Education Loan: तेजी से बदलते सामाजिक आर्थिक परिदृश्य में बच्चों की परवरिश भावनात्मक से अधिक आर्थिक निर्णय बन गई है. भारत में उच्च शिक्षा की बढ़ती लागत, शिक्षा लोन का बढ़ता बोझ और युवा बेरोजगारी ने मध्यवर्गीय परिवारों को संकट में डाल दिया है, जहां सपने पलते तो हैं, पर अकसर कर्ज में दब कर टूट भी जाते हैं.

आज के तेजी से बदलते समाज में, बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने का फैसला सिर्फ भावनात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक भी होता जा रहा है. खासकर भारत जैसे विकासशील देश में, जहां जनसंख्या बड़ी है और संसाधन सीमित, युवा बच्चे मातापिता के लिए एक बड़ा सवाल बन गए हैं. भारत में एक बच्चे को जन्म से 18 साल तक पालने की औसत लागत 30 लाख रुपए से 1.2 करोड़ तक हो सकती है, जो ग्रामीण या शहरी क्षेत्र पर निर्भर करता है.

साल 2025 में यह आंकड़ा और बढ़ गया है, जहां शहरी भारत में एक बच्चे को पालने की लागत लगभग रुपए 45 लाख हो गई है. एक रिपोर्ट के अनुसार, जन्म से शादी तक की कुल लागत रुपए 1 करोड़ तक पहुंच सकती है, जिस में शिक्षा, स्वास्थ्य और रहनसहन शामिल हैं. आज कल भविष्य में बड़ी स्पर्धा को देखते हुए लोग प्राइमरी स्तर से ही पढ़ाई पर ध्यान देने लगते हैं. महानगरों में तो प्राइमरी एजुकेशन पर ही एक साल में लाखों रुपए का खर्च आता है.

मध्यमवर्गीय शहरों में प्राइमरी एजुकेशन पर रुपए 5.5 लाख, मिडिल स्कूल पर रुपए 1.6-1.8 लाख प्रति वर्ष, और कुल स्कूली शिक्षा पर रुपए 25-50 लाख खर्च हो सकता है. उच्च शिक्षा के लिए रुपए 15-50 लाख अतिरिक्त लग सकते हैं, और अगर विदेशी शिक्षा हो तो यह आंकड़ा रुपए 5-6 करोड़ तक पहुंच जाता है.

भारतीय समाज में शिक्षा को हमेशा से ही जीवन की आधारशिला माना जाता है. मातापिता अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हर संभव प्रयास करते हैं, जिस में कर्ज ले कर उन्हें उच्च शिक्षा दिलाना भी शामिल है. लेकिन आज की वास्तविकता यह है कि “कर्ज ले कर बच्चे पढ़ाए, पर कमाई कोरी” जैसी स्थिति कई परिवारों की सच्चाई बन गई है. यह वाक्यांश उस दर्दनाक सत्य को उजागर करता है जहां मातापिता अपनी संपत्ति गिरवी रख कर या बैंक से लोन ले कर बच्चों को इंजीनियरिंग, मैडिसिन या एमबीए जैसी डिग्रियां दिलाते हैं, लेकिन स्नातक होने के बाद युवा बेरोजगारी या कम वेतन वाली नौकरियों में फंस जाते हैं. परिणामस्वरूप, लोन की किस्तें चुकाने का बोझ परिवार पर पड़ता है, और सपने टूट जाते हैं.

आज कल हर मातापिता अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं. इंजीनियरिंग में तो फिर भी अगर आईआईटी या एमएनआईटी में कठिन प्रतियोगिता के बाद भी प्रवेश नहीं मिला तो तमाम रास्ते निकल आते हैं. सरकारी सीटें भले ही अभ्यर्थी के अनुपात में कम हों, लेकिन प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज की फीस परिवार के बजट के अनुकूल होती है. ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं जब किसी छात्र का चयन आईआईटी में हो जाए और वह समय पर फीस न जमा कर सके, जैसा कि एक दलित छात्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दखल दे कर अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग करते हुए, आईआईटी धनबाद को निर्देश दिया कि वे छात्र को बीटेक कोर्स में प्रवेश दें और उसे उसी बैच में शामिल करें. लेकिन इस के उलट एमबीबीएस में सरकारी मैडिकल कालेजों में सीटें अभ्यर्थियों के अनुपात में बहुत कम होती है और प्राइवेट मैडिकल कॉलेजों की फीस एक करोड़ से ज्यादा होती है. जो आम भारतीय के बस की बात नहीं होती है. ऐसे में अभिभावक बच्चों को विदेश जार्जिया, रुस, बंग्लादेश, फिलिपिंस, उज़्बेकिस्तान, किर्गिस्तान, अर्मेनिया, ईरान, मलेशिया, चीन, बारबेडास आदि कम बजट वाले देशों में एमबीबीएस की डिग्री लेने भेजते हैं.

