Slum Demolitions : देश में एक ओर हाइवे, मेट्रो और बुलेट ट्रेन का कार्य चल रहा है. इसके साथ ही देश की गरीबी छुपाने के लिए एक और महत्वपूर्ण कार्य चल रहा है झुग्गियों को गिराने का. पहले झुग्गियों में जा जा कर हाथ जोड़ कर नेताओं ने वोट मांगे और अब उस जगह को अवैध बता कर बुलडोजर चलवा रहे है.

2022 तक सबको पक्के मकान देने का लक्ष्य रखा गया था और लक्ष्य पूरा नहीं हुआ तो झुग्गियों को बोलडोजर चलवा कर गिराया जा रहा है. हाल ही में दिल्ली, मुंबई, जूनागढ़, और भोपाल सहित कई शहरों में हजारों झुग्गियों पर बुलडोजर चलाया गया है और यह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य अभी भी जारी है. दिल्ली के यमुना किनारे बसे बस्तियों की झुग्गियों पर जब बुलडोजर चलवाया गया तो वह दृश्य देखने में इतना भयावह था कि इसे लिखकर बयां करना बहुत ही मुश्किल है. देश की मेनस्ट्रीम मिडिया ने अपने चैनल पर यह नहीं दिखया क्योंकि कोटसूट पहन कर स्टूडियो में न्यूज प्रेजेंट करने वाले एंकर्स को देश विकसित लगता है और गरीबी तो उनके डाटा के मुताबिक कब की जा चुकी है. 11 साल से चल रही सरकार में नेता इतने इमानदारी और मेहनत से काम कर रहे हैं कि उनके शीश महल से गरीबी दिखाई नहीं दे रही है. न यमुना पानी गन्दा है, न बेरोजगारी है और न ही देश में महंगाई है.

सरकार ने झुग्गियां तोड़ी, लेकिन लोगों के लिए उनके घर टूटे, मिनटों में उन्होंने अपने सर छुपाने के लिए बनाई छत गंवा दी. इसके साथ ही बच्चों ने खो दिए अपने वो सपने जिन्हें उन्होंने खुली आंखों से इन झुग्गियों में ही देखा था. सामान के साथसाथ लोगों की यादें और जमापूंजी भी मलबे में दब गई.

क्यों बनती हैं झुग्गियां?

झुग्गियों को तोड़ने से पहले सरकार को खुद से यह सवाल जरुर करना चाहिए था कि आखिर देश में झुग्गियां क्यों बनती है? लोग गांवों से शहरों में कमाने आते हैं ऐसे में उन्हें रहने के लिए छत तो चाहिए ही और शहर महंगाई और भीड़ से त्रस्त है, जो गरीबों को शहर में अपना छत बनाने से रोकते है. न तो सरकारी योजनाओं से सभी गरीबों को उनके लिए पक्का मकान मिल पता है और न ही सरकार उनके लिए कोई विशेष कल्याणकारी योजना बनाती है. अगर कल्याणकारी योजना है भी तो न वह ठीक से संचालित होती है और न उसकी ठीक से मौनिटरिंग होती है. अगर गांव के लोगों को उनके गांव में कोई विकल्प मिल जाता या बुलेट ट्रेन की तरह बुलेट विकास गांव तक पहुंच जाता तो न झुग्गियां बनती और न कभी गांव के लोग शहर की तरफ अपना रूख करते. झुग्गियां लोगों की जरुरत है, क्योंकि शहरों में किराया पर मकान लेना विकल्प नहीं ख्वाब है. नौकरी से पहले लोगों को घर की जरुरत होती है और यही ‘आश्रय’ उसे रेलवे की जमीन, वन विभाग की जमीन या अन्य सरकारी जमीन पर झुग्गी बना देता है. गरीब लोगों के लिए झुग्गी केवल चार दीवारें नहीं होती है. उनके लिए झुग्गी परिवार का पहला सपना होता है, झुग्गी एक उम्मीद होती है कि आने वाला उनका कल और बेहतर होगा. सरकार की बुलडोजर सिर्फ झुग्गी नहीं तोड़ती, वो उनके हैसलों, सपनों और बेहतर कल के सपनों को भी तोड़ देती है.

