्होंने जवाब दिया, ‘मैं अपना काम करूंगा और आप अपने संगीत पर ध्यान केंद्रित करें.’ गुरु और बर्मन ने फिर कभी साथ में काम नहीं किया.
निर्देशन से तौबा
फिल्म ‘कागज के फूल’ की असफलता के बाद गुरुदत्त ने प्रण कर लिया कि अब वे सिर्फ फिल्म का निर्माण व अभिनय करेंगे, निर्देशन नहीं. गुरुदत्त को लगता था कि उन का नाम बौक्स ?औफिस के लिए अभिशाप है. उस के बाद 1960 में फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ का निर्माण करने के साथ ही वहीदा रहमान के साथ मुख्य भूमिका भी निभाई. इस फिल्म के निर्देशक एम सादिक थे. कहा जाता है कि इस फिल्म के निर्देशन में गुरुदत्त की पूरी दखलंदाजी थी. गाने तो गुरुदत्त ने ही कोरियोग्राफ किए थे. इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर जबरदस्त सफलता बटोरते हुए गुरुदत्त के ‘कागज के फूल’ के नुकसान की भरपाई से कहीं ज्यादा कमाई की. फिल्म का शीर्षक गीत, ‘चौदहवीं का चांद हो…’ एक विशेष रंगीन है
1962 में उन की टीम ने ‘साहिब बीबी और गुलाम’ बनाई. इस फिल्म का निर्देशन दत्त के शिष्य अबरार अलवी ने किया था, जिन्होंने इस फिल्म के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार भी जीता था. इस फिल्म में गुरुदत्त और मीना कुमारी के साथ रहमान और वहीदा रहमान ने सहायक भूमिकाएं निभाईं. निजी जीवन में अपनी पत्नी गीता दत्त से गुरुदत्त का अलगाव हो चुका था. तब ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में उन्होंने स्थापित किया कि महिला और पुरुष दोनों अच्छे दोस्त हो सकते हैं. इस फिल्म में एक महिला अपने दिल की बात खुल कर उसी तरह पुरुष के साथ शेयर करती है जिस तरह से वह एक औरत के साथ कर सकती है. पुरुष भी ऐसा ही करता है.
कालजयी फिल्म
‘साहिब बीबी और गुलाम’ में छोटी बहू यानी कि मीना कुमारी का किरदार पितृसत्तात्मक सोच है. लुभावने वाले दृश्यों में सारा ध्यान नायिका पर है. गुरुदत्त ने ही मीना कुमारी को ही सब से ज्यादा खूबसूरत दिखाया है. इस फिल्म में मीना कुमारी ने आंखों से जो भाव दिए हैं वे कमाल के हैं. कहा जाता है कि ‘साहिब बीबी और गुलाम’ की रिलीज के बाद के आसिफ ने गुरुदत्त से कहा था कि फिल्म का अंत बदल दो वरना यह फिल्म कमा कर नहीं देगी. के आसिफ ने सलाह दी थी कि छोटी बहू के किरदार में भी बदलाव कीजिए. सुखद अंत दिखाइए. इस से गुरुदत्त घबरा गए थे क्योंकि वे ‘कागज के फूल’ में गहरी चोट खा चुके थे.
सो, उन्होंने फिर से शूटिंग के लिए सैट बनवाने की सोची पर फिर उन्होंने सोचा कि वे अपनी सोच को नहीं बदलेंगे. यह बात बिमल मित्रा ने ‘बिछुड़े सभी बारीबारी’ में लिखा है लेकिन सच यह है कि ‘साहिब बीवी और गुलाम’ को बौक्स औफिस पर जबरदस्त सफलता मिली. इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार सहित ढेरों पुरस्कार मिले. यह एक कालजयी फिल्म बन गई.
बर्लिन फैस्ट में ‘साहिब बीबी और गुलाम’ असफल क्यों
भारत में ‘साहिब बीबी और गुलाम’ को जबरदस्त सफलता मिली लेकिन ‘साहिब, बीवी और गुलाम’ को 13वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में असफलता हाथ लगी थी. इस पर फिरोज रंगूनवाला ने अपनी पुस्तक ‘गुरुदत्त (1925-1965), एक मोनोग्राफ’ में लिखा है कि ‘साहिब, बीवी और गुलाम’ इसलिए असफल रही क्योंकि पश्चिमी दर्शक भारत की सामाजिक समस्याओं को नहीं सम झ पाए, जैसे कि महिलाएं अपने पति के लिए सतीत्व क्यों त्याग देती हैं और शराब क्यों पीती है.’