हांलांकि इन देशों का बजट भी कोर्स पूरा होने तक 25 से 55 लाख तक पहुंच जाता है. ऐसे में लोगों को बैंकों से लोन लेना पड़ता है. यहां तक तो ठीक है लेकिन विदेशी एमबीबीएस की डिग्री के बाद भारत में एफएमजीई (फ़ोरेन मैडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेशन) परीक्षा पास करना अनिवार्य होता है. जिस को सब के लिए पास करना मुश्किल होता है. एफएमजीई परीक्षा का उत्तीर्ण प्रतिशत हर बार अलगअलग होता है, लेकिन आम तौर पर यह कम रहता है.

उदाहरण के लिए, जून 2025 के एफएमजीई के लिए उत्तीर्ण प्रतिशत केवल 18.61% था, जिस में 36,034 उम्मीदवारों में से केवल 6,707 ही सफल हुए. कुल मिला कर, यह परीक्षा अपनी कठोरता और मजबूत चिकित्सा ज्ञान की आवश्यकता के कारण कठिन मानी जाती है, और सफलता दर अकसर 16% से 24% के बीच रहती है. हर साल इस में असफल बच्चों की संख्या भी जुड़ जाती है. एक बच्चे को एमबीबीएस की डिग्री के बाद केवल 3-4 अवसर का समय ही बच पाता है. भारत में हर साल ऐसे हजारों मैडिकल ग्रेजुएट रह जाते हैं जो एफएमजीई परीक्षा पास करने का अवसर खो देते हैं. फिर वह बिना मैडिकल काउंसिल में रजिस्ट्रेशन के कम वेतन पर छोटे या गांव के अस्पतालों में काम करने को मजबूर होते हैं. ऐसे वह लाखों रुपए का लोन और उस का ब्याज अदा नहीं कर पाते हैं. जिस से मातापिता को उन के कर्ज का बोझ उठाना पड़ता है.

आज देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था में शिक्षा लोन की मांग बढ़ रही है, लेकिन रोजगार की कमी इस निवेश को जोखिम भरा बना रही है. बैंक की ऊंची ब्याज दर और सरकार की अनदेखी से ये बड़ा जोखिम भी साबित हो रहा है.

शिक्षा लोन की वर्तमान स्थिति

भारत में उच्च शिक्षा की लागत लगातार बढ़ रही है, जिस के कारण शिक्षा लोन एक आवश्यकता बन गया है. आरबीआई की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष छात्र लोन का कुल कर्ज 90,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गया है, जिस में सालाना 15% की वृद्धि दर दर्ज की गई है. 2023-24 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने 28,699 करोड़ रुपये के शिक्षा लोन वितरित किए. अप्रैल से सितंबर 2024 तक बकाया शिक्षा लोन लगभग अरबों भारतीय रुपये तक पहुंच गया.

सन 2025 में शिक्षा लोन के रुझान बताते हैं कि विदेश में पढ़ाई के लिए लोन की मांग बढ़ रही है. एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2025 के अंत तक भारतीय छात्र विदेशी शिक्षा पर लगभग 70 अरब डौलर खर्च करेंगे. बाजार का आकार 130 अरब डौलर तक पहुंचने का अनुमान है, जिस में 12% की वार्षिक मुद्रास्फीति दर है. स्टेट बैंक औफ इंडिया जैसे बैंक विदेशी शिक्षा के लिए 9.15% से 11.65% की ब्याज दरों पर लोन प्रदान कर रहे हैं. हालांकि, ये लोन मुख्य रूप से मध्यम और निम्न वर्ग के परिवारों द्वारा लिए जाते हैं, जहां मातापिता गारंटर बनते हैं.

