Hindi-Marathi Controversy : भाजपा हिंदी क्यों थोपना चाहती है इस सवाल का जवाव हिंदू वादियों के अतीत से भी मिलता है और वर्तमान से भी कि लोग धर्म क्षेत्र और भाषा के नाम पर आपस में लड़ते रहें तो उस का अस्तित्व बना रहेगा लेकिन महाराष्ट्र का हालिया विवाद देख लगता है कि आम लोग अगर समझ से काम लें तो बंटवारे की राजनीति खुद बंट कर दम तोड़ देगी.
हिंदी हिंदू हिंदुस्तान न केवल हिंदूवादी संगठनों और राजनैतिक दलों का एजेंडा है बल्कि उन का मकसद, मंजिल और मुहिम भी है. हिंदू राष्ट्र का तम्बू इन्हीं तीन बम्बुओ पर टिका है जिस की कल्पना अब से कोई सवा सौ साल पहले हिंदू महासभा के मुखिया विनायक सावरकर ने की थी. धर्म और मन्दिरों की राजनीति को परवान चढ़ाने के बाद भाजपा की मंशा अब भाषा की राजनीति को हवा देने की है जिस के लिए महाराष्ट्र से मुफीद कोई और राज्य नहीं क्योंकि वह यहां सत्ता में है.
लेकिन बात चूंकि बिगड़ने लगी थी इसलिए 29 जून को मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडवनीस ने घुटने टेकते घोषणा कर डाली कि पहले के त्रिभाषा नीति से जुड़े सरकारी आदेश वापस लिए जाते हैं. अब डाक्टर नरेन्द्र जाधव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जाएगी जो त्रिभाषा नीति के अमल पर सुझाव देगी. बात में वजन लाने उन्होंने यह सफाई भी दी कि हिंदी को अनिवार्य नहीं बनाया गया था छात्रों को अन्य भाषा चुनने की छूट थी.
यह है विवाद
देवेन्द्र फडवनीस की यह मजबूरी हो गई थी कि जैसे भी हो अब शिवसेना ( यूबीटी ) और मनसे का 5 जुलाई का प्रस्तावित विरोध मार्च रोका जाए नहीं तो लेने के देने पड़ जाएंगे. कैसे उद्धव और राज ठाकरे मराठी भाषा को ले कर एक हो रहे थे और इस का महाराष्ट्र सहित देश की राजनीति पर क्या असर पड़ता उस से पहले यह समझ लेना जरुरी है कि इस विवाद की स्क्रिप्ट क्या है और इसे लिखा किस ने था.
16 अप्रैल, 2025 को महाराष्ट्र सरकार ने एक आदेश जारी करते कहा था कि कक्षा 1 से ले कर 5 तक के मराठी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य किया जाता है. इस के समर्थन में दलील यह दी गई थी कि यह फैसला एनईपी यानी नई शिक्षा नीति 2020 के तहत लिया गया है जिस में मातृभाषा / स्थानीय भाषा अंग्रेजी और हिंदी या अन्य भारतीय भाषा पढ़ाने की सिफारिश की गई है. इस आदेश में यह भी कहा गया था कि यदि 20 से अधिक छात्र हिंदी के बजाय दूसरी किसी भारतीय भाषा को चुनते हैं तो स्कूल को उस भाषा के शिक्षक की वैकल्पिक व्यवस्था करना पड़ेगी.
विरोध की धमक से सहमी सरकार
इतना कहना भर था कि मराठी प्रेमियों ने आसमान सर पर उठा लिया. विरोध गैरों ने तो किया ही लेकिन अपने भी पीछे नहीं रहे. मराठी भाषा सलाहकार समिति के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत देशमुख ने इस फैसले का विरोध करते कहा कि यह नीति मराठी भाषा और संस्कृति के लिए खतरा है. किसी को उम्मीद नहीं थी कि सरकार की सलाहकार समिति ही खुले तौर पर सरकार के फैसले का विरोध करेगी.
मनसे के राज ठाकरे ने तो बेहद हमलावर होते इस फैसले को मराठी अस्मिता पर हमला करार देते हिंदी थोपने की कोशिश बताया और अपने वक्तव्य में यह भी जोड़ दिया कि हिंदी राष्ट्र भाषा नहीं है. राज का साथ देने उन के कजिन और शिवसेना ( बाल ठाकरे ) के मुखिया उद्धव ठाकरे भी पार्टी सहित साथ आए तो मुंबई से ले कर दिल्ली तक के माथे पर बल पड़ गए कि जैसेतैसे तो इन दोनों को लड़ा भिड़ा कर कौरवों और पांडवों की तरह अलग किया गया था. अब अगर ये भाषा के मुद्दे जो हर दिन संवेदनशील होता जा रहा था पर साथ हो लिए तो भाषाई मुहिम परवान चढ़ने के पहले ही फिसल जाएगी.
इन दोनों ने एलान किया था कि 7 जुलाई को मुंबई के आजाद मैदान पर धरना आंदोलन आयोजित किया जाएगा. ठाकरे ब्रदर्स ने यह धौंस भी दी थी कि जब तक हिंदी को अनिवार्य करने का फैसला पूरी तरह वापस नहीं लिया जाएगा तब तक वे चुप नहीं बैठेंगे. ऐसा होता तो अकेले मुंबई में नहीं बल्कि गांव कस्बों तक हिंदी का विरोध होता जो होतेहोते हिंदी भाषी हिन्दुओं यानी उत्तर प्रदेश व बिहार सहित झारखंड के लोगों को भी चपेट में ले सकता था. फिर हालात क्या होते इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. क्योंकि तमाम उतारचढ़ावों और विवाद के बाद भी ठाकरे भाइयों की जमीनी पकड़ किसी और से बहुत ज्यादा है.
