Subhanshu Shukla : धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधाभासी हैं, बावजूद इस के धार्मिक कर्मकांडी वैज्ञानिक उपलब्धियों को धार्मिक चोला ओढ़ाने की कोशिश में रहते हैं. ऐसा ही हालिया सुभांशु शुक्ला के अंतरिक्ष स्टेशन के दौरान सामने आया.
सुभांशु शुक्ला एक्सिओम मिशन-4 (Ax-4) के तहत अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की यात्रा करने वाले पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री हैं, और 1984 में राकेश शर्मा के बाद अंतरिक्ष में कक्षा की यात्रा करने वाले दूसरे भारतीय बन गए हैं. सुभांशु शुक्ला ने 25 जून 2025 को स्पेसएक्स के ड्रैगन कैप्सूल के माध्यम से फ्लोरिडा से आईएसएस के लिए उड़ान भरी. उन्होंने वहां पर 18 दिन बिताए, 31 देशों के 60 से अधिक प्रयोग किए, जिन में इसरो के 7 प्रयोग शामिल थे.
15 जुलाई 2025 को कैलिफोर्निया के तट पर सुभांशु उतरे तो यह भारत के लिए बहुत गर्व की बात थी. यह मिशन भारत, पोलैंड, और हंगरी के लिए भी ऐतिहासिक था, क्योंकि इन देशों के अंतरिक्ष यात्री 4 दशकों बाद किसी मानवयुक्त मिशन में शामिल हुए थे.
भारतीय मीडिया ने इस घटना को ऐसे पेश किया जैसे सुभांशु शुक्ला का अंतरिक्ष में जाना भारत की कोई बड़ी उपलब्धि हो लेकिन यह मिशन एक निजी कम्पनी एक्सीओम का एक महत्वकांक्षी प्रोजैक्ट था जिस के तहत सुभांशु शुक्ला को चुना गया था. जैसा की हर बड़े इवैंट पर होता है. सुभांशु शुक्ला की सकुशल वापसी के लिए भारत में यज्ञ हवन होने लगे. सुभांशु शुक्ला आसमान में थे और यहां जमीन पर बैठे निठल्ले लोग उन की लैंडिंग के लिए धार्मिक नौटंकी में लगे थे. क्या यह विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की हत्या नहीं है?
मजहब या धर्म ऐसा ब्रेकर है जो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र कि गति को धीमा करता है. दुनिया के सभी धर्म इतिहास में बने हैं. कोई 1400 साल पुराना है तो कोई धर्म 2 हजार साल पुराना है और कोई धर्म तो सनातन होने का दावा करता है.
धार्मिक गिरोह अपने पुरातन होने का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन सच यही है कि धर्मों का पुराना होना ही इंसानियत के लिए घातक स्थिति है क्योंकि जो धर्म जितना पुराना है वो इंसानी बुद्धि को उतना ही पीछे ले जाने कि जद्दोजहद करता है.
जब हम दुनिया के इतिहास को देखते हैं तो हमें मालूम चलता है कि इंसान की बुद्धि ने धर्मों के खिलाफ बगावत की तब जा कर विज्ञान का उदय हुआ. आज की हर एक तकनीक जिस के बल पर यह दुनिया चल रही है आप और हम जी रहे हैं इस में किसी भी धर्म का कोई योगदान नहीं है. यह सब विज्ञान की ही देन है. कोई भी समाज तब तक आजाद नहीं होता जब तक उस समाज के विचार गुलाम हों. खयालातों की गुलामी को पश्चिमी दुनिया ने तोड़ा और विज्ञान तकनीक और डैमोक्रेसी में कहीं आगे निकल गए लेकिन हम आज भी अपनी धार्मिक मान्यताओं की झूठी दुनिया से बाहर न निकल पाए.
कड़वी सच्चाई तो यही है कि विज्ञान के क्षेत्र में हमारी वास्तविक उपलब्धि शून्य के अलावा कुछ नहीं है. विज्ञान के क्षेत्र में इस महान शून्यता का कारण यह है कि हम वैज्ञानिक चेतना से कोसों दूर हैं. उधार की टैक्नोलौजी पर इतराने से वैज्ञानिक चेतना नहीं आती. विज्ञान का पथ बनाने के लिए कुर्बानियां देनी पड़ती हैं. धर्म कि सत्ता से टकराना होता है.
1530 में कोपरनिकस के प्रयोगों ने यह साबित किया कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है. पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई जिस से दिन और रात होते हैं और एक साल में सूर्य का चक्कर पूरा करती है. कोपरनिकस कि इतनी सी बात से धर्म कि सत्ता हिल गई और निकोलस कोपरनिकस को देश छोड़ना पड़ा.
ज्योरदानो ब्रूनो का गुनाह बस इतना सा था कि उन्होंने निकोलस कोपरनिकस के विचारों का समर्थन किया और कहा कि ‘ब्रह्माण्ड का केंद्र पृथ्वी नहीं’ बस इसी गुनाह के लिए उन्हें जिंदा जला दिया गया.
