Justice : फसाद की जड़ हकीकत में जजों की कमी है. यह बात वक्तवक्त पर विधि आयोग सहित दूसरी एजेंसियों के आंकड़ों से तो उजागर होती ही रहती है लेकिन अच्छी बात यह है कि अब कुछ ही सही जज साहबान भी सार्वजनिक तौर पर यह सच उजागर करने मजबूर होने लगे हैं. लेकिन यह कोई ऐसी बड़ी समस्या भी नहीं है जिसे दूर न किया जा सके. जजों की कमी अगर राजनातिक मुद्दा बने तो क्या समस्या हल हो सकती है ?
अदालतों के बाहर तो अकसर पीड़ित लोग न्याय प्रक्रिया को कोसते नजर आ जाते हैं कि यह तो हद हो गई, सालों से चक्कर लगा रहे हैं लेकिन फैसला तो दूर की बात है 4 – 6 साल से सुनवाई ही पूरी नहीं हो पा रही. जाने कौन सी मनहूस घड़ी थी जब पैर अदालत की चौखट पर पड़े थे जहां रोजरोज तमाशा होता रहता है. भगवान किसी को यहां तक कि दुश्मन को भी अदालत का मुंह न दिखाए.
यही बात एक वकील साहब ने भरी अदालत में कह दी तो अब वे कंटेम्प्ट औफ कोर्ट के चक्कर में फंसते नजर आ रहे हैं. बात बीती 27 मार्च की है जबलपुर हाईकोर्ट के एक वकील पीसी पालीवाल ने लगभग भड़कते हुए कहा, इस कोर्ट में 4 घंटे से तमाशा चल रहा है मैं बैठा देख रहा हूं हाईकोर्ट के जज दूसरी जगह जा कर कहते हैं कि नए जज की नियुक्ति करो. लेकिन जजेस का हाल तो देखो जो दिल्ली में हुआ वह भी देखा जाए.
सुनवाई कर रहीं जस्टिस अनुराधा शुक्ला ने इन बातों पर कान न देते हुए इसे अदालत की अवमानना माना और पूरे वाकिये का जिक्र करते उस की प्रमाणित प्रति हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेज दी. उन्होंने लिखा, इस प्रकार की भाषा अत्यंत अनुचित है और यह अदालत की प्रतिष्ठा के विरुद्ध है.
अब जो होगा वो भी सामने आ ही जाएगा लेकिन वकील साहब की यह भड़ास ये कुछ बातें तो साफ कर ही गई.
– अदालतों पर मुकदमों का बोझ और जजों की कमी है.
– कोर्ट में कामकाज के नाम पर तमाशा सा होता है,
– न्याय मिलने में जरूरत से ज्यादा देर लगती है, और
– अदालतों के बाहर भले ही अपना गुबार निकाल लो लेकिन इजलास में मुंह पर लगाम होना जरुरी है.
इतने क्यों घबराए
कह तो दिया लेकिन पालीवाल को जल्द ही एहसास हो गया कि गुस्से में वे जरूरत से ज्यादा ही बोल गए हैं. इसलिए बाहर आ कर वे अपनी बात में दम लाने या उसे जस्टिफाई करने की गरज से बोले, जस्टिस शुक्ला के पास 149 केस सुनवाई के लिए आए थे. लेकिन अधिकांश समय उन्होंने केवल उन 6 मामलों में लगाया जिन में सेशन कोर्ट पहले ही आरोपियों को जमानत दे चुका था.
घबराहट इतनी बढ़ी कि वे वकालात छोड़ने तक की दुहाई देने लगे. अब यह और बात है कि किसी ने उन के हाथपांव नहीं जोड़े कि ऐसा मत करना वकील साहब नहीं तो न्याय व्यवस्था का क्या होगा. लेकिन उन के यह कहने में दम था कि जिस मामले की सुनवाई के लिए वे आए थे वह 20 बार लग चुका है. बड़ी मुश्किल से आज नंबर आया. बकौल पालीवाल, ‘मैं अपने केस की सुनवाई यहां नहीं करना चाहता इसे किसी अन्य बेंच में भेज दिया जाए.’
