Fashion : हमारा पहनावा हमारी पहचान बनती है. कौन किस तरह के कपड़े चुनता है, उस से उस की पर्सनैलिटी जाहिर होती है. सही रंग, डिजाइन व फिटिंग के कपड़े न सिर्फ व्यक्ति की सुंदरता निखारते हैं बल्कि उस के आत्मविश्वास को बढ़ाते भी हैं. हम क्या व कैसा दिखें, यह हमारे हाथ में होता है.
हमारा पहनावा हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है. कार्यकुशल व्यक्ति की ड्रैस उस के व्यक्तित्व की तरह व्यवस्थित होती है. साफ शब्दों में कहा जाए तो ड्रैस शरीर का पहला घर है जो मौसम के थपेड़ों से हमारी रक्षा करता है. इस नाते वह रक्षा कवच है तो वही हमारा पहला परिचय भी है.
मसलन, कोई व्यक्ति जलसेना, थलसेना, वायुसेना या पुलिस में कार्यरत है तो उस की वरदी उस का परिचय देती है. विद्यार्थियों की स्कूल यूनिफौर्म, कामकाजी लोगों की औपचारिक ड्रैस, कारीगरों की ड्रैस या महिलाओं की साडि़यां, सूटसलवार उन का परिचय देती हैं लेकिन इन पर समय, काल एवं परिस्थिति के अनुसार बदलाव देखे गए हैं. पहले योद्धा भी धोती पहनते थे. बाद में चूड़ीदार और अंगरेजी शासन के दौरान सिपाहियों को लड़ने के लिए चुस्त पैंट दी जाने लगी. इस से साफ दृष्टिगोचर है कि आवश्यकता के अनुसार कपड़ों का भी विकास होता है. कपड़े जो मौसम की मार से बचाएं, व्यक्ति की कार्यकुशलता बढ़ाएं और साथ ही साथ व्यक्तित्व को निखारें वही अपनाने योग्य होते हैं.
कपड़ों की बात पर एक पुरानी घटना याद आ गई. मेरे पड़ोस में एक परिवार रहता था. उस की बेटी पूजा, जोकि मेरी छोटी बहन जैसी थी, कालेज में पढ़ती थी. जब भी वह तैयार हो कर निकलती, उस का भाई अभिषेक उसे टोकता. एक दिन उस ने कहा–
‘तुम ऐसे बाहर जाओगी?’
‘क्यों, इन कपड़ों में क्या खराबी है?’
‘इस में अलग दिख रही हो, लोग देखेंगे?’
‘लौंग स्कर्ट है, कुछ दिख ही नहीं रहा तो लोग क्या देखेंगे?’
‘सलवारसूट पर दुपट्टा ले लो, परदा रहता है.’
पूजा ड्रैस बदले बगैर ही कालेज चली गई. रात के खाने पर पूरा परिवार इकट्ठा बैठा तो भाई ने फिर बहस छेड़ दी.
‘आधुनिक कपड़े पहन कर कालेज जाती हो, कोई दिक्कत आई तो मुझसे से मत कहना.’
‘भाई, तुम जब शौर्ट्स में बाहर जाते हो या पापा लुंगी में टहलते हैं तो तुम्हें कोई दिक्कत आती है?’
‘मर्द जात खुले सांड की तरह होते हैं, बेटी. हम औरतों को देखभाल कर जीना चाहिए,’ मां बोलीं.
मां की बात बरदाश्त के बाहर हुई तो पूजा ने कहा, ‘क्यों लड़कियां ही सब सीखें? लड़कों को भी कुछ सिखाना चाहिए. उन्हें भी शराफत सीखनी चाहिए. वे आधेअधूरे कपड़ों में मर्द दिखते हैं और हम सिर से पांव तक ढके रहें तभी उन के अहं की तुष्टि होती है, क्यों भला. आप मां हैं, आप तो समझें. आज के समय में मैं 20वीं सदी के कपड़े क्यों अपनाऊं?’
जो कुछ पूजा ने कहा वह मुझे बताया तो मैं ने अभिषेक से बात करना चित समझा.
‘कल को पत्नी को भी ऐसे ही परदा कराओगे. यहां पढ़ाई में, खानेपीने में, कपड़े में, मर्द और औरत का फर्क करने में इतना नहीं समझ रहे हो कि जो आज दब रही है वह सिर उठाएगी तो कितना कहर ढाएगी. इसलिए बेहतरी इसी में है कि बदलते परिवेश के साथ सोच बदलो.’ मेरी बात पर पूजा खुश हो गई. पहली बार किसी ने उस की ओर से बोला था. फिर मुझे कुछ याद आ गया तो आपबीती सुनाई.