झुग्गियां जब टूटती हैं तो इलाके में मातम जैसा माहौल होता है. बच्चे अपनी मां की गोद में रोते हैं, पुरुषों के चेहरे पर बेबसी साफ झलकती है और महिलाएं अंदर से टूट चुकीं होती है. मिडिया ढोल पीट कर कहता है कि हम विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए है, लेकिन अगर हम चौथी अर्थव्यवस्था है और मौजूदा सरकार ने करोड़ो लोगों को गरीबी से बाहर निकाल दिया है तो ये झुग्गी में रहने वाले कौन है? क्या यह देश के नागरिक नहीं है? क्या इन्होंने सरकार चुनने के लिए अपना वोट नहीं दिया? ऐसे तमाम सवाल है जिनका जवाब शायद ही सरकार देना पसंद करेगी. सरकार का तो सिर्फ एक ही मकसद दिखाई देता है, जितना हो सकें लोगों को धर्म की ओर झोंक दो, धार्मिक उन्माद फैलाओं ताकि लोग एक दुसरे को मारने-मरने पर उतर आएं. सिर्फ एक ही नारा गूंजना चाहिए, सिर्फ एक ही नाम होना चाहिए और एक ही शासक होना चाहिए. बाकी कोई भी जन मुद्दा हो, चाहे वह कितना भी अहम हो, या चुनाव के दौरान किए गए वादे हो, ये सब पटल पर नहीं आना चाहिए. विकास का सिर्फ हल्ला होना चाहिए, जमीनी विकास नहीं, हवा हवाई विकास होना चाहिए, यही मौजूदा सरकार की मकसद और मंजिल है.

ये तंज नहीं हकीकत है, डिजिटल इंडिया वाली सरकार को पौराणिक भारत व्यापार के लिए चाहिए. सरकार के लोग नए संसद भवन में नए सूट पहनकर पुराने नेताओं से सवाल करें और झुग्गियों पर जनता का कोई सवाल उन्हें पसंद नहीं, वे अवैध है बस ये उन्हें मालुम है. क्या गरीबों को नहीं मालुम है कि उनकी झुग्गी अवैध है? गरीब सब जानते है, लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं है. क्योंकि न उन्हें उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल पाई है और न इस गरीबी से निकलने का कोई नया रास्ता मिल पाया. जब जब उन्होंने गरीबी से निकलने का प्रयास किया, सरकार ने नया आडंबर रच कर उन्हें गरीब रहने दिया, उन्हें सिर्फ पार्टी का झंडा ढोने और दरी बिछाने के लिए इस्तेमाल किया गया. उन्हें ऐसे बरगलाया गया कि पार्टी के लोग उनके सुखदुख में साथ है. लेकिन वर्तमान परिस्थितियों ने अब सब कुछ साफ कर दिया है.

क्या सारे झुग्गीवासी घुसपैठिए हैं?

