S Jaishankar : विश्वगुरु का दम भरने वाले भारत की विदेश नीति आजकल उसी तरह गड्ढे में है जैसी देशी आर्थिक प्रगति और रोजगारों की नीतियां हैं. भारत सरकार का असल ध्यान धर्मकर्म में है, विदेश नीति, आर्थिक मामलों, शिक्षा, अनुशासन में नहीं.
जो चमक नरेंद्र मोदी के प्रथम शासनाकाल में आई थी वह भारतीय मूल के विदेशों में बसे ऊंची जातियों के नागरिकों के अपने देशों की सरकारों पर बनाए दबाव के कारण आई थी. लेकिन अब इस ‘महान’ भारत की पोल खुल गई है कि 5वीं से चौथी बनी अर्थव्यवस्था प्रतिव्यक्ति आय में नीचे से 20 के अंदर है. अर्थव्यवस्था की थोड़ीबहुत जो धौंस है वह सैन्य या उपभोक्ता सामान की खरीद के कारण है.
अब विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों का भारत सरकार से मोह भंग हो गया है क्योंकि हर गोरों के देश में भूरों, कालों, बाहरियों को शक से देखा जाने लगा है. भारतीय मूल के लोग अब अपने नए देशों में ज्यादा लाइमलाइट में नहीं आना चाहते और वहां अब भारत सरकार की वकालत वे कम कर रहे हैं.
नरेंद्र मोदी जी-7 की मीटिंग के लिए न सिर्फ बहुत देर से बुलाए गए बल्कि वहां अमेरिकी राष्ट्रपति उन से मिले बिना वाशिंगटन चले गए और भारत के विरोध के बावजूद कहते रहे कि उन्होंने ही भारत-पाक युद्ध रुकवाया. भारत में लोग इस मूड में थे कि सिंदूर औपरेशन के बहाने पाकिस्तान की कमर तोड़ दी जाए पर युद्ध बिना लाहौर, कराची पर कब्जा किए खत्म हो गया तो देश के भारतीय भी और विदेशों में बसे भारतीय भी मुंह लटका कर बैठ गए हैं. उन की पैरवी अब कम हो गई है क्योंकि वे जानते हैं कि अब चलनी तो अमेरिका और चीन की ही है चाहे हमारी अर्थव्यवस्था आबादी के कारण कितनी ही बड़ी क्यों न हो या हो जाए.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान के फील्डमार्शल आसिम मुनीर के साथ प्रैस की गैरमौजूदगी में जो लंच कैबिनटरूम में किया, उस से साफ है कि ट्रंप, जिन के लिए मोदी ने 2019 में अहमदाबाद में ‘एक बार फिर ट्रंप सरकार’ के नारे लगवाए थे, मोदी या भारत को खास भाव नहीं दे रहे. ट्रंप के लिए भारत दूसरे देशों की तरह का ही है.
भारत ने औपरेशन सिंदूर के लिए छोटेछोटे देशों में सांसदों के जो प्रतिनिधिमंडल भेजे थे वे हैलोहाय कर और केकपेस्ट्री खा कर लौट आए हैं. उन्होंने कुछ खास पाया हो, ऐसा उन के बयानों से स्पष्ट नहीं हुआ. ये सांसद सरकारी खर्च पर देशों की सैर कर आए.
भारत का प्रतिद्वंद्वी असल में चीन है पर भारत अपने से कहीं छोटे पाकिस्तान का राग आलापता रहता है और हमारी विदेश नीति, जनता में चल रहे नैरेटिव के अनुसार, पाकिस्तान को केंद्र में रख रही. हमें तो चीन से सबक लेना है, चीन के बराबर रहना है, चीन जैसा बनना है. हमारी आंतरिक और विदेशी बातें हिंदूमुसलिम करने के कारण पाकिस्तान तक ही सीमित हैं और 11 साल बाद अब यह नीति बेकार हो गई है. पाकिस्तान के प्रति दुनिया के किसी देश में रुचि नहीं रह गई है क्योंकि सब ने अब अफगानिस्तान को अपने हाल पर छोड़ दिया है.
1990 तक भारत के बराबर रहा चीन आज दुनियाभर में धौंस जमा सकता है क्योंकि उस ने शिक्षा पर ध्यान दिया, देश की सड़कों पर ध्यान दिया, बराबरी पर ध्यान दिया जबकि धार्मिक बरबादी नहीं होने दी. आज दुनिया चीनी इशारों पर चल रही है. भारत की कोई जगह नहीं है. हमारे बौने विदेश मंत्री ने रहीसही कसर पूरी कर दी है क्योंकि वे, दरअसल, जननेता नहीं, सिर्फ अफसर हैं. वहीं, सभी देशों में विदेश मंत्री आमतौर पर राजनीति से जुड़ा व्यक्ति होता है जिस से उस का वजन भी होता है. हमारे विदेश मंत्री का दुनिया के दूसरे देशों में विदेश सचिव जैसा रुतबा मात्र है जो हर बात को बौस से एप्रूव कराएगा. यह एक बड़ी खराबी है.