यही वह मुकाम है जिस ने भाजपा को पांव खींचने मजबूर कर दिया. लेकिन विवाद अभी टला है खत्म नहीं हुआ है. देवेन्द्र फडवनीस इस मसले पर फस गए हैं जो हिंदी और मराठी भाषी दोनों तबकों में से किसी एक को भी नाराज नहीं कर सकते. समिति बनाएंगे, वह फैसला लेगी जैसे बयान वक्ती तौर पर तो पल्ला छुड़ाने मुफीद हैं लेकिन आज नहीं तो कल भाषाई गुल फिर खिलेंगे. ठाकरे ब्रदर्स के साथ कांग्रेस भी है और शरद पावर जैसे दिग्गज नेता भी हैं जो हिंदी की अनिवार्यता को थोपना मानते हैं.
हकीकत समझे लोग
यह ठीक है कांग्रेस और एनसीपी ( शरद पवार) मनसे और शिवसेना यूबीटी की तरह भाषा को ले कर आक्रामक नहीं होते लेकिन अंदरूनी तौर पर हिंदी थोपने को ले कर चिंतित वे भी हैं. इस की वजह साफ़ है कि धर्म और हिंदुत्व की राजनीति के चलते हिंदी भाषी वोट भाजपा के खाते में ज्यादा गिरते रहे थे लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंदी भाषियों ने इन तीन दलों बाले एमवीए यानी महाविकास अघाड़ी को वोट किया था. जिस से एनडीए 48 में से महज 17 सीटों पर सिमट कर रह गया था जबकि एमवीए या यूपीए कुछ भी कह लें को 30 सीटें मिली थीं और कांग्रेस 13 सीटें ले जा कर सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी.
गेम अब ठाकरे ब्रदर्स और भाजपा के बीच खुले तौर पर है क्योंकि ये दोनों ही मांग करते रहे हैं कि सरकारी कामकाज रोजगार और शिक्षा में मराठी भाषा ही रहे कोई और भाषा मंजूर नहीं. इस मसले पर मराठियों का साथ इन दोनों को मिलता रहा है जिसे बनाए और संभाले रखने का कोई मौका ये दोनों नहीं छोड़ते. हैरानी की बात तो यह है कि हिंदी भाषियों को ऐसी राजनीति से कोई खास परहेज नहीं रहता.
मार्च के महीने में शिवसेना यूबीटी के नेता कृष्णा पावले ने मांग की थी कि मुंबई के रेस्तरा और होटलों में मेन्यु कार्ड अनिवार्य रूप से मराठी मरण हों. इस मांग पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई थी लेकिन मराठियों ने इस से सहमति रखी थी क्योंकि इस से उन का भाषाई अहम तुष्ट हो रहा था.
लेकिन बबाल तब मचा था जब मार्च के महीने में ही एक कार्यक्रम में आरएसएस के वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी ने यह कहा था कि मुंबई में रहने वालों को मराठी बोलना जरुरी नहीं है. बवाल मचा तो भैया जी जोशी आम नेताओं की तरह यह सफाई देते गायब हो गए कि उन के बयान का गलत मतलब निकाला गया. मराठी न केवल मुंबई बल्कि पूरे महाराष्ट्र की भाषा है और सभी को इसे सीखना चाहिए.
समझने वालों को तभी समझ आ गया था कि अब प्राइमरी स्कूलों को निशाने पर लिया जाएगा और ऐसा हुआ भी जिस पर मनसे ने जो तांडव मचाया उस से यह साबित हुआ था कि भाजपा और आरएसएस की राह उतनी आसान है नहीं जितनी कि वे गलतफहमी या अतिआत्मविश्वास के चलते मान बैठे हैं. मनसे कार्यकर्ताओं ने अपने संस्कारों का हिंसक प्रदर्शन सार्वजनिकतौर पर करते मराठी न बोलने वालों की मार कुटाई करते अपना मैसेज फारवर्ड कर दिया कि हिंदी नहीं चलेगी और जबरन चलाई गई तो हिंदी भाषी भी नहीं बख्शे जाएंगे.
महाराष्ट्र के हिंदी भाषी जो लगभग 22 फीसदी हैं 70 फीसदी मराठी भाषियों से भाषा के आधार पर नहीं टकराना चाहते क्योंकि इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला उलटे हासिल किया हुआ जो छिनता है वह उन्हें एक झटके में सालों पीछे ढकेल देता है. पिछले लोकसभा चुनाव में इस समझदारी की झलक पूरे महाराष्ट्र सहित महाराष्ट्र के सब से बड़े और अहम हिंदी भाषी शहर मुंबई में भी दिखी थी जहां एमवीए को 6 में से 4 सीटें मिली थीं जबकि एनडीए 2 पर सिमट कर रह गई थी.
नया विवाद देखा जाए तो नई शिक्षा नीति की आड़ में भाजपा का फैलाया हुआ रायता है जिसे मजबूरी में ही सही ज्यादा बहने से उसने रोक लिया है. लेकिन भाषा का मामला धर्म से कम संवेदनशील नहीं होता इसलिए आम लोगों को ही समझ से काम लेना होगा.