मिडिया इस नैरेटिव को अक्सर दिखा रहा है कि झुग्गियों में रहने वाले लोग घुसपैठिय हैं. इसके साथ ही जिस तरह से प्रशासन अल्प समय में कार्रवाई कर रहा है, उससे ये साफ जाहिर होता है कि इस नैरेटिव को सेट करने में प्रशासन मिडिया के साथ मिली हुई है. बीते दशकों तक यही मिडिया झुग्गियों में जाकर रिपोर्टिंग करती थी कि झुग्गियों में बिजली, पानी और साफसफाई की सुविधा होनी चाहिए. अब यही मिडिया झुग्गियों में रहने वाले लोगों को घुसपैठिया बता रही है. देखा जा रहा है कि मुस्लिम बहुल और बंगाली भाषी इलाकों में इस आरोप को और अधिक बल मिलता है. अगर इन झुग्गियों में रहने वाले लोग घुसपैठिया है तो ये भारत में घुस कैसे गए, क्या बौर्डर पर ठीक से निगरानी नहीं हो रहीं है, जबकि देश की सीमा और उससे जुड़े मामले गृह मंत्रालय के अधीन आता है. अगर बौर्डर से घुसपैठ हुई है तो गृह मंत्रालय को अधिकारिक रूप से इसके लिए बयान जारी करना चाहिए और साथ ही इसका डाटा भी जारी करना चाहिए कि कितने घुसपैठिए भारत में दाखिल हुए है. अगर झुग्गी में रहने वाले घुसपैठिए है तो क्या झुग्गी तोड़ने से वे अपने देश वापस चले जाएंगे? ऐसे में तो सरकार को अमेरिका की तरह हाथों में हथकरी लगाकर घुसपैठियों को उनके देश वापस भेजना चाहिए. वहीं सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोग झुग्गियों में दशकों से रह रहें हैं उनके पास अधिकारिक पहचानपत्र है और वे चुनावों में वोट भी देते है. ऐसे में सरकार को ये देखना चाहिए कि उनके सिस्टम कौन है जो दस्तावेज बना रहा है, क्योंकि दस्तावेज उन्हीं के बन सकते है जो भारत के किसी न किसी कोने से ताल्लुक रखते है. और बिना सबूत के आधार पर जो दस्तावेज बने सरकार को उन पर ध्यान देना चाहिए, और उन्हें देश से बाहर करना चाहिए, न कि बुलडोजर लेकर आम भारतीयों के घर तबाही मचानी चाहिए.

सच्चाई तो यह है कि झुग्गियों में रहने वाले अधिकतर लोग मजदूरी करते हैं. ये लोग फैक्ट्रियों में, लोगों के घरों में, दुकानों में, काम करते है. ये विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. लेकिन जब सरकार को अपनी मनमानी करनी होती है तो उन्हें घुसपैठिया बता कर निपटा दिया जाता है.

राशन, कपड़े, अस्पताल : झुग्गी में भी जीवन है

अगर झुग्गियां अवैध है तो सरकार को वहां बिजली, पानी नहीं देना चाहिए. इसके साथ ही वहां के लोगों को राशन कार्ड भी नहीं होना चाहिए था. तो फिर सरकार ने ये सब क्यों किया? इसका सीधा जवाब है “वोट बैंक”.

गरीबों के उत्थान के लिए सरकार कम ही काम करती है, छोटेमोटे सुविधा मुहैय्या करवाने से इसमें जितना गरीबों का फायदा नहीं होता उससे ज्यादा इसका राजनितिक फायदा होता है. सरकार बस्तियों में विकास के वादे करती है और पूंजीवाद को बढ़ावा देती है. झुग्गीवासियों को अगर अपनी बिमारी का इलाज करवाना होता है तो उन्हें सरकारी अस्पताल का रूख करना पड़ता है और जग जाहिर है कि सरकारी अस्पताल में इलाज कैसा होता है. ये लोग रोजाना की दिहाड़ी से अपना घर चलाते हैं, इनके पास न कोई इंश्योरेंस है और न कोई सेविंग्स.

भारत में लगभग हर शहर में सरकारी जमीनों पर कब्जा एक आम बात है. इन जमीनों पर बसी बस्तियां ‘अनकहे समझौते’ के तहत बनी होती है. यह कब्जा केवल गरीब आदमी का नहीं होता, इसके पीछे पूरा तंत्र शामिल होता है, जिसमें स्थानीय नेता, दलाल, और भ्रष्ट अधिकारियों की तगड़ी मिलीभगत होती है.

सबसे पहले दलाल जमीन चिन्हित करते हैं, फिर गरीबों को वहां बसाते हैं. उनसे ‘सेटिंग’ का नाम लेकर पैसा भी लिया जाता है. साथ ही वादा किया जाता है कि उन्हें कोई नहीं हटाएगा. लेकिन जब सरकार को वह जमीन किसी भी कीमत पर चाहिए होती है तो दलाल, राजनीतिक लोग सभी गायब हो जाते है.

