Trending Debate : उत्तर भारत में लाखों की संख्या में दक्षिण भारत के लोग रहते हैं, काम करते हैं, व्यापार करते हैं और उत्तर भारतीयों से शादियां भी करते हैं. इसी तरह उत्तर भारत के भी लाखों लोग दक्षिण में रहते हैं. इन्हें भाषाओं को ले कर कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन नेताओं ने हमेशा उत्तर और दक्षिण के बीच भाषा को हथियार बनाया ताकि उन की राजनीति चमकती रहे.

हिंदी फिल्मों की तरह ही दक्षिण भारतीय फिल्मों को भी खूब पसंद किया जाता है. ऐक्शन, इमोशन, ड्रामा और कौमेडी से भरपूर इन फिल्मों को हर आयुवर्ग के लोग देखते हैं. यही वजह है कि साउथ के बड़े सितारों की फिल्में हिंदी भाषा में जम कर कमाई करती हैं. मुंबई फिल्म इंडस्ट्री दक्षिण भारतीय फिल्मों की हिंदी डबिंग या उन के रीमेक वर्जन से खूब कमाई करती है. फिर चाहे वह फिल्म बाहुबली हो, केजीएफ-2 हो, कल्कि 2898 एडी हो, आरआरआर हो, कबीर सिंह, वांटेड, गजनी या तेरे नाम हो. दक्षिण की इन रीमेक फिल्मों में छोटी के कलाकारों ने काम किया है.

इसी तरह कई बौलीवुड फिल्मों की रीमेक फिल्में दक्षिणी भाषाओं में बनीं और जबरदस्त हिट हुईं. 2018 में आई फिल्म ‘अंधाधुन’ बौलीवुड की बेहतरीन फिल्मों में से एक है. मर्डर मिस्ट्री पर बेस्ड इस फिल्म में आयुष्मान खुराना, तबू और राधिका आप्टे ने भूमिकाएं निभाई हैं. यह एक फ्रैंच फिल्म से प्रेरित फिल्म थी. दक्षिण में इस फिल्म का एक तेलुगू रीमेक बना- ‘मेस्ट्रो’. जिस में सुपरस्टार नितिन और तमन्ना भाटिया मुख्य भूमिका में हैं. कोरोना के चलते इस फिल्म को 17 सितंबर 2021 में सीधे ओटीटी पर रिलीज किया गया. इस के अलावा इस फिल्म को मलयालम सिनेमा में भी रीमेक किया गया, जिस में साउथ के फेमस एक्टर पृथ्वीराज को लीडरोल में लिया गया.

अक्षय कुमार और परेश रावल स्टारर फिल्म ‘ओ माय गाड’ एक यूनिक फिल्म थी, जिस के जरिए भगवान के नाम पर होने वाली डार्क पौलिटिक्स को दिखाया गया. यह फिल्म तेलुगु और कन्नड़ में भी रीमेक हुई और खूब चली. तेलुगु में इस फिल्म का नाम ‘गोपालागोपाला’ है, वहीं कन्नड़ में इस फिल्म का नाम ‘मुकुंद मुरारी’ है.

फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ बौलीवुड की सब से बेस्ट कौमेडी ड्रामा फिल्म जिस में आमिर खान, आर माधवन, शरमन जोशी, करीना कपूर और बोमन ईरानी थे और जिस में इंडियन एजुकेशन की कमियों को उजागर किया गया था, इस का तमिल फिल्ममेकर शंकर ने रीमेक बनाया- ‘ननबन’. इस में साउथ के नामी एक्टर विजय, जीवी और सत्यराज को लिया गया.

2007 में आई फिल्म ‘जब वी मेट’ बौलीवुड की रोमांटिक कौमेडी फिल्म थी, जिस में करीना कपूर और शाहिद कपूर लीड रोल में थे. इस फिल्म का साउथ रीमेक बना – ‘कंदर काढलाई’, इस रीमेक में भरत श्रीनिवास और तमन्ना भाटिया लीड रोल में हैं.

