Children : बच्चों के कोमल दिमाग विभिन्न चैनल्स पर परोसी जा रही हिंसा से बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अपने मनपसंद कार्टून कैरेक्टर्स की हरकतों को कौपी करने से बच्चों के व्यवहार में मानवीय संवेदनाओं और अच्छे गुणों की जगह उग्रता को ज्यादा स्थान मिल रहा है.
शालिनी कौर दिल्ली के एक स्कूल में नर्सरी क्लास की टीचर हैं. उन की क्लास में 30 बच्चे हैं. उन्हीं में से 2 बच्चे अंकुर और प्रखर, उम्र 4 साल, एक दिन क्लास में एकदूसरे से खूब गुत्थमगुत्था हुए. दोनों ने एकदूसरे के बाल नोचे, नाखुनों से नोचनोच कर गाल लाल कर दिए. शालिनी ने डांट कर दोनों को अलग किया. छुट्टी के वक्त जब सारे बच्चे क्लास से बाहर जाने के लिए लाइन में लगे थे, उस वक्त अंकुर और प्रखर फिर एकदूसरे से भिड़ गए. गोरिल्ला की तरह छाती पर घूंसे मारते हुए दोनों एकदूसरे पर टूट पड़े. प्रखर ने अंकुर को जमीन पर गिरा दिया और उस पर चढ़ बैठा. क्लास के बच्चों ने शोर मचाया तो शालिनी, जो सब से आगे वाले बच्चे की उंगली थाम कर बच्चों की लाइन को बाहर ले जा रही थी, दौड़ कर पीछे क्लास में आई और दोनों को फिर डांट कर अलग किया.
शालिनी नर्सरी क्लास के इन दोनों छात्रों की हरकतें देख कर हैरान थी. अगले कुछ दिनों में भी दोनों के बीच ऐसी ही रंजिश दिखी. क्लास टीचर ने दोनों को अलगअलग बैंच पर बिठाया, मगर मौका पाते ही दोनों गोरिल्ला की तरह एकदूसरे से भिड़ जाते. आखिरकार, शालिनी को प्रिंसिपल से कह कर दोनों के मातापिता को बुलाना पड़ा. वह जानना चाहती थी कि कहीं बच्चों के मातापिता के बीच रिश्ते खराब होने या दोनों के बीच लड़ाई झगड़े आदि का असर तो उन के बच्चों के व्यवहार को उग्र नहीं बना रहा है.
शालिनी दोनों के पेरैंट्स से मिली, बातें कीं, दोनों बच्चों की घर में क्या गतिविधियां होती हैं, वे कब क्या करते हैं, सारी बातें उन से पूछीं. शालिनी ने पाया कि उन के मातापिता के आपसी संबंध तो बहुत अच्छे हैं, बच्चों को घर में भरपूर प्यारदुलार भी मिल रहा है. होमवर्क खत्म करने के बाद बच्चे ज्यादा समय कार्टून चैनल्स पर बिताते हैं. आजकल बहुत सारे चैनलों, जैसे निक जूनियर, कार्टून नैटवर्क, पोगो, कार्टून नैटवर्क एचडी प्लस, हंगामा, सुपर हंगामा, ईटीवी भारत आदि पर बच्चों के लिए अनेक प्रकार के कार्टून शो चल रहे हैं.
दो पीढ़ी पहले तक हन्ना–बारबेरा के कार्टून, जैसे ‘योगी बियर’, ‘टौप कैट’, ‘द फ्लिंटस्टोन्स’ और ‘स्कूबी डू’ जैसे शो खूब पसंद किए जाते थे. इन के अलावा, एमजीएम कार्टून जैसे ‘टौम एंड जेरी’, ‘ड्रौपी’ और ‘स्पाइक एंड टाइक’ शो भी बच्चे बड़े चाव से देखते थे. आज जी क्यू चैनल पर ‘चिंपू सिंपू’ जैसी एनिमेटेड टैलीविजन सीरीज आती है. डिज्नी एक्सडी इंडिया पर ‘चोर पुलिस’ जैसी एनिमेटेड टैलीविजन सीरीज आती है. महा कार्टून टीवी पर ‘सीको से सीखो’ जैसी एनिमेटेड टैलीविजन सीरीज आती है. ईटीवी भारत पर ‘मोटू पतलू’, ‘शिवा’, ‘रुद्रा’ जैसे शो चल रहे हैं. ‘मोटू पतलू’ भारत में सब से मजेदार और सब से लोकप्रिय कार्टूनों में से एक है. ‘मोटू पतलू’ न केवल बच्चों के लिए बल्कि वयस्कों के लिए भी मनोरंजन का एक बड़ा स्रोत है. इस शो को तो बच्चों के साथ उन के मम्मीपापा भी बैठ कर देखते हैं.
