Rights : जिस तरह ससुराल से प्रताड़ित महिला को कानूनों से हक मिले हुए हैं वैसे ही पुरुष को भी मिले हैं, यानी पति भी पत्नी की प्रताड़ना की शिकायत करा सकते हैं मगर दिक्कत उस कानून में है जहां तलाक को बहुत जटिल और थका देने वाला बना दिया गया है, जो अनचाही घटनाओं को जन्म देता है.
अभी हाल ही में बेंगलुरु में एक एआई इंजीनियर द्वारा सुसाइड करने का मामला सामने आया है. 34 साल के अतुल सुभाष ने 9 दिसंबर को 1 घंटे 20 मिनट का वीडियो और 24 पेज का लेटर जारी कर कहा कि उन के पास आत्महत्या करने के सिवा कोई उपाय नहीं बचा है. सुभाष ने पत्नी निकिता सिंघानिया, सास, साले और चचेरे ससुर को मौत का जिम्मेदार बताया.
देश में पत्नियों से प्रताड़ित पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है. 2021 के एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में 81,063 विवाहित पुरुषों ने आत्महत्या कर ली वहीं 28,680 विवाहित महिलाओं ने आत्महत्या की. यह भी बताया गया कि साल 2021 में करीब 33.2 फीसदी पुरुषों ने पारिवारिक समस्याओं के कारण और 4.8 फीसदी फीसदी ने विवाह से जुड़े विवाद और घरेलू हिंसा के कारण आत्महत्या कर ली थी.
ज्यादा दूर नहीं, करीब एक या दो पीढ़ी पहले तक, खबर इस के विपरीत थी. दहेज नामक दैत्य ने लड़कियों की जान अपने क्रूर पंजों में दबोच रखा था. दहेज के लिए प्रताड़ित की जाने वाली कहानियां आम थीं. आएदिन स्टोव फटने से बहुओं के मरने की खबर छाई रहती थी. लड़कियां ज्यादातर कम उम्र में ही ब्याह दी जाती थीं, फिर उस का भविष्य पूरी तरह पति नामक परमेश्वर और ससुराल वालों के हाथों में. ससुराल अच्छी मिल गई तो ठीक वरना आजीवन प्रताड़ना. लड़की वाले बेचारे आजन्म बेटी को ले आशंकित रहते और लड़के वाले मूंछों पर ताव. आज भी 60-70 वर्षीय लोग भूले नहीं होंगे उस दौर को.
यों तो कांग्रेस के जमाने में बना दहेज निषेध अधिनियम 1961 देश में लागू था पर यह कारगर नहीं था और ज्यादातर केस सुबूत के अभाव में खारिज हो जाते थे. सताई हुई बेटी या मृत बेटी के मांबाप छाती पीट रह जाते थे. एक अंतहीन दौर था उत्पीड़न का, पानी सिर से ऊपर हो जाने के पश्चात भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए को साल 1983 में इंदिरा गांधी के समय लागू किया गया था. यह धारा विवाहित महिलाओं को उन के पति या उन के रिश्तेदारों से होने वाली क्रूरता और उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाई गई थी. यह एक कड़ा कानून था जो भारतीय वधुओं के लिए संजीविनी साबित हुई.
कोख में मारने से बच गई लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान भी दिया जाने लगा और शादी की औसत उम्र भी बढ़ी. 1950 के बाद से ही मुफ्त शिक्षा मिलने से देहात और अंदरूनी क्षेत्रों को छोड़ दें तो शहरों-महानगरों में रहने वाली अधिकांश लड़कियां अब पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हैं और अपने अधिकारों से बखूबी परिचित भी हैं.
जब सोच बदली तो व्यवहार भी. अब मांग की जा रही है कि उस कानून में थोड़ी ढील की आवश्यकता है. उस कानून को अब हथियार की तरह उपयोग किया जाने लगा है, जिस से वर पक्ष अब खुद को डरा, सहमा और कभीकभी सताया हुआ महसूस करता है. जैसे पहले लड़कियां लोकलाज और संस्कार की वजह से चुपचाप जुल्म सहती रहती थीं, वैसे ही आजकल कई पति भी सहनशील बने रहते हैं.
घरेलू हिंसा के शिकार शादीशुदा पुरुषों द्वारा आत्महत्या किए जाने के मामले से निबटने के लिए सरकार को गाइडलाइंस जारी करने का निर्देश देने की गुहार सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई है. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में इस के लिए राष्ट्रीय पुरुष आयोग बनाने की गुहार लगाई गई है. इस याचिका में एनसीआरबी के आंकड़ों का जिक्र किया गया है.
पति भी कर सकता है शिकायत
शादीशुदा पुरुषों के भी शादीशुदा महिलाओं की ही तरह कई अधिकार होते हैं. यानी जैसे पत्नी अपने पति के खिलाफ शिकायत कर सकती है, ठीक उसी तरह पति भी अपनी पत्नी के सताए जाने की शिकायत कर सकता है. अगर इस तरह के सभी दावे सही निकले तो उसे कोर्ट से न्याय भी दिया जा सकता है.
अच्छा हो कि दंपती आपस में प्यार से सामंजस्य बना कर जीवन का सुख लें. दो पहियों की गृहस्थी की गाड़ी बराबरी के चक्रों के सहारे संतुलन से खींचें न कि खींचखांच कर. जिंदगी छोटी है, न जाने कब शाम हो जाए, सो तब तक जिंदगी में उजालों का रंग भर लिया जाए.
होना तो यह चाहिए कि बजाय पुलिस मामला बनाने के, विवाह संबंध आसानी से तोड़ने का कानून हो. हिंदू विवाह कानून में तलाक का प्रावधान है पर उस में यदि एक पक्ष अड़ जाए तो एक दशक तक का समय तलाक लेने में लग जाता है. इसीलिए पतिपत्नी झगड़ते रहते हैं. कानून के मुताबिक अब पत्नियों का पलड़ा भारी लग रहा है. वैसे कट्टरपंथी औरतों को मिले अधिकारों को छीनना चाहते हैं और न जाने कब भाजपा सरकार किसी बहाने कानून में संशोधन कर औरतों को फिर पति की गुलाम संस्कारों के नाम पर बना दे.