इसी तरह संजय दत्त की सुपरहिट फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ के तेलुगू रीमेक में सुपरस्टार चिरंजीवी ने लीड रोल किया है, वहीं इस के तमिल रीमेक में कमल हासन ने मुख्य किरदार निभाया है. तेलुगु में इस फिल्म का नाम ‘शंकर दादा एमबीबीएस’ और तमिल में इस फिल्म का नाम ‘वसूल राजा एमबीबीएस’ है.

2008 में नसीरुद्दीन शाह और अनुपम खेर अभिनीत बहुचर्चित फिल्म ‘ए वेडनेसडे’ एक आम आदमी की कहानी है, जो सिस्टम से तंग आ कर ऐसा कदम उठा लेता है कि पुलिस और सरकार को उस की हर मांग के आगे झुकना पड़ता है. इस फिल्म के तमिल रीमेक में कमल हसन और मोहन लाल जैसे एक्टर्स ने काम किया. इस फिल्म को हौलीवुड में भी ‘अ कौमन मैन’ के नाम से रीमेक किया गया.

क्या इन फिल्मों को हिंदी या दक्षिणी भाषाओं को जाने, समझे, बोले और लिखे बगैर रीमेक करना संभव था? क्या रीमेक करते वक्त कोई भाषा विवाद पैदा हुआ? क्या दक्षिण के एक्टर्स ने यह कह कर फिल्म में काम करने से मना किया कि यह हिंदी की रीमेक है? या बौलीवुड एक्टर्स ने दक्षिण की फिल्मों के रीमेक में काम करने से मना किया? नहीं.

उन्हें भाषा, क्षेत्र आदि से कोई फर्क नहीं पड़ा. दक्षिण के लोग हिंदी समझते हैं, हिंदी फिल्में देखते हैं, इसलिए उन्होंने आसानी से हिंदी फिल्मों के रीमेक बनाए और पैसा कमाया. उत्तर के लोग भी अनेक दक्षिणी भाषाएं जानते समझते हैं इसलिए वे दक्षिण की फिल्मों को हिंदी में डब कर सके. यहां भाषा का कोई विवाद कभी नहीं उठा. न ही भाषा के प्रति कोई नफरत दिखी.

उत्तर भारत में लाखों की संख्या में दक्षिण भारत के लोग रहते हैं, काम करते हैं और व्यापार करते हैं. उत्तर भारतीयों से शादियां भी करते हैं. इसी तरह उत्तर भारत के भी लाखों लोग दक्षिण में रहते और काम करते हैं. वे आसानी से काम कर सकते हैं क्योंकि उन को हिंदी भाषा और दक्षिणी भाषा दोनों में कोई दिक्कत नहीं है.

जो बात नहीं समझ में आती उसे अंग्रेजी में समझ लेते हैं. लेकिन राजनेताओं ने हमेशा उत्तर और दक्षिण का भेद बना कर रखा ताकि उन की राजनीति चमकती रहे. आमजन के स्तर पर भाषा का कोई विवाद नहीं है, जो है वह राजनीतिक स्तर पर है. नेता सड़क से संसद तक इस को मुद्दा बना कर अपनी नेतागिरी चमकाते हैं.

भारत हमेशा से विभिन्न भाषाभाषी लोगों का देश रहा है. कहावत भी है कि यहां कोसकोस पर पानी और चार कोस पर वाणी बदल जाती है. देश के नागरिकों को भाषाओं को ले कर दिक्कत होती और भाषा विवाद ही होना होता तो हर चार कोस पर झगड़े हो रहे होते. मगर नहीं होते.

लेकिन जिस तरह दक्षिण में हिंदी के प्रति दुर्भावना दिखाई देती है उस के आधार में दरअसल राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ही समाई हुई हैं. इतिहास के पन्ने पलटें तो दक्षिण में हिंदी विरोध का लंबा राजनीतिक इतिहास दिखाई देता है.