बच्चे स्क्रीन में जैसा देखते हैं वैसा करते हैं
शालिनी ने उन कार्टून चैनल्स के नाम नोट किए जो अंकुर और प्रखर देखते हैं. उन्होंने घर आ कर उन चैनल्स को देखा. शालिनी हैरान हुईं क्योंकि ईटीवी बाल भारत पर आने वाले बच्चों के फेवरेट कार्टून कैरेक्टर शिवा और रुद्रा जिस तरह पूरे वक्त अपने शक्तिशाली होने का दंभ भरते हुए फाइट करते हैं, अंकुर और प्रखर भी कुछ उसी अंदाज में क्लास में एकदूसरे से भिड़े रहते हैं. दोनों के डायलौग भी वैसे ही होते हैं : ‘मैं शक्तिशाली हूं’, ‘बच्चा न समझना मुझे’, ‘प्रखर नाम है मेरा’ आदिआदि. वे दोनों क्लास में अन्य बच्चों के साथ उसी तरह की हरकतें करते हैं जैसे उन के फेवरेट कार्टून कैरेक्टर्स टीवी स्क्रीन पर करते दिखाई देते हैं.
शालिनी ने कई दिनों तक वे सभी कार्टून चैनल्स देखे जो उन की क्लास के अधिकांश बच्चे देखते हैं. उन्होंने पाया कि ज्यादातर कार्टून कैरेक्टर्स जो बच्चों द्वारा पसंद किए जा रहे हैं उन में मुख्य कैरेक्टर मारधाड़ करने वाले और अपनी जादुई शक्ति दिखाने वाले ही हैं, जैसे सुपरमैन, स्पाइडरमैन, मोटू, छोटा भीम, रुद्रा, शिवा आदि. ये जिस प्रकार दुश्मनों पर वार करते हैं, हाथों को गोलगोल घुमा कर जादुई कारनामे करते हैं और जिस प्रकार के उग्र डायलौग बोलते हैं, बच्चों के दिमाग पर उस का गहरा प्रभाव पड़ रहा है. वे उसी कैरेक्टर के समान खुद को शक्तिशाली सम?ाते हुए वैसा ही व्यवहार अपने क्लासमेट के साथ करना चाहते हैं.
कई बच्चे तो स्कूल में सीढि़यां उतरते समय दोतीन सीढि़यां लांघ जाते हैं. ऐसा वे दूसरे बच्चों को अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए करते हैं, जैसा वे टीवी में देखते हैं.
प्रखर और अंकुर के माध्यम से शालिनी का ध्यान इस ओर गया तो बाद में उन्होंने पाया कि अन्य क्लासेज के भी बहुत सारे बच्चे इन कैरेक्टर्स के हावभाव, गतिविधियों और डायलौग कौपी करते हैं और उन का इस्तेमाल अपने सहपाठियों पर करते हैं. साफ है कि बच्चों के कोमल दिमाग इन कार्टून चैनल्स द्वारा प्रभावित हो रहे हैं और उन के व्यवहार में मानवीय संवेदनाओं व अच्छे गुणों की जगह उग्रता को ज्यादा स्थान मिल रहा है.
