Terrorism : कश्मीर घाटी के पहलगाम में 22 अप्रैल, 2025 को आतंकवादी हमला हुआ. आतंकवाद से लगभग पूरी दुनिया त्रस्त है. यूरोप, अमेरिका और एशिया आतंकवाद का दंश झेल रहे हैं और आतंकवाद से लगातार लड़ भी रहे हैं लेकिन आतंकवाद खत्म नहीं हो पा रहा. सवाल यह है कि पूरी दुनिया में आतंकवाद है क्यों? आतंकवाद के पीछे राजनीति है या धर्म? आतंकवादियों के निशाने पर निर्दोष लोग ही क्यों होते हैं?
विश्व वर्ष 1945 के बाद युद्धों से तो छुटकारा पा गया और बहुत बड़े भूभाग में कहीं भी कोई वर्षों चलने वाला बड़ा युद्ध नहीं हुआ. कोरिया, मिस्र, वियतनाम, अफगानिस्तान, इराक, कुवैत, सीरिया, यूक्रेन में युद्ध हुए या हो रहे हैं पर उस पैमाने पर नहीं जो 1914 से 1919 और 1940 से 1945 के बीच हुए.
उस से पहले लोगों को शांति गरमी की बारिश की तरह मिलती थी, कुछ दिनों के लिए. 1945 के बाद बहुत खतरनाक बमों, एटमबमों के कारण युद्ध छोटे से इलाके, 2 देशों में या एक देश के कुछ हिस्सों में हो रहे हैं. हर समय दुनिया की 90-95 प्रतिशत जनता शांति से ही नहीं रहती रही, वह अगले 10, 20, 30, 40 वर्षों की योजनाएं भी बनाती रही. आतंकवाद इस मामले में अपवाद है कि उस से मरने वालों की संख्या किसी भी एक बड़े शहर में सालभर में होने वाली कार दुर्घटनाओं से मरने वालों से कम रही है.
7 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 22 अप्रैल को हुए पहलगाम हत्याकांड पर पूरे पाकिस्तान पर हमला नहीं किया, हालांकि नरेंद्र मोदी की पार्टी के अंधभक्त यही चाहते थे. नरेंद्र मोदी को मालूम था कि एटम बमों से लैस पाकिस्तान पर हमला कभी भी सफल नहीं हो सकता. वे सिर्फ भारत की जनता को संतुष्ट करने के लिए कुछ कर सकते हैं और बाजेगाजे के साथ भारतीय सीमा में उड़ते हुए हवाई जहाजों ने मिसाइलें उन मकानों पर मारीं जहां आतंकवादियों के होने का अंदाजा था.
बरसैन में जिन्होंने हत्याकांड को अंजाम दिया था, वे वहां थे, यह पक्का नहीं था क्योंकि 9 ठिकानों पर मिसाइल हमले किए गए जबकि आतंकवादी सिर्फ 4 थे. वे एक जगह होने चाहिए थे या 4 जगह लेकिन हमारी खुफिया एजेंसियों को यह मालूम नहीं था. 22 अप्रैल से 7 मई तक भारत सरकार ने किसी भी आतंकवादी के भारत में पकड़े जाने, उन का साथ देने, उन को ठहराने, उन को लाने व ले जाने के लिए किसी को भी पकड़ने की घोषणा नहीं की. हमारा यह अनुमान था कि इन 9 ठिकानों पर वे आतंकवादी होंगे.
4 दिनों की कार्रवाई से क्या भारत पर आतंकवादी हमले रुक जाएंगे और पाकिस्तान में ब्रेनवाश करने वाले और हथियार जमा करने वाले अपनी दुकानें बंद कर देंगे, ऐसा नहीं लगता. भारत व पाक के बीच बातचीत जो शायद जेनेवा में अगले माहों में हो, पाकिस्तान के कसबों में से आतंकवादियों की उपज को जला देगी, ऐसा भी नहीं हो सकता. 70 सालों में हम अपने दलितों और शूद्रों के प्रति हो रहे सामूहिक अत्याचारों को बंद नहीं कर पाए जबकि हमारे पास मुस्तैद पुलिस है, कानून हैं, अदालतें हैं और संविधान की सुरक्षा है.
आतंकवाद क्या है और इस की शुरुआत कहां से हुई?
किसी सरकार पर दबाव बनाने के लिए कुछ संगठित पर बहुत छोटे गिरोहों द्वारा हिंसा का इस्तेमाल और उस हिंसा में आम लोगों को निशाना बनाया जाना आतंकवाद कहलाता है. धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक या निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ आतंकी संगठन हिंसा का प्रयोग करते हैं और आम लोगों को निशाना बनाते हैं. ये लोग पूरी सेना का गठन नहीं कर पाते तो 100-200 लोगों को मिला कर आम लोगों को निशाना बना कर सरकार को डराते हैं. इन का अतापता आमतौर पर नहीं होता क्योंकि ये खंडहरों, जंगलों, पहाडि़यों में आम लोगों की तरह रहते हैं और देश की सरकार की सेना, पुलिस या गुप्तचर असहाय रह जाते हैं. अपनी मानसिकता को बलात थोपने की प्रकिया में शामिल ये कट्टरपंथी लोग आतंकी कहलाते हैं. वैसे, इस धरती पर आतंकवाद तो तब से है जब से एक ताकतवर कबीले से बदला लेने के लिए कुछ संगठित गिरोहों ने उस कबीले के निर्दोष लोगों को निशाना बनाया.
पहली शताब्दी ईसवी के ‘सिकारि जीलट्स समूह’ को इतिहास के शुरुआती आतंकवादी संगठनों में से माना जाता है जिस ने रोमन साम्राज्य के यहूदिया प्रांत में भयंकर आतंक मचाया था. ये लोग रात के अंधेरे में भीड़भाड़ वाली जगहों पर हमला करते और निर्दोष लोगों की बेरहमी से हत्या कर फरार हो जाते थे.
