Politics : मंडल की राजनीति से ले कर पौराणिक कहांनियों तक के उदाहरण बताते हैं कि ओबीसी को इस्तेमाल कर के छोड़ दिया जाता है. राज करने का अधिकार अभी भी राजा का होता है.

भारतीय जनता पार्टी पूरे देश में अपने संगठन के चुनाव को ले कर हो होहल्ला मचा रही है. वैसे यह चुनाव से अधिक मनोनयन है. इस के जरिए प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना है. इस चुनाव के जरिए भाजपा जाति के कार्ड की काट करना चाहती है. ऐसे में एक बार भाजपा ओबीसी को ढाल के रूप में प्रयोग करने की योजना बना रही है. उत्तर प्रदेश को भाजपा प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल कर रही है.

उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अपने जिलाध्यक्षों की नई सूची जारी कर दी है. इन 70 नामों में 25 ओबीसी, 6 एससी और 39 जनरल वर्ग के से हैं. जनरल में सब से अधिक 19 ब्राह्मण हैं. 70 नामों से 26 दूसरी बार जिलाध्यक्ष बने हैं. भाजपा ने महिला आरक्षण बिल का बड़ा शोर मचाया. महिला आरक्षण बिल का नाम नारी वंदन अधिनियम रखा लेकिन जब संगठन में हिस्सेदारी का सवाल आया तो 70 में से केवल 5 महिला नेताओं को जगह दी गई.

भाजपा ने उत्तर प्रदेश संगठन को 75 जिलें और 13 महानगर समेत 98 जिले माने जाते हैं. प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव के लिए 50 जिलों में अध्यक्षों का निर्वाचन होना जरूरी होता है. अब प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाम की घोषणा होनी है. भाजपा भविष्य के लाभ को देखते हुए ओबीसी का प्रयोग कर सकती है. सवाल यह उठ रहा है कि क्या भाजपा इन को फैसले लेने लायक पद भी देगी या केवल तमाशाई ही बना कर रखेगी.

2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य थे. उन की अगुवाई में विधानसभा के चुनाव हुए. 1991 के बाद 2017 में भाजपा को बहुमत मिला. बहुमत हासिल करने के बाद जब उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का समय आया तो योगी आदित्यनाथ का नाम आगे कर दिया गया. इस को ले कर भाजपा संगठन में खींचतान बनी हुई है. 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सब से अधिक नुकसान उत्तर प्रदेश में हुआ. जहां उसे केवल 33 सीटें मिलीं और वह समाजवादी पार्टी से पीछे रह गई. इस नुकसान को समझते हुए भाजपा ओबीसी को अधिक महत्व देने का दिखावा कर रही है.

1990 के दशक में चलें तो मंडल कमीशन के दौर में भाजपा ओबीसी का विरोध कर रही थी. मंडल कमीशन का मुकाबला करने के लिए अयोध्या के मंदिर का आंदोलन शुरू कर दिया. ‘मंडल‘ बनाम ‘कमंडल’ की राजनीति ने पिछडों को बहुत नुकसान पहुंचाया था. पिछड़ों की अगुवाई करने वाली सपा और बसपा में तोड़फोड़ कर माया और मुलायम को अलगअलग कर दिया. इसी तरह से बिहार में रामविलास पासवान के साथ किया. उत्तर प्रदेश और बिहार में ओबीसी राजनीति का खत्म कर दिया.

काम निकल जाने के बाद छोड़ देने की पंरपरा

देखा जाय तो यह पंरपरा पुरानी है. रामायण काल में भी राम ने रावण से लड़ने की योजना तैयार की तो वानर सेना तैयार की. एक लाख की वानर सेना ने पगपग पर रावण से लड़ाई में राम का साथ दिया. समुद्र में वह स्थान खोजा जहां से लंका तक पहुंचना सरल था. समुद्र पर पुल बनाने सीता का पता लगाने जैसे काम में वानर सेना का प्रमुख रोल था. रावण की विशाल सेना को वानरों की सेना ने पसीने छुड़ा दिए थे. वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम रावण युद्ध में वानर सेना की महत्वपूर्ण भूमिका थी.

