Traditional Dress : दानपिंड बराबर होता रहे इसलिए धार्मिक विचारों का प्रोपगेंडा चारों तरफ से फैलाया जाता है. इसे युवाओं में पोपुलाराइज करने के लिए फैशन का इस्तेमाल किया जाता है.
जब भी फैशन की बात होती है तो आमतौर पर वेस्टर्न पोशाकों की ही तस्वीरें सामने दिखने लगती हैं. पीछे कुछ सालों में देखें तो यह तस्वीर बदल रही है. खासतौर पर 14-15 साल की लड़कियों से ले कर महिलाओं तक में यह बदलाव दिख रहा है. केवल पहनावा ही नहीं फेस्टिवल को जिस तरह से मनाया जाने लगा है वहां भी भारतीय पहनावा सब से आगे दिखने लगा है. लड़कियां सलवार सूट ही नहीं ट्रैडिशनल साड़़ी और डिजाइनर ब्लाउज पहनने लगी हैं. इस के साथ गहने भी पुरानी डिजाइन के खरीदे जाने लगे हैं.
लड़कियों में ही नहीं लड़कों में भी अब भारतीय पहनावे का क्रेज बढ़ रहा है. फेस्टिवल में लड़के भी कुर्तापायजामा के साथ सदरी पहनने लगे हैं. कई लड़के तो खास अवसरों पर धोती पहनने लगे हैं. यही कारण है कि रेडी टू वियर धोती आने लगी है. जिस को पैंट या पायजामे की तरह से पहन लिया जाता है. अब बहुत कम पार्टियों में सूट और टाई वाले लड़के दिखते हैं. मध्यम वर्ग में यह चलन बहुत तेजी से बढ़ा है. अपर क्लास भी इसी तरह का व्यवहार कर रहा है.
फैशन डिजाइनर निवेदिता सिंह सोमवंशी कहती हैं, “अब कोई इवैंट हो या फेस्टिवल सब बड़ी ट्रेडिशनल तरह से मनाए जाने लगे हैं. फेस्टिवल की तो अपनी एक थीम होती ही है जन्मदिन हो शादी या और अवसर इन की थीम भी ट्रेडिशनल होने लगी है. जैसे शादी के पहले हल्दी और मैंहदी होने लगी है. इस की पूरी थीम ट्रेडिशनल होती है. ऐसे में इस में हिस्सा लेने वाले ट्रेडिशनल ड्रैस ही पहनेंगे. वह चाह कर भी वैस्टर्न नहीं पहन सकते. स्कर्ट या गाउन पहन कर कोई हल्दी और मैंहदी के इवेंट नहीं कर सकता है.”
यही हाल शादियों का है. शादी में राजपूताना स्टाइल हर किसी को पंसद आने लगी है. दूल्हे के साथ तलवार सब रखते हैं. पहले यह राजपूत शादियों में दिखता था. एक जमाना था कि दूल्हा कार से ही बारात में जाता था. अब केवल दरवाजे बारात के लिए बग्घी और घोड़े का प्रयोग होता है. केवल इस दिखावे के लिए ही घोड़ा और बग्घी वाले हजारों रुपए खर्च कराते हैं.
बात केवल राजपूताना थीम की ही नहीं है. अब फेस्टिवल और इवेंट दोनों ही जगहों पर हिंदू संस्कृति हावी दिखने लगी है. फोटो, वीडियो और सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के लिए इस थीम को सब से ज्यादा पंसद किया जा रहा है.
जिन जातियों में कभी ब्राहमणवाद को विरोध होता है वहां भी शादियों में हिंदी संस्कृति का प्रभाव सजावट से ले कर पहनावे तक पर साफ दिखने लगा है. इस की सब से बड़ी वजह यह होती है कि लोग अपनी पहचान बनाने के लिए नेताओं और मंत्रियों को बुलाने लगे हैं. यह नेता और मंत्री आए तो उन को अच्छा लगे इस के लिए सजावट इन के हिसाब से करनी पड़ती है. पहले कांग्रेसी, बसपाई, वामपंथी और समाजवादी नेता भगवा रंग के कपड़ों को पहनने से परहेज करते थे. अब यह भी भगवा सदरी तो पहन ही लेते हैं. जो बहुत भगवा पहनने से बचते हैं उन को भी सफेद रंग के कपड़ों में संतोष करना पड़ रहा है.
सदरी क्यों है खास
सदरी को नेहरू जैकेट के नाम से भी जाना जाता है. इस की खूबसूरती यह है कि एथनिक लुक के लिए इन्हें कुर्ते के साथ या आधुनिक लुक के लिए शर्ट और ट्राउजर के साथ पहन सकते हैं. हर अवसर पर इस को पहना जा सकता है. कीमत के हिसाब से देखें तो हर आयवर्ग के लिए फिट रहती है. 800 रुपए से ले कर ऊपर इस की कीमत होती है. इस को बनाने में अलगअलग तरह का फैब्रिक प्रयोग किया जाता है. इस को प्रिंटैड शर्ट, सिंपल कुर्ता या सर्दियों के लिए टर्टलनेक के ऊपर पहन सकते हैं. इस के पहनने से कोई भी पोशाक बेहतर लुक देने लगती है.
अलगअलग फैब्रिक से बने होने के कारण यह टिकाऊ होने के साथ ही साथ आरामदायक भी होती है. मौसम के हिसाब से अलगअलग तरह की जैकेट का प्रयोग कर सकते हैं. मौसम के हिसाब से ही इस के रंग भी अलगअलग हो सकते हैं. आज के दौर में नेताओं के द्वारा इस को ज्यादा पहना जाता है. युवा अब पार्टियों में इस का प्रयोग करने लगे हैं. इस को पहनते समय सब से बड़ी मांग इस के ट्रैडिशनल होने के कारण होती है.