एक दशक तक ‘सिकारी जीलट्स’ ने उत्पात मचाया और हजारों बेकुसूरों की हत्याएं कीं. यह यहूदियों का एक समूह था जो ‘सिकारी जीलट्स’ के नेतृव में रोमन शासन के खिलाफ बगावत पर उतर आया था. रोमन की सेना मजबूत थी. ये लोग उस से सीधी लड़ाई में जीत नहीं सकते थे, इसलिए ‘सिकारी जीलट्स’ ने ‘आतंक’ का रास्ता अपनाया.
इंग्लिश में ‘टैररिज्म’ शब्द की उत्पत्ति फ्रांस में 5 सितंबर, 1793 से 28 जुलाई, 1794 के दौरान हुई थी. यह फ्रांसीसी क्रांति के दौरान 11 महीनों की अवधि थी जब जैकोबिन्स ने शासन के दुश्मनों को डराने और सत्ता को मजबूर करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया था.
फ्रांसीसी क्रांति के बाद आतंकवाद के अलगअलग रूप दुनियाभर में उभरे. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया की औपनिवेशिक ताकतों के पीछे हटने के साथ ही एशिया, अफ्रीका और यूरोप में कई नए राष्ट्र अस्तित्व में आए. राष्ट्रों की नई सीमाएं निर्धारित हुईं और देशों के इस बंटवारे के बीच कई गुटों को नजरअंदाज कर दिया गया जिस से कई राष्ट्रवादी समूह उभर कर सामने आए और उन्होंने अपनी मांगों के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया. इस तरह 20वीं सदी के अंत तक दुनियाभर में धार्मिक, राजनीतिक और राष्ट्रवादी आंदोलनों के नाम पर आतंकवाद जारी रहा.
रशिया और अमेरिका के बीच चले शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका की तालिबान जैसे आतंकवादी संगठनों को खड़ा करने में भूमिका रही लेकिन अमेरिका खुद ही आतंकवाद का शिकार हो गया. 11 सितंबर, 2001, जिसे 9/11 कहा जाता है, को अमेरिका में भयंकर आतंकवादी हमला हुआ जिस के पीछे इन्हीं तालिबान का हाथ था. अमेरिका में हुए 9/11 के हमलों के बाद आतंकवाद पूरी दुनिया के लिए सब से बड़ा खतरा बन गया.
क्या आतंकवाद का धर्म नहीं होता?
समयसमय पर सभी धर्मों को ‘आतंकवाद’ की जरूरत पड़ती है. आतंकवाद के एलिमैंट्स सभी धर्मों में मौजूद होते हैं. दुनिया के किसी भी धर्म से यदि हिंसा, युद्ध, घृणा और अंधविश्वास जैसे तत्त्वों को निकाल दिया जाए तो उस में कुछ बचेगा ही नहीं. आतंकवाद के बिना कोई भी धर्म इतनी सदियों तक वजूद में नहीं होता. सभी धर्मों की पोथियों में हिंसा एक अवश्यंभावी तत्त्व जरूर रहा है. गीता, रामायण, कुरआन, बाइबिल या कोई भी धर्मग्रंथ हो, सभी में हिंसा मौजूद है.
यही कारण है कि जिहाद, क्रूसेड और धर्मयुद्ध के नाम पर हिंसा का लंबा इतिहास रहा और आतंकवाद से हर धर्म का संबंध रहा. हालांकि दुनिया में कई ऐसे आतंकी संगठन भी हैं जिन का किसी भी धर्म से कोई संबंध नहीं है. सो ऐसे में आतंकवाद से किसी एक धर्म को जोड़ना गलत है. लेकिन पूरी दुनिया में पिछले
30 वर्षों में हुई आतंकी घटनाओं के लिए जिम्मेदार ज्यादातर आतंकी संगठनों का संबंध इसलाम से ही रहा है, इसलिए ‘इसलामिक आतंकवाद’ शब्द पूर्वाग्रह नहीं बल्कि एक कड़वी सच्चाई है.
पहलगाम में दिन के उजाले में पर्यटकों को इसलामिक आतंकवाद का क्रूर चेहरा देखने को मिला, जब धर्म पूछ कर गोलियां मारी गईं.
इसलामिक आतंकवाद
दुनियाभर में पिछले 30 या 40 सालों में हुए आतंकी हमलों पर नजर डालें तो 95 फीसदी आतंकी हमलों के पीछे इसलामिक गुटों की सक्रियता रही है. इस से पूरी दुनिया में आतंकवाद को इसलाम से जोड़ना आसान हो गया है.
हालांकि पूरी दुनिया में सक्रिय आतंकी गुटों में ईसाई और कई गैरइसलामी गुट भी शामिल हैं लेकिन 1979 से अप्रैल 2024 के बीच हुए 80 प्रतिशत आतंकी हमलों के लिए 5 इसलामी समूह तालिबान, इसलामिक स्टेट, बोको हरम, अल शबाब और अलकायदा जिम्मेदार रहे हैं.
जरमन अखबार वेल्ट एम सोनटैग के अनुसार, 11 सितंबर, 2001 से 21 अप्रैल, 2019 के बीच 31,221 आतंकी हमले हुए, जिन में 146,811 लोग मारे गए. इन हमलों के लिए जिम्मेदार सभी आतंकी गुट इसलाम से संबंधित थे.
पहलगाम की आतंकी घटना के दौरान यह पहली बार देखने को मिला है कि आतंकियों ने लोगों से धर्म पूछ कर निशाना बनाया जबकि पूरी दुनिया में आतंक का सब से ज्यादा शिकार मुसलमान ही हुए हैं. 1990 के दशक से दुनियाभर में इसलामी आतंकवादी घटनाएं हुई हैं और इन आतंकी हमलों में मुसलमानों व गैरमुसलमानों दोनों को निशाना बनाया गया. ज्यादातर आतंकी हमले मुसलिम देशों में ही हुए हैं, इसलिए आतंक का शिकार भी ज्यादातर मुसलमान ही हुए हैं. एक अध्ययन के अनुसार, 1990 से 2024 के बीच हुए आतंकी हमलों में 80 से 90 फीसदी पीडि़त मुसलिम हैं. 2011 से 2014 के बीच हुए आतंकी हमलों में कुल 33,438 लोग मारे गए थे जिन में 29,663 मुसलमान थे.