टीवी पर पहले भी कार्टून और बच्चों के कार्यक्रम आते थे, मगर वे बच्चों की उम्र व उन के कोमल मन को ध्यान में रख कर बनाए जाते थे. कार्यक्रम ऐसे होते थे जिन में मानवीय गुणों, जैसे प्रेम, भाईचारा, साथ में घूमना, साथ में खेलना, तैराकी, साइकलिंग, रेस, दोस्तों, मातापिता और भाईबहन से प्रेम करना जैसी भावनाओं को पिरोया जाता था. उन में खूब हंसीठिठोली होती थी, जिस से नकारात्मकता और तनाव दूर होता था. इस पीढ़ी के जवान और बूढ़े लोगों को याद होगा आर के नारायण द्वारा लिखित कहानी संग्रह ‘मालगुडी डेज’, जिस में काल्पनिक शहर मालगुडी में रहने वाले लोगों के जीवन का वृत्तांत बहुत ही खूबसूरती से स्क्रीन पर उतारा गया था. मालगुड़ी डेज के एपिसोड आज भी रोमांचित करते हैं.
80 के दशक में जब भारतीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अनेक आजाद निर्माताओं और निर्देशकों को टैलीविजन धारावाहिक बनाने के आमंत्रण दिए थे, तब आर के नारायण की कृति पर आधारित मालगुडी डेज उन्हीं में से एक ऐसा धारावाहिक था जो खासा लोकप्रिय हुआ था और जिस का उस दौर के बच्चों पर गहरा असर पड़ा था. धारावाहिक का मुख्य किरदार स्वामी नाम के बच्चे के इर्दगिर्द बुनी कहानी में प्रेम, भाईचारा, सद्भाव, सत्य और इसी प्रकार के मानवीय गुण सामने लाए जाते थे, जिन का सकारात्मक प्रभाव बच्चों के मनमस्तिष्क पर पड़ता था. उस में कर्णप्रिय लोकसंगीत और लोकनृत्य दृश्य होते थे. सीरियल में कहीं भी मारकाट, गालीगलौज, उग्र संवाद नहीं था, जैसा कि आजकल बन रहे सीरियल या कार्टून आदि में होता है. इस में हर समस्या का समाधान बातचीत के जरिए होता था. यानी इस प्रकार के धारावाहिकों में लोक का ध्यान रखते हुए लोकतंत्र की सच्ची आवाज घरघर पहुंचाई जाती थी. पुराने इंगलिश कार्टून सीरियल्स की बात करें तो ‘मिक्की माउस’, ‘टौम एंड जैरी’, ‘डोनाल्ड डक’ जैसे कैरेक्टर्स भी बच्चों को खूब गुदगुदाते थे. टौम एंड जैरी (एक चूहा एक बिल्ली) हमेशा एकदूसरे के पीछे पड़े रहते थे, मगर एकदूसरे के बिना रह भी नहीं पाते थे. इस कार्टून शो को देखने वाला दोनों की हरकतें देख कर बस हंसता ही रहता था. इस में न कोई उग्र डायलौग था, न कोई खूनखराबा और न ही कोई मौत. मगर आज इस तरह की कार्टून स्टोरी किसी चैनल्स पर नजर नहीं आती.
हिंसा की भरमार
आज कार्टून चैनल्स पर जितने भी नए प्रोग्राम आ रहे हैं, सब में सिर्फ मारधाड़ की ही भरमार है. हरेक में कोई न कोई मर रहा है. यानी नन्हे मन में मौत के भय को भरा जा रहा है. बच्चों को न बालगीत सुनने को मिलते हैं, न अच्छा संगीत, न ही उन को ध्यान में रख कर लिखी गई कोई अच्छी कहानी होती है. आजकल के कार्टून धारावाहिकों में बदले की भावना, मारपीट, उग्र बातचीत के साथ जादुई चीजों की भी भरमार है. कोई हवा में उड़ रहा है, कोई जादू से पेड़ों, पहाड़ों, इंसानों और जानवरों को हवा में उड़ा रहा है, कोई एक हाथ उठा कर हवा में उड़ता हुआ बादलों से भी ऊपर पहुंच जाता है. यानी बच्चों को ऐसी चीजें दिखाई जा रही हैं जिन का वास्तविकता से दूरदूर तक कोई नाता नहीं है.