क्या झुग्गीवासियों की आय नहीं बढ़ी?

सवाल ये भी उठता है कि अगर कोई परिवार झुग्गी में 15-20 साल से रह रहा है, तो क्या उनकी आय में बढ़ोतरी नहीं हुई? क्या अभी भी उनकी स्थिति जस की तस ही हैं?

इस सवाल का जवाब ‘हां और न’ दोनों है. कुछ परिवारों ने तरक्की तो की है, अपने बच्चों को पढ़ाया भी है और निजी किराए के घर में गए है. लेकिन अधिकतर लोग अब भी वहीं है जहां पहले थे. इसके साथ ही कई लोगों ने तरक्की तो की, लेकिन उन्होंने अपनी झुग्गी को नहीं छोड़ा. यही कारण है कि कुछ झुग्गियों में आपको एयर कंडीशन भी नजर आ जाएगा. अधिकतर लोगों के जीवन शैली में बदलाव नहीं होने का मुख्य कारण स्थायी रोजगार की कमी, महंगाई और अस्थिर आय है.

दिहाड़ी मजदूरी करने वाले को प्रतिदिन आय 500 से 600 रुपए भी बड़ी मुश्किल से मिल पाती है. लेकिन मौजूदा समय में ये परिवार का पेट पालने के लिए भी काफी नहीं है. इसलिए वे बच्चों से भी मजदूरी करवाते है, क्योंकि खर्च तीनगुना बढ़ गया है.

सरकार की दुविधा : सुविधाएं दो या तोड़ो?

सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि सरकार एक ओर झुग्गियों को अवैध मानती है वहीं दूसरी ओर वहां विकास कार्य करने का दावा भी करती है. इसके साथ ही पानी, शौचालय, बिजली, राशन कार्ड, आधार कार्ड, वोटर कार्ड भी जारी किए जाते है.

झुग्गियां अगर अवैध है तो वहां वोट मांगना कहां से जायज है? यही कारण है जब झुग्गियां टूटती है तो लोगों में आक्रोश होता है. उनकी आंखे ये सवाल करती है आखिर क्यों उन्हें जबरन निशाना बनाया गया? क्यों अरबों रूपए की योजनाओं में पक्का मकान सरकार उन्हें नहीं दे सकती? क्यों उन्हें नेताओं ने अपने वादों से बरगलाया?

प्रधानमंत्री आवास योजना और हर राज्य सरकारों की हाउसिंग स्कीम्स मौजूद होने बावजूद करोड़ो लोग झुग्गियों में रहने को मजबूर है. इसकी वजह स्पष्ट जानकारी का अभाव, भ्रष्टाचार और अफसरों की मनमानी है, जिस वजह से यह योजनाएं जमीनी स्तर पर फेल हो जाती है. अगर सरकार वाकई चाहती है कि झुग्गियां न हो, तो उन्हें जनता को कल्याणकारी योजनाओं से न्यूनतम आसान किश्तों पर आवास का विकल्प उपलब्ध करवाना होगा, जो कि प्रतिव्यक्ति आय के अनुरूप हो, रोजगार के नए मार्ग सृजित करने होंगे, पूंजीवाद को हावी होने से रोकना होगा ताकि देश में सत्ता और शक्ति का केन्द्रीयकरण न हों. इसके साथ ही जमीन माफियाओं और दलाल तंत्रों एवं लाटसाहब अफसरों पर सख्त कार्यवाही करनी होगी. बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट तब सफल होंगे जब आम आदमी की आय बढ़ेगी, उसे पक्की छत मिलेगी. वरना एक तरफ स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट और दूसरी तरफ टूटती झुग्गियां देश के लोकतंत्र को खोखला कर देगी और तानाशाही बढ़ेगी.

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