B. R. Ambedkar : अंबेडकर और संविधान की पूजा तब तक किसी मतलब की नहीं है जबतक संविधान और कानून में लिखी बातों को न माना जाए.
डाक्टर भीमराव अंबेडकर का नाम संविधान से जोड़ कर देखा जाता है. ऐसे में अंबेडकर की पूजा करना और उन के बताए रास्ते पर चलना दो अलगअलग बातें होती है. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंबेडकर जयंती के अवसर पर डाक्टर भीमराव अंबेडकर की जिस मूर्ति की पूजा कर रहे थे उस पर फूलमाला चढ़ा रहे थे उस मूर्ति के हाथ में संविधान है. इस का अर्थ यह होता है कि अंबेडकर के साथ ही साथ हम संविधान की भी पूजा कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार जब संसद में जा रहे थे तो संसद की सीढ़ियों के सामने लेट कर नतमस्तक हुए थे.
इस के बाद संविधान के प्रति अपनी आस्था को दिखाने के लिए संविधान दिवस भी मनाना शुरू किया. 2024 के लोकसभा चुनाव के जब परिणाम आए तो यह साफ संकेत मिल गया था कि संविधान के मुददे पर ही भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. इस के बाद वह संविधान और डाक्टर अंबेडकर को ले कर सचेत हो गई. 11 जनवरी से 26 जनवरी के बीच संविधान गौरव अभियान चलाया.
कांग्रेस भी इसी तरह का अभियान चला रही थी. कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का संगठन मजबूत है, ऐसे में वह मुखर हो कर अपनी बात कह लेते हैं.
कांग्रेस ने ‘जय बापू, जय भीम, जय संविधान’ नाम से अभियान चलाया. इस का व्यापक प्रचारप्रसार नहीं हो सका. भाजपा ने अपने अभियान को अधिक मारक क्षमता वाला बनाया. भाजपा के ‘संविधान गौरव अभियान’ का उद्देश्य पार्टी को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करना था. जो वास्तव में संविधान के महत्व को समझती है. इस के उलट विपक्षी दल लगातार आरोप लगाते रहे हैं कि भाजपा ने संविधान के मूल्यों को कमजोर करने का प्रयास करती है.
भाजपा के 3 राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े, तरुण चुघ और दुष्यंत कुमार गौतम इस अभियान के अगुवा थे. विनोद तावड़े को इस का संयोजक बनाया गया था. भाजपा ने सभी राज्यों की राजधानियों सहित कम से कम 50 शहरों में कार्यक्रम आयोजित किए. दूसरी तरफ विपक्ष भाजपा को संविधान और अंबेडकर के मुददे पर घेरता रहा. संसद में अमित शाह ने अंबेडकर को ले कर विवादित बयान दिया. इस के बाद कांग्रेस को मौका मिल गया. अब भाजपा की मजबूरी है कि वह अंबेडकर का नाम इतनी बार जपे कि उस के गुनाह माफ हो जाए.
अदालत उठा रही सवाल
अंबेडकर जयंती पर इसी रणनीति के तहत बढ़ी संख्या में कार्यक्रम भाजपा आयोजित कर रही है. सवाल उठता है कि क्या केवल पूजा और सम्मान से बात बन जाएगी ? भाजपा सरकार संविधान विरोधी काम कर रही है. अदालतें इस पर टिप्पणी कर रही हैं. राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है. ऐसे में उस की भूमिका पर हमेशा सवाल उठते रहते हैं जब केंद्र और राज्य में अलगअलग पार्टियों की सरकारें होती हैं.
ताजा मामला तमिलनाडु का है. सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु में राज्यपाल की भूमिका पर सख्त टिप्पणी करते हुए विधेयकों को मंजूरी देने में देरी पर चिंता जताई है. अदालत ने राज्यपाल के लिए समय सीमा तय करते हुए कहा कि उन्हें निर्वाचित सरकार की सलाह के अनुसार काम करना चाहिए और ‘पाकेट वीटो’ का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा विधेयक को मंजूरी देने में देरी के कारण राज्य सरकार ने 2023 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. 21 मार्च, 2024 को कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल के कंडक्ट के बारे में गंभीर चिंता जताई थी. इस से पहले 10 नवंबर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘संसदीय लोकतंत्र में शक्ति चुने हुए प्रतिनिधि के पास है’. सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली बेंच ने कहा था कि गवर्नर आग से खेल रहे हैं.
फिर 29 नवंबर, 2023 को केरल सरकार की अर्जी पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया था कि आखिर गवर्नर दो साल से विधेयक पर क्यों बैठे हुए हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि को 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखने को संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध बताया है. अदालत ने समय सीमा तय कर दी है. अब अगर राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के लिए सुरक्षित रखने का निर्णय लेते हैं, तो अधिकतम समय एक महीना होगा. अदालत ने जजमेंट के पैरा 391 में कहा कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर पावती से 3 माह के अंदर फैसला लेना होगा. देर हुई तो वजह दर्ज करनी होगी और राज्य को भी बतानी होगी. अगर राज्य विधानसभा विधेयक को पुनर्विचार कर के फिर भेजती है, तो राज्यपाल को एक महीने में उस पर सहमति देनी होगी. अगर वह समय सीमा का पालन नहीं करते, तो उन की निष्क्रियता को न्यायिक समीक्षा के अधीन माना जाएगा.