दो साल मद्रास में गुजारे
‘साहिब बीबी और गुलाम’ के बाद गुरुदत्त ने ‘सौतेला भाई’ में अभिनय किया. उस के बाद वे दो साल के लिए मद्रास, अब चेन्नई, चले गए. वास्तव में जब गुरुदत्त ने अपनी फिल्म ‘कागज के फूल’ के कुछ दृश्य मद्रास के
विजय वाहिनी स्टूडियो में फिल्माए थे तब उन के दिमाग में दक्षिण की फिल्मों में अभिनय करने की बात आ गई थी.
गुरुदत्त की पहली दक्षिण भारतीय फिल्म ‘बहूरानी’
गुरुदत्त ने जिस पहली दक्षिण भारतीय हिंदी फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई वह 1963 में प्रदर्शित माला सिन्हा के साथ बनी फिल्म ‘बहूरानी’ थी जिस का निर्देशन तेलुगू व तमिल फिल्म निर्माता टी प्रकाश राव ने किया था, जिन्होंने ‘उत्तमापुथिरम’ (1958) और ‘पदगोट्टी’ (1964) जैसी ब्लौकबस्टर फिल्में दी थीं. हिंदी रीमेक से पहले तेलुगू में ‘अर्धांगी’ (1955) और तमिल में ‘पेनिन पेरुमई’ (1956) के नाम से बनाई गई थी. तमिल संस्करण में जेमिनी गणेशन ने मुख्य भूमिका निभाई थी जबकि तेलुगू संस्करण में अक्किनेनी नागेश्वर राव ने अभिनय किया था. फिल्म के संगीतकार सी रामचंद्र थे.
फिल्म में गुरुदत्त के साथ माला सिन्हा, फिरोज खान, श्यामा, मनोरमा, आगा, मुकरी, प्रतिमा देवी, बद्री प्रसाद, ललिता पवार की भी अहम भूमिकाएं थीं. बाद में 1975 में बंगला में भी इसे ‘बहूरानी’ के नाम से तथा 1981 में दोबारा हिंदी में ‘ज्योति’ के नाम से बनाया गया.
गुरुदत्त की दूसरी दक्षिण भारतीय फिल्म ‘भरोसा’
वर्ष 1963 में ही गुरुदत्त ने वासु फिल्म्स के एन वासुदेव मेनन निर्देशित फिल्म ‘भरोसा’, जो 1958 में रिलीज हुई तमिल फिल्म ‘थेडी वंधा सेल्वम’ की रीमेक थी, बनाई. के शंकर द्वारा निर्देशित इस फिल्म में आशा पारेख भी थीं. फिल्म का संगीत रवि ने दिया था. राजेंद्र कृष्ण ने गीतों के बोल लिखे थे. लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गीत ‘वो दिल कहां से लाऊं…’ सर्वकालिक पसंदीदा गीत है. इसी फिल्म के गीत ‘आज की मुलाकात बस इतनी, कर लेना बातें कल चाहे जितनी…’ के अलावा ‘काहे इतना गुमान छोरिये, ये मेला दो दिन का…’ भी काफी लोकप्रिय रहे.
गुरुदत्त की तीसरी दक्षिण भारतीय फिल्म ‘सुहागन’
गुरुदत्त ने 1962 में प्रदर्शित तमिल सफल फिल्म ‘सारदा’ के हिंदी संस्करण ‘सुहागन’ में भी काम किया. 1964 में प्रदर्शित इस फिल्म का निर्माण प्रसिद्ध निर्माता ए एल श्रीनिवासन ने किया था और निर्देशन के एस गोपालकृष्णन ने किया था. अफसोस, फिल्म ‘सुहागन’ के प्रदर्शन से पहले 10 अक्तूबर, 1964 को गुरुदत्त का निधन हो गया.
अंतिम व अधूरी फिल्में
वर्ष 1964 में गुरुदत्त ने ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित अपनी अंतिम फिल्म ‘सां झ और सवेरा’ में मीना कुमारी के साथ अभिनय किया. अक्तूबर 1964 में उन के निधन के वक्त उन की कई फिल्में अधूरी रह गई थीं, जिन में से के आसिफ की फिल्म ‘लव एंड गौड’ भी थी. कई सालों बाद जब फिल्म को फिर से बनाया गया तो उन की जगह संजीव कुमार ने ले ली. उन्होंने साधना के साथ ‘पिकनिक’ में भी काम किया था, जो अधूरी रह गई और बंद हो गई. वे ‘बहारें फिर भी आएंगी’ का निर्माण और अभिनय करने वाले थे लेकिन उन की जगह धर्मेंद्र ने मुख्य भूमिका निभाई और यह फिल्म 1966 में उन की टीम के आखिरी प्रोडक्शन के रूप में रिलीज हुई.