मातापिता भी इन बातों की ओर कोई ध्यान नहीं देते कि उन के बच्चे स्क्रीन पर जो कुछ देख रहे हैं, उन का क्या प्रभाव उन के बच्चों पर पड़ेगा. अपना पिंड छुड़ाने के लिए वे बच्चों को टीवी के सामने बिठा देते हैं या अपना मोबाइल फोन उन के हाथ में पकड़ा देते हैं. कई बार तो रात में जब मातापिता टीवी पर ‘क्राइम पैट्रोल, ‘सीआईडी’, ‘सावधान इंडिया’ जैसे क्राइम सीरियल्स देखते हैं तो बच्चे भी साथ बैठ कर अथवा लेट कर पूरा सीरियल देख लेते हैं. क्राइम सीरियल्स जिन में हत्या, डकैती, बलात्कार, अपहरण, छोटी बच्चियों की तस्करी, खूनखराबा और गोलीबारी जैसे वीभत्स दृश्यों की भरमार होती है, बच्चों को मानसिक रूप से बीमार बना रहे हैं.
पेरैंट्स जिम्मेदार
आज अगर बच्चे हिंसक और असंवेदनशील हो रहे हैं, मातापिता का कहा नहीं मानते, आपस में लड़ते झगड़ते रहते हैं, उन की दोस्तियां क्षणक्षण में टूटती हैं, वे अवसादग्रस्त हैं या आत्महत्या जैसे घातक कदम उठा रहे हैं तो इस के जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि उन के मातापिता ही हैं.
रंजना का बेटा केजी में और बेटी क्लास 2 में है. पहले दोनों स्कूल से आते ही होहल्ला मचाते थे या किसी न किसी बात पर एकदूसरे से लड़ते झगड़ते थे या जोरजोर से बातें करते थे. इस के कारण रंजना को अपने काम में दिक्कत होती थी. कई बार उस को किचन छोड़ कर बच्चों की लड़ाई छुड़वाने के लिए बैडरूम की ओर भागना पड़ता था. शोर अलग होता था घर में. इस को रोकने की तरकीब रंजना ने यह निकाली कि उस ने कई कार्टून चैनल्स सब्सक्राइब कर लिए.
अब बेटा स्कूल से लौट कर टीवी पर अपना हिंसक कार्टून चैनल देखता है और बेटी रंजना मोबाइल फोन पर अपना मनपसंद शो देखती है. घर में खामोशी रहती है और रंजना शाम तक अपने पति के घर आने से पहले आराम से घर के सारे काम निबटा लेती है, सहेलियों से जीभर कर फोन पर बातें कर लेती है या अपने मायके वालों से बात कर लेती है. बच्चे स्क्रीन पर बिजी हों तो वह पास के बाजार से घर का सामान भी खरीद लाती है. मगर रंजना यह नही समझ रही कि उस ने अपनी सहूलियत के लिए दोनों बच्चों को जिस आदत में फंसा दिया है, उस का बुरा असर उन के कोमल मस्तिष्क और व्यवहार पर तो पड़ेगा ही, शारीरिक रूप से भी दोनों निर्बल हो जाएंगे, क्योंकि खेलनेकूदने की उम्र में वे दोनों सोफे या बैड पर पड़े टीवी देखते हैं और फास्ट फूड खाते रहते हैं.
एक पीढ़ी पहले तक के बच्चे स्कूल से घर लौटने के बाद पार्क या गली में खेलने जाते थे. कोई क्रिकेट, फुटबौल खेल रहा होता, कोई कबड्डी या खोखो. बहुतेरे बच्चे स्कूल से लौट कर घर की छत पर पतंग उड़ाते थे. इन गतिविधियों से उन का शरीर मजबूत होता था, लक्ष्य पर ध्यान और दृष्टि केंद्रित होती थी. शरीर को भरपूर धूप मिलती थी जिस से हड्डियां मजबूत होती थीं. खेल के दौरान आपसी प्रेम और भाईचारे जैसे सद्गुणों में वृद्धि होती थी. दूसरों से बातव्यवहार का ढंग आता था. सहयोग की भावना का विकास होता था. गेम में हार जाने का दुख सहन करने की भी ताकत डैवलप होती थी. बच्चे अवसाद में नहीं जाते थे बल्कि हारने पर दोगुनी ऊर्जा से जीतने के लिए फिर खेलते थे. लेकिन आज जिस तरह मातापिता अपनी सुविधा के लिए बच्चों को टीवी का गुलाम बना रहे हैं, उस से इन सभी मानवीय गुणों का विलोप होने लगा है. अपने काम में व्यस्त मांबाप यह भी नहीं देखते कि टीवी या मोबाइल फोन पर बच्चा कार्टून चैनल के अलावा और क्याक्या देख रहा है.