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने दक्षिण भारत में वर्ष 1918 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना की थी. वे हिंदी को भारतीयों को एकजुट करने वाली भाषा मानते थे. तब से ही तमिलनाडु में हिंदी विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए थे.

भाषा को ले कर संकीर्ण सोच से ऊपर उठने की बजाय नेता इस मुद्दे पर अपनी राजनीति चमकाने में जुटे रहे और इस विरोध को हवा देते रहे. जबकि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा आज भी सक्रिय है. सभा हिंदी सिखाने का काम करती है. यहां हिंदी पढ़नेवाले तकरीबन 65 फीसद लोग तमिल भाषी हैं. इतने सालों में हिंदी प्रचार सभा से हिंदी सीखने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती ही गई. फिर भी दक्षिण में हिंदी को ले कर विवाद चरम पर है.

नई शिक्षा नीति के तीन भाषा फार्मूले को ले कर तमिलनाडु सरकार लगातार केंद्र सरकार पर दक्षिण भारतीयों पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रही है. नई शिक्षा नीति को ले कर तमिलनाडु का वैसे तो कई मसलों पर विरोध है. लेकिन द्रविड़ अभिमान पर गठित हुए इस राज्य की मुख्य आपत्ति तीन भाषा फार्मूला को ले कर ज्यादा है, जिस में हिंदी को दूसरी भाषा के रूप में अपनाने की सलाह भाजपा और संघ द्वारा दी जा रही है.

केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति यानी एनईपी 2020 के तहत प्रस्तावित तीन भाषा नीति कहती है कि बच्चों को तीन भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए. पहली भाषा छात्र की मातृभाषा या राज्य की क्षेत्रीय भाषा होगी. जैसे तमिलनाडु में तमिल, महाराष्ट्र में मराठी, बंगाल में बंगाली. दूसरी भाषा में कोई अन्य भाषा हो सकती है. भाजपा नीत केंद्र सरकार हिंदी को इस संदर्भ में प्रोत्साहित करती है, खास कर गैरहिंदी भाषी राज्यों में. उस का तर्क है कि इस से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी. हालांकि यह अनिवार्य नहीं है और राज्य अपने हिसाब से दूसरी भाषा चुन सकते हैं. तमिलनाडु का सख्त विरोध इसी बिंदु पर है. तीसरी भाषा अंग्रेजी या अन्य कोई यूरोपीय भाषा हो सकती है.

तीन भाषा नीति का विरोध ऐसे वक्त में हो रहा है जब दक्षिण के राज्य परिसीमन को ले कर भी सवाल उठा रहे हैं. उन्हें डर है कि परिसीमन होने पर लोकसभा में दक्षिण राज्यों की सीटें कम हो जाएंगी. जिस से केंद्र में उन की आवाज कमजोर हो जाएगी. ऐसे में परिसीमन और हिंदी का विरोध एक साथ चल रहा है और दोनों एकदूसरे को मजबूती दे रहे हैं.

असल बात यह है कि तमिलनाडु की राजनीति में बीते कई दशक से स्थानीय द्रविड़ राजनीति का वर्चस्व रहा है. कभी डीएमके (द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम) तो कभी एआईएडीएमके (अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) जैसी स्थानीय पार्टियां ही सत्ता की मलाई खाती रही हैं. सही मायनों में देखें तो ये महज स्थानीय पार्टियां नहीं, बल्कि अपने अपने हिसाब से तमिल उपराष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करती हैं.

गौरतलब है की 1916 में साउथ इंडियन लिबरेशन एसोसिएशन की स्थापना हुई थी, जिस का उद्देश्य ब्राह्मण जाति की आर्थिक शक्ति का विरोध करना और गैरब्राह्मण का सामाजिक उत्थान करना था. 17 सितंबर 1879 को तमिलनाडु में जन्मे पेरियार ने जस्टिस पार्टी का गठन किया, जिस ने ब्राह्मणवादी विचारधारा का घोर विरोध किया. जस्टिस पार्टी ने अस्पृश्यता के लिए बहुत काम किया और मंदिर मार्ग पर अछूतों को चलने के लिए आंदोलन चलाए.

