Suicide : यदि देश में सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा व्यवस्था कायम हो. सबको समान अवसर उपलब्ध हों, सबको समान शैक्षिक संसाधन प्राप्त हों, तो उनका मानसिक दबाव बहुत हद तक कम हो जाएगा. गाँव के स्कूल से पढ़ कर आने वाले बच्चे की क्षमता वही होगी जो शहर के स्कूल में पढ़ कर निकले बच्चे की होगी. लेकिन ऐसी व्यवस्था बनाने की मंशा किसी सरकार की नहीं रही.
कोविंद कमेटी का गठन
सरकार वन नेशन वन इलेक्शन के लिए जान दिए दे रही है. इसके लिए बाकायदा कोविंद कमेटी का गठन किया गया. उस कमेटी के सुझावों पर फ़टाफ़ट बिल भी तैयार हो गया और सदन में प्रस्तुत भी कर दिया गया. अब बिल पास कराने के लिए दोनों सदनों में सिर फुटव्वल भी होगी और अंततः बिल पास करवा लिया जाएगा.
मगर लाखों छात्रों की मौतों और लगातार हो रही मौतों के बावजूद सरकार वन नेशन वन एजुकेशन की बात पर विचार नहीं करेगी क्योंकि पूरे देश में जिस तरह के शिक्षा तंत्र का जंजाल बिछाया गया है उसमें संतरी से लेकर मंत्री तक भ्रष्टाचार का पैसा निर्विघ्न पहुंच रहा है. लिहाजा इस सिस्टम को बदलने या सुधारने की मंशा किसी की नहीं है, भले देश के युवा अवसाद में डूब कर आत्महत्याएं करते रहें.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार बीते 5 वर्षों में 59 हजार से ज्यादा छात्रों ने अपनी जान दी है. देश में हर दिन 35 से ज्यादा छात्र आत्महत्या कर रहे हैं. साल 2018 से 2022 तक देश में 59,153 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी. देश का हर समाचार पत्र और न्यूज़ चैनल्स हर दिन बच्चों की आत्महत्या की ख़बरों से रंगे रहते हैं. मगर सरकार आंखों पर पट्टी चढ़ाये हुए है.
झकझोरती Suicide की घटनाएं
9 सितंबर 2024 : गुवाहाटी के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी ) में कंप्यूटर साइंस के तृतीय वर्ष के छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. उत्तर प्रदेश के रहने वाले छात्र का शव ब्रह्मपुत्र हॉस्टल के उसके कमरे में मिला. वह कंप्यूटर साइंस में तीसरे वर्ष का छात्र था. वह मानसिक रूप से काफी दबाव में था.
10 अक्टूबर 2024 : आईआईटी कानपुर में पीएचडी छात्रा प्