चैनल्स के गुलाम बच्चे
अकसर देखा जाता है कि टीवी के गुलाम बने बच्चों के आगे अगर उन का मनपसंद चैनल न लगा तो वे हंगामा बरपाने लगते हैं. भाईबहन आपस में लड़ते हैं, मांबाप से गालीगलौज करते हैं, घर की चीजें उठा कर यहांवहां फेंकते हैं. घर को वे जंग का मैदान बना देते हैं. ऐसे अनेक बच्चों से आप को अस्पतालों के मनोरोग विभाग भरे मिलेंगे.
आज ज्यादातर टीवी चैनल्स, सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स, बौलीवुड, टौलीवुड और हौलीवुड सिर्फ नकारात्मकता, खूनखराबा, हिंसा, दुश्मनी ही परोस रहे हैं, जिन का बुरा असर बच्चों पर ही नहीं, समाज के हर वर्ग पर पड़ रहा है. इन धारावाहिकों और फिल्मों से किशोर और युवा भी प्रभावित हो रहे हैं. कई क्राइम की घटनाओं के बाद यह पाया गया है कि आरोपी ने हत्या के लिए जिस तरीके का इस्तेमाल किया वह उस ने किसी क्राइम सीरियल में देखा था. क्राइम सीरियल और फिल्में पहले भी बनती थीं. जासूसी धारावाहिक ‘करमचंद’, ‘व्योमकेश बख्शी’, ‘अदालत,’ ‘तहकीकात’ आदि याद होंगे. ये सभी क्राइम धारावाहिक ही थे मगर इन में उस तरह का खूनखराबा, बलात्कार, हिंसा, हत्या के खुले और वीभत्स दृश्य नहीं होते थे जैसे कि आजकल देररात टीवी पर आ रहे ‘क्राइम पैट्रोल’, ‘सीआईडी’ या ‘सावधान इंडिया’ में होते हैं. ‘करमचंद’ तो क्राइम का सीरियल होने के बावजूद बड़ा मजाकिया जासूसी धारावाहिक था.
पहले और आज
70 के दशक में बनी फिल्म ‘शोले’ आज भी उसी उत्साह से देखी जाती है जैसे तब देखी गई थी. ‘शोले’ के डायलौग्स आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं. उस के गीत आज भी कानों में रस घोलते हैं. ‘शोले’ एक निर्मम डाकू गब्बर सिंह की खूनी करतूतों पर आधारित फिल्म है, फिर भी खूनखराबे के दृश्यों से ज्यादा इस फिल्म में मनोरंजक दृश्य और भावनात्मक संवाद दर्शकों के मन में करुणा और प्रेम की भावना को बल देते हैं जबकि आज के दौर में बनने वाली फिल्में चाहे ‘गंगाजल’ हो, ‘एनिमल’ हो या ‘पुष्पा’, सिर्फ गुस्सा, भय और तनाव बढ़ाती हैं. नैटफ्लिक्स, अमेजन जैसे प्लेटफौर्म्स पर जो फिल्में या सीरियल आ रहे हैं उन में सिर्फ गालीगलौज और खूनखराबे के वीभत्स दृश्य ही भरे पड़े हैं, जो बच्चों और वयस्कों की दिमागी सेहत बिगाड़ रहे हैं. मनोरंजन के लिए देखी जाने वाली फिल्मों में इस तरह के हिंसक डायलौग्स चिंता बढ़ा रहे हैं.