अदालत ने कहा कि राज्यपाल विधेयकों पर चुप बैठ कर ‘पूर्ण वीटो’ या ‘पाकेट वीटो’ की अवधारणा नहीं अपना सकते. ‘पाकेट वीटो’ यानी राज्यपाल विधेयकों पर हस्ताक्षर किए बिना उन्हें रोके रखते हैं. बेंच ने कहा कि राज्यपाल द्वारा विधानसभा से पारित और प्रस्तुत विधेयकों पर कोई कार्रवाई न करना उन्हें मात्र ‘कागज का टुकड़ा’ और ‘बिना मांस का हड्डियों का ढांचा’ बना देता है. राज्यपाल को उत्प्रेरक होना चाहिए, अवरोधक नहीं.
राज्यपाल को संसदीय लोकतंत्र की परंपराओं का सम्मान करना चाहिए और निर्वाचित सरकार की सलाह के अनुरूप कार्य करना चाहिए. वह किसी राजनीतिक स्वार्थ से नहीं, बल्कि संवैधानिक पद की गरिमा के अनुरूप कार्य करें. राज्यपाल को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह जनता की चुनी विधानसभा को बाधित न करें. विधायकों को जनता ने चुना है और वे राज्य की भलाई सुनिश्चित करने के लिए अधिक उपयुक्त हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को संविधान के मूल्यों की ओर से ही निर्देशित होना चाहिए, जो वर्षों के संघर्ष और बलिदान से अर्जित हुए हैं.
केंद्र और राज्य के बीच समन्वय बनाने को ले कर 1983 में जस्टिस रणजीत सिंह सरकारिया की अगुआई में तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया गया था. आयोग ने 1987 में रिपोर्ट दी. उस रिपोर्ट की कई सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया. सरकारिया आयोग ने 1600 पेज की अपनी सिफारिश में कहा था कि केंद्र और राज्य के बीच संबंध को ले कर संविधान के प्रावधान में कोई बदलाव न किया जाए. देश की एकता और अखंडता के लिए जरूरी है कि केंद्र मजबूत हो. राज्यपाल की नियुक्ति 5 साल के लिए होनी चाहिए और राष्ट्रपति शासन आखिरी विकल्प होना चाहिए.
संविधान बनाते वक्त देश की जो परिस्थितियां थीं, उसे ध्यान में रख कर फैडरल सिस्टम बनाया गया. केंद्र को भी मजबूत रखा गया और स्थानीय प्रशासन राज्यों के हाथ दे कर सत्ता का विकेंद्रीकरण भी किया गया. इस उद्देश्य यह था कि केंद्र और राज्य मिलकर चलें. लेकिन अब अगर कभी टकराव होता है तो उसे सुप्रीम कोर्ट दुरुस्त करता रहा है. डा. अंबेडकर ने कहा था कि भले ही संविधान कितना ही अच्छा हो, उसे लागू करने वाले लोग अच्छे नहीं हैं, तो वह भी बुरा साबित हो सकता है. अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला न केवल तमिलनाडु, बल्कि सभी राज्यों के लिए एक संवैधानिक चेतावनी भी है कि राज्यपालों को लोकतंत्र के पहरेदार की भूमिका में रहना चाहिए.
केंद्र सरकार को अंबेडकर की पूजा करने से बेहतर है कि वह उन के बनाए संविधान पर चले. संविधान और डाक्टर अंबेडकर जैसी ही हालत में महिलाएं पहुंच गई है. उन को लक्ष्मी बता कर पूजा किया जाता है. अधिकार उन को नहीं दिए जाते हैं. संविधान ने लड़कियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हक दिया है.
देश के कितने परिवारों ने इस हक को दिया. क्या सरकार ने कोई पहल की. आज भी लड़कियों को पिता की संपत्ति अधिकार नहीं दिया जाता है. घर की मालकिन उस का कहा जाता है पर मकान और बिजनैस पर नाम पुरूष के अधिकार में होता है स्टांप डयूटी बचाने के लिए महिला के नाम रजिस्ट्री भले हो जाए पर जमीन मकान पर असल अधिकार आदमी का ही होता है.
जिस तरह से लक्ष्मी के रूप में औरतों को पूजा तो जाता है उसी तरह से अंबेडकर और संविधान की पूजा तो होती है लेकिन उस के बताए रास्तें पर चलते नहीं हैं. समाज में दलितों की हालत अभी भी बहुत सोचने वाली है. उन को घोडी पर चढ़ने से रोका जाता है. मूछें नहीं रखने दी जाती हैं. बारबार मनुस्मृति का हवाला दिया जाता है. दलित इस समाज का हिस्सा नहीं है यह जताने की कोशिश होती है. वह अंबेडकर की पूजा कर सकते हैं लेकिन मंदिर में मूर्ति की पूजा करने से रोका जाता है.