रामायण के उत्तर कांड में बताया गया है कि जब लंका से सुग्रीव लौटे तो राम ने उन्हें किष्किन्धा का राजा बनाया. अंगद को युवराज बना दिया. नल नील सुग्रीव के राज्य में मंत्री बने. अयोध्या में जब राम का राज्याभिषेक हुआ तो वानर सेना वहां भी आई थी. राजा बनने के बाद राम ने वानर सेना को अपने दरबार में कोई पद नहीं दिया. इस के बाद वानर सेना वापस चली गई. जिस वानर सेना ने राम का साथ दिया उन को युद्व जितने में मदद की उसे राजा बनने के बाद कुछ नहीं दिया गया.

रामायण ही नहीं महाभारत में भी ऐसे उदाहरण हैं. भीम ने हिडिंबा से विवाह किया था. हिडिंगा राक्षसी थी. भीम और हिडिंबा से घटोत्कच नाम का पुत्र हुआ. जिस को कभी भी पांडव ने स्वीकार नहीं किया. जब कौरव और पांडव के बीच महाभारत का युद्व होने लगा तो कौरव की सेना भारी पड़ने लगी. ऐसे में पांडव को घटोत्कच की जरूरत पड़ी तब उस को भीम के पुत्र के रूप में लड़ाई में शामिल करने को कहा गया. घटोत्कच का पता था कि लड़ाई के मैदान में उस का मुकाबला कर्ण से होगा. वह मारा जाएगा इस के बाद भी घटोत्कच ने लड़ाई लड़ी और मारा गया.

महाभारत में ही दूसरा प्रंसग एकलव्य का है. एकलव्य अर्जुन से भी अधिक श्रेष्ठ धनुर्धारी था. गुरू द्रोणाचार्य यह नहीं चाहते थे कि उन के शिष्य अर्जुन से श्रेष्ठ कोई दूसरा धनुर्धारी हो, इसलिए उन्होने अपनी गुरूदक्षिणा के नाम पर एकलव्य का अंगूठा ही मांग लिया था. जहां भी राजा को राज करने की जरूरत पड़ती है वह घटोत्कच को अपना लेता है और जहां ही उसे बराबरी का हक देने की बात आती है वहां उस को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है.

मनुस्मृति के दिखाए राह पर चल रहे ओबीसी और एससी

समुद्र मंथन के समय भी ऐसा हुआ. समुद्र मंथन के लिए देवताओं ने राक्षसों का साथ लिया. जब अमृत पीना था तो आपस में बांट लिया और मदिरा राक्षसों के हवाले कर दी. भाजपा पौराणिक कथाओं पर यकीन कर उसी राह पर चलने वाली पार्टी है ऐसे में वह राजनीति में भी इसी तरह का काम कर रही है. जब जरूरत होती है ओबीसी को अपना लेती है और बराबरी का अधिकार देते समय पीछे हट जाती है. भाजपा के ओबीसी या एससी नेता मनुस्मृति के दिखाए रास्ते पर ही चल रहे हैं.

भाजपा संगठन हो या सरकार यह ओबीसी का प्रयोग कर रहे हैं. कमोवेश यही बात कांग्रेस नेता राहुल गांधी लोकसभा चुनाव के पहले से कहते आ रहे हैं. वह ओबीसी स्तर के सचिवों के नाम पूछते हैं. राहुल गांधी ने अपने चुनावी भाषण में कहा कि देश की सरकार को 90 आईएएस अफसर चलाते हैं. इन में केवल 3 ओबीसी जाति के हैं. ब्यूरोक्रेसी की बात हो या राजनीति की हर जगह पर ओबीसी केवल प्रयोग किए जा रहे हैं. असल में इन को अधिकार नहीं दिए जा रहे है.

भाजपा संगठन को चलाने का काम आरएसएस करता है. वहां केवल मनुस्मृति की दिखाई राह पर चलने वाले लोग हैं. ऐसे में संगठन के पदों पर कितने ही ओबीसी बैठ जाएं उन का महत्व उतना ही है जितना यूपी की सरकार चलाने में केशव प्रसाद मौर्य की.

अगर भाजपा ओबीसी की शुभचिंतक होती तो जातीय गणना कराने को ले कर उस के खिलाफ नहीं होती. देश में 60 फीसदी से अधिक ओबीसी के लोग हैं लेकिन उन को ब्राहमण राज के आधीन काम करना पड रहा है. जातीय गणना से सही तस्वीर सामने आएगी इस कारण भाजपा उस को सामने लाने से बच रही है. अपने संगठन में नाममात्र के पदों पर ओबीसी को आगे कर के जातीय गणना के मसले को टालना चाहती है.

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