इसी जस्टिस पार्टी को 1944 में पेरियार ने द्रविड़ कड़गम पार्टी का नाम दिया, जो किसी भी हालत में मनुवादी सोच से ग्रस्त भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दक्षिण से दूर रखना चाहती है. इसी तरह अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल है जो ब्राह्मण सोच और वर्चस्व को दक्षिण पर हावी नहीं होने देना चाहता.

दशकों से ये दोनों ही पार्टियां तमिलनाडु की राजनीति में उपराष्ट्रीयता का दबदबा बनाए हुए हैं. तमिल उपराष्ट्रीयता के ही जरिए द्रविड़ राजनीति तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज रही है. ऐसे में दक्षिण में हिंदी भाषा और उस के साथ ही संस्कृत का प्रचारप्रसार भाजपा को द्रविड़ राजनीति में सेंध लगाने का बड़ा मौका दे देगा.

संचार और सूचना क्रांति के दौर में तमिल उपराष्ट्रीयता वाली सोच को लगने लगा है कि यदि हिंदी आई तो उस के जरिए राष्ट्रीयता की विचारधारा मजबूत होगी. जिस का असर स्थानीय राजनीति पर भी पड़ेगा. हिंदी या किसी भी सामान्य संपर्क भाषा के ज्यादा प्रचलन से कट्टरवादी स्थानीय सोच को चोट पहुंचेगी और इस के साथ ही तमिल माटी में राष्ट्रीय राजनीति की जगह मजबूत होगी.

जिस का आखिर में नतीजा हो सकता है कि द्रविड़ राजनीति की विदाई हो जाए. इसलिए तमिलनाडु में हिंदी का विरोध आवश्यक है.

गौरतलब है कि 1937 में सी. राजगोपालाचारी की कांग्रेस सरकार ने तमिलनाडु के स्कूलों में अनिवार्य हिंदी लागू की थी. इस के बाद जस्टिस पार्टी और पेरियार जैसे द्रविड़ नेताओं के नेतृत्व में हिंदी के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए.

1940 में इस नीति को रद्द कर दिया गया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद हिंदी विरोधी भावनाएं बढ़ गईं. जब 1968 में तीन भाषा फार्मूला लागू किया गया, तो तमिलनाडु ने इसे हिंदी थोपने के रूप में देखते हुए इसे अस्वीकार कर दिया.

तत्कालीन मुख्यमंत्री सीएन अन्नादुरई के नेतृत्व में, राज्य ने दो भाषा नीति (तमिल और अंग्रेजी) अपनाई. तमिलनाडु एकमात्र ऐसा राज्य है जिस ने कभी भी तीन भाषा के फार्मूले को लागू नहीं किया, बल्कि हिंदी की जगह अंग्रेजी को प्राथमिकता दी.

भाजपा जब भी तमिलनाडु और दूसरे दक्षिणी राज्यों में अपनी पकड़ बनाने की कोशिश करती है, वह हिंदी और संस्कृत को बढ़ावा देती है. 2022 में केंद्र सरकार ने काशीतमिल संगम की शुरुआत की थी. इस के जरिए काशी और तमिलनाडु को करीब लाने और दक्षिण को उत्तर भारत की संस्कृति से जोड़ने की कोशिश की गई थी.

हिंदीहिंदुत्व के जरिए पूजापाठी लोगों को स्थापित करने की भाजपा की नीयत भांप कर ही हिंदी के नाम पर भाजपा को वहां घेरा जाता है. डीएमके सहित दूसरी पार्टियां भी हिंदी विरोध और द्रविड़ अस्मिता के नाम पर मैदान में उतर जाती हैं.

