Indian Film Censorship : भारतीय फिल्में जब जाति, धर्म या सामाजिक न्याय जैसे संवेदनशील मुद्दों को छूती हैं तो सैंसर बोर्ड की भूमिका विवादों के केंद्र में आ जाती है. हाल के वर्षों में ‘फुले’, ‘संतोष’, ‘धड़क 2’ और ‘चल हल्ला बोल’ जैसी फिल्मों को सैंसरशिप या प्रतिबंध का सामना करना पड़ा, जबकि हिंसा और अश्लीलता से भरपूर फिल्में आसानी से प्रमाणन पा जाती हैं. यह सैंसर बोर्ड का राजनीतिकरण है. ऐसे में क्या फिल्म इंडस्ट्री को अपनी स्वयं की प्रमाणन व्यवस्था बनानी चाहिए?
हालिया रिलीज करण जौहर निर्मित फिल्म ‘धड़क 2’ सैंसर के चंगुल से बालबाल बची. सैंसर बोर्ड ने इस फिल्म को लंबे समय तक लटका कर रखा और उस वक्त कई संवाद व कई दृश्यों पर कैंची चलने की संभावनाओं की बात होती रही.
फिल्म की कहानी के अनुसार एक दलित लड़का अपने कालेज की ब्राह्मण लड़की से प्रेम करने लगता है. लड़की ही सब से पहले उस का साथ देती है. दोनों बांहों में बांहें डाल घूमने से ले कर चुंबन तक करते मिल जाते हैं. निश्चित रूप से यह फिल्म खासतौर पर तथाकथित उच्च जाति के अनेक लोगों की भावनाओं को आहत करती है. फिल्म का कथानक इसी तरह की भावनाओं को उभारता है.
ब्राह्मण लड़की अपनी बड़ी बहन की शादी में इस दलित लड़के को भी निमंत्रित करती है तब समारोह के बीच लड़की का पिता इस दलित लड़के को कोने में ले जा कर सम?ाता है कि उसे उन की बेटी से दूर रहना चाहिए. तभी लड़की का चचेरा भाई और उस के दोस्त वहां पहुंच कर इस लड़के की जबरदस्त पिटाई करने के साथ ही उन में से एक लड़का, इस दलित जाति के लड़के पर पेशाब भी कर देता है.
इस दृश्य को दिखाने के लिए रजामंदी देना सैंसर बोर्ड के लिए आसान तो नहीं रहा होगा. मगर करण जौहर अपने तरीके से लड़ाई लड़ इस सीन को सैंसर बोर्ड से पास करवाने में सफल रहे. फिल्म की रिलीज के बाद इस की निर्देशक शाजिया इकबाल जरूर अपने इंटरव्यू में सैंसर के सवाल पर बचती नजर आती हैं. मगर फिल्म रिलीज होने से पहले ही मीडिया में वह जानकारी आ गई थी जिस में सैंसर बोर्ड ने निर्माता को फिल्म के कुछ दृश्यों व संवादों पर कट लगाने या बदलाव करने के सुझाव दिए थे. लेकिन निर्देशक यह बता कर बात को बढ़ाना नहीं चाहतीं कि उन्होंने कितने कट या बदलाव स्वीकार किए.
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड, जो पहले सैंसर बोर्ड के नाम से जाना जाता था, बौलीवुड फिल्मों में हिंसा, कामुकता, राजनीति या धार्मिक संवेदनशीलता सहित अनुचित समझ जाने वाली सामग्री के लिए कटौती को लागू करता है. वर्ष 1952 में यह इसी मकसद से अस्तित्व में आया था. इस से अकसर रचनात्मक समझते, कलात्मक स्वतंत्रता के बारे में गरमागरम बहस और कभीकभी वांछित प्रमाणन रेटिंग को बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण संशोधन होते हैं. लेकिन पिछले डेढ़दो वर्षों से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सैंसर बोर्ड की कार्यशैली में संतुलन नजर नहीं आ रहा है.
सैंसर बोर्ड अब जातिगत मुद्दों व नीची जाति के इर्दगिर्द घूमने वाली कहानियों पर कुछ ज्यादा ही कड़क हो गया है. फिर चाहे वह महात्मा ज्योतिबा फुले के जीवन पर बनी फिल्म ‘फुले’ हो अथवा अंतरजातीय प्रेम कहानी बयां करने वाली करण जौहर निर्मित फिल्म ‘धड़क 2’ हो या फिल्म ‘संतोष’ ही क्यों न हो. ‘संतोष’ को तो बैन ही कर दिया गया.
दूसरी तरफ पिछले डेढ़दो वर्षों के दौरान फिल्मों में हिंसा, खूनखराबा, गालीगलौच व सैक्स युक्त दृश्यों की बहुतायत हो गई है, मसलन ‘किल’, ‘स्त्री 2’, ‘छावा’, ‘केसरी वीर’ मलयालम फिल्म ‘एल 2: इम्पूरन’ इत्यादि.
ऐसा लगता है कि सैंसर बोर्ड को अब सामाजिक हिंसा से कोई परहेज नहीं है लेकिन वह जातिगत भेदभाव, जो हर स्तर पर फैला है, को उजागर करने वाली और पोल खोलने वाली फिल्मों को परदे पर नहीं आने देता. सामाजिक हिंसा आज धर्म का अहम हिस्सा बन चुकी है और आएदिन विधर्मियों की लिंचिंग, औनरकिलिंग, पुलिस एनकाउंटर, कस्टोडियल किलिंग और टौर्चर किए जाने के समाचार अखबारों के कोनों में एक कौलम में छोटी हेडिंगों में दिख जाएंगे. धर्मनिष्ठ टीवी चैनल उस की बात नहीं करते.
सिनेमा को लंबे समय से समाज के लिए प्रवचनों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचारपत्रों के बाद एक शक्तिशाली दर्पण के रूप में देखा जाता रहा है, जो इस माध्यम के मूल्यों, असुविधाओं, आकांक्षाओं और जटिलताओं को दर्शाता है.
जब फिल्में जाति जैसी गहरी सामाजिक समस्याओं में उतरती हैं तो वे अकसर खुद को कला और विवाद के चौराहे पर पाती हैं. ‘फुले’, ‘संतोष’ या ‘चल हल्ला बोल’ पर लोगों को भड़काने के भी आरोप लगे पर अहम सवाल यह है कि क्या भड़काने से बचना या सुरक्षा करना फिल्म निर्माता की जिम्मेदारी है कि स्क्रीन पर सच बताना भड़काऊ माना जा सकता है भले ही वह वास्तविक इतिहास से लिया गया हो?
सैंसर बोर्ड को सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 और सिनेमेटोग्राफ (सर्टिफिकेशन) रूल्स 1983 के तहत काम करना चाहिए. हमेशा ही सैंसर बोर्ड से जाति और सामाजिक न्याय से संबंधित फिल्मों को काफी विरोध का सामना करना पड़ा है. कुछ मामलों में तो फिल्मों पर सीधा प्रतिबंध लगा दिया गया या उन की कड़ी जांच की गई.
