Hindi Story, लेखक – सीमा प्रताप
आप का बच्चा पहली बार आप को अपनी कमाई से पैसे देता है तो यह एक बेहद भावुक और गर्व महसूस करने वाला पल होता है. यह किसी बेशकीमती उपहार से कम नहीं होता.
‘‘मां, प्लीज, न मत कहना इस बार,’’ नेहा ने स्कूल से लौटते ही अपना बैग टेबल पर रखते हुए मिन्नतभरे स्वर में कहा.
‘‘किस बात के लिए?’’ मैं ने चकित होते हुए पूछा.
मैं ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठी बच्चों के स्कूल से लौटने का इंतजार कर रही थी. हाथ में थाली लिए सौंफ बीन रही थी बड़ी सावधानी से यह चैक करते हुए कि कहीं महीन पत्थर का कण न रह जाए, जो खाने के साथ न मिल जाए. सौंफ का कण तो छोटा होता है लेकिन उस का स्वाद और असर गहरे होते हैं. ऐसे ही अपने जीवन की छोटीछोटी जरूरतों और बच्चों की पढ़ाई पर हर पल ध्यान देना, उन की उन सभी बातों पर गौर करना जो उन के वर्तमान को संवारते हुए उन के भविष्य की नींव रखता था आदि सब था मेरे जीवन का हिस्सा, मेरा धड़कता हुआ रोजमर्रा.
मैं ने अपने हाथ की थाली को परे सरकाते हुए नेहा की ओर देखा और प्यार से उस से पूछा, ‘‘किस बात के लिए परमिशन चाहिए तुम्हें, नेहा?’’
मेरे सवाल का जवाब दिए बिना उस ने कहा, ‘‘पहले यह बोलो कि न नहीं करोगी.’’
उस ने अपने जूतों को खोल एक तरफ सरकाया और अपने मोजे उतारते हुए अपनी बात दोहराते हुए शिकायती लहजे में कहा, ‘‘पिछली बार भी तुम लोगों ने मुझे स्कूल ट्रिप पर जाने की अनुमति नहीं दी थी. हर किसी के मांपापा अपने बच्चों को भेजते हैं, लेकिन आप दोनों ही मुझे भेजने में आनाकानी करते हो.’’
अपनी बात जारी रखते हुए वह आगे बोली, ‘‘कभी आप लोग कहते हो कि मेरा ट्रिप पर जाना सुरक्षित नहीं है तो कभी यह कहते हो कि मुझे ट्रिप पर जाने के बजाय पढ़ाई करनी चाहिए. हर बार कोई न कोई बहाना बना देते हो लेकिन इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा. आप वादा करो कि इस बार मुझे मेरे स्कूल ट्रिप पर जाने देंगी.’’
वह अपनी जिद पर अड़ी थी. मैं उस के आग्रह से मजबूर हो कर चुपचाप उसे सुन रही थी. उसे अपने पास खींच कर, छाती से चिपका कर उसे शांत करते व उस के बालों को सहलाते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘ठीक है, पापा को आ जाने दो औफिस से, फिर शाम को सब बैठ कर आराम से बात करेंगे.’’
मैं ने बात को वहीं विराम देने की कोशिश की लेकिन नेहा ने एक बार फिर, ‘‘मां, प्लीज…’’ कहते हुए अपने को मुझ से छुड़ाते अपना बस्ता उठा कर अपने कमरे की ओर बढ़ गई.
स्कूल का सत्र समाप्त होने को था. जाहिर है, यदि बच्चे अलगअलग कक्षाओं में पढ़ रहे हैं तो उन की जरूरतें और उन की मांगें भी भिन्न होंगी. यह मेरी सब से बड़ी बेटी है. यह 8वीं कक्षा की छात्रा अपने सहपाठियों के साथ जिम कौर्बेट की पांचदिवसीय ‘कैम्ंिपग यात्रा’ पर जाना चाहती थी और इस के लिए उसे एक बड़ी राशि की आवश्यकता थी. स्कूल उन पांच दिनों का सारा खर्च वहन करेगा, जिस में भोजन, उन के आवास, परिवहन और अन्य खर्चे शामिल थे. अभिभावकों को बच्चों की पैकिंग में सहायता करनी थी, जिस में उन के जूते, स्लीपर, नाइट सूट, पानी की बोतलें और कई अन्य चीजें शामिल थीं. इस सब का खर्च हजारों में था.
उसे ये सब कैसे बताती कि हम भी चाहते थे कि वह स्कूल ट्रिप पर जाए लेकिन खर्च हमेशा पहाड़ बन कर सामने खड़ा हो जाता था, जिस का इस समय मेरे पास कोई समाधान नहीं था. मेरे पति सरकारी मुलाजिम थे, उन की आमदनी स्थिर तथा सीमित थी. हमारा तो अस्तित्व ही जैसे इन बच्चों में समाहित हो गया था, जिस में बच्चों की शिक्षा सर्वोपरि थी. उस के बाद उन से जुड़ी उन की छोटीछोटी जरूरतें, उन का हर एक सपना साकार करने हेतु हम ने अपने सारे संसाधन उन पर न्योछावर कर दिए थे.