2019 में भी हिंदी को ले कर विवाद बढ़ा था, फिर तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टियों को भाजपा की घेराबंदी का मौका मिल गया था. तब हिंदी दिवस पर अमित शाह ने कहा था कि हमारे देश में कई भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन एक भाषा ऐसी होनी चाहिए जो देश का नाम दुनिया में बुलंद करे और हिंदी में यह खूबी है.

शाह के इस बयान का दक्षिण के राज्यों में काफी विरोध हुआ और निशाने पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों आए. भाजपा के नेता हालांकि वक्तवक्त पर कहते रहे हैं कि भाजपा न भाषा विरोधी पार्टी है, न दक्षिण विरोधी पार्टी और यह कि उस की विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की है. लेकिन दक्षिण के राज्यों में क्षेत्रीय दल भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी और ब्राह्मण पार्टी के तौर पर ही देखते हैं और उस पर निशाना साधते हैं.

भाजपा को लगता है कि हिंदी और संस्कृत के प्रचारप्रसार के चलते जहां भाजपा खेमा दक्षिण में मजबूत होगा और मनुवादियों को वहां आगे बढ़ने, नौकरी करने, जमीनजायदाद बनाने आदि में बड़ा फायदा मिलेगा. वहीं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को यह डर भी सताने लगा है कि परिसीमन के बाद लोकसभा और विधानसभा की सीटों में बदलाव होगा.

जनसंख्या के लिहाज से उत्तर भारत का पलड़ा भारी है. दक्षिण भारत ने पिछले तीन दशकों में जनसंख्या नियंत्रण पर बेहतर काम किया और अब इस से उन्हें भारी नुकसान भी उठाना पड़ सकता है.

मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने केंद्र पर हिंदी थोप कर भाषा युद्ध का बीज बोने का आरोप लगाया है. स्टालिन ने कहा कि 1965 से ही डीएमके का अनेकों बलिदानों के जरिए हिंदी से मातृभाषा तमिल की रक्षा करने का इतिहास रहा है. मातृभाषा की रक्षा करना डीएमके के खून में है. कुछ लोग हिंदी को बाकी भाषाओं से ऊपर रखना चाहते हैं और गैरहिंदी राज्यों पर इसे जबरन थोपने की कोशिश कर रहे हैं.

एमके स्टालिन ने कहा कि किसी भी तरह की भाषा थोपने से दुश्मनी ही पैदा होती है. कुछ कट्टरपंथी लोग तमिलनाडु में तमिलों के सही स्थान की मांग करने के ‘अपराध’ के लिए हमें अंधराष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी करार देते हैं. हिंदी थोपना स्वाभाविक और तमिल की बात करना राष्ट्रविरोधी, हमें यह स्वीकार नहीं है.

दरअसल तमिलनाडु में भाषा विरोध की जड़ में द्रविड़ राजनीति ही है, जो ब्राह्मणवादी सोच और उस के फैलाव से घबराई हुई है. हिंदी और संस्कृत को द्रविड़ मानसमनुवाद से जोड़ कर देखते हैं, जिस के विस्तार से द्रविड़ समाज का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है. वैसे आमजन के स्तर पर तमिलनाडु में हिंदी जाननेसमझने और बोलने वाले कम नहीं हैं. हर तीसरा व्यक्ति हिंदी समझता और बोलता है.

तीन भाषा फार्मूले का विकास

इस फार्मूले को सब से पहले शिक्षा आयोग (1964-66) द्वारा प्रस्तावित किया गया था. इसे आधिकारिक तौर पर कोठारी आयोग के रूप में जाना जाता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन के वक्त राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई) 1968 को आधिकारिक तौर पर अपनाया गया. प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी एनपीई 1986 को बनाए रखा. इसे भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार की तरफ से 1992 में संशोधित किया गया.

भौतिक विज्ञानी डा. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता वाले आयोग ने तीन भाषाएं सीखने की सिफारिश की-

➤ मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा
➤ संघ की आधिकारिक भाषा
➤ पहली दो भाषाओं के अलावा कोई आधुनिक भारतीय या यूरोपीय भाषा

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