वैश्विक आतंकवाद सूचकांक 2024 के अनुसार, दुनियाभर में सक्रिय आतंकवादी संगठनों की लिस्ट में आईएस और हमास के नाम सब से ऊपर हैं. 7 अक्तूबर, 2022 को इसराइल में हमास द्वारा किए गए हमले के बावजूद इसलामिक स्टेट दुनिया का सब से घातक आतंकवादी समूह बना हुआ है.
अर्थशास्त्र एवं शांति संस्थान यानी आईईपी द्वारा तैयार वार्षिक वैश्विक आतंकवाद सूचकांक 2024 यानी जीटीआई के अनुसार, 2023 में सब से ज्यादा मौतों के लिए जिम्मेदार चार आतंकवादी समूह इसलामिक स्टेट यानी आईएस, हमास, जमात नुसरत अलइसलाम वलमुसलिमीन यानी जेएनआईएम और अलशबाब थे. ये 4 समूह संयुक्त रूप से 4,443 मौतों के लिए जिम्मेदार थे. इन मौतों में 1,636 मौतों के लिए इसलामिक स्टेट जिम्मेदार था.
2023 में आईएस आतंकवादी हमलों से सब से ज्यादा प्रभावित देश सीरिया था, जहां 2023 में 224 हमले दर्ज किए गए, जो 2022 में हुए 152 हमलों से ज्यादा हैं. सीरिया में आईएस हमलों से सब से ज्यादा मौतें भी दर्ज की गईं. आईएस की वजह से होने वाली सभी मौतों में से एकचौथाई सीरिया में हुईं.
वर्ष 2023 में हमास दूसरा सब से खतरनाक आतंकवादी संगठन था जो 2023 के 9 आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार था जिन में 1,209 मौतें हुईं. 7 अक्तूबर, 2023 को हमास के आतंकवादियों ने इसराइल पर रौकेट हमले किए जिस के परिणामस्वरूप 1,200 मौतें हुईं, 4,500 से ज्यादा लोग घायल हुए और 250 लोगों को बंधक बनाया गया. यह 1970 के बाद से दर्ज किए गए उन 4 भीषण आतंकवादी हमलों में से एक था, जिस के परिणामस्वरूप 1,000 से अधिक मौतें हुईं. यह 9/11 के बाद किसी एक हमले में हुई सब से अधिक मौतें थीं.
जमात नुसरत अलइसलाम वलमुसलिमीन ‘जेएनआईएम’ 2023 में तीसरा सब से खतरनाक आतंकवादी समूह रहा जिस ने 2023 में 1,099 मौतों और 112 हमलों की जिम्मेदारी ली थी.
अलशबाब पूर्वी अफ्रीका में सक्रिय सलाफी आतंकवादी समूह 2023 में चौथा सब से घातक आतंकवादी संगठन रहा, जिस ने 2023 में 227 हमले और 499 लोगों की मौत की जिम्मेदारी ली थी. अनुमान है कि अलशबाब के पास 7,000 से 9,000 लड़ाके हैं.
मुसलिम देशों में बेरोजगारी और इसलामिक कट्टरता की वजह से नौजवान आतंकी संगठनों का हिस्सा बनते हैं जहां कुरान और हदीसों के नाम पर उन्हें जिहाद के लिए ब्रेनवाश किया जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत से पहले इसलाम में कोई आतंकवाद नहीं था, जबकि यह पूरी तरह सच नहीं है. इसलाम की शुरुआत से ही ऐसे विद्रोही गुट सक्रिय रहे हैं जिन्होंने इसलाम के नाम पर आम नागरिकों का कत्लेआम किया. जिहाद के नाम पर दहशतगर्दी का सिलसिला इसलाम की शुरुआत से ही जारी है. खारिजाइट्स, साहल इब्न सलामा, बारबहारी, कादिजादेली और इब्न अब्द अलवहाब जैसे आतंकी गुट 7वीं सदी के बाद से सक्रिय रहे और कई सदियों तक आतंक फैलाया. अल्लाह के सच्चे दीन की पुनर्स्थापना के नाम पर 7वीं सदी के खारिजाइट्स ने बड़ी तादाद में कत्लेआम किया. शिया और सुन्नियों के अलगअलग गुटों ने भी इसलाम के नाम पर सदियों तक रक्त बहाया.
1960 के दशक में अलफतह और पौपुलर फ्रंट फौर द लिबरेशन औफ फिलिस्तीन (पीएफएलपी) जैसे इसलामिक संगठनों ने आम नागरिकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया था. 1967 में अरब सेनाओं पर इसराइल की जीत के बाद फिलिस्तीनी उग्रवादी नेताओं को यह एहसास होने लगा कि अरब दुनिया मिल कर भी युद्ध के मैदान में इसराइल को नहीं हरा सकती और तब फिलिस्तीनी गुटों ने आतंकवाद का रास्ता अपनाया.
1979 में हुई ईरानी क्रांति के बाद ईरानइराक युद्ध और लेबनान पर इसराइल के कब्जे से लड़ने वाले शिया समूहों को आयतुल्लाह खोमैनी का समर्थन मिलने से आतंकवाद के उदय में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ आ गया.