नेहा 9वीं कक्षा में जाने वाली थी, जिस के लिए हमें उस की नई किताबें खरीदने की तैयारी करनी थी. आठवीं कक्षा की फाइनल परीक्षा के बाद मैथ ट्यूशन टीचर को एक बड़ी राशि देनी थी. साथ ही, नए सत्र की स्कूल फीस भी भरनी थी. इन सभी खर्चों का विवरण नेहा को बताना नहीं चाहती थी, ताकि वह किसी तनाव या बोझ तले न आए और उस का मन न दुखे. सिर्फ यही खर्च नहीं था बल्कि इस के बाद हमें छोटी बेटी सोनी की भी तैयारी करनी थी, जो 6ठी कक्षा में थी और एक अंतर-विद्यालय नृत्य प्रतियोगिता में भाग ले रही थी. उस का स्कूल चाहता था कि हम उस के नृत्य प्रदर्शन के लिए पोशाक का खर्च उठाएं, जोकि एक काफी बड़ी राशि थी.
और सब से छोटा, विवान, जो 5वीं से 6ठी कक्षा में जाने वाला था. सालभर स्कूल की कौपीकिताबों से ले कर उस की फीस और यूनिफौर्म तक की जिम्मेदारी रहती थी. कभी टाई चाहिए होती, कभी मोजे फट जाते, कभी काले जूते तो कभी सफेद जूते फट जाते. कभी ड्राइंग बुक भर जाती, कभी विंटर यूनिफौर्म की जरूरत पड़ती तो कभी समर यूनिफौर्म की. इन छोटीछोटी जरूरतों को पूरा करतेकरते हर दिन की अपनी चुनौतियां सामने आती थीं.
इस जीवन यात्रा में, एक ओर जहां जिम्मेदारियों का भार था वहीं दूसरी ओर पैसों की तंगी और बाकी कई जरूरतों का संघर्ष भी हमें लगातार घेरे हुए था. क्या इसे सिर्फ एक समस्या कहें या जीवन की कठिन यात्रा या फिर बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की साधना? हम चाहते थे कि हमारे बच्चे उच्चतम शिक्षा प्राप्त करें ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें और अपने जीवन को एक नई दिशा व उद्देश्य दे सकें हमें. यह विश्वास था कि शिक्षा ही उन का सब से बड़ा हथियार बन सकती है.
कई बार शादीब्याह जैसे समारोहों में भी जाने से कतराते रहे, जिस से हमारे खर्च का बजट न बढ़ पाए. इन बातों को बच्चों को समझाना कठिन था. बच्चों से बस यही कहा जाता था, अपनी पढ़ाई पूरे मन से करो ताकि अपने लिए एक मुकाम हासिल कर सको. पर उस बार अपने पति से बात कर हम ने नेहा को उस के स्कूल ट्रिप पर भेज दिया था, बिना उसे इस अतिरिक्त खर्च के बारे में जताए हुए. वहां से लौट कर नेहा बड़ी खुश थी. उस ने जो अपने अनुभव हम से साझा किए, उन्हें सुन कर महसूस हुआ कि बच्चों के लिए इस तरह का अनुभव भी जरूरी हो गया है.
जिंदगी की जद्दोजेहद, आर्थिक तंगी और केवल एक नौकरी पर आश्रित हमारे पूरे परिवार के संघर्ष के बीच जो एक चीज मैं ने सख्ती से पकड़ी थी वह थी आपसी प्रेम और एकदूसरे के प्रति त्याग की भावना. हम सब एक ही पृष्ठ पर रहते थे, जैसे एक पुस्तक के पन्ने, जहां हर शब्द मिल कर एक पूरा अर्थ बनाते हैं. जीवन की इस निरंतर लड़ाई में हम एकदूसरे का संबल बने रहे. मुश्किलें चाहे जितनी भी हों, हम सब एकदूसरे के साथ हंसते, बोलते और अपनी छोटीछोटी खुशियों में सुकून ढूंढ़ते रहे. ‘एकता में शक्ति होती है’ : इस मुहावरे ने हमारे परिवार को कभी हारने नहीं दिया.
समय के साथ बच्चे एकएक कर के उच्च कक्षाओं में बढ़ते जा रहे थे. बड़ी होने के साथसाथ नेहा हमारी आर्थिक स्थिति को समझने लगी थी और हमारी परिस्थितियों को बेहतर तरीके से महसूस करने लगी थी. वह हमेशा अपने छोटे भाईबहन की पढ़ाई में मदद करने के लिए तत्पर रहती. उस की मदद हमारे लिए एक बड़ा सहारा बन गई थी. हालांकि, 12वीं कक्षा में जाने के बाद वह बहुत व्यस्त रहने लगी. हमारे खर्चे भी अपने चरम पर पहुंच चुके थे.