गुरुदत्त के निजी जीवन में कम उतारचढ़ाव नहीं रहे. 26 मई, 1953 को गुरुदत्त ने गीता रौय चौधुरी (बाद में गीता दत्त) से विवाह किया, जो एक प्रसिद्ध पार्श्व गायिका थीं और जिन से उन की मुलाकात ‘बाजी’ (1951) के निर्माण के दौरान हुई थी. उन्होंने परिवार के तमाम विरोधों को पार करते हुए शादी की. शादी के बाद 1956 में वे मुंबई के पाली हिल स्थित एक बंगले में रहने लगे. उन के तीन बच्चे हुए, तरुण, अरुण और नीना. गुरुदत्त और गीता की मृत्यु के बाद बच्चे गुरु के भाई आत्माराम और गीता के भाई मुकुल रौय के घरों में पलेबढ़े.
गुरुदत्त का वैवाहिक जीवन सुखी नहीं रहा. उन के छोटे भाई आत्माराम के अनुसार, ‘वे काम के मामले में सख्त अनुशासनप्रिय थे लेकिन निजी जीवन में पूरी तरह से अनुशासनहीन थे.’ वे बहुत ज्यादा सिगरेट और शराब पीते थे और समय से काम के लिए नहीं निकलते थे. अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ गुरुदत्त के रिश्ते ने भी उन की शादी के खिलाफ काम किया. अपनी मृत्यु के समय वे गीता से अलग हो चुके थे और अकेले रह रहे थे. गीता दत्त का 1972 में 41 वर्ष की आयु में अत्यधिक शराब पीने के कारण निधन हो गया, उन का लिवर क्षतिग्रस्त हो गया था.
गुरुदत्त की फिल्में व परछाईं
गुरुदत्त की दादी रोज शाम को दीया जला कर आरती करतीं और 14 वर्षीय गुरुदत्त दीये की रोशनी में दीवार पर अपनी उंगलियों की विभिन्न मुद्राओं से तरहतरह के चित्र बनाते रहते. यहीं से उन के मन में कला के प्रति संस्कार जागृत हुए. दीये की रोशनी से जो परछाईं दीवार पर बनती थी उस ने गुरुदत्त के मनमस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ी. उन की फिल्मों का बारीकी से अध्ययन करें तो उन की हर फिल्म के किरदारों का इंट्रोडक्शन परछाईं से ही होता नजर आता है.
किसी परिचर्चा में मशहूर फिल्म पटकथा लेखक कमलेश पांडे ने उन के बारे में कहा यों है- ‘‘गुरुदत्त को मैं परछाइयों की सल्तनत का सुल्तान मानता हूं. उन की हर फिल्म में परछाइयों का खूबसूरत उपयोग है. हर मुख्य किरदार की एंट्री परछाईं से होती है. फिल्म ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में मीना कुमारी यानी कि छोटी बहू का किरदार भी परछाईं के साथ शुरू होता है.’’ बता दें कि ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में वैवाहिक संस्था पर कटाक्ष किया गया है.
वास्तव में गुरुदत्त के निजी जीवन में जो उथलपुथल हो रही थी वह सब उन की फिल्मों में नजर आता था. इसीलिए कहा जाता है कि गुरुदत्त ने आत्मकथात्मक फिल्में बनाईं.
गुरुदत्त को बहुत जल्द एहसास हो गया था कि लोग उन की इज्जत नहीं करते हैं बल्कि उन की बेहतरीन फिल्मों की इज्जत करते हैं. इस बात को सम झने के बाद ही उन्होंने फिल्म ‘प्यासा’ में एक गाना रखवाया था, जिस के बोल हैं- ‘यह दुनिया अगर मिल भी जाए…’.
गुरुदत्त और उन के नारी किरदार
गुरुदत्त को अवसाद, उदासी का सिनेमा बनाने वाले फिल्मकार के ही साथ नारीवादी फिल्मकार भी माना गया. गुरुदत्त ने अपने महिला किरदारों की मदद से प्रेम, हानि और सामाजिक नियमों के भीतर रहने के संघर्षों से जुड़े विषयों की तलाश की. उन के सिनेमा में महिलाएं कथानक का भावनात्मक और नैतिक केंद्र थीं. उन की फिल्मों में महिला किरदारों का चित्रण बहुत अलग रहा. महिला पात्रों के प्रति इज्जत, सहानुभूति, संजीदगी नजर आती है.