उन्होंने अपने मुवक्किलों के गरीब और हम्माल होने की दुहाई भी दी. जबलपुर हाई कोर्ट में सुनवाई नंबर से न होने की शिकायत भी इन वकील साहब ने की और यह भी बताया कि हम मेडम की नातजुर्बेकारी और लगभग मनमानी की शिकायत पहले ही चीफ जस्टिस से कर चुके हैं. यह घबराहट बेवजह नहीं थी. इस के पीछे मुमकिन है अदालत की अवमानना की सजा का डर हो या फिर मुमकिन यह भी है कि यह जजों और वकीलों की अपनी आपसी पौलिटिक्स हो लेकिन जो भी हो लोगों का ध्यान तो इस तरफ एक बार फिर गया कि अदालतों में देर लगती है जिस की वजह जजों की संख्या न बढ़ाया जाना है. पता नहीं क्यों सरकार जजों की संख्या बढ़ाने से कतराती है
सरकार ही है जिम्मेदार
प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है की थ्योरी के तहत इत्तफाक से ही सही वकील साहब के कहे पर प्रतिक्रिया हुई. जबलपुर की घटना के दूसरे दिन ही सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय ओक ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट औन रिकौर्ड एशोसियन के एक कार्यक्रम में इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकीलों की हड़ताल की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘क्या वकीलों का यह कार्य बहिष्कार मुवक्किलों के साथ अन्याय नहीं कर रहा है. फरियादियों को होने वाले नुकसान और उन के साथ पक्षपात की आप कल्पना कीजिए.’
कम हैरत की बात नहीं कि जबलपुर हाईकोर्ट में वकील पीसी पालीवाल जज साहिबा के ढीलेपन को देरी की वजह बता रहे थे तो जस्टिस ओक वकीलों को दोषी करार दे रहे थे. लेकिन हकीकत में न्याय प्रक्रिया से जुड़े सभी लोग देरी के जिम्मेदार हैं जिन में अदालतों के क्लर्क रीडर और रजिस्ट्रार सहित खुद पक्षकार भी शामिल हैं. जहां तक जजों की कमी की बात है तो जस्टिस अभय ओक ने भी इस का जिम्मेदार सरकार को ठहराते हुए कहा, ‘सरकारें निचली अदालतों में जजों की संख्या बढ़ाने और कोर्ट के बुनियादी ढांचे में सुधार करने में विफल रही हैं. अदालतों में मुकदमों की बढ़ती तादाद पर उन का कहना था कि न्यायालयों में कुल लंबित मामलों में 20 से 30 फीसदी वैवाहिक विवाद से जुड़े होते हैं.
बढ़ते वैवाहिक विवाद तो बजाय चिंता के संतोष की बात होनी चाहिए कि महिलाएं भी न्याय पाने के लिए कोर्ट जाने लगी हैं. क्योंकि वे शिक्षित और जागरूक हो रही हैं. हिंदू मैरिज एक्ट के वजूद में आने के पहले वैवाहिक विवाद के मुकदमे कहीं दायर ही नहीं होते थे. घरों और समाज में सीधा इंसाफ होता था जिस में कोई भी पति अपनी पत्नी को घर से धकियाने का अधिकार रखता था. पत्नी के साथ मारपीट और हिंसा भी उस का और उस के घर वालों का अधिकार था जिस की पीड़िता इंसाफ मांगने कहीं नहीं जा सकती थी. तलाक सहित दूसरे अधिकार महिला को मिले तो पुरुषों को भी अदालत जाना मजबूरी हो गई. तो ऐसे में यह तो होना ही था जो हो रहा है कि वैवाहिक विवाद के मुकदमे बढ़ रहे हैं. ये तो भविष्य में और बढ़ेंगे.
मुद्दे की बात जजों की कमी में सरकार का शक के दायरे में आता रोल है. यह रोना अब जज साहबान भी खुलेआम रोने लगे हैं लेकिन सरकार की मंशा यह है कि लोग हैरान परेशान अदालतों के चक्कर काटते रहें और दोष हमे नहीं बल्कि भाग्य को दें. और उसे भी सुधारने के लिए मंदिरों में पंडेपुजारियों के चक्कर काटते रहें. भगवान के ये दलाल वादी और प्रतिवादी दोनों की गुहार उपर तक पहुंचाने का माद्दा रखते हैं और कई बार वकील से भी ज्यादा फीस ले कर अपने लेवल पर ही अनुष्ठान वगैरह करवा देते हैं. तंत्र, मंत्र, ज्योतिष, रत्न और दीगर दर्जनों उपाय तो ये लोग थोक में देते हैं.