जब आज गहराई में जा कर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के इन निर्णयों पर गौर करें तो पाते हैं कि सैंसर बोर्ड एक खास राजनीतिक दल के फिल्मकार के प्रति अतिलचीला नजरिया अपनाते हुए उन की फिल्मों को प्रमाणपत्र दे रहा है. ऐसी फिल्मों में कहानी की मांग न होते हुए भी देवीदेवताओं व हिंदू धर्म का बेवजह महिमामंडन होता है मगर अतिरंजित हिंसा व खूनखराबा परोसे जाने वाली फिल्मों को अछूता छोड़ा जा रहा है.
इतना ही नहीं, ‘छावा’ जैसी फिल्में तो देश के ज्ञात इतिहास को भी नए रूप में पेश कर रही हैं. हम सभी जानते हैं कि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसे सच मान कर हर बच्चा व युवा प्रभावित होता है.
इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय सिनेमा आज की पढ़ाई के खोखले ज्ञान से निकल कर आए युवाओं के लिए प्रभाव का एक बड़ा स्रोत है. वे जानबू?ा कर इसी ज्ञान, दुराज्ञान कहें तो अच्छा है, को अपना आदर्श मानते हैं और अपने दैनिक जीवन में इसे अंतिम सत्य की तरह शामिल करते हैं.
किशोर ज्यादातर फिल्म में दिखाए गए ऐक्शन, हिंसा और अश्लील दृश्यों से प्रेरित होते हैं, जिन्हें वे सच मानते हैं. औरतें और युवतियां, खासतौर पर जिन का बाहरी ज्ञान कम होता है, बहुत हद तक प्रभावित होती हैं.
आज की नई पीढ़ी किताबें पढ़ने में यकीन नहीं करती है. वह फिल्म में ही परोसे गए गलतसलत इतिहास को सौ प्रतिशत सच मान लेती है. इस से भारतीय समाज का कितना बड़ा नुकसान हो रहा है, इस का एहसास किया जा सकता है. लेकिन यहां तो सब की आंखें बंद हैं. ऐसे में यह जांचना अनिवार्य हो जाता है कि क्या बनाया गया है और क्या दिखाया गया है.
स्वायत्तता पर उठते सवाल
यों तो 1918 से ही सैंसर बोर्ड का उपयोग शासक या सरकारें अपने हिसाब से करती रही हैं पर यह प्रतिशत न के बराबर रहा है. मगर कांग्रेस सरकार के बाद आई सरकार का रुख सिनेमा के प्रति नरम होने के बजाय कठोर होता गया.
4 अप्रैल, 2021 को केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय ने अध्यादेश जारी कर सिनेमेटोग्राफी एक्ट में बदलाव के साथ ही एफसीएटी को ही खत्म कर दिया. तभी से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का राजनीतिकरण हो गया, ऐसा कहा जा सकता है खासतौर पर यह देखते हुए कि सरकार द्वारा गठित पिछली विशेषज्ञ समितियों (जस्टिस मुद्गल समिति और श्याम बेनेगल समिति) ने एफसीएटी को समाप्त करने की नहीं, बल्कि इस का विस्तार करने और इसे सशक्त बनाने की सिफारिश की थी.
सरकार ने फिल्म उद्योग व फिल्म इंडस्ट्री के हितधारकों से बिना किसी तरह का परामर्श किए अध्यादेश के माध्यम से जब एफसीएटी को खत्म किया तो इस का फिल्म इंडस्ट्री की तरफ से विरोध हुआ था. एफसीएटी के खत्म होने के बाद सैंसर बोर्ड के निर्णय से असहमत होने पर अब फिल्म निर्माताओं के पास उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.
किसी भी फिल्म निर्माता के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना आसान नहीं है, क्योंकि फिल्म निर्माता को तो प्रतिदिन बढ़ रहे ब्याज की चिंता सता रही होती है तो दूसरी तरफ निर्माता को शंका रहती है कि क्या एफसीएटी की तरह उच्च न्यायालय में उन का केस फिल्म तकनीक व रचनात्मकता की समझ रखने वाली टीम सुनेगी? यही वजह है कि महेश भट्ट और श्याम बेनेगल सहित तमाम फिल्मकारों ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को खत्म कर इसे फिल्म इंडस्ट्री के हाथों में सौंपने की मांग की पर उन की बात कौन सुनता, जब बौलीवुड की एकजुटता खत्म हो गई हो और बौलीवुड दो खेमों में बंट चुका हो.
एफसीएटी को खत्म करने के साथ ही यह नियम भी बन गया कि सैंसर बोर्ड से पारित किसी फिल्म के रिलीज के बाद यदि समाज के किसी वर्ग से विरोध आया तो फिल्म का प्रदर्शन रोक कर सैंसर बोर्ड उस फिल्म को दोबारा सैंसर करेगा. 2025 में केरल में ऐसा 2 फिल्मों के साथ किया जा चुका है. अब तो देखा जा रहा है कि किसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट को दी गई विशेष शक्तियों का इस्तेमाल अब उन अभिनेताओं के खिलाफ हथियार के रूप में किया जा रहा है जो उस क्षेत्र की सत्तारूढ़ पार्टी के लिए खड़े नहीं होते हैं.
2019 में नरहरि गरासिया ने आरोप लगाते हुए कहा था, ‘‘सीबीएफसी पूरी तरह से स्वायत्त नहीं है और स्थिति के अनुसार पदानुक्रम और राजनीतिक प्रभावों के दबाव में काम करता है और सैंसरशिप फिल्म निर्माताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा डालती है.’’
कुछ लोगों का तर्क है कि इस का उपयोग विशिष्ट विचारधाराओं को बढ़ावा देने और असहमतिपूर्ण आवाजों को दबाने के लिए किया जाता है. जाति, धर्म और भेदभाव की पोल खोलने वाली फिल्मों की असंगत रूप से जांच कर उन्हें रोकने के आरोप लग रहे हैं, जबकि अतिराष्ट्रवादी या सनसनीखेज हिंसा प्रधान फिल्मों को नरमी के साथ पारित किए जाने के आरोप लग रहे हैं अगर उन में कोई लोकप्रिय नारेबाजी जोड़ दी जाए.
मसलन, मोहनलाल की मलयालम फिल्म ‘एल2 : एम्पूरन’ को सैंसर बोर्ड के त्रिवेंद्रम कार्यालय ने पारित कर दिया और फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज भी हो गई जबकि इस में गुजरात में 2002 में हुए हिंदूमुसलिम दंगों का जिक्र और हिंसा प्रधान दृश्यों की भरमार है. बाद में भाजपा की तरफ से इस का विरोध किए जाने पर 3 दिनों बाद फिल्म की रिलीज स्थगित कर नए सिरे से सैंसर की गई.