एक नए शोध के अनुसार, बीते 50 सालों के दौरान बनी फिल्मों के डायलौग्स अधिक हिंसक होते चले गए. आज मरनेमारने के विषय के इर्दगिर्द ही पूरी फिल्म चलती है. फिल्म में दूसरे विषयों की तुलना में अब हत्या से जुड़े डायलौग्स अधिक होते हैं. इस से बच्चों के साथसाथ वयस्कों की सेहत पर भी जोखिम बढ़ रहा है.
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के कम्युनिकेशन विभाग के प्रोफैसर ब्रैड बुशमैन ने कहा है कि इस तरह की फिल्मों से अपराध क्षेत्र में तो घटनाएं बढ़ेंगी ही, दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी फिल्मों का असर हो सकता है. स्वभाव में उग्रता, सहनशीलता में कमी, रिश्तों में दूरियां, ब्रेकअप्स, दोस्ती और भाईचारे में कमी जैसी चीजें इन फिल्मों के कारण ही बढ़ती हैं. उन का मानना है कि 1970 की शुरुआत में बनी फिल्मों में 0.21 प्रतिशत इस तरह के डायलौग्स का इस्तेमाल होता था जो 2020 में बढ़ कर 0.34 प्रतिशत हो गया.
1970-2020 तक की इंगलिश फिल्मों के डायलौग का विश्लेषण किया गया. इस में पता चला कि 7 फीसदी फिल्मों में मर्डर जैसे शब्द जम कर इस्तेमाल किए गए थे.
शोधकर्ताओं के अनुसार, इस तरह की बढ़ोतरी को देखते हुए लोगों, विशेषकर बच्चों, को ऐसी फिल्मों के प्रति सचेत किया जाना अब बहुत जरूरी है. साथ ही, लोगों को मीडिया के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए. हिंसक मीडिया कंटैंट जैसे टीवी या वीडियो गेम देखने से युवा अधिक हिंसक हो जाते हैं. वहीं बच्चे समाज से दूर और भावनात्मक तौर पर तनाव या अवसाद में चले जाते हैं.
भारत में धार्मिक ग्रंथों पर बनने वाले सीरियल चाहे रामायण हों या महाभारत, ईसाईयों के धर्मग्रंथ हों या मुसलमानों के, सभी रिश्तों में कड़वाहट, ईर्ष्या, लड़ाई, खूनखराबा, मौत जैसी चीजों को बढ़ावा देते हैं. शक्ति का प्रदर्शन हथियारों के साथ लड़ाई के मैदानों में होता है. दिमागी शक्ति और वाक्शक्ति का प्रयोग कहीं भी दिखाई नहीं देता, जबकि बातचीत से हर समस्या का समाधान निकल सकता है.
हमारा कोई भी धार्मिक ग्रंथ ऐसा नहीं है जिस में बैर, शत्रुता आदि का समाधान बातचीत के जरिए निकाला जाए. यहां भाईभाई के बीच बस तलवारें चलती दिखाई देती हैं.
रूस और यूक्रेन लंबे समय से युद्धरत हैं. दुनिया के कुछ नेता कोशिश कर रहे हैं कि बातचीत से समस्या का समाधान हो. इजराइल और फिलिस्तीन को भी समझाया जा रहा है कि बातचीत से हर समस्या सुलझ सकती है.
असली लोकतंत्र तो वही है जहां बातचीत के जरिए चीजों को सुलझा कर विकास के पथ को प्रशस्त किया जाए. मगर यह जानते हुए भी और दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरते हुए भी हम खुद को छोटी सी बात पर तलवारें व बंदूकें निकाल कर सड़कों पर उतर आते हैं. दरअसल बचपन से जिन धर्मग्रंथों की उग्र बातें हमें घुट्टी के साथ पिलाई गई हैं उन का उबाल हमें हथियारों के साथ सड़कों पर ले आता है. हम सोचते ही नहीं कि अगर हम एक लोकतंत्र हैं तो यहां किसी भी समस्या को बातचीत की मेज पर पहले लाना चाहिए. अधिकांश समस्याएं तो वहीं सुलझ जाती हैं.