पड़ोसी देश पाकिस्तान आतंकी संगठनों को पोसता है, इसलिए पाकिस्तान को ‘आतंकियों का स्वर्ग’ कहा जाता है. लश्कर ए तैयबा, लश्कर ए ओमर, जैश ए मोहम्मद, हरकतुल मुजाहिद्दीन, सिपाह ए सहाबा, हिजबुल मुजाहिदीन आदि सब के सब पाकिस्तान में रह कर अपनी आतंकी गतिविधियां चलाते हैं और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई इन्हें ट्रेनिंग देती है. भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों में पाकिस्तान के इन आतंकी संगठनों की ही अहम भूमिका होती है. भारत सरकार ने अभी तक ऐसे कुल 42 संगठनों को आतंकवादी संगठन घोषित किया है.
वैश्विक आतंकवाद सूचकांक 2024 के अनुसार, 2023 में आतंकवाद के कारण होने वाली मौतों में 22 फीसदी की वृद्धि हुई है और यह 8,352 हो गई है.
इसलामिक कट्टरवाद से ही ‘इसलामिक आतंकवाद’ का जन्म हुआ है. इसलाम में कट्टरवाद हमेशा से रहा है. इसी कट्टरवाद के कारण पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे इसलामिक देशों में अल्पसंख्यकों का जीना दूभर हो गया है और यह कट्टरवाद भी एक तरह का इसलामिक आतंकवाद ही है. पाकिस्तान में ईसाई अल्पसंख्यक हैं और पिछले कई दशकों से वे इसलामिक कट्टरवाद का जबरदस्त शिकार हो रहे हैं.
16 अगस्त, 2023 को टीएलपी के इसलामिक आतंकवादियों ने पाकिस्तान के जरनवाला में ईसाइयों पर हमला किया जिस में 80 से ज्यादा चर्चों को जला दिया गया और कई ईसाई बस्तियों को आग लगा दी गई.
9 अगस्त, 2002 को बंदूकधारियों ने पाकिस्तान के पंजाब राज्य के तक्षशिला क्रिश्चियन अस्पताल के मैदान में एक चर्च में हथगोले फेंके, जिस में 4 ईसाइयों की मौत हो गई और 25 लोग घायल हो गए.
25 सितंबर, 2002 को मुसलिम आतंकवादी कराची के इंस्टिट्यूट फौर पीस एंड जस्टिस की तीसरी मंजिल के कार्यालय में घुस गए और 6 ईसाइयों के सिर में गोली मार दी.
25 दिसंबर, 2002 को एक मौलवी ने ईसाइयों के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिया और बुर्का पहने 2 मुसलिम बंदूकधारियों ने पूर्वी पाकिस्तान के चियानवाला में एक प्रेस्बिटेरियन चर्च में ग्रेनेड फेंका, जिस में 3 लड़कियों की मौत हो गई.
नवंबर 2005 में 3,000 इसलामवादी उग्रवादियों ने पाकिस्तान के सांगला हिल में ईसाइयों पर हमला किया और ईसाइयों की कई इबादतगाहों को नष्ट कर दिया.
फरवरी 2006 में डेनमार्क के एक अखबार में हजरत मुहम्मद के छपे कार्टून के विरोध में पाकिस्तान के कई चर्चों और ईसाई स्कूलों को इसलामिक आतंकवादियों द्वारा निशाना बनाया गया.
22 सितंबर, 2013 को पेशावर के आल सैंट्स चर्च में हुए एक आत्मघाती हमले में 75 ईसाई मारे गए.
15 मार्च, 2015 को लाहौर के योहानाबाद शहर में रविवार की प्रार्थना के दौरान एक रोमन कैथोलिक चर्च और एक क्राइस्ट चर्च में विस्फोट हुए, इन हमलों में कम से कम 15 लोग मारे गए और 70 घायल हो गए.
27 मार्च, 2016 को जब ईसाई ईस्टर की सभा आयोजित कर रहे थे, लाहौर में एक खेल के मैदान पर आत्मघाती हमला हुआ. उस हमले में 70 लोग मारे गए और 340 से अधिक घायल हो गए.
17 दिसंबर, 2017 को एक बम विस्फोट में 9 लोगों की मौत हो गई और 57 घायल हो गए.
16 अगस्त, 2023 को पाकिस्तान के पंजाब के जरनवाला में 26 ईसाई चर्चों को जला दिया गया.
कट्टरवाद हर धर्म में होता है लेकिन जब किसी धर्म का आम आदमी अपने मजहब के कट्टरवाद को जिंदा रखने के लिए किसी की जान लेने या अपनी जान देने पर आमादा हो जाए, ऐसा मजहब दुनिया के लिए नासूर ही साबित होता है. दुनिया के लिए इसलाम कुछ ऐसा ही नासूर बनता जा रहा है.
19वीं सदी तक कट्टर ईसाइयत हिंसा दुनिया के लिए नासूर बनी रही लेकिन ईसाइयों ने खुद आगे आ कर पादरियों व चर्चों की सत्ता को खत्म किया. इस से ईसाई धर्म की कट्टरता और उद्दंडता पर लगाम लगी और उस के बाद ही ईसाइयों ने मानवता व विज्ञान के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों को हासिल किया.
आज पूरी दुनिया में इसलाम को ले कर जो भय है उसे इसलामोफोबिया का नाम दे कर छिपाया नहीं जा सकता. यह डर स्वाभाविक है और मुसलिमों को ले कर इस डर के पीछे गैरमुसलिमों की साजिश नहीं है बल्कि यह मुसलमानों की हरकतों से पैदा हुआ गैरमुसलिम जमात का रिऐक्शन है, जिसे ठीक से समझने की जरूरत है.
अगर दुनिया में इसलामोफोबिया है भी, तो यह मुसलमानों की करतूतों की वजह से है और यदि मुसलमान इसलामोफोबिया को खत्म करना चाहते हैं तो इस का तरीका यह नहीं होगा कि गैरमुसलिमों के अंदर बैठे स्वाभाविक डर को झुठा साबित करने के लिए मुसलमान इसलामोफोबिया जैसे शब्दों की आड़ में छिप जाएं बल्कि मुसलमानों को अपनी कमियों को नजरअंदाज करने की गंदी आदत को छोड़ना होगा.