मोहनलाल ने जनता के सामने आ कर माफी मांगते हुए कहा कि उन्होंने कथित ऐतिहासिक संदर्भों पर राजनीतिक आपत्तियों के कारण कट और बदलाव कर दिए हैं. इतना ही नहीं, सैंसर बोर्ड की कार्रवाई के बाद फिल्म के निर्माताओं के यहां ईडी के भी छापे पड़े. 2002 के दंगे चुनाव जिताने के लिए एक बड़ा खजाना रहे हैं.
फिल्म ‘फुले’ पर लगा जातिवाद को बढ़ाने का आरोप
हम आगे बढ़ें उस से पहले कुछ नए विवादों की बात कर लें. 2025 में सब से बड़ा विवाद हुआ फिल्म ‘फुले’ को ले कर. फिल्म ‘फुले’ पर जातिवाद को बढ़ाने का आरोप लगा और सैंसर बोर्ड ने संवादों को संशोधित करने या बदलने के लिए कहा. पहला, ‘शूद्रों को… झाड़ू बांध कर चलना चाहिए’ इस की जगह पर ‘सब से दूरी बना के रखनी चाहिए’, दूसरा, ‘3000 साल पुरानी… गुलामी’ की जगह ‘कई साल पुरानी’, 43 सैकंड का एक संवाद ‘यहां 3 एम हैं और हम वही करने जा रहे हैं’ को हटाया जाए. फिल्म के एक दृश्य में ब्राह्मण लड़का, सावित्री फुले के चेहरे पर गोबर व कीचड़ फेंकता है, इसे हटाया जाए. महार, पेशवाई, मांग जैसे शब्दों को हटाना, जाति व्यवस्था से शूद्रों की दुर्दशा का वौयसओवर हटाया जाए वगैरह. कुछ लोगों ने इस कदम को इतिहास को दबाने और दलित बहुजन की कहानी को कमजोर करने की साजिश बताया.
हालांकि ये मामूली बदलाव लग सकते हैं लेकिन इन के गहरे निहितार्थ हैं. ‘जाति’ की जगह ‘वर्ण’ रखना कोई शब्दार्थ परिवर्तन नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक बदलाव है. यह फुले की विरासत को कमजोर करता है, जो जाति आधारित उत्पीड़न के खिलाफ उन के आजीवन संघर्ष में निहित थी. उस वास्तविकता को दरकिनार करना सिर्फ ऐतिहासिक संशोधनवाद नहीं है, उसे मिटाना है.
‘संतोष’ को किया गया बैन
सैंसर बोर्ड ने विश्व स्तर पर सराही गई और औस्कर के लिए यूके की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुनी गई फिल्म ‘संतोष’ को भी नहीं बख्शा, जिसे भारत में फिल्माया गया और जिस में भारतीय कलाकारों ने ही अभिनय किया है. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) की आपत्तियों के कारण इसे भारत में रिलीज नहीं किया जा सका. यह फिल्म भी जातिवाद की बात करती है. फिल्म में एक निचली जाति के हवलदार की हत्या हो जाने पर उस की पत्नी को नौकरी मिल जाती है और फिर एक जातिगत अत्याचार की जांच में वह रुचि लेती है, यह सब सैंसर बोर्ड को अखर गया और फिल्म पर प्रतिबंध ही लग गया.
ब्रिटिश-भारतीय फिल्म निर्माता संध्या सूरी द्वारा निर्देशित ‘संतोष’ एक विधवा दलित महिला की कहानी बताती है जो पुलिस बल में शामिल होती है और वह एक अन्य दलित लड़की के बलात्कार व हत्या की जांच करती है. यह फिल्म जाति आधारित हिंसा, स्त्रीद्वेष और संस्थागत इसलामोफोबिया की पड़ताल करती है. ये ऐसे मुद्दे हैं जो भारतीय समाज में गहराई से जड़ जमाए हुए हैं. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि विदेशों में स्वीकार की जाने वाली कहानियों पर अकसर घर में चुप्पी क्यों?
‘चल हल्ला बोल’
प्रख्यात दलित कवि, लेखक, विचारक और दलित पैंथर्स आंदोलन के संस्थापक दिवंगत नामदेव ढसाल से प्रेरित फिल्म ‘चल हल्ला बोल’ भी सैंसर बोर्ड की आपत्तियों के कारण अटक गई है. फिल्म निर्माता व लेखक महेश बंसोड़े ने लोगों के योगदान से यह फिल्म बनाई है. बंसोड़े कहते हैं, ‘‘फिल्म ‘चल हल्ला बोल’ को भारत और विदेशों में 252 फिल्म समारोहों में दिखाया व पुरस्कृत किया गया. अब तक इस ने 32 पुरस्कार जीते हैं पर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड इसे प्रमाणपत्र देने को तैयार नहीं.’’
सैंसर बोर्ड : शुरुआत और स्वतंत्रता के बाद बदलाव
भारत में फिल्म सैंसरशिप की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान 1918 के सिनेमेटोग्राफ अधिनियम के लागू होने के बाद हुई थी और फिल्मों को केवल सख्त सत्यापन और प्रमाणन के बाद ही प्रदर्शित किया जाता था. ब्रिटिश शासक इस बात पर दृढ़ थे कि सिनेमा को उन के औपनिवेशिक हितों की सेवा करनी चाहिए. संबंधित प्रांत में फिल्म के प्रदर्शन को रद्द करने के लिए संबंधित राज्य या जिले के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस आयुक्त को प्रमुख शक्तियां वितरित की गई थीं.
वर्ष 1918 के सैंसरशिप अधिनियम से पहले भारतीय दंड संहिता और सीआरपीसी अधिनियम के मार्गदर्शन में फिल्म निर्माताओं के पास पूरी स्वतंत्रता थी. शुरुआती सैंसर बोर्ड आज के कोलकाता, चेन्नई, मुंबई और लाहौर में स्थापित किए गए थे, जिन में पुलिस आयुक्त, सीमा शुल्क कलैक्टर, भारतीय शैक्षिक सेवाओं के सदस्य और महत्त्वपूर्ण समुदायों के 3 मान्यताप्राप्त नागरिक शामिल थे. सैंसर बोर्ड नग्नता, नशे की हालत में महिलाओं के चित्रण, भावुक प्रेम के प्रति संवेदनशील था.
ब्रिटिश शासकों ने अपने वास्तविक, यानी राजनीतिक इरादों को छिपाने के लिए दर्शकों की सुरक्षा और अपमानजनक या नैतिक प्रदर्शनों की रोकथाम को प्राथमिकता दी. आजादी के बाद इस विरासत को आगे बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, लेकिन नए भारत की सरकारों ने फिल्म सैंसरशिप की व्यवस्था को बरकरार रखा जिस से यह बात उजागर होती है कि नए भारत का उभरता नेतृत्व का बहुमत फिल्म मनोरंजन के साथ नरमी से पेश आने के विचार के खिलाफ था.