कोपरनिकस के 80 साल बाद और ज्योरदानो कि मौत के 15 साल बाद गैलीलियो ने अपनी दूरबीन के प्रयोग से कोपरनिकस कि बात को प्रमाणित किया और यह नतीजा निकाला कि वास्तव में धरती यूनिवर्स का केंद्र नहीं. धर्म को यह बात पसंद नहीं आई और गैलीलियो को जेल की सजा हो गई.
चार्ल्स डार्विन ने अपने जीवन के 50 साल लगा कर यह खोज निकाला कि धरती पर जीवन की विविधताओं का स्रोत ईश्वर नहीं है बल्कि विकासवाद है. उन की यह महान खोज धर्म के विरुद्ध साजिश बताई गई और चर्च ने डार्विन को ईश्वर का कातिल करार दे दिया. 24 नवंबर, 1880 को डार्विन ने फ्रांसिस एमसी डेर्मोट के एक पत्र का जवाब देते हुए अपने खत में साफसाफ लिखा था, ‘मुझे आप को यह बताने में खेद है कि मैं बाइबिल पर भरोसा नहीं करता. यही कारण है कि मुझे जीजस क्राइस्ट के ईश्वर की संतान होने पर भी विश्वास नहीं है.’
चर्च को डार्विन के मानव विकास के सिद्धांत बिल्कुल मान्य नहीं थे. डार्विन के सिद्धांतों ने परमेश्वर, उन के पुत्र यीशू और ईसाइयों के प्रमुख धर्मग्रंथ बाइबिल के ही अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े कर दिए थे.
बाइबिल के अनुसार पृथ्वी की रचना क्राइस्ट के जन्म से 4004 साल पहले हुई थी. लेकिन डार्विन के विकासवाद की थ्योरी पृथ्वी की उत्पत्ति को लाखों करोड़ों वर्ष पहले का बताती थी. बाइबिल के मुताबिक ईश्वर ने एक ही सप्ताह में सृष्टि की रचना कर दी थी लेकिन डार्विन कि थ्योरी बाइबिल कि मान्यताओं के बिल्कुल उलट थी. डार्विन ने अपनी किताब, ‘द औरिजिन औफ द स्पीशीज’ में लिखा, “मैं नहीं मानता कि पौधे और जीवित प्राणियों को ईश्वर ने बनाया था.” इन्हीं ईश्वर विरोधी बातों के कारण डार्विन को ईश्वर और धर्म का हत्यारा बताया गया.
धर्म और विज्ञान के बीच कोई समझौता हो ही नहीं सकता. जो लोग धर्म और विज्ञान के बीच गठजोड़ बनाने की कोशिश करते हैं वे दरअसल राजनीति का शिकार होते हैं.
धर्म के सिद्धांत हमेशा से विज्ञान विरोधी रहे हैं और विज्ञान के सिद्धांतों पर धर्म कभी खरा नहीं उतरता इसलिए दोनों के रास्ते जुदा हैं. धर्म को पनपने के लिए विज्ञान की जरूरत पड़ती है. विज्ञान की वैसाखी के बिना आज कोई धर्म जिंदा नहीं रह सकता लेकिन विज्ञान को धर्म की रत्ती भर भी जरूरत नहीं पड़ती.
साइंस के लिए सैंकड़ों लोगों ने अपनी जिंदगियां कुर्बान की हैं. रातों की नींदे उड़ाई हैं तब जा कर आज की दुनिया रहने लायक बनी है. लोग साइंस और टैक्नोलौजी के फर्क को नहीं समझ पाते. टैक्नोलौजी साइंस नहीं है और विज्ञान सिर्फ तकनीक भर नहीं है. साइंस की अलगअलग शाखाएं हैं. कैमेस्ट्री, फिजिक्स, जियोलौजी, एस्ट्रोनोमी और बायोलौजी. विज्ञान के इन सभी क्षेत्रों को समझने के लिए हम टैक्नोलौजी का सहारा लेते हैं और हम टैक्नोलौजी को ही साइंस समझने की भूल करते हैं.
तकनीक टैक्नोलौजी या प्रौद्योगिकी का मतलब विज्ञान नहीं है बल्कि वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित ऐसे उपकरण जिस से हम समस्याओं को हल कर इंसानियत के लिए कुदरत को आसान बना सकें, तकनीक कहलाती है. संक्षेप में कहें तो विज्ञान के सिद्धांतों का इस्तेमाल कर जब हम उस का प्रयोग करते हैं तो वह तकनीक हो जाती है.
हम चंद्रयान के जरिए चांद तक पहुंचे, यह हमारी तकनीक की महान विजय है और इसे सेलिब्रेट जरूर करना चाहिए लेकिन विज्ञान क्या है हमें यह भी समझना चाहिए.