अगर मुसलमानों को इसलामोफोबिया के माहौल को खत्म करना है और दुनिया में मुहब्बत व तरक्की के साथ जीना है तो उन्हें जहर उगलने वाले अपने नफरती उलेमाओं का बौयकाट करना होगा और ‘इसलामिक आतंकवाद’ के खिलाफ आगे आ कर अपनी आवाज बुलंद करनी होगी.
हमास, तालिबान, हिजबुल्ला, लश्करे तैयबा या तहरीके लब्बैक जैसे संगठनों ने दहशतगर्दी को इसलाम का पर्यायवाची बना दिया है. इसलाम के मुल्ला और उलेमाओं की फौज मुसलमानों की आजाद सोच के खिलाफ इसलाम का डंडा लिए खड़ी है.
मुसलमानों को उल्लू बनाए रखने में मुल्लाओं को जन्नतुल फिरदौस मिलने की गारंटी होती है, इसलिए वे कौम के भविष्य को मुट्ठियों में कैद कर रखना चाहते हैं. अगर दुनिया में इसलामोफोबिया है तो इस की वजह वे लोग हैं जो मुसलमानों की रहनुमाई करने का दावा करते हैं. आम मुसलमान इन धूर्तों के चंगुल में फंस कर बरबाद होता है. वह यह नहीं जानता कि मुसलमानों की तरक्की इन मुल्लाओं ने ही रोकी हुई है.
मुसलमानों को इसलामोफोबिया की आड़ में अपनी कमियों को ढकने की आदतों को छोड़ना होगा और इसलामोफोबिया के लिए अपने गरीबान में झांक कर देखना होगा.
कट्टरपंथी मुसलमानों की गलतियों की वजह से ही दक्षिणपंथी जमातों को ताकत मिलती है और फासिस्ट जमातें सत्ता पर काबिज हो जाती हैं. इटली हो या इंडिया, आज हर जगह मुसलमानों के खिलाफ राजनीति का बाजार गरम है, तो इस के लिए जिम्मेदार मुसलमान ही हैं.
यह कहना सही न होगा कि मुसलमानों के खिलाफ उन के धर्म के आधार पर ज्यादती नहीं होती. पिछले एक दशक से भारत की दक्षिणपंथी राजनीति का शिकार मुसलमान ही हो रहे हैं. दुनिया में कहीं भी होने वाली बर्बरता पूरी मानवता के लिए कलंक है. ज्यादती चाहे मुसलमानों के खिलाफ हो या मुसलमानों के द्वारा दूसरे धर्मों के खिलाफ हो, दोनों ही गलत हैं.
गैरइसलामिक आतंकवाद
‘इसलामिक आतंकवाद’ से अलग दुनियाभर में कई ऐसे आतंकी संगठन रहे हैं जिन्होंने हजारों बेकुसूर लोगों की जानें लीं और शहरों को तबाह किया. भारत में ही कई गैरइसलामी आतंकवादी पनपते रहे हैं.
खालिस्तानी आतंकवाद – पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा, हिमाचल, दिल्ली और राजस्थान के कुछ इलाकों को मिला कर एक अलग देश बनाने के लिए सिख अलगाववादी समूहों ने 1947 में भारत की आजादी के साथ ही खालिस्तान बनाने की मांग कर दी थी.
1947 के बाद पाकिस्तान की आईएस के समर्थन से खालिस्तानी आंदोलन पंजाब में फलाफूला और 1980 के दशक तक यह आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया. 1984 के दशक में उग्रवाद की शुरुआत हुई जो 1995 तक चला.
औपरेशन ब्लू स्टार की प्रतिक्रिया में सिख आतंकवादियों ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या कर दी. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारी पुलिस एवं सैन्य कार्रवाई से एक बड़ी सिख आबादी का इस आंदोलन से मोहभंग हो गया जिस के परिणामस्वरूप 1990 तक खालिस्तानी आतंकवाद कमजोर पड़ने लगा और 1995 तक यह लगभग खत्म हो गया. अब कनाडा में कुछ सिख गुट इसे जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं.
बोड़ो लिबरेशन टाइगर्स फोर्स (बीएलटी) नामक इस उग्रवादी संगठन को बोड़ो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के नाम से भी जाना जाता है. यह असम में सक्रिय एक आतंकवादी समूह था. बीएलटी की स्थापना 18 जून, 1996 को प्रेम सिंह ब्रह्मा और हाग्रामा मोहिलारी द्वारा की गई थी. हाग्रामा मोहिलारी संगठन के प्रमुख थे. 1996 से 2003 के बीच बीएलटी ने असम के कई इलाकों में दहशतगर्दी फैलाई. 10 फरवरी, 2003 को बीएलटीएफ और भारत सरकार के बीच दिल्ली में एक समझौता हुआ. समझौते के बाद 6 दिसंबर, 2003 को असम में बीएलटीएफ के 2,641 कैडरों ने आत्मसमर्पण कर दिया.
लिट्टे (एलटीटीई) जिसे लिबरेशन टाइगर्स औफ तमिल ईलम के नाम से भी जाना जाता है, एक श्रीलंकाई तमिल आतंकवादी संगठन था जो 1980 के दशक से 2009 तक सक्रिय रहा. इस का नेतृत्व वेलुपिल्लई प्रभाकरण ने किया था. लिट्टे श्रीलंका में तमिलों के लिए एक अलग राज्य की मांग कर रहा था.
लिट्टे ने कई सालों तक श्रीलंकाई सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया. इस आतंकी संगठन ने कई आत्मघाती हमले किए थे जिन में सैकड़ों लोगों की मौत हुई थी. यह आतंकी संगठन राजीव गांधी की हत्या में भी शामिल रहा जिस की वजह से लिट्टे को कई देशों ने आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया था.