गुरुदत्त की फिल्मों में महिला किरदारों में ट्रांसफौर्मेशन बहुत नजर आता है. पचास व साठ के दशकों में भी गुरुदत्त की महिला किरदार छुईमुई नहीं थीं. ‘आरपार’ में लड़की कार चलाती हुई नजर आती है. ‘प्यासा’ में गुलाबो, ‘कागज के फूल’ में शांति, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में जाब्बा वगैरह दुर्व्यवहार की शिकार यौन वस्तुओं के रूप में चित्रित की गई हैं.
‘कागज के फूल’ में गुरुदत्त यानी कि नायक की स्ट्रैस्ड वाइफ बुरी औरत नहीं है. वहां भी अलगाव के बाद मानवता है. किसी महिला किरदार को पितृसत्तात्मक सोच या आदर्शवाद के शिकंजे पर नहीं कसा गया है लेकिन यह बात उन की फिल्म ‘आरपार’ में नहीं है. तो वहीं ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में छोटी बहू यानी कि मीना कुमारी का किरदार पितृसत्तात्मक सोच है. लुभावने वाले दृश्यों में सारा ध्यान नायिका पर है. कुछ लोग मानते हैं कि वहीदा रहमान जितनी खूबसूरत गुरुदत्त की फिल्मों में नजर आईं, बाकी फिल्मों में उतनी खूबसूरत नजर नहीं आईं.
गुरुदत्त ने ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ जैसी फिल्मों में महिला पात्रों का उपयोग गहरी भावनाओं और जटिल विचारों को व्यक्त करने के लिए किया. इन फिल्मों के महिला किरदार अपने युग के संघर्षों, इच्छाओं और विरोधाभासों को मूर्त रूप देते हैं.
‘प्यासा’ में महिला किरदार काफी जटिल रूप में बुने गए हैं. गुलाबो और मीना नारीत्व के विपरीत पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं. फिल्म ‘प्यासा’ में गुरुदत्त ने स्वतंत्रता के बाद के भारत की यथार्थवादी स्थिति को दर्शाया है. हाशिए पर और ‘औब्जेक्ट’ के रूप में देखे जाने के बावजूद वेश्या गुलाबो ताकत दिखाती है और विजय की भावनात्मक सहारा बन जाती है.
दूसरी ओर, मीना सामाजिक अपेक्षाओं में फंसी एक आदर्श छवि का प्रतिनिधित्व करती है, जो उस समय महिलाओं पर लगाई गई सीमाओं को उजागर करती है. गुरुदत्त उन मानदंडों की आलोचना करते हैं जो महिलाओं की आजादी को सीमाओं से बांधते हैं. फिल्म में विजय की कालेज की प्रेमिका मीना प्यार के बजाय धन को चुनती है. जैसा कि, वह एक बहस के दौरान उस से कहती है- ‘सिर्फ प्यार काफी नहीं होता.’
इसी फिल्म में एक बातचीत में मीना (अभिनेत्री माला सिन्हा) गुलाबो (अभिनेत्री वहीदा रहमान) से पूछती है कि विजय (अभिनेता गुरुदत्त) जैसा सज्जन व्यक्ति उस की जैसी वेश्या को कैसे जान सकता है? गुलाबो चुपचाप जवाब देती है- ‘सौभाग्य से…’ फिल्म ‘प्यासा’ में गुलाबो का किरदार यानी कि वेश्या को गिरी हुई औरत की तरह नहीं दिखाया गया. उन की बेचारगी को भी नहीं दिखाया गया. उसे औब्जेक्ट की तरह या बाजार/मंडी में बैठने वाली औरत की तरह नहीं दिखाया गया बल्कि एक इंसान की तरह दिखाया गया.
‘प्यासा’ में औरत की लालसा को जिस तरह से बड़े परदे पर दिखाया गया है वह कमाल है जबकि वर्तमान समय की फिल्मों में औरत की डिजायर को दिखाते समय औरत ही औब्जेक्टीफाई हो रही होती है. गुलाबो किताब ढूंढ़ कर उसे प्रकाशित करना चाहती है पर विजय (गुरुदत्त) उसी के पास लौट कर आता है. तो, दोनों एकदूसरे की इज्जत करते हैं, दोनों साथ में रहना चाहते हैं, भले ही गुमनामी में.