जहां तकनीक विज्ञान का एक मामूली टूल होता है वहीं विज्ञान का हर प्रयोग धर्म की सत्ता के विरुद्ध इंसानी दिमाग का एक महत्वपूर्ण इवेंट होता है. यही फर्क है तकनीक और विज्ञान में. टूल का इस्तेमाल करने के लिए अच्छे टैक्नीशियन और जरूरी बजट की जरूरत होती है लेकिन विज्ञान के सिद्धांतों को गढ़ने के लिए किसी टैक्नीशियन कि नहीं बल्कि वैज्ञानिक समझ की जरूरत होती है.
सैकड़ों टैक्नीशियन मिल कर चांद या मंगल पर जाने की टैक्नोलौजी को एसेम्बल कर उसे सफल बना सकते हैं लेकिन बात जब वैज्ञानिक सिद्धांतों या इन वैज्ञानिक सिद्धांतों पर कोई नवीन आविष्कार करने की हो तब ये सैंकड़ों टैकक्नीशियन्स भी फेल हो जाते हैं.
महंगे बजट और विज्ञान की किताबों को पढ़ कर इंजीनियर टैक्नीशियन बने चंद लोगों के जरिये चांद ही क्या मंगल पर भी पहुंचा जा सकता है लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांतों को गढ़ना और इन सिद्धांतों पर आधारित आविष्कारों से दुनिया कि मुश्किलों को आसान बनाना मंगल पर पहुंचने से बिल्कुल अलग बात है. जिन वैज्ञानिकों ने चांद पर जाने का रास्ता बनाया वो कभी चांद पर नहीं पहुंचे.
चांद पर यान भेज कर इतराने से कोई लाभ नहीं. यह सफलता टैक्नोलौजी की जीत जरूर है लेकिन यह विज्ञान की हार है. हम टैक्नोलौजी के सफलतापूर्वक इस्तेमाल से चांद पर पहुंचे हैं लेकिन सही मायने में देखें तो इस मिशन में हम ने विज्ञान कि हत्या कर दी.
चंद्रयान मिशन को पूरा करने की खातिर भारतीय वैज्ञानिकों को खुद से ज्यादा मंदिरों पर भरोसा था इसलिए इसरो के वैज्ञानिक मंदिरों के चक्कर लगाते रहे और मंदिरों की बलिवेदी पर साइंस और साइंटिफ़िक टेम्परामेंट की बलि चढ़ाते रहे.
इसरो के वैज्ञानिक चांद की धरती पर मशीन भेजने में सफल हुए तो इस का असली श्रेय पश्चिम के उन वैज्ञानिक सोच वाले उन महान हस्तियों को जाता है जिन्होंने विज्ञान के लिए धर्म की सत्ता को चुनौतियां दी और अपने जीवन को संकट में डाला.
विज्ञान का सीधा टकराव मजहबों से है. जिस समाज पर मजहब हावी होगा वहां विज्ञान के लिए जगह बचेगी ही नहीं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बिना आप विज्ञान के साथ चल ही नहीं सकते. जहां मजहब मजबूत होता है वहां साइंटिफ़िक टेम्परामेंट की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है. भारत और पाकिस्तान जैसे देश इस बात का उदाहरण हैं. यहां धर्म हावी है इसलिए विज्ञान के क्षेत्र में दोनों देश फिसड्डी हैं. यही हाल ईरान का है जो एक समय ज्ञान का स्रोत था.
वैज्ञानिक होना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना दोनों में बड़ा अंतर है. एक साइंटिस्ट अगर अपने प्रयोग की सफलता के लिए मंदिर में नारियल फोड़ता है या नमाज पढ़ कर कर अपनी सफलता की दुआ करता है तो असल में वो साइंटिस्ट हो कर साइंस की हत्या कर रहा होता है. जिस साइंटिस्ट के पास साइंटिफ़िक टेम्परामेंट न हो वो साइंटिस्ट नहीं बल्कि साइंस का हत्यारा ही होता है.
चांद पर चंद्रयान भेज देना बड़ी बात जरूर है आप इसे टैक्नोलौजी की जीत कह सकते हैं लेकिन यह विज्ञान की जीत नहीं है.
पश्चिम एशिया के तेल उत्पादक इसलामी देश यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान की टैक्नोलौजी का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं पर क्या वहां से वैज्ञानिकों की खेप पर खेप निकल रही है. सऊदी अरब में बन रहे जेद्दा टौवर जो विश्व की सब से ऊंची इमारत होगी एड्रीयन स्मिथ और गौर्डन गिल्ल हैं कोई सऊदी नहीं.
धर्म या मजहब की सत्ता के बीच दम तोड़ते विज्ञान की जीत तब तक संभव नहीं जब तक हमारे वैज्ञानिकों में साइंटिफ़िक टेम्परामेंट की समझ पैदा न हो. चंद्रयान मिशन चाहे टैक्नोलौजी की जीत हो पर भारतीय विज्ञान की तो हार ही है. Subhanshu Shukla