राष्ट्रपति को राममंदिर के शिलान्यास और संसद के उद्घाटन समारोह में दूर रखा जाता है. देश का सब से बडा संवैधनिक पद होने के बाद उन की उपेक्षा की गई. विपक्ष लगातार इस बात को उठाता रहा इस के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ. यह मनुवादी मानसिकता को दिखाता है जहां घर की औरत को या कोई नेता उस के अधिकार कुछ नहीं है. दलित भी इसी कड़ी में आते हैं. उन के नाम पर बड़ीबड़ी बातें होती हैं लेकिन उन को बराबरी का हक नहीं मिलता है.
एससी के खिलाफ कानून के तहत 2022 में दर्ज किए गए 51,656 मामलों में से उत्तर प्रदेश में 12,287 मामलें सामने आए. जो सब से अधिक है. दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामलों में भाजपा शासित राज्य यूपी, एमपी, राजस्थान और बिहार सब से ऊपर है. अनुसूचित जाति के खिलाफ 2022 में अत्याचार के सभी मामलों में से लगभग 97.7 प्रतिशत मामले 13 राज्यों में दर्ज किए गए, जिन में उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में ऐसे सब से अधिक अपराध दर्ज किए गए.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत नवीनतम सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित जनजाति (एसटी) के खिलाफ अधिकांश अत्याचार भी इन 13 राज्यों में केंद्रित थे, जहां 2022 में सभी मामलों में से 98.91 प्रतिशत मामले सामने आए. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और मध्य प्रदेश में सब से अधिक मामले सामने आए.
अनुसूचित जाति (एससी) के खिलाफ कानून के तहत 2022 में दर्ज किए गए 51,656 मामलों में से, उत्तर प्रदेश में 12,287 के साथ कुल मामलों का 23.78 प्रतिशत हिस्सा था, इस के बाद राजस्थान में 8,651 (16.75 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश में 7,732 (14.97 प्रतिशत) थे. अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार के मामलों की ज्यादा संख्या वाले अन्य राज्यों में बिहार 6,799 (13.16 प्रतिशत), ओडिशा 3,576 (6.93 प्रतिशत), और महाराष्ट्र 2,706 (5.24 प्रतिशत) थे. इन 6 राज्यों में कुल मामलों का लगभग 81 प्रतिशत हिस्सा है.
2022 के दौरान भारतीय दंड संहिता के साथसाथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत पंजीकृत अनुसूचित जाति के सदस्यों के खिलाफ अत्याचार के अपराधों से संबंधित कुल मामलों (52,866) में से 97.7 प्रतिशत (51,656) मामले 13 राज्यों में हैं.
इसी तरह, एसटी के खिलाफ अत्याचार के अधिकांश मामले 13 राज्यों में केंद्रित थे. इस के तहत दर्ज 9,735 मामलों में से, मध्य प्रदेश में सब से अधिक 2,979 (30.61 प्रतिशत) मामले दर्ज किए गए. राजस्थान में 2,498 (25.66 प्रतिशत) के साथ दूसरे सब से अधिक मामले थे, जबकि ओडिशा में 773 (7.94 प्रतिशत) दर्ज किए गए. ज्यादा संख्या में मामलों वाले अन्य राज्यों में 691 (7.10 प्रतिशत) के साथ महाराष्ट्र और 499 (5.13 प्रतिशत) के साथ आंध्र प्रदेश भी शामिल हैं.
कोर्ट से ले कर अपराध के आंकड़ें तक बता रहे हैं कि कानून और संविधान का कितना पालन हो रहा है. ऐसे में केवल दिखावे के लिए डाक्टर अंबेडकर की मूर्ति पूजा से बदलाव नहीं आएगा. देश में बदलाव आए. दलित हो या औरतें उन को सही तरह से अधिकार दिए जाएं. घरों में लड़कियों को आज भी खराब स्कूल में पढ़ने भेजा जाता है. उन के कैरियर को बढ़ाने के लिए पैसे खर्च करते समय घर वाले कई बार सोचते हैं.
शादीविवाह के मसलों में भी लड़कियों के अधिकार न के बराबर हैं. महिला कितने बच्चे पैदा करेंगी यह तय करने का काम पुरूष करता है. संविधान महिलाओं को पूरी आजादी देता है. समाज अभी भी संकीर्ण मानसिकता का परिचय देता है. संविधान निर्माता डाक्टर अंबेडकर को सच्ची श्रद्वांजलि वह होगी जब सरकार उन के बनाएं संविधान पर चले. उन की मूर्ति पर फूल चढ़ाने के लाभ नहीं होने वाला है.