चार्ली चैप्लिन का प्रभाव
गुरुदत्त की फिल्में चार्ली चैप्लिन से भी प्रेरित रही हैं. चार्ली चैपलिन ने ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ में कहा था, ‘हम सोचते बहुत ज्यादा हैं जबकि महसूस बहुत कम करते हैं.’ इसे आप गुरुदत्त की फिल्म ‘कागज के फूल’ में सम झ सकते हैं.
इस फिल्म में शांति फिल्म इंडस्ट्री में काम करने के लिए महज इसलिए वापस आ रही हैं कि जिस से सुरेश को काम मिल जाए. जब वे उन से झोंपड़ी में मिलती हैं तो वे कहते हैं कि सबकुछ खो देने के बाद अब मेरे पास मेरी खुद्दारी है, जो तुम्हें सौंपता हूं. उस के बाद भी अगर तुम कहोगी तो मैं सेठजी के पास चल दूंगा. मतलब, आप ने अपनी इज्जत उस औरत के हाथ में दी है जिस से आप प्यार करते हैं लेकिन आप उस के साथ नहीं हैं. तो, यहां फिजिकल इंटीमेसी की बात नहीं हो रही है, बल्कि सम झ की बात हो रही है.
इस दृश्य में एक महिला किरदार को जो इज्जत दी गई है वह बहुत ज्यादा है. गुरुदत्त की फिल्में चाहती हैं कि हम सबकुछ महसूस करें. असफलता, दुनिया से कोफ्त, दुनिया से सवाल, दिल का टूटना आदि सब भावनाओं को गुरुदत्त की फिल्में एहसास करने पर मजबूर करती हैं. फिल्म के कवितामय दृश्य दर्शक को फिल्म के साथ जुड़ने पर मजबूर करते हैं.
फिल्म का एक संवाद- ‘शांति, तुम बेहतरीन अभिनेत्री हो तो मैं भी बुरा निर्देशक नहीं’ अपनेआप में अतिखूबसूरत संवाद है जोकि सिर्फ परदे का नहीं बल्कि ऐसा लगता है कि वहीदा रहमान से गुरुदत्त निजी जीवन में यह बात कह रहे हों. तो वहीं, उस का अपना अभिमान भी है. फिल्म ‘कागज के फूल’ में नायक की बेटी और प्रेमिका दोनों ही इंसान होने की कमजोरियों से जू झती हैं.
अबरार अलवी निर्देशित और गुरुदत्त निर्मित ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में कहानी पितृसत्ता, विवाह की संस्था और जमींदारी प्रथा को दर्शाती है. ‘साहिब, बीबी और गुलाम में गुरुदत्त ने एक पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे मानदंडों को उजागर किया है. जहां छोटी बहू (मीना कुमारी) अपने व्यभिचारी पति से स्वीकृति पाने के लिए खुद को शराब के हवाले कर देती है.
मीना कुमारी द्वारा अभिनीत छोटी बहू एक जटिल चरित्र है जो अकेलेपन और लालसा से परिभाषित है. अपनी कुलीन पृष्ठभूमि के बावजूद छोटी बहू का जीवन उस के कुलीन जीवन के खालीपन से घिरा हुआ है. चरित्र ने पारंपरिक दृष्टिकोण को तोड़ा कि एक पवित्र हिंदू पत्नी न तो शराब पी सकती है और न ही अपनी शादी से बाहर किसी पुरुष के करीब हो सकती है, जैसे कि भूतनाथ (गुरुदत्त) के.
यह फिल्म निस्संदेह ब्रिटिश राज में सामंतवाद के पतन पर आधारित है, जब पुरुषत्व ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं के लिए समस्याएं खड़ी की थीं. हालांकि, गुरुदत्त ने एक अकेली ‘कुलीन’ पत्नी के दर्द और आघात को उजागर किया है जो बाद में अपने पति का ध्यान आकर्षित करने के लिए खुद को शराबी बना लेती है.
मीना कुमारी अपने कैरियर के चरम पर थीं जब उन्होंने एक शराबी पत्नी की भूमिका निभाने के लिए सहमति व्यक्त की थी. कुछ दकियानूसी महिलाएं उस दृश्य को घिनौना मानती हैं जिस में मीना कुमारी शराब पीती है. फिल्म इंडस्ट्री पितृसत्तात्मक सोच से लबालब है, इस में दोराय नहीं लेकिन गुरुदत्त में पितृसत्तात्मक सोच नहीं थी. नारीवादी सोच व पितृसत्तात्मक सोच वालों के बीच टकराव बहुत होता
था. गुरुदत्त को इस से भी जू झना पड़ रहा था. Film Story