कपड़े दिखाते कौन्फिडैंस
2007 में मेरे पति कुवैत की एक टैलीकौम कंपनी में काम कर रहे थे. बेटी के स्कूल की छुट्टियां हुईं तो हम ने कुवैत घूमने की योजना बनाई. हैदराबाद से कुवैत की सीधी उड़ान थी और हमारी पहली अंतर्राष्ट्रीय उड़ान थी. रात का सफर था. आराम व नींद के लिए मैं ने सलवारसूट पहन लिया था. मेरी 8 वर्षीया बेटी विदेश यात्रा को ले कर बहुत उत्साहित थी. हम दोनों जब अपनी सीट तक पहुंचे, अधेड़ उम्र के एक महाशय साइड सीट पर पहले से विराजमान नजर आए.
बेटी को विंडो सीट दे कर मैं बीच वाली सीट पर बैठ गई. बैठी क्या, उसे अटका हुआ समझ जाना चाहिए क्योंकि अच्छे स्वास्थ्य वाले यात्री इकोनौमी क्लास में खुद को किसी तरह फिट कर के ही काम चलाते हैं. यात्रा के दौरान मुझे वीजा संबंधित कौन सी औपचारिकताएं पूरी करनी हैं, यह सब पति ने फोन पर समझा दिया था. सो, तनावमुक्त थी. मगर मेरे सहयात्री मेरे सीधेसादे पहनावे के कारण मुझे अनाड़ी समझ कर अंतर्राष्ट्रीय उड़ान संबंधित ज्ञान दिए जा रहे थे.
पहले सीट बैल्ट लगाने, फिर वीडियो औन कर देखने का हुनर सिखाया. फिर सामने की सीट से लगे टेबल खोलने व बंद करने और एयरहोस्टेस को बुलाने के लिए बटन दबाने की युक्ति समझा दी. इतना ही नहीं, बीचबीच में खींसें निपोरे मेरी ओर देखते जैसे इस अद्भुत ज्ञान के बदले वे वाहवाही के हकदार हैं.
मध्यरात्रि में एक अपरिचित का यों बेतकल्लुफ होना मुझे कतई रास नहीं आ रहा था. भलमनसाहत जब भारी लगने लगी तो मैं बेटी की ओर घूम गई. असली राहत तो तब मिली जब बिटिया सोने की तैयारी करने लगी. उस वक्त मैं ने अपना कंधा हलके से उस की सीट की ओर झुकाया और हम दोनों चैन की नींद सो गए.
कुवैत पहुंच कर जब सारा वृत्तांत पति को बताया तो उन की तत्काल प्रतिक्रिया यही थी कि तुम्हें पैंट पहन कर आना था. किसी के कपड़े उस के कौन्फिडैंस को दिखाते हैं. तुम्हें सीधीसादी जान कर टाइम पास कर रहा था. फिर वे स्वयं ही कुछ नए चलन के कपड़े खरीद लाए. उन्हें पहन कर कुवैत से जब लौटी तो मांबेटी अपने में ही मस्त रहे. इस बार हम हवाई यात्रा के अनुभवी हो चुके थे.
मेरा संस्मरण सुन कर सब की खासकर अभिषेक की आंखें फैल गईं. पूजा भी मेरी बातों पर सहमत हुई कि हमें ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जिन में न दिखावा हो न बंधन. परंपरागत अवसर पर भले ही पारंपरिक ड्रैस पहने जाएं मगर सार्वजनिक स्थान पर जब भी दुपट्टे या आंचल से खुद को ढकते हैं तो कौन्फिडैंट के बजाय नाजुक और असहाय नजर आते हैं. असरारुल हक उर्फ ‘मजाक’ साहब ने क्या खूब लिखा है–
‘तेरे माथे पे यह आंचल
बहुत खूब है लेकिन
तू इस आंचल से एक परचम
बना लेती तो अच्छा था.’
वाकई, आंचल या चूनर में स्त्री के शर्माए, सकुचाए रूप का आभास मिलता है. इसलिए हमें वैसे कपड़े पहनने चाहिए जो न केवल हमें ढकें बल्कि हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ाएं.
आज के युग में इस अतिरिक्त कपड़े का परचम लहरा कर आंदोलन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए.
आखिर, पैरहन हमारी हैं, इसलिए हमेशा वैसे ही कपड़े पहनने चाहिए जो न केवल शरीर ढकें बल्कि व्यक्तित्व को निखारें भी. कामकाजी महिलाओं के कपड़े आधुनिक होने के साथ गरिमामय भी होते हैं जिन में कोई भी अतिरिक्त तामझाम नहीं होता. वही तन पर जंचने के साथ आत्मविश्वास में बढ़ोतरी करते हैं. सो, वही पहनने चाहिए.
लेखक : आर्य झा