वकील, जज और जनता जब सब मानते हैं कि जजों की कमी सारे फसाद की जड़ है तो वे सब मिल कर सरकार पर दबाब क्यों नहीं बनाते. खास तौर से वकील और जज एक इस मुद्दे पर हो जाएं तो सरकार को झुकना तो पड़ेगा. लेकिन ये दोनों एक कभी नहीं हुए जिस से लगता है कि कहीं यह उन की ही अघोषित मिलीभगत तो नहीं कि जनता को फुसलाने के लिए सरकार को दोष देते रहो जिस से अपनी दुकानें यथावत चलती रहेंगी. वकील को हर पेशी पर पैसा मिलता रहेगा और जजों की पूछ परख और रुतबा दोनों बने रहेंगे.
क्योंकि यह मुद्दा ही नहीं
कभी किसी ने नहीं सुना कि देरी से न्याय मिलने पर जनता ने किसी किस्म का विरोध अदालत जा कर या बाहर ही जताया हो. यही जनता अस्पताल में इलाज न मिलने पर या डाक्टर की लापरवाही से परिजन के मर जाने पर तोड़फोड़ और चक्काजाम भी करती है और डाक्टर की कुटाई भी कर देती है. ऐसा या कैसा भी विरोध वह हर सरकारी दफ्तर में करती है लेकिन अदालत में नहीं कर पाती क्योंकि न्याय विकल्पहीन है. आप इंसाफ के लिए कहीं और नहीं जा सकते और अदालत में गुस्से में कोई वकील यह बात कहे तो यह अवमानना हो जाती है.
इस के बाद भी लोग मानते हैं कि देरी से ही सही इंसाफ तो मिलता है यानी अदालतों पर लोग भरोसा करते हैं. क्योंकि उन में विकट का अनुशासन है और दूसरे सरकारी दफ्तरों जैसा भ्रष्टाचार व भेदभाव नहीं है. खामी है तो बस इतनी कि न्याय के नाम पर तमाशा होता रहता है. तो जनता को यह भी समझना चाहिए कि इस तमाशे की असल जिम्मेदार सरकार है जज और वकील नहीं जो एकदूसरे को दोष दिया करते हैं.
चुनाव के वक्त तमाम दलों के नेता जनता को लुभाने तरह तरह के लालीपाप देते हैं. मसलन हम बिजली, पानी, सड़क देंगे. इलाज के लिए अस्पताल खोलेंगे या वार्ड बढ़ाएंगे, बच्चे अच्छे से पढ़ सकें इस के लिए अध्यापक और स्कूल बढ़ाएंगे. लेकिन कोई राजनैतिक दल कभी यह कहते नहीं सुना गया कि आप को वक्त पर न्याय मिल सके इस के लिए हम अदालतों और जजों की संख्या बढ़ाएंगे. अगर एक बार जनता जागरूक हो जाए तो ये लोग जजों और अदालतों को भी बढ़ाने का वादा और दावा करेंगे और सत्ता हासिल करने के बाद उसे पूरा करने भी बाध्य होंगे.
साफ दिख रहा है कि जजों की कमी की समस्या जब तक चुनावी मुद्दा नहीं बनेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला. सत्ता में रहते न कांग्रेस ने इस पर गौर किया न सत्ता पर काबिज भाजपा कुछ कर रही क्योंकि जनता ने कभी मांग ही नहीं की, सार्वजनिक धरने प्रदर्शन नहीं किए, जाम नहीं लगाया. अब बारी जनता की है कि वह राजनैतिक दलों पर इस बाबत दबाब बनाए नहीं तो सालोंसाल अदालतों के चक्कर काटते तमाशबीन बनी रहे.
यह कहते हैं आंकड़े
आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि वाकई में अदालतों में जजों की उल्लेखनीय कमी है. देश भर की छोटीबड़ी अदालतों में लगभग 5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं. अब यह मान लिया जाए कि वादी और प्रतिवादी दोनों को मिला कर औसतन 5 लोग भी एक मुकदमे से जुड़े रहते हैं या इन से प्रभावित होते हैं तो प्रभावितों की संख्या 25 करोड़ होती है. यह छोटामोटा आंकड़ा नहीं है लेकिन कई कारणों से इस की तरफ किसी का खासतौर पर सरकार का ध्यान नहीं जाता.