2009 में श्रीलंकाई सेना ने वेलुपिल्लई प्रभाकरण को मार दिया और प्रभाकरण की मौत के साथ ही लिट्टे खत्म हो गया. उसी दौरान एक बार श्रीलंका सरकार को सहायता देने के लिए 40 हजार भारतीय सैनिकों को लिट्टे से निबटने के लिए श्रीलंका भेजा गया पर वे बिना कुछ पाए लौट आए पर फिर सिंहली सेना ने तमिल उग्रवादियों को समाप्त कर ही दिया.
उत्तरी आयरलैंड में आयरिश रिपब्लिकन आर्मी (आईआरए) नामक यह एक आतंकवादी संगठन था जिस का उद्देश्य आयरलैंड से ब्रिटिशर्स को खदेड़ना था. 1960 और 1990 के बीच इस संगठन ने कई बम धमाकों को अंजाम दिए जिन में बड़ी तादाद में लोग मारे गए. आयरलैंड के लिए वह समय इतना भयानक था कि 1960 से 1990 के बीच के उस दौर को ‘द ट्रबल’ के नाम से जाना जाता है.
स्पेन के बास्क इलाके के लोग स्वतंत्र देश बनाने के लिए आतंकवादी घटनाएं करते रहे हैं और 2004 में मैड्रिड में उन्होंने रेलों में एक ही दिन कई बम विस्फोट किए.
आगे का अंश बौक्स के बाद
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क्या आतंकवाद को खत्म करने का एकमात्र तरीका युद्ध है?
पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई. भारतीय सेना ने पाकिस्तान स्थित कई आतंकी अड्डों पर सर्जिकल स्ट्राइक की तो पाकिस्तान ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए भारतीय सीमा में गोलाबारी की. 10 मई को सीजफायर के ऐलान के बाद भारत के प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हम ने पाकिस्तान के आतंकी और सैन्य ठिकानों पर अपनी जवाबी कार्रवाई को अभी सिर्फ स्थगित किया है, आने वाले दिनों में हम पाकिस्तान के हर कदम को इस कसौटी पर मापेंगे कि वह क्या रवैया अपनाता है.’’
प्रधानमंत्री के इस बयान से साफ है कि युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है. सवाल यह है कि क्या आतंकवाद से निबटने के लिए इस तरह के महंगे युद्ध जरूरी होते हैं? आतंकवाद को खत्म करने के लिए क्या युद्ध ही एकमात्र विकल्प है?
9/11 हमले के बाद अमेरिका ने आतंकवाद से निबटने के नाम पर अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ दिया. तालिबान ने अमेरिकी हमलों के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को सौंपने से इनकार कर दिया था. अमेरिका ने अलकायदा को नष्ट करने और तालिबान को हटाने के लिए अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
2001 में शुरू हुआ यह युद्ध 2021 तक चला. अमेरिका ने इस युद्ध पर 2.26 ट्रिलियन डौलर खर्च किए जिस में अप्रैल 2021 तक कुल 2,41,000 लोग मारे गए. इन में 70,000 अफगानिस्तान और पाकिस्तान के वे आम नागरिक थे जिन का युद्ध से लेनादेना नहीं था. 20 वर्षों तक चले इस युद्ध में अमेरिका के भी हजारों सैनिक मारे गए थे, फिर भी न आतंकवाद खत्म हुआ, न तालिबान खत्म हुआ और न ही अलकायदा. इन 20 सालों में अमेरिका की उपलब्धि यह रही कि 2 मई, 2011 को अमेरिकी नेवी सील्स की एक विशेष टीम ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद में ‘औपरेशन नेप्चयून स्पियर’ को अंजाम दिया और रात के अंधेरे मे ओसामा बिन लादेन को मार डाला. यानी, खोदा पहाड़ और निकला चूहा, वह भी तब जब मर सा चुका था क्योंकि पाकिस्तान सेना उसे कोई काम नहीं करने दे रही थी.
2 देशों के बीच का युद्ध और आतंकवाद के खिलाफ होने वाले युद्ध में बड़ा फर्क होता है. दुश्मन देश को सीधी लड़ाई में चुनौती दी जा सकती है, उसे हराया जा सकता है. दो राष्ट्रों के बीच होने वाली लड़ाई असल में दो सेनाओं के बीच का युद्ध होता है जिस में दोनों ओर से अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन किया जाता है और सीजफायर होने पर दोनों ओर की सेनाओं को युद्ध से पीछे हटना होता है लेकिन आतंकवाद के मामले में ऐसा नहीं होता.
आतंकवादियों की लड़ाई किसी देश और उस की सेना के खिलाफ ही होती है. आतंकी समूह जानते हैं कि वे किसी देश की सेना से सीधी लड़ाई में कभी भी जीत हासिल नहीं कर सकते, इसलिए वे अपने से ताकतवर देश और उस की सेना को चुनौती देने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाते हैं और आम लोगों को निशाना बनाते हैं. युद्ध में सैनिक शहीद होते हैं, यह गर्व की बात होती है लेकिन आतंकवाद से आम नागरिक मारा जाए, यह किसी भी देश के लिए सब से शर्मनाक स्थिति होती है.
सरकारों को यह समझना होगा कि सीधी लड़ाई में आतंक को खत्म नहीं किया जा सकता. सीधी लड़ाई में दुनिया का सब से ताकतवर देश अमेरिका भी आतंकवाद को नहीं हरा पाया. युद्ध के जरिए दहशतगर्दी का खात्मा मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. आतंकवाद को रोकने के लिए सरकारों को उन कारणों पर काम करना चाहिए जिन की वजह से आतंकवाद पैदा होता है.