उन्होंने इसे हानिकारक पश्चिमी प्रभाव से जोड़ा जिसे खत्म करने या कम से कम रोकने की जरूरत की बात की. उन के कार्यों और कथनों ने पर्याप्त संकेत दिए कि स्वतंत्रता के बाद इस देश में फिल्मों के प्रदर्शन से संबंधित मामलों में नैतिकता और व्यवहार के सिद्धांतों की पवित्रता ‘जैसा कि हमारे पूर्वजों ने निर्धारित किया है’ बारबार लागू की जाएगी.
अफसोस कि उपनिवेशवाद के बाद के युग में सैंसरशिप मशीनरी के संभावित उपयोग के लिए एक और भी महत्त्वपूर्ण संकेत था. नौकरशाही एक सख्त कोड सैंसरशिप को अपनाने के लिए पूरी तरह से तैयार थी. उन्होंने उस दौर की भारतीय फिल्मों में ‘बहुत अधिक तुच्छता’ की शिकायत की और मनोरंजन व शिक्षा के माध्यम के रूप में उन के दावे को सही ठहराने के लिए नैतिकता के अधिक कठोर मानक का पालन करने की मांग की.
जनवरी 1951 में तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री आर बी दिवाकर ने केंद्रीय फिल्म सैंसर बोर्ड को ‘स्वस्थ मनोरंजन, राष्ट्रीय संस्कृति और जन शिक्षा के प्रभावी माध्यम के मौडल के लिए एक सम्मानजनक प्रयास’ के रूप में स्थापित करने के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की. आखिरकार सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का गठन किया गया, जिस में 1983 में कुछ संशोधन किए गए.
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड में कौन
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का मुख्यालय मुंबई में है लेकिन इस के दिल्ली, कोलकाता, त्रिवेंद्रम, चेन्नई, हैदराबाद, बेंगलुरु आदि शहरों में क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड में एक सीईओ होता है जोकि एक आईएएस अफसर होता है, जिसे केंद्र सरकार ही नियुक्त करती है. जब कोई फिल्म निर्माता केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के खिलाफ अदालत जाता है तो सैंसर बोर्ड की तरफ से अदालत में फिल्म का परीक्षण करने वाली कमेटी के सदस्य, बोर्ड मैंबर या चेयरमैन के बजाय केवल सीईओ वकील के साथ जाता है.
सीईओ के नीचे चेयरमैन होता है. इस की नियुक्ति भी केंद्र सरकार ही करती है पर 1952 से अब तक चेयरमैन के पद पर सदैव फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा इंसान ही बैठता रहा है.
अगस्त 2017 से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन पद पर प्रसून जोशी आसीन हैं, जोकि मशहूर फिल्म गीतकार व पटकथा लेखक हैं. अब तक चेयरमैन का कार्यकाल 3 वर्ष का होता रहा है लेकिन प्रसून जोशी पिछले 9 वर्षों से इस पद पर आसीन हैं. प्रसून जोशी कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कविताएं लिख चुके हैं.
इस के बाद 18 बोर्ड मैंबर होते हैं, जिन की नियुक्ति केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय ही करता है.
इन दिनों केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्यों में मुंबई से फिल्म अभिनेत्री विद्या बालन, रंगकर्मी, अगस्त 2013 से सितंबर 2018 तक एनएसडी के निदेशक रहे वामन केंद्रे, फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्माता व निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री, खास दल से अपरोक्ष रूप से जुड़े हुए नाटककार व लेखक मिहिर भुता, आरआरएस कार्यकर्ता व मराठी साप्ताहिक ‘विवेक’ के संपादक रमेश पतंगे, चेन्नई से गौतमी तदीमाला, दिल्ली से अभिनेत्री व भाजपा की पूर्व महिला अध्यक्ष वाणी त्रिपाठी टिक्कू, हैदराबाद से जीविता राजशेखर, बेंगलुरु से टी एस नागाभरना, पोर्ट ब्लेयर से नरेश चंद्र लाल आदि शामिल हैं.
कितना निष्पक्ष सीबीएफसी
बोर्ड मैंबर कितना निष्पक्ष हो कर रचनात्मक स्वतंत्रता का साथ देते हैं, इस का दावा कोई नहीं कर सकता. इस के बाद हर कार्यालय में फिल्म सैंसर करने यानी कि फिल्म परीक्षण समिति के 180 सदस्य होते हैं. ये समाज के हर क्षेत्र से जुड़े यानी कि कला जगत, पत्रकार, कलाकार, फिल्म इंडस्ट्री, थिएटर, प्रोफैसर, शिक्षाविद वगैरह होते हैं. इन की नियुक्ति भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ही करता है. कहीं भी उद्योग की कोई राय नहीं ली जाती.
एक फिल्म की परीक्षण समिति में इन्हीं 180 में से 4 सदस्य चुने जाते हैं और इन की मदद के लिए एक सरकारी अफसर मौजूद रहता है. सैंसर बोर्ड के हर कार्यालय में 8 से 10 अफसर होते हैं, जिन्हें फिल्म की समझ होती है या नहीं, इस का दावा नहीं किया जा सकता पर ये डैप्युटेशन पर आतेजाते रहते हैं. कार्यालय का सारा काम इन्हीं के कंधों पर रहता है.
परीक्षण समिति के निर्णयों से असहमत होने पर फिल्म निर्माता रिवाइजिंग कमेटी के सामने जा सकता है. अब यहां पर बोर्ड मैंबर जुड़ता है.
हर रिवाइजिंग कमेटी में 8 सदस्यों के साथ एक बोर्ड मैंबर बैठ कर फिल्म देखता है और फिर यह रिवाइजिंग कमेटी अपना निर्णय देती है. रिवाइजिंग कमेटी के निर्णय से असहमत होने पर फिल्म निर्माता के सामने अब उच्च न्यायालय का दरवाजा खखटाने के अलावा विकल्प नहीं.
जबकि 4 अप्रैल, 2021 से पहले फिल्म निर्माता एफसीएटी यानी कि न्यायालयीन प्राधिकरण में जा सकता था. एफसीएटी दिल्ली में हुआ करता था. इस के चेयरमैन रिटायर सुप्रीम कोर्ट जज होते थे. उन के अधीन 2 बोर्ड मैंबर और 16 सदस्य बैठ कर फिल्म देख कर निर्णय लेते थे पर अफसोस कि सरकार ने एक अध्यादेश ला कर 4 अप्रैल, 2021 को एफसीएटी का खात्मा कर दिया.
कहने को फिल्म का मूल्यांकन उस के समग्र प्रभाव के दृष्टिकोण से किया जाता है. फिल्म में दर्शाए गए काल और देश तथा लोगों के समकालीन मानकों के प्रकाश में जांच की जाती है, जिस से फिल्म संबंधित है.
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड या उस की फिल्म परीक्षण समिति खुद किसी भी फिल्म के किसी संवाद या दृश्य पर कैंची नहीं चलाती. वह तो केवल गाइडलाइंस का पालन ठीक से हुआ है या नहीं, उस का परीक्षण कर प्रमाणपत्र की सिफारिश करती है.