बदल रही महिलाओं की सोच
महिलाओं की बात करें तो सलवारसूट पहनने की यह मानसिकता अब मध्यम आयु वर्ग की महिलाओं में अधिक लोकप्रिय है. पहले अधेड़ उम्र की महिलाएं साड़ी पहनने के लिए जानी जाती थीं. सलवारकमीज भी पहनावे का हिस्सा हो गया है. 35-50 साल की महिलाएं सलवार सूट में घूमते हुए देखी जा सकती थी. पहले सलवार सूट पहनने से मना किया जाता था. अब वैस्टर्न ड्रैस की जगह पर सलवारसूट को स्थान दे दिया गया है. पार्टी में अभी भी साड़ी ही सब से ऊपर ट्रैंड कर रही है. फेस्टिवल और शादी साड़ियों के साथ पहना जाने वाला ब्लाउज अलग स्टाइल का हो सकता है.
अब उत्तर भारत की साड़ी पर राजस्थानी लंहगा वाली साड़ी हावी है. पहले दुलहन को शादी में बनारसी साड़ी पहननी जरूरी होती थी और यह साड़ी पीढ़ियों तक चलती थी. सास अपनी बहू को देती थी. अब लंहगाचोली पहना जाने लगा है. इस में भी राजपूताने वाली ट्रेडिशनल लुक सब से प्रमुख होती है. इस में धर्म और संस्कृति का प्रभाव दिखता है. भले ही फैशन की दुनिया में साड़ी को सब से सैक्सी पोशाक माना जाता हो पर इस का धार्मिक महत्व भी कम नहीं है.
पहनावे पर हावी कट्टरपन
इसी लिए लड़कियों में सलवारसूट और महिलाओं में साड़ी का पहनावा बढ़ रहा है. इस में भी कलर और स्टाइल की बात करें तो ट्रेडिशनल स्टाइल सब से आगे है. पिछले 15-20 सालों में जैसेजैसे समाज, राजनीति और विचार पर हिंदुत्व ने कब्जा करना शुरू किया यह बदलाव आने लगा है. पोशआक और पहनावे को ले कर कट्टरपन समाज में दिखने लगा है.
मंदिरों और ऐतिहासिक इमारतों में जहां मस्जिद और मकबरे हैं वहां पहनावे कोड लागू है. जैसे वहां जाने के लिए पूरा तन ढके कपड़े हों. सिर ढका हो. स्कूल और कालेजों में भी यह दिखने लगा है.
आज के 20-25 साल पहले बहुत कम स्कूलों में लड़कियां बुरका पहन कर जाती थीं. आज कान्वैंट और मिशनरी स्कूलों में भी लड़कियां हिजाब पहन कर जा रही हैं. पहले मुसलिम महिलाएं केवल काले रंग के बुरके में ही दिखती थीं आज बुरके के साथ ही साथ तरहतरह के हिजाब भी पहने जाने लगे हैं. इन सब को ले कर तमाम तरह के विवाद भी होने लगे हैं. हर धर्म में उस की संस्कृति यानि कल्चर का प्रभाव दिखने लगा है.
हिंदुओं में यह और भी अधिक दिखने लगा है. जिस का प्रभाव हमारी शिक्षा और घर के रहनसहन पर पड़ने लगा है.
इन वजहों से खर्चे बढ़ गए हैं. ट्रेडिशनल कपड़ों में पोशाकों पर खर्च अधिक होता है. इस के साथ ही साथ उस से मैचिंग ज्वैलरी का भी खर्च है. इस की सब से बडी परेशानी हमारी सोच है. हम नौकरी पर जा रही बहू या बेटी से यह उम्मीद करने लगे हैं कि वह मौडर्न या कहे तो वैस्टर्न ड्रैस पहन कर न जाए. ऐसे में शादी के बाद औफिस जाते समय सलवार कुर्ता या साड़ी का प्रयोग करना पड़ता है. कई घरों में यह झगड़ों की शुरूआत होती है. यह कई बार व्यवहारिक भी नहीं होता है.
असल में इस तरह के पहनावे से हमारी सोच और विचारधारा दिखती है. यह एक बड़ा उदाहरण है कि राजनीति और विचार किस तरह से हमारे घर के अंदर तक दखल देने लगे हैं. इस के पीछे धर्म, ब्राहमणवाद और रूढ़िवादी विचार हैं. जिस को फैलाने का काम मंदिरों से होता है. जब कानून नहीं था तब धर्म के कानून ही जीवन को चलाते थे. मंदिर और ब्राहमण जो कहता था राजा उस की मानता था. राजा के सहारे धर्म अपना राज चलाता था.
आज के दौर में यही हो रहा है. हिंदुत्व को आगे कर के नेता अपना राज चला रहे हैं. मंदिर फलतेफूलते रहें उन को चढ़ावा आता रहे इस के लिए घर, त्योहार, इवैंट हर जगह उस का प्रभाव बनाया जाता है. मंदिरों में ड्रैस कोड हो गया. फेस्टिवल में ड्रेस कोड हो गया ऐसे में हमारा फैशन और पहनावा बदल गया है.
यही नहीं घर का खानपान भी बदल गया है. जो लोग शाकाहारी नहीं है वह दिन देख कर ही नानवेज खाते हैं. शादीविवाह की दावतों में भी अब शाकाहारी का चलन बढ़ गया है. धर्म और कट्टरपन हमारे खाने और पहनने तक को प्रभावित करने लगा है. जो आज की राजनीति और विचारों से ग्रसित है.