Film Review : सच्ची, सरल व बेहतरीन फिल्म है ‘चिडि़या’ जिसे बड़ों के साथसाथ बच्चों को भी दिखानी चाहिए. यह फिल्म बच्चों के सपनों को पूरा करती है. फिल्म में दिखाया गया है कि जिस उम्र में बच्चे पढ़ते हैं, खेलते हैं, उस उम्र में उन्हें मजदूरी क्यों करनी पड़ती है. गरीब बच्चों की भी बालसुलभ जिज्ञासाएं होती हैं, तमन्नाएं होती हैं लेकिन उन की मजबूरी, गरीबी, बेबसी दिखा कर निर्देशक ने दर्शकों की आंखें गीली कर दी हैं. फिल्म दिखाती है कि सपने देखने का हक सिर्फ पैसे वालों को ही नहीं होता.
फिल्म छोटी सी चिडि़या पक्षी पर नहीं है बल्कि बैडमिंटन पर खेली जाने वाली चिडि़या (शटल कौक) पर है. बैडमिंटन रैकेट से शटल कौक पर शौट लगाते खिलाडि़यों को देख उन दोनों बच्चों का जिज्ञासु मन उन पर शौट लगाने को करता है और वे खुद के बैडमिंटन खिलाड़ी होने का सपना देखने लगते हैं.
फिल्म 15 साल से बनी पड़ी थी, अब जा कर इसे बड़े परदे पर दिखाने का मौका मिला है. फिल्म सादगी से भरी है, इसीलिए ऐसी फिल्मों की कहानियां सब से ज्यादा असर करती हैं. विदेशों में आयोजित फिल्म समारोहों में फिल्म की खूब सराहना की गई है और इस फिल्म ने कई अवार्ड भी जीते हैं. फिल्म में बच्चों का बचपन, चाइल्ड लेबर, शिक्षा, सामाजिक विसंगतियां और अभाव जैसे कई मुद्दों को बिना किसी नाटकीयता के सहज, सरल ढंग से उठाया गया है जिस से दर्शकों की आंखों में आंसू तो आते हैं मगर होंठों पर मुसकान भी तैर जाती है.
बच्चों की फिल्मों के प्रति बौलीवुड हमेशा से उदासीन रहा है. ‘चिल्लर पार्टी’, ‘तारे जमीं पर’, ‘मकड़ी’ और ‘स्टेनली का डब्बा’ जैसी बाल फिल्में उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं.
फिल्म की कहानी मुंबई की एक चाल में रहने वाले 2 बच्चों शानू (स्वर कांबले) और बुआ (आयुष पाठक) की है, जिन के पिता की अस्पताल में मौत हो गई. मां वैष्णवी (अमृता सुभास) पर बच्चों के लालनपालन की जिम्मेदारी के साथ पति के औटो की भारीभरकम किस्त की जिम्मेदारी भी आ जाती है. फीस न भर पाने के कारण दोनों बच्चों को स्कूल से निकाल दिया जाता है. इन के पड़ोस में ही अपनी पत्नी और बेटी ईशानी (हेतल गाड़ा) के साथ रहने वाले बच्चों का चाचा बाली (विनय पाठक) भी रहता है. वह एक प्रोडक्शन कंपनी में स्पौट बौय का काम करता है. वैष्णवी चाहती है कि बाली उस के दोनों बच्चों को भी काम पर लगवा दे. मगर शानू और बुआ का मन तो खेलने की जुगत में लगा है. वे बैडमिंटन के रैकेट, नैट, चिडि़या (कौक) और खेल की जगह का बंदोबस्त करने के जुगाड़ में लग जाते हैं.
यह बच्चा पार्टी चाल के आगे की सफाई कर के एक मैदान बनाती है. स्पौटबौय का काम करने वाले एक्टर (श्रेयस तलपड़े) से उन्हें एक चिडि़या मिलती है. एक दर्जी (इमामुल हक) कपड़ों के पैच से सी कर बैडमिंटन का नैट बना कर देता है. एक ठेकेदार उन्हें लोहे के खंबे ले जाने देता है. क्रू मैंबर बल्ब और तार का इंतजाम कर देता है. उन का बैडमिंटन कोर्ट तैयार हो जाता है. मगर कोई न कोई दिक्कत आ ही जाती है. कहानी के अंत में ये बच्चे शूटिंग के लिए पंचगनी पहुंचते हैं और वहां उन का बैडमिंटन खेलने का सपना पूरा होता है.
फिल्म का क्लाइमैक्स दर्शकों को असीम खुशियों से भर देता है. बालसुख कहानी फिल्म की खासीयत है. दोनों बच्चों ने बेहतरीन अभिनय किया है. सभी कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. निर्देशक ने आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के बीच समाज को बहुत बड़ा विलेन दिखाया है. उस ने दिखाया है कि जिन बच्चों के बाप मर जाते हैं उन्हें पुलिस वाले खाना खिलाते हैं. फिल्म के संवाद दिलों को छू जाते हैं. सैट डिजाइनिंग अच्छी की गई है. फिल्म की लंबाई ठीकठाक है. संगीत के सांचे में ढले ‘ऐ दिल की नन्ही चिडि़या…’, ‘बादल बरसे…’, ‘दोनों तरफ सन्नाटा…’ गीत विषयानुकूल हैं. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.