साल 1987 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जजों की कमी की दो वजहें हैं एक तकनीकी और दूसरी राजनीतिक. राजनैतिक कारणों के तहत ब्रिटिश हुकुमत के वक्त से ही जानबूझ कर भारतीय न्यायपालिका में कम जज और स्टाफ रखे गए. आजादी के बाद भी इस औपनिवेशिक स्थिति को जारी रखा गया.
इस रिपोर्ट में कही ये बातें आज भी मौजू हैं कि राजनैतिक कारणों में केवल भारत सरकार या राज्य सरकारों ने ही नहीं बल्कि राजनातिक दलों, मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बार एसोशियन ने भी इस समस्या की तरफ ध्यान नहीं दिया. तकनीकी कारणों के तहत न्यायिक प्रशासन देखने वाले नीतिनिर्माताओं श्रम शक्ति के नियोजन के वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने के बजाय पेंच वर्क और एडहौक जैसे अव्यवस्थित सुझाव दिए.
नतीजा आज हम सब के सामने है. यह रिपोर्ट कहां धूल खा रही होगी पता नहीं लेकिन 37 साल बाद भी हालात ज्यों के त्यों हैं बल्कि और खराब हो चले हैं. अदालतों में चल रहे 5 करोड़ मुकदमों को निबटाने महज 20 हजार जज देश भर में है. उन से निबटान की अपेक्षा रखना उन के साथ ज्यादती ही होगी. संसद के मानसूत्र सत्र में कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने बताया था कि सुप्रीम कोर्ट में 84 हजार मामले लंबित हैं वहां जजों की कुल संख्या महज 34 है. उच्च न्यायालयों में 60 लाख से भी ज्यादा मुकदमे हैं जो केवल 737 जजों के जिम्मे हैं. निचली अदालतों में सब से ज्यादा साढ़े 4 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमे हैं जो 20011 जजों के हवाले हैं.
नैशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक हाईकोर्ट में प्रति जज पर जुलाई 2024 तक 7879 मुकदमे लंबित हैं तो निचली अदालतों में प्रति जज 2268 मुकदमे लंबित हैं. सुप्रीम कोर्ट में 34 जजों पर 84 हजार मुकदमे लंबित हैं.
जजों के खाली पदों पर नजर डालें तो स्थिति और स्पष्ट हो जाती है उच्च न्यायालयों में 357 जजों के पद खाली हैं. निचली अदालतों में जजों के 22 फीसदी पद खाली हैं. केवल सुप्रीम कोर्ट में ही सभी पद भरे हुए हैं.
इस स्थिति को आबादी के आईने में देखें तो ला कमीशन औफ इंडिया के मुताबिक प्रति 10 लाख लोगों पर 30 जज होने चाहिए जबकि आज 1987 के 10.5 जजों के मुकाबले 21 जज तो हैं लेकिन इस में भी खामी यह है कि यह आंकड़ा 2011 की आबादी के लिहाज से है आज की आबादी के लिहाज से नहीं. जिस की गिनती ही सरकार नहीं करवा पा रही. इस रिपोर्ट को पेश हुए 40 साल होने को आ रहे हैं, इस दौरान देश में 13 बार प्रधानमंत्री बदले जा चुके हैं और 31 बार मुख्य न्यायाधीश बदले जा चुके हैं.
दूसरे देशों से तुलना करें तो हम इस मामले में भी बहुत पीछे खड़े हैं. सब से ज्यादा आबादी वाले देश चीन में प्रति 10 लाख नागरिकों पर 300 जज उपलब्ध हैं. अमेरिका में इतनी ही आबादी पर 150 जज हैं. इंटरनैशनल जर्नल फोर कोर्ट एडमिनिस्ट्रशन के मुताबिक क्रोएशिया और स्लोवेनिया में यही संख्या 400 से ज्यादा है. हंगरी और आस्ट्रेलिया में आंकड़ा 280 है.
जाहिर है सरकार की अनदेखी की सजा जनता भुगत रही है. जानकर हैरानी होती है कि सिवाय दिल्ली के कोई भी राज्य अपने बजट का एक फीसदी भी न्यायपालिका पर खर्च नहीं करता. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 की रिपोर्ट बताती है कि देश में न्यायपालिका पर औसत खर्च 1 रूपए 46 पैसे मात्र है तो ऐसे में कोई क्या कर लेगा.