आतंकवाद के लिए धार्मिक कट्टरवाद सब से बड़ा कारण है. सरकारों को सब से पहले धार्मिक कट्टरवाद पर लगाम लगाने के लिए दीर्घकालिक कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करनी होगी. आतंकवाद के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताएं भी बड़े कारक रहे हैं लेकिन सरकारें कभी भी इन असमानताओं को कम करने का प्रयास नहीं करतीं. शिक्षा और रोजगार की पहुंच जैसेजैसे बढ़नी शुरू होगी, आतंकवाद की मानसिकता कम होती जाएगी. नागरिकों के बीच विश्वास और सहिष्णुता को बढ़ावा देना भी अत्यंत जरूरी है वरना राष्ट्र के भीतर ही कई ऐसे विघटनकारी समूह तैयार हो जाएंगे जो भविष्य के लिए चुनौती ही साबित होंगे.
आतंकवाद से लड़ने में खुफिया तंत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. पहलगाम आतंकी हमला हमारे खुफिया तंत्र की बड़ी असफलता है. 2008 का मुंबई आतंकी हमला भी खुफिया तंत्र की नाकामी के कारण ही संभव हुआ. 2016 के उरी हमले में जम्मूकश्मीर के सैन्य अड्डे को निशाना बनाया गया था. उस में भी खुफिया एजेंसियों की नाकामी सामने आई थी. इसी तरह 2019 का पुलवामा हमला जिस में 40 सैनिकों की जान चली गई वह भी खुफिया विफलता का परिणाम था. हालांकि, कई बार खुफिया एजेंसियों की मुस्तैदी से बड़ी आतंकी घटनाएं रोकी गई हैं और आतंकियों को वारदात को अंजाम देने से पहले ही पकड़ा जा चुका है.
हर साल 21 मई को भारत राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी दिवस मनाता है. हर साल 21 मई हमें यह याद दिलाता है कि आतंकवाद किसी भी राष्ट्र के लिए एक गंभीर खतरा है लेकिन आतंकवाद से लड़ने का उपाय केवल युद्ध नहीं है. युद्ध से आतंकवाद कभी खत्म नहीं हो सकता.
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हिंदू आतंकवाद
‘हिंदू आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग तब हुआ जब समझौता एक्सप्रैस में हुए बम विस्फोट के आरोप में हिंदुत्वादी गुट ‘अभिनव भारत’ के कुछ लोगों को पकड़ा गया.
18 फरवरी, 2007 को आधी रात के आसपास समझता एक्सप्रैस के 2 डब्बों में दोहरे विस्फोट हुए. उन विस्फोट में 68 लोग मारे गए. उस घटना को हिंदू कट्टरपंथी समूह अभिनव भारत से जुड़े लोगों ने अंजाम दिया था. 8 जनवरी, 2011 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक स्वामी असीमानंद ने यह कबूल किया कि वह समझता एक्सप्रैस में किए गए बम विस्फोट में शामिल था.
11 अक्तूबर, 2007 को राजस्थान के अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के बाहर बम विस्फोट हुआ था, जिसे हिंदुत्व संगठन द्वारा अंजाम दिया गया था. 22 अक्तूबर, 2010 को इस विस्फोट के सिलसिले में 5 आरोपी अपराधियों को गिरफ्तार किया गया, जिन में से 4 के आरएसएस से जुड़े होने की बात कही गई.
स्वामी असीमानंद ने अपने कबूलनामे में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत पर आतंकवादी हमला करने का आदेश देने का आरोप लगाया और बम विस्फोटों के एक अन्य आरोपी भावेश पटेल ने असीमानंद के इन आरोपों की पुष्टि की. हालांकि, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने इन आरोपों को गलत बताया.
29 सितंबर, 2008 को गुजरात और महाराष्ट्र में 3 बम विस्फोट हुए जिन में 8 लोग मारे गए और 80 घायल हुए. महाराष्ट्र में जांच के दौरान हिंदू चरमपंथी समूह अभिनव भारत को विस्फोटों के लिए जिम्मेदार पाया पाया. गिरफ्तार किए गए 3 लोगों की पहचान साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, शिव नारायण गोपाल सिंह कलसंघरा और श्याम भंवरलाल साहू के रूप में हुई.
विकिलीक्स द्वारा जारी दस्तावेजों के अनुसार, कांग्रेस पार्टी के महासचिव राहुल गांधी ने जुलाई 2009 में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा उन के निवास पर आयोजित लंच में अमेरिकी राजदूत टिम रोमर से कहा था कि आरएसएस भारत के लिए लश्कर ए तैयबा से भी बड़ा खतरा है. 16 सितंबर, 2011 को नई दिल्ली में आयोजित पुलिस महानिदेशकों के वार्षिक सम्मेलन में खुफिया ब्यूरो (आईबी) के एक विशेष निदेशक ने पुलिस प्रमुखों को सूचित किया कि देश में बम विस्फोटों की 16 घटनाओं में हिंदुत्व कार्यकर्ताओं पर या तो संदेह है या वे जांच के दायरे में हैं.
हिंदुत्ववादियों द्वारा अंजाम दी गई ये आतंकी घटनाएं इसलाम व मुसलमानों के खिलाफ थीं, इसलिए इसे ‘हिंदू आतंकवाद’ का नाम दिया गया. अगर हिंदुत्ववादियों द्वारा दलितों पर किए गए हमलों को भी आतंकवाद की श्रेणी में रखा जाए तो ऐसी घटनाओं की सूची बहुत लंबी हो जाएगी.
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार : 30 नवंबर और 1 दिसंबर, 1997 की रात को किए गए नरसंहार में ऊंची जाति के राजपूतों की बनी रणवीर सेना ने 1 घंटे में 58 दलित लोगों की हत्या की थी. उस में बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भी निशाना बनाया गया था.
शंकर बिगहा नरसंहार : 25 जनवरी, 1999 की रात बिहार के जहानाबाद जिले में हुए शंकर बिगहा नरसंहार में 22 दलितों की हत्या कर दी गई थी.