क्या कहते हैं सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 और सिनेमेटोग्राफ (सर्टिफिकेशन) रूल्स 1983 सिनेमा रचनात्मक माध्यम है. इसलिए सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 और सिनेमेटोग्राफ (सर्टिफिकेशन) रूल्स 1983 द्वारा ठोस नियम नहीं बनाए गए हैं, बल्कि फिल्म का सार्वजनिक प्रसारण होने पर समाज, राज्य व देश के अंदर हालात न बिगड़ें, इस के लिए कुछ गाइडलाइंस हैं. उन गाइडलाइंस का पालन हर फिल्मकार के लिए करना आवश्यक होता है. हम यहां याद दिला दें कि सैंसर बोर्ड खुद कैंची ले कर नहीं बैठता और न ही सैंसर बोर्ड किसी दृश्य को काटता है.
सैंसर बोर्ड की 4 सदस्यीय परीक्षण समिति केवल इस बात को परखती है कि फिल्मकार ने गाइडलाइंस का पालन करते हुए फिल्म का निर्माण किया है या नहीं और उन गाइडलाइंस के अनुसार ही परीक्षण समिति फिल्म को ‘यू’ या ‘यूए’ या ‘ए’ प्रमाणपत्र की सिफारिश करती है.
अगर परीक्षण समिति किसी फिल्म के लिए ‘ए’ प्रमाणपत्र की सिफारिश करती है तो वह स्पष्ट रूप से फिल्मकार को बताती है कि ऐसा किन दृश्यों या संवादों के कारण है. निर्माता अपनी फिल्म को ‘ए’ प्रमाणपत्र के साथ रिलीज नहीं करना चाहता तो निर्माता व निर्देशक स्वयं आपत्तिजनक दृश्य व संवाद काट कर अपनी फिल्म के लिए ‘यू’ या ‘यूए’ प्रमाणपत्र ले लेता है. इतना ही नहीं, परीक्षण समिति अंतिम निर्णय पर पहुंचने से पहले उस के सभी चारों सदस्य आपस में विचारविमर्श करते हैं, उस के बाद यह समिति फिल्म के निर्देशक को वस्तुस्थिति बताती है.
फिल्म के निर्माता या निर्देशक को लगता है कि परीक्षण समिति उन की फिल्म के दृश्य, संवाद की रचनात्मक स्तर पर जरूरत को समझ नहीं पा रही है तो फिल्मकार के पास विकल्प होता है कि वह परीक्षण समिति को बताए कि उस दृश्य या संवाद को रखने के पीछे उस की सोच या मंशा क्या है और वह उस की फिल्म के कथानक के अनुसार कितना आवश्यक है. अगर परीक्षण समिति संतुष्ट हो जाती है, तब सारी समस्या हल हो जाती है.
अटपटी हैं गाइडलाइंस
यह व्यवस्था कितनी सरल व स्पष्ट है. इस के बावजूद विवाद पैदा होते हैं. आखिर क्यों? तो इस के मूल में गाइडलाइंस हैं. जी हां, इस तरह के विवाद तब पैदा होते हैं जब एक ही दृश्य या एक ही संवाद को ले कर गाइडलाइंस में कही गई बातों की व्याख्या फिल्म, फिल्मकार और परीक्षण समिति के चारों सदस्य अलगअलग करते हैं. मसलन, फिल्म में ज्सादा हिंसा या खूनखराबा नहीं होना चाहिए.
अहम सवाल यह है कि ज्यादा मतलब कितना? परीक्षण समिति के एक सदस्य की सोच व समझ के अनुसार 2 थप्पड़ मारना भी हिंसा हो सकती है. चार बंदूकधारी 10 लोगों की हत्या कर दें पर यदि कहानी गैंगस्टर की है तो ज्यादा हिंसा में वह नहीं गिना जा सकता.
फिल्म ‘एनिमल’ के निर्देशक के अनुसार रणबीर कपूर द्वारा मशीनगन से 300 लोगों को गोलियों से भून देना भी हिंसा नहीं है. इसलिए इसे सैंसर प्रमाणपत्र मिल गया था, मतलब कि निर्देशक ने परीक्षण समिति को अपना जवाब दे कर संतुष्ट किया होगा.
कई बार फिल्म निर्माता अपनी फिल्म को विवाद में ला कर मुफ्त का प्रचार पाने के लिए जानबूझ कर गाइडलाइंस का उल्लंघन करते हैं और फिर शोरशराबा करते हैं. गाइडलाइंस में साफ लिखा है कि ‘चमार’ या अन्य जातिसूचक शब्दों का उपयोग नहीं किया जा सकता पर करण जौहर ने अपनी फिल्म ‘धड़क 2’ में इन शब्दों का उपयोग किया और महज परीक्षण समिति ने इस पर आपत्ति जताई तो करण जौहर ने इसे ही प्रचार का मुख्य मुद्दा बना लिया.
हालांकि, करण जौहर कहीं यह नहीं कहते कि उन्होंने गाइडलाइंस का जानबू?ा कर उल्लंघन किया. गाइडलाइंस कहती हैं कि महिला का अपमान न हो. अब कहानी और सिचुएशन के अनुसार एक महिला का अपमान एक गाली से या एक थप्पड़ या फिर 10 थप्पड़ से हो सकता है और नहीं भी हो सकता.
साल 1952 में जब केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का गठन हुआ था तो यह जो सारी प्रकिया है, उसे देखते हुए तो यह बहुत ही पारदर्शी मसला नजर आता है. इस के बावजूद विवाद पैदा होने या सैंसर बोर्ड की कार्यशैली पर उंगली उठने की मूल वजह अलगअलग इंसान द्वारा गाइडलाइंस को अपनी समझ या अपने हित के अनुसार परिभाषित करना है.
शुरू से परीक्षण समिति के सदस्य सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ही चुनता रहा है. आज भी वही प्रणाली है पर अब 90 प्रतिशत सदस्य सनातन धर्म अथवा एक खास राजनीतिक दल का खुलेआम समर्थन करने वाले लोग ही हैं, फिर चाहे वे पत्रकार हों, कलाकार हों या फिल्म निर्देशक ही क्यों न हों.
अब यदि फिल्म का विषय मनोविज्ञान पर आधारित है और फिल्म परीक्षण समिति में क्राइम रिपोर्टर या नया निर्देशक हो तो उन की सोच अलग हो सकती है. यदि सदस्य किसी खास विचारधारा से जुड़े हैं तब भी विवाद हो सकते हैं.
इन दिनों बढ़ते विवाद की जड़ में कहीं न कहीं परीक्षण समिति के सदस्य भी हैं. इन दिनों केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की परीक्षण समिति के जो सदस्य हैं उन में कलाकार या रंगकर्मी या फिल्म निर्देशक वगैरह ही हैं पर वे सभी ‘संस्कार भारती’ से भी जुड़े हुए हैं. ऐसे में टकराव होना स्वाभाविक है. सिर्फ सदस्य ही क्यों, बोर्ड मैंबर भी एक खास सोच या विचारधारा के हैं.