एक अध्ययन से पता चलता है कि शिक्षा लोन गरीब और एससी/एसटी समुदायों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं, लेकिन अनौपचारिक रूप से कुछ बैंक छात्रों से सुरक्षा मांगते हैं. ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब शिक्षा कर्ज के बोझ तले उम्मीदें दफ्न हो गई. लोगों की छत तक छिन गई और किराए के मकान में जिंदगी बसर करने के लिए विवश होना पड़ा. बिजनेस भी डूबते देखा है, लेकिन फिर मिडिल क्लास के लिए बच्चों की उच्च शिक्षा का सपना आज भी कर्ज ही है. इस में सरकार की भूमिका कहीं राहत भरी नहीं दिखाई देती है. सरकार धन कुबेरों, बड़े उद्योगपतियों और बड़े कर्जदार के लिए नियम बना कर राहत देती है यहां तक अरबों के कर्ज माफ भी हो जाते हैं. लेकिन शिक्षा कर्ज ले कर देश और समाज की सेवा करने का सपना देखने वालों के सपने आसानी से कुचल जाते हैं और किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती है. क्या यही दुरुस्त व्यवस्था है?

मध्य प्रदेश के रीवा शहर के एक परिवार ने बच्ची को यूक्रेन में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए लोन लिया था. रूस से जंग होने के बाद वहां से वापस आना पड़ा, अभी तक उस का और परिजनों का डाक्टर बनने का सपना पूरा नहीं हो सका है. कर्ज की किश्तों का बोझ अलग है.

युवा बेरोजगारी: सपनों का हत्यारा

शिक्षा लोन का उद्देश्य बेहतर रोजगार सुनिश्चित करना है, लेकिन भारत में युवा बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है. वैसे बेरोजगारी के अधिकृत आंकड़े अब कम ही उपलब्ध कराए जाते हैं. फिर भी एक आंकड़े के अनुसार जुलाई 2025 में बेरोजगारी दर 5.2% दर्ज की गई, जो जून से कम है. हालांकि, 15-24 वर्ष की आयु वर्ग में युवा बेरोजगारी दर 10.2% है, जो वैश्विक औसत 13.3% से कम है लेकिन अभी भी चिंताजनक है.

अप्रैल 2025 में 15-29 वर्ष के युवाओं में बेरोजगारी दर 13.8% थी, जिस में शहरी क्षेत्रों में 17.2% और ग्रामीण में 12.3%.पीएलएफएस (पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे) के जून 2025 के आंकड़ों से पता चलता है कि बेरोजगारी दर 5.6% तक बढ़ गई. मई 2025 में यह 5.6% थी, जो अप्रैल से बढ़ी. केरल जैसे राज्यों में युवा बेरोजगारी 25.7% तक है. तेजी से बढ़ती जनसंख्या, अपर्याप्त शिक्षा, कौशल की कमी, वित्तीय सीमाएं और प्रणालीगत मुद्दे इस के मुख्य कारण हैं. इस स्थिति में, डिग्रीधारी युवा या तो बेरोजगार रहते हैं या कम वेतन वाली नौकरियों में काम करते हैं, जिस से लोन चुकाना मुश्किल हो जाता है.

मातापिता पर पड़ने वाला प्रभाव

शिक्षा लोन का सब से बड़ा बोझ मातापिता पर पड़ता है, जो अकसर सह-आवेदक या गारंटर बनते हैं. यदि छात्र ईएमआई समय पर नहीं चुका पाता, तो मातापिता का क्रेडिट स्कोर प्रभावित होता है. बैंक आरबीआई से अनुरोध कर रहे हैं कि मातापिता के अन्य लोन डिफौल्ट होने पर शिक्षा लोन को एनपीए न माना जाए.

एक अध्ययन के अनुसार, लोन चुकाने का पैटर्न छात्रों या माता-पिता पर बोझ बन जाता है. हालांकि, लाभ भी हैं जैसे लोन पुस्तकालय शुल्क, प्रयोगशाला शुल्क, ट्यूशन, परीक्षा लागत, हौस्टल शुल्क आदि कवर करता है. मातापिता लोन के दौरान ब्याज भुगतान पर 1% की छूट पा सकते हैं यदि समय पर चुकाया जाए. फिर भी, कई परिवार कर्ज के जाल में फंस जाते हैं. सूदखोरों से उधार लेना आसान लगता है, लेकिन उच्च ब्याज दरें (बैंकिंग विशेषज्ञों के अनुसार) स्थिति बिगाड़ देती हैं. मध्यम वर्ग का जाल यही है जहां कमाई बढ़ाने की बजाय खर्च बढ़ जाते हैं.

इस समस्या के कारण

शिक्षा की गुणवत्ता और कौशल की कमी, कई कालेज डिग्री तो देते हैं, लेकिन बाजार की मांग के अनुरूप कौशल नहीं. परिणामस्वरूप, स्नातक रोजगार योग्य नहीं होते. रोजगार बाजार की स्थिति, तेज आर्थिक विकास के बावजूद नौकरियां सीमित हैं. आईएलओ के अनुसार, युवा बेरोजगारी वैश्विक समस्या है, लेकिन भारत में जनसंख्या दबाव अधिक है. उच्च शिक्षा लागत, निजी कालेजों में फीस लाखों में है, जिस से लोन अनिवार्य हो जाता है. सामाजिक दबाव, मातापिता बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर बनाने के लिए कर्ज लेते हैं, बिना बाजार की वास्तविकता पर विचार किए.

समाधान के रास्ते

ऐसा नहीं है कि इस के समाधान के रास्ते भी हैं. इस के लिए कौशल-आधारित शिक्षा सरकार और संस्थान व्यावहारिक कौशल पर जोर दें, जैसे वोकेशनल ट्रेनिंग. सरकारी योजनाएं शिक्षा लोन पर सब्सिडी बढ़ाएं, जैसे मेरिटोरियस छात्रों के लिए कोलेटरल-फ्री लोन. रोजगार सृजन के लिए स्टार्टअप और एमएसएमई को प्रोत्साहन दे कर नौकरियां बढ़ाएं. वित्तीय साक्षरता के लिए मातापिता और छात्रों को लोन के जोखिमों के बारे में शिक्षित करें.

यदि मातापिता फीस वहन कर सकते हैं, तो लोन सोचसमझ कर लें. साथ ही विकल्प के तौर पर स्कौलरशिप और पार्ट-टाइम जौब्स को प्रोत्साहित करें. भारतीय समाज में शिक्षा को हमेशा से ही जीवन की आधारशिला माना जाता है. मातापिता अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हर संभव प्रयास करते हैं, जिस में कर्ज ले कर उन्हें उच्च शिक्षा दिलाना भी शामिल है. लेकिन आज की वास्तविकता यह है कि “कर्ज ले कर बच्चे पढ़ाए, पर कमाई कोरी” जैसी स्थिति कई परिवारों की सच्चाई बन गई है.

यह वाक्यांश उस दर्दनाक सत्य को उजागर करता है जहां मातापिता अपनी संपत्ति गिरवी रख कर या बैंक से लोन ले कर बच्चों को इंजीनियरिंग, मैडिसिन या एमबीए जैसी डिग्रियां दिलाते हैं, लेकिन स्नातक होने के बाद युवा बेरोजगारी या कम वेतन वाली नौकरियों में फंस जाते हैं. परिणामस्वरूप, लोन की किस्तें चुकाने का बोझ परिवार पर पड़ता है, और सपने टूट जाते हैं. बेशक “कर्ज ले कर बच्चे पढ़ाए, पर कमाई कोरी” की स्थिति भारतीय परिवारों के लिए एक चेतावनी है. शिक्षा निवेश है, लेकिन बिना योजना के यह बोझ बन सकती है.

2025 में, जब अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, तो शिक्षा और रोजगार के बीच की खाई को पाटना जरूरी है. मातापिता को सतर्क रहना चाहिए, और सरकार को नीतियां बनानी चाहिए ताकि शिक्षा सपनों को साकार करे, न कि कर्ज का जाल बने. युवा बेरोजगारी अभी भी एक चुनौती है.

मातापिता को सतर्क रहना चाहिए, और सरकार को नीतियां बनानी चाहिए ताकि शिक्षा सपनों को साकार करे, न कि कर्ज का जाल बने. शिक्षा और कमाई अलग नहीं हैं सही दिशा में प्रयास से दोनों संभव हैं. Education Loan

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