बथानी टोला : साल 1996 में भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में दलित, मुसलिम और पिछड़ी जाति के 22 लोगों की हत्या कर दी गई. माना जाता है कि बारा गांव नरसंहार का बदला लेने के लिए ये हत्याएं की गई थीं. गया जिले के बारा गांव में माओवादियों ने 12 फरवरी, 1992 को अगड़ी जाति के 35 लोगों की गला रेत कर हत्या कर दी थी.
मियांपुर नरसंहार : औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 16 जून, 2000 को 35 दलित लोगों की हत्या कर दी गई थी.
बेल्छी नरसंहार : साल 1977 में पटना जिले के बेल्छी गांव में एक खास पिछड़ी जाति के लोगों ने 14 दलितों की हत्या कर दी थी.
1968 में किल्वेनमनी, तमिलनाडु में 44 दलित ग्रामीण मजदूरों की हत्या कर दी गई थी जो उच्च मजदूरी की मांग को ले कर हड़ताल पर थे.
1987 में बिहार में दलितों के खिलाफ एक नरसंहार हुआ था, जिस में कई लोग मारे गए थे.
1992 में बिहार में दलितों के खिलाफ एक और नरसंहार हुआ था, जिस में कई लोग मारे गए थे.
2006 में महाराष्ट्र में दलितों के खिलाफ एक नरसंहार हुआ था, जिस में कई लोग मारे गए थे.
हिंदू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद कोई नई चीज नहीं है. ऊंची जाति के हिंदुओं द्वारा निचली जातियों पर किए गए आतंकी हमलों का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन, निचली जातियों के प्रति हिंसा को कभी ‘आतंकवाद’ की श्रेणी में नहीं रखा गया. इसे सिर्फ सबक सिखाना कहा गया पर यह असल में इसलामी, आयरिश, बास्क, रेड आर्मी आतंकवाद से किसी तरह अलग नहीं है.
आतंकियों के निशाने पर आम आदमी ही क्यों
26 साल के विनय नरवाल अपनी पत्नी हिमांशी नरवाल के साथ पहलगाम में हनीमून मनाने गए थे. आतंकी हमले से 3 सप्ताह पहले ही विनय की शादी हिमांशी से हुई थी. पहलगाम में आतंकी हमले में लैफ्टिनैंट विनय नरवाल की मौत हो गई.
26 नवंबर, 2008 को पाकिस्तान में प्रशिक्षित और अत्याधुनिक हथियारों से लैस लश्कर ए तैयबा के 10 आतंकवादियों ने एक नाव के सहारे समुद्र के रास्ते मुंबई में प्रवेश किया था और मुंबई के भीड़भाड़ वाली जगहों पर तबाही मचाते हुए ताज होटल को निशाना बनाया. उस आतंकी हमले में 160 से अधिक लोग मारे गए थे और 200 से ज्यादा घायल हुए थे. उन आतंकवादियों का मानना था कि भारत में रह रहे मुसलमान जेलों में हैं जबकि हिंदू खुले में घूमते हैं.
भारत समेत दुनियाभर में ऐसी वीभत्स आतंकी घटनाएं होती रहती हैं जिन में आम आदमी को टारगेट किया जाता है. आतंकियों के लिए आम आदमी को टारगेट करना आसान होता है. देश के नेताओं और अभिनेताओं की सुरक्षा के लिए तो विशेष इंतजाम होते हैं लेकिन जनता की सुरक्षा तो भगवान भरोसे रहती है.
आतंकी संगठनों के लिए किसी देश की सेना से उलझना बड़ी चुनौती का काम होता है, इसलिए वे आम लोगों को निशाना बना कर मृतकों की संख्या के हिसाब से दहशतगर्दी फैलाते हैं. वे इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे कर सरकारों पर दबाव बनाने की कोशिश करते हैं. किसी देश की सरकार और कुछ विद्रोही समूहों के बीच की लड़ाई में आम नागरिक मारे जाते हैं.
एक घर का कोई व्यक्ति सुबह घर से काम पर निकला और किसी आतंकी हमले में मारा गया. इस में उस व्यक्ति का क्या कुसूर था? एक औरत अपने पति के साथ हनीमून पर गई और आतंकियों ने उस के सामने ही उस के पति को मार डाला.
आतंकी घटनाओं में सैकड़ों लोग बेमौत मारे जाते हैं. हर घटना के बाद मृतकों के घरवालों को मुआवजे के रूप में आर्थिक सहायता दी जाती है लेकिन सवाल यह है कि क्या कुछ लाख रुपयों के मुआवजे से उस औरत के जख्म को भरा जा सकता है जिस ने शादी के 3 सप्ताह के भीतर ही अपने पति को खो दिया?
हर आतंकी सिविलियन को निशाना बनाता है. बम ब्लास्ट में सिविलियन ही मरते हैं. सरकारें अपने नागरिकों को आतंकवाद से सुरक्षा की गारंटी नहीं दे पातीं. आम आदमी मेहनत करता है, परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा करता है, कानून का पालन करता है और अपनी सुरक्षा के लिए सरकार को टैक्स देता है. इस के बदले में उसे क्या मिलता है?
देश की सुरक्षा के लिए लड़ना सेना का काम है. देश की जनता के टैक्स के पैसों से ही सेना का खर्च वहन किया जाता है. लेकिन सेना पर भारीभरकम खर्च किए जाने के बावजूद आतंकवाद से देश की जनता ही सुरक्षित नहीं. कई बार खुफिया एजेंसियों की नाकामी से आतंक की वारदातें होती हैं और कई बार सेना की चूक से भी आतंकी अपने मंसूबों में कामयाब होते हैं. नतीजतन, बेकुसूर नागरिक मारे जाते हैं. हर घटना के बाद सरकारें खानापूर्ति में लग जाती हैं. जनता की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर सरकारों से सवाल करने की जिम्मेदारी मीडिया की है. लेकिन मीडिया अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से किनारा कर चुकी है. जनतंत्र में सब से महत्त्वपूर्ण जनता होती है. लेकिन यह कैसा जनतंत्र है जहां जनता ही सुरक्षित नहीं है?