2025 में एक तरफ हिंदी फिल्में बौक्स औफिस पर दम तोड़ रही हैं तो दूसरी तरफ हर फिल्म को ले कर सैंसर बोर्ड पर उंगली उठ रही है. कहा जा रहा है कि सैंसर बोर्ड अपना संतुलन खो चुका है. इसी वजह से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को खत्म करने अथवा इसे सरकार के चंगुल से मुक्त कर फिल्म इंडस्ट्री के हाथों में सौंप देने की मांग हो रही है. जहां तक हमारी राय है, तो हम केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को समूल नष्ट करने के हिमायती नहीं हैं क्योंकि हमें सिनेमा में जंगल राज नहीं चाहिए.
आगे का अंश बौक्स के बाद
=======================================================================================कट्टरपंथी या प्रचार चाहने वाले नागरिक सैंसरी
देश में उन लोगों की कमी नहीं जो खुद को सैंसर बोर्ड से कम नहीं सम?ाते. अश्लीलता पर उन की नैतिकता खौलते तेल में डूबने लगती है या उन के धार्मिक अंधविश्वासों को ठेस पहुंचती है तो वे नजदीकी थाने में एफआईआर दर्ज करा देते हैं या स्थानीय अदालत में उन्हीं धाराओं पर मुकदमा दायर कर देते हैं. हमारी न्याय व्यवस्था ऐसी है कि पहला मजिस्ट्रेट बिना ज्यादा सोचेसमझे गिरफ्तारी का वारंट तक जारी कर देता है. कुछ जगह फिल्म के प्रदर्शन का स्थगन आदेश दे दिया जाता है कि इस से कानून व्यवस्था बिगड़ जाएगी.
निर्मातानिर्देशक और कई बार सितारों को भी पार्टी बना दिया जाता है ताकि भरपूर प्रचार मिले. अदालतें बिना न्यायिक विवेक लगाए हर पार्टी को कोर्ट में तलब कर लेती हैं चाहे वह स्थान मुंबई से 200 किलोमीटर दूर किसी जिले में हो जहां से एयरपोर्ट 300 किलोमीटर दूर क्यों न हो.
2003 में राजस्थान के वकीलों की यूनियन के मामले में निर्मातानिर्देशक को सुप्रीम कोर्ट पहुंचना पड़ा जिन्होंने कहा कि वकीलों की यूनियन अभिव्यक्ति की शर्तों को निर्धारित नहीं कर सकती. सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी पर निर्मातानिर्देशक, जिन्होंने ब्याज वाले कर्ज की रकम से फिल्म बनाई, को इस देरी से क्या व कितना नुकसान हुआ, क्या अंदाजा लगाया जा सकता है.
राजकपूर की फिल्म ‘गंगा तेरा पानी मैला’ के दृश्यों से ले कर ‘पद्मावत’ तक कितने ही मामलों में सड़कछाप लोग सैंसर बोर्ड बन गए.
सिनेमा अनैतिकता से भरा
सिनेमा में नैतिकता की आवश्यकता इस डर से उत्पन्न होती है कि दर्शक ज्यादातर हानिकारक सामग्री और फिल्म में अपने पसंदीदा पात्रों के नकारात्मक चित्रण के प्रति संवेदनशील होते हैं. फिल्मी सितारों द्वारा सिगरेट और मादक पेय का उपयोग दर्शकों को यह विश्वास दिलाता है कि ये पदार्थ बिलकुल भी हानिकारक नहीं हैं. ऐसे में फिल्मों को सैंसर किया जाना कुछ हद तक समझा जा सकता है. मगर जब धीरेधीरे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो गया हो तो यह नैतिकता का लबादा केवल एक ढोंग लगता है.
मानदंडों की अहमियत
प्रमाणपत्र देने से पहले सीबीएफसी शासी निकाय द्वारा निर्धारित विभिन्न मानदंडों का ध्यान रखता है.
१. हिंसा जैसे असामाजिक तत्त्वों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए.
२. बच्चों को हिंसक दृश्यों में शामिल दिखाने वाले, श्रम करने वाले, जानवरों के साथ क्रूरता करने वाले दृश्यों की जांच की जानी चाहिए.
३. शराब पीने, धूम्रपान करने, ड्रग्स और अन्य नशीले पदार्थों को बढ़ावा देने वाले दृश्यों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए.
४. किसी भी तरह से महिलाओं को अपमानित करने वाले दृश्यों पर प्रतिबंध है.
५. धार्मिक आधार पर भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले दृश्यों या शब्दों का ध्यान रखा जाना चाहिए.
६. देश की संप्रभुता और अखंडता पर किसी भी तरह से सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए.
७. राज्य की सुरक्षा को खतरे में नहीं डाला जाना चाहिए, साथ ही, पड़ोसी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों में बाधा नहीं आनी चाहिए.
८. संविधान के खिलाफ कोई अपमानजनक बयान नहीं होना चाहिए.
९. किसी समुदाय, जाति और जनजाति का अनादर नहीं होना चाहिए.
१०. किसी नागरिक की छवि को कम नहीं करना चाहिए.
सैंसर प्रमाणपत्र को ले कर सर्वाधिक विवाद में रही फिल्में
जय भीम: एक आदिवासी व्यक्ति की हिरासत में मौत से जुड़े एक वास्तविक कानूनी मामले से प्रेरित फिल्म ‘जय भीम’ ने जाति और पुलिस की बर्बरता पर अपनी बेबाक नजर के लिए आलोचकों से प्रशंसा हासिल की. फिर भी, इसे सैंसर बोर्ड, कुछ समुदायों से मुकदमों और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा.
पद्मावत: निर्माता संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ 1 दिसंबर, 2017 को रिलीज होने वाली थी, लेकिन सैंसर बोर्ड ने कुछ दस्तावेजों की कमी के कारण इस के प्रदर्शन से इनकार कर दिया. अंत में ‘घूमर…’ गाने में कुछ बदलाव और फिल्म के नाम में बदलाव के साथ यह फिल्म 25 जनवरी, 2018 को रिलीज हुई.
उड़ता पंजाब: फिल्म को सीबीएफसी से विवाद का सामना करना पड़ा, जिस ने निर्माता से ए सर्टिफिकेट देने के लिए 94 कट और 13 सुझाव मांगे. आखिरकार यह फिल्म मुंबई उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद रिलीज हुई.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का: 2017 में फिल्म को सैंसर बोर्ड ने पहले बैन कर दिया था. इसे महिलाओं के लिए अपमानजनक फिल्म कहा गया. इस फिल्म में ढेर सारे यौन दृश्य, अपमानजनक शब्द, औडियो पोर्नोग्राफी और समाज के एक विशेष वर्ग के बारे में कुछ संवेदनशील बातें थीं, इसलिए दिशानिर्देशों के तहत फिल्म को अस्वीकार कर दिया गया. आखिरकार तमाम बदलावों के बाद ए सर्टिफिकेट मिला.
बैंडिट क्वीन : डकैत फूलन देवी के जीवन पर आधारित इस फिल्म को यौन दृश्यों, नग्नता और अपमानजनक अभिव्यक्तियों के कारण सैंसरशिप का सामना करना पड़ा. ‘बैंडिट क्वीन’ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रतिबंधित कर दिया था. क्योंकि फूलन देवी ने इस की प्रामाणिकता के खिलाफ मुकदमा दायर किया था. यह फिल्म 1994 में बनी थी और 1996 में रिलीज हो पाई थी.
गोलियों की रासलीला रामलीला : संजय लीला भंसाली की फिल्म को बोर्ड से विवाद का सामना करना पड़ा था. फिल्म के नाम पर आपत्ति जताते हुए कई संगठनों ने अदालत का रुख किया था. फिर नाम में कुछ बदलाव किया गया. कुछ दृश्य कटे.
मैं हूं रजनीकांत : रजनीकांत ने आपत्ति की थी. रजनीकांत का मानना था कि यह उन की छवि को बाधित कर सकती है.
जोधा अकबर : फिल्म में जोधाबाई के चित्रण पर विरोध के बाद इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया था, बाद में इसे रिलीज किया गया.
ऐसा भी हुआ
फिल्म ‘मोहनजोदड़ो’ में अंतरंग दृश्य थे, पर कोई रोकटोक नहीं हुई थी. वहीं ‘अनइंडियन’ के अंतरंग दृश्यों पर कैंची चली. अमर्त्य सेन पर बनी डौक्यूमैंट्री में भी बोर्ड ने गाय, हिंदू, भारत, गुजरात जैसे शब्दों को बीप करने के लिए कहा.
फिल्म निर्माता अश्विनी कुमार ने अपनी फिल्म ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ को ए सर्टिफिकेट दिए जाने पर सीबीएफसी से सवाल किया था. उन्होंने कहा था कि उन की फिल्म ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ को एडल्ट सर्टिफिकेट दिया गया था, जिस में कोई एडल्ट सीन नहीं था, जबकि ‘हैदर’ में तो और भी ज्यादा भावुक सीन थे. कुमार ने कहा कि सीबीएफसी कम बजट की स्वतंत्र फिल्मों के लिए बाधा उत्पन्न करता है.
फिल्म ‘कृष्णा अर्जुन’ को सैंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से किया इनकार
हेमवंत तिवारी ने विश्व की पहली वन टेक यानी सिंगल शौट की दोहरी भूमिका वाली फिल्म ‘कृष्णा अर्जुन’ बनाई है. लेकिन 2 घंटे 14 मिनट की लंबी अवधि वाली इस फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज नहीं किया जा सकता क्योंकि सैंसर बोर्ड ने इसे प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया है जबकि हेमवंत तिवारी कुछ सीन ब्लर करने (शाहरुख खान की फिल्म ‘जवान’ में कुछ नग्न दृश्यों को ब्लर करने पर सैंसर बोर्ड ने पारित किया था) व कुछ संवाद म्यूट कर ‘ए’ प्रमाणपत्र लेने को तैयार थे लेकिन हेमवंत अपनी फिल्म के एक भी सीन पर कैंची नहीं चला सकते. कोई भी कट करने से पूरी प्रक्रिया विफल हो जाएगी, क्योंकि इस से हेमवंत से वन टेक फिल्म बनाने का श्रेय छिन जाएगा. कट, यहां तक कि एक कट भी, ध्यान देने योग्य होगा, वह उन के इस दावे को झुठा साबित करेगा कि उन की फिल्म एक शौट वाली है.
फिल्म ‘कृष्णा अर्जुन’ एक बोल्ड फिल्म है जिस में मंत्री द्वारा एक लड़की के साथ 3 लड़कों से बलात्कार करवाने का आरोप है. अब लड़की गर्भवती है. वह न्याय की भीख मांग रही है. इस लड़ाई में जुड़वां भाई कृष्णा व अर्जुन उस लड़की की मदद कर रहे हैं लेकिन मंत्री के इशारे पर पुलिस स्टेशन के अंदर ही नंगा नाच चल रहा है. इस में मंत्री, जज व पुलिस तंत्र भी जुड़ा हुआ है. अर्जुन की हत्या करने के बाद जज, मंत्री व पुलिस अर्जुन के भाई कृष्णा को पूर्णरूपेण नंगा कर पीटते हैं. इस तरह इस फिल्म में गंदी गालियों की बौछार है तो वहीं एक लंबा नग्न दृश्य भी है.
सैंसर और विवादों में घिरी हालिया फिल्में
4 अप्रैल, 2021 को सिनेमेटोग्राफ एक्ट में हुए संशोधन के बाद केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की शक्तियों को ले कर अजीब सी स्थिति बनी हुई है. किसी भी फिल्म के सिनेमाघरों में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन के लिए उस का सैंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र हासिल करना अनिवार्य होता है. नियमतया सैंसर बोर्ड से पारित फिल्म के प्रदर्शन पर रोक नहीं लगनी चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा है.
कमल हासन की फिल्म ‘ठग लाइफ’ : पिछले दिनों निर्माता व अभिनेता कमल हासन ने तमिल व कन्नड़ भाषा के संदर्भ में बयान देते हुए कह दिया कि कन्नड़ तो तमिल फिल्म से निकली भाषा है. इस पर कर्नाटक में विरोध हो गया और कमल हासन की फिल्म ‘ठग लाइफ’ कर्नाटक में रिलीज नहीं हो पाई. जबकि, कमल हासन की फिल्म को सैंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र मिला हुआ था. कर्नाटक फिल्म चैंबर्स औफ कौमर्स ने कमल हासन के दिए बयान पर माफी की मांग की. माफी न मांगने पर फिल्म के कर्नाटक में रिलीज पर बैन लगा दिया. कमल हासन ने कर्नाटक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाए लेकिन बात नहीं बनी क्योंकि कमल हासन अपने दिए गए बयान पर माफी मांगने को तैयार नहीं हुए.
120 कट लगाने के बाद भी फिल्म ‘पंजाब 95’ को नहीं मिला सैंसर प्रमाणपत्र :दिलजीत दोसांज निर्मित व हनी त्रेहान निर्देशित फिल्म ‘पंजाब 95’ को सैंसर बोर्ड के 120 कट देने के बाद भी सैंसर प्रमाणपत्र देने के बजाय बैन कर दिया गया. फिल्म प्रमुख सिख मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह खालरा के जीवन पर आधारित है. फिल्म में 1980 व 1990 के काल में खालिस्तानी अलगाववादियों से लड़ते हुए सुरक्षा बलों द्वारा की गई गुमशुदगी, न्यायेतर हत्याओं व अवैध हिरासतों की घटना को बयां किया गया है.
दिलजीत दोसांज की फिल्म ‘सरदार जी 3’ हुई बैन : दिलजीत दोसांज की फिल्म ‘सरदार जी 3’ को लंदन में फिल्माया गया था. इस में दिलजीत दोसांज के साथ पाकिस्तानी अभिनेत्री हनिया अमीर ने भी अभिनय किया है. इसी वजह से इसे सैंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया. यह फिल्म भारत में रिलीज नहीं हो पाई. मगर इस के निर्माताओं ने इस फिल्म को 27 जून, 2025 को पूरे विश्व में रिलीज किया और यह फिल्म सुपरडुपर हिट हुई.
पंजाबी फिल्म ‘चल मेरा पुत्त 4’ भी हुई बैन : सैंसर बोर्ड ने पंजाबी फिल्म ‘चल मेरा पुत्त 4’ को भी प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया क्योंकि इस फिल्म में भी पाकिस्तानी कलाकार हैं पर यह फिल्म 1 अगस्त, 2025 को विश्व के कई देशों में रिलीज हुई और इसे जबरदस्त सफलता मिली.
तमिल फिल्म ‘मानुषी’ : तमिल फिल्म ‘ मानुषी’ 2 वर्षों से सैंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र पाने के लिए संघर्ष कर रही थी. जून माह में फिल्म के निर्माता व निर्देशक येत्री मारन ने मद्रास हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. मगर अदालत भी सैंसर बेर्ड के आगे मजबूर नजर आई.
जून में सैंसर बोर्ड ने अदालत से कह दिया कि उस ने फिल्म में कट लगाने के लिए कहा है. उस के बाद मद्रास हाईकोर्ट ने येत्री मारन की याचिका को खारिज कर दिया. अब इस के निर्माता फिल्म को सिनेमाघरों के बजाय सीधे ओटीटी पर रिलीज करने की योजना बना रहे हैं.
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सिनेमा देश का सांस्कृतिक राजदूत
हर देश का सिनेमा उस देश का सांस्कृतिक राजदूत होता है. सिनेमा का काम स्वस्थ मनोरंजन के साथ कभीकभार ज्ञान परोसना भी है. सिनेमा की यह पहचान बनी रहनी चाहिए. हर विषय पर फिल्में बननी चाहिए. इस के लिए जरूरी है कि एक संस्था हर फिल्मकार पर निगाह रखे कि वह समाज में द्वेष की भावना न फैलाए, दो धर्मावलंबियों या 2 देशों के बीच वैमनस्यता बढ़ाने वाली चीजें न परोसे. लेकिन तमाम फिल्मकार सैंसर बोर्ड को सरकार के अंकुश से मुक्त करने के पक्ष में हैं.
फिल्म उद्योग इस के लिए सक्षम भी हैं. क्या हम नहीं देख रहे कि फिल्म इंडस्ट्री की अपनी सभी 32 संस्थाएं कितनी कुशलता के साथ कई दशकों से अपने सभी ?ागड़ों को निबटाती आ रही हैं. फिर चाहे वह कलाकारों की एसोसिएशन ‘सिंटा’ हो या निर्माताओं की संस्था ‘इम्पा’ हो या लेखकों का संगठन हो.
फिल्म के नाम से ले कर लेखक, गीतकार, संगीतकार आदि के कौपीराइट हक को भी ये संस्थाएं ही सुरक्षित रखती आई हैं.
फिल्म इंडस्ट्री में आईपीआरएस और इसामरा जैसी संस्थाएं कितनी खूबसूरती से सभी के हक की रौयलिटी इकट्ठा कर उन तक पहुंचा रही हैं. सो, अगर फिल्म इंडस्ट्री खुद फिल्मों को सैंसर करना शुरू करेगा तो वह गाइडलाइंस का बिना विवादों के ज्यादा बेहतर ढंग से पालन करवा सकता है.
क्या टीवी या सैटेलाइट चैनल पर प्रसारित हो रहे टीवी सीरियलों व टीवी कार्यक्रमों पर टीवी फिल्म उद्योग की अपनी संस्था कुशलता से सारी चीजें नहीं कर रही है? कोई विवाद पैदा नहीं होते. सैंसर बोर्ड तो टीवी पर प्रसारित होने वाली फिल्में सैंसर करता है, मगर टीवी के कार्यक्रमों व टीवी सीरियल को सैंसर करने का काम फिल्म इंडस्ट्री खुद करती है. तो जो लोग टीवी सीरियल को हर इंसान के देखने लायक बना सकते हैं, वे फिल्मों में भी गलत चीजें रोक सकते हैं. फिर अपरोक्ष रूप से सरकार का दबाव तो बना ही रहेगा.
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को सरकार अपने चंगुल से मुक्त कर फिल्म इंडस्ट्री के कर्ताधर्ताओं के हाथ में सौंपेगी, इस की उम्मीद करना दिन में तारे देखना जैसा है. मगर ‘फुले’, ‘धड़क 2’, ‘संतोष’, ‘चल हल्ला बोल’ जैसी फिल्मों को ले कर विवाद महज एक फिल्म के विरोध का मसला नहीं है.
यह भारतीय सिनेमा के सामने आने वाली बड़ी दुविधा के बारे में है, जब वह जाति कथाओं के क्षेत्र में कदम रखता है. इन में से कई फिल्में उत्पीड़न या असमानता का आविष्कार नहीं करती हैं. वे उन घटनाओं, कहानियों या पैटर्न को फिर से बनाती हैं जो इतिहास में प्रलेखित हैं या आज भी विभिन्न रूपों में जारी हैं.
ऐसे घटनाक्रम हम समाज में अपने इर्दगिर्द देखते रहते हैं. इस के बावजूद जब ये कहानियां स्क्रीन पर आती हैं तो उन्हें चुनौती दी जाती है, अकसर काल्पनिक थ्रिलर या हिंसक महाकाव्यों से भी ज्यादा कठोर तरीके से. ऐसा क्यों, जबकि प्रतिबंध या सैंसरशिप के आह्वान के पीछे की मंशा अकसर अशांति को रोकना होती है.
जाति आधारित कथाओं को लगातार चुप कराना महत्त्वपूर्ण सवाल उठाता है. इस पर हर इंसान को आगे बढ़ कर बात करनी चाहिए पर हमारा समाज भी मौन ही रहता है.
जिस तरह से इन दिनों सैंसर बोर्ड काम कर रहा है, उस से दो बातें ही समझ में आती हैं. पहली, सैंसर बोर्ड का राजनीतिकरण हो चुका है और दूसरी, क्या हमारा समाज अपना प्रतिबिंब देखने में असहज है? पर एक इस से बड़ा सवाल भी है कि क्या एक ऐसा देश जो लोकतंत्र और विविधता पर गर्व करता है, सिनेमाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है? Indian Film Censorship