अकसर हर मातापिता की भूमिका एकजैसी होती है लेकिन किसे सफलता मिलती है और किसे नहीं, यह तो भविष्य ही तय करता है. नेहा ने 12वीं की परीक्षा में शानदार अंकों से सफलता हासिल की और उसे एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला भी मिल गया था. यह पल हमारे लिए गर्व और खुशी का था. ऐसा महसूस हो रहा था जैसे प्रकृति ने हमारी मेहनत का पूरा फल हमें दिया हो. वहीं, हमारी छोटी बेटी सोनी भी अच्छे नंबरों के साथ हाईस्कूल तक पहुंचने में सफल रही थी. वह अपने नृत्य का लगातार अभ्यास करती और प्रस्तुति देती रहती थी. सब से छोटा बेटा विवान भी उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहा था. बास्केटबौल में भी उस ने अपनी पहचान बनाई थी. यह सब देख कर हमारी मेहनत और संघर्ष का सार्थक परिणाम सामने आ रहा था.
चार साल की इंजीनियरिंग कालेज का सफर भी पूरी तरह से उतारचढ़ाव से भरा हुआ था. कभीकभी रातें आंखों में तारे गिनते कटती थीं, नींद कोसों दूर. नेहा ने अच्छे नंबरों से चार साल की इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. अब वह स्कौलरशिप पर उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने का सपना देख रही थी. उस क्षण में, एक ओर जहां गर्व का अनुभव हो रहा था तो दूसरी ओर दिल में एक गहरी उलझन थी कि नेहा हम से इतनी दूर चली जाएगी.
हम अकसर यह सोचते थे कि जीवन की दिशा हम खुद तय करते हैं लेकिन अब ऐसा महसूस होने लगा था कि शायद सबकुछ पहले से ही नियत है और घटनाएं अपनेआप एक निश्चित दिशा में घटित हो रही हैं. सोचतेसोचते दिल भारी हो जाता था. फिर कुछ समय बाद, नेहा अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने और मास्टर्स की डिग्री प्राप्त करने विदेश चली गई. वह वहां अपने अध्ययन में व्यस्त हो गई और यहां हम सोनी और विवान की पढ़ाई में जुट गए. सोनी और विवान की पढ़ाई और उन की जरूरतें, उन के ट्यूशन, अन्य गतिविधियों और उन के प्रोजैक्ट्स को करवाने में हम पूरी तरह से व्यस्त थे. वहीं, दूसरी ओर नेहा ने अपनी मेहनत और लगन से न सिर्फ शिक्षा में सफलता प्राप्त की बल्कि जीवन के एक नए मुकाम पर भी पहुंच गई थी.
नेहा को वहां एक प्रतिष्ठित कंपनी में उत्कृष्ट नौकरी मिल चुकी थी. उस दिन उस की सफलता की खबर से दिल में एक अपार खुशी और गर्व का एहसास था. इधर, सोनी की भी बोर्ड परीक्षा खत्म हो गई थी और उस ने एक ला कालेज में दाखिला ले लिया, होस्टल जा चुकी थी और विवान बोर्ड परीक्षा दे, ग्रेजुएशन के लिए पुणे जाने वाला था. अपनी नई नौकरी में काम करने के करीब सालभर बाद नेहा चाहती थी कि हम अमेरिका आएं. खर्चों को देखते हुए हम दुविधा में थे, लेकिन नेहा ने हमारा वीजा और टिकट बनवाने में हमारी मदद की.
अमेरिका में जब हम हवाई अड्डे पर पहुंचे तो नेहा ने हमें देख कर खुशी से झूमते हुए हमें अपने गले लगा लिया. उस ने हमें तुरंत टैक्सी में बैठाया और घर की ओर ले चली. हम ने धीरेधीरे आसपास के इलाकों में सैर की. फिर एक दिन, नेहा हमें एक शानदार रैस्तरां में खाना खिलाने ले गई. घर से बाहर निकलने से पहले उस ने कुछ डौलर्स ले कर पापा के हाथ में रखते हुए कहा, ‘‘मांपापा, आप पैसे की चिंता बिलकुल मत कीजिएगा. ये लीजिए.’’ हम दोनों अवाक हो कर अपलक उसे देख रहे थे.
हम तो हमेशा उसे देने के आदी थे. यह पहली बार था जब हमारा बच्चा हमें बिना किसी निहित स्वार्थ के पैसे दे रहा था.
हमारी आंखों में एक अजीब सी नमी थी. उस ने कहा ‘‘चिंता मत कीजिए आप दोनों, जो चाहें खरीदें, जो मन हो खाइए और जहां भी जाना हो, बताइए.’’
ऐसा लगा जैसे वक्त ने एक चक्र पूरा किया हो. हम ने कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा कुछ होगा. अचानक वह हमें पैसे दे रही है. यह पल न केवल गर्व का था, बल्कि उस नन्ही बच्ची की, हमारी मेहनत और संघर्ष का दौर याद आया, नन्ही बच्ची अब बड़ी हो चुकी थी, सक्षम और आत्मनिर्भर. मैं समझ नहीं पा रही थी जीवन के इस हिस्से को. वही बच्चा जिस ने पैसों की इतनी तंगी झेली थी, आज हमें पैसे दे रहा है और कह रहा है जो जी में आए खाइए, खरीदिए. Hindi Story