धार्मिक ग्रंथों की कहानियों पर बनने वाले धारावाहिक और बच्चों के लिए कार्टून शोज भी हिंसा से ओतप्रोत हैं. कोई आंखों से बिजली निकाल कर सामने वाले को भस्म कर रहा है, कोई नाग से दुश्मन को डसवा रहा है, कोई जादुई हथियार फेंक कर दुश्मन का सिर कलम कर रहा है. किसी भी सीरियल में प्रेम, सौंदर्य, कला का प्रदर्शन देखने को नहीं मिलता. ऐसे दृश्य ही नजर नहीं आते जिन से आंखों को सुकून और हृदय को शांति मिले. सब तरफ हिंसा और साजिशों का बाजार लगा है और इस बाजार में देश का बच्चा, किशोर और युवा पगलाया सा घूम रहा है. वह इतना तनावग्रस्त है कि किसी को भी गालियां देने लगता है, किसी पर भी बंदूक तान देता है, किसी की भी बहनबेटी की आबरू नोचने में उस के हाथ नहीं कांपते. उग्रता के अंधेपन में इंसानियत की बातें धुंधली पड़ती जा रही हैं.
कहां-कहां कैसे कैसे दोषी मां-बाप
बच्चे आजकल 3 से 4 घंटे टीवी या मोबाइल पर हिंसक प्रोग्राम देख रहे हैं.
हिंसक प्रोग्राम देखने वाले बच्चे हिंसा को सामान्य मान लेते हैं.
ऐसे बच्चे हिंसा को विवाद को हल करने का इकलौता तरीका मानते हैं.
बच्चे टीवी हिंसा की नकल जिंदगी में करते हैं.
बच्चे अपने को सुपरमैन और हर दूसरे को विलेन समझने लगते हैं.
मातापिता आमतौर पर इस व्यवहार के दोषी हैं क्योंकि वे चैनल या प्रोग्राम बदलने की कोशिश भी नहीं करते.
इन चैनलों के साथ आने वाले विज्ञापनों के प्रोडक्ट्स भी मातापिता को खरीद कर देने पड़ते हैं.
मातापिता की बदौलत एक बच्चा औसतन 12 हजार हिंसक घटनाएं चैनलों पर देखता है.
गरीब और अधपढ़े घरों में टीवी का असर ज्यादा होता है क्योंकि वहां मांबाप भी उसी तरह झगड़ा करते रहते हैं.
मांबापों की इजाजत के कारण भाइयों में टीवी जैसी दुश्मनी हो जाती है.
टीवी देखने वाले बच्चे आमतौर पर रैडीमेड खाना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मांबाप उन की जिद को मानेंगे ही.
बच्चों को पहले हिंसा की आदत डाली जा रही है और फिर जब नशा चढ़ जाता है तो उस के साथ एडवरटाइजिंग परोसी जाती है और मांबाप जिद के कारण उस सामान को खरीद देते हैं जो हिंसा का पाठ पढ़ाने वाले चैनलों में दिखे.
लड़कियों को जल्दी ही सैक्स की ओर लालायित करते हैं मां-बाप टीवी के माध्यम से
टीवी पर खुले सैक्स के सीन देखना आसान है जहां मांबाप खड़े न हों. लड़कियां उत्सुकता में ऐसे ही चैनल देखने लगती हैं जिन में सैक्स सीन काफी हों.
हिंदी-इंग्लिश फिल्मों में शराब, स्मोकिंग लड़कियों को भी पीते दिखाया जाता है. मांबाप चाह कर भी अंकुश नहीं लगा पाते.
लड़कियों को अकसर म्यूजिक वीडियो देखने की अनुमति मांबाप दे ही देते हैं जिन में बहुत उन्मुक्त व्यवहार होता है और छुटपन से ही ये दृश्य देखने को मिल जाते हैं.
‘एनिमल’ जैसी हिंदी फिल्म मोबाइलों पर छोटी लड़कियों के हाथों में पहुंच गई क्योंकि मांबाप बचपन से उन्हें स्क्रीन की आदत डाल देते हैं. ऐसी फिल्में सैक्स को मौडल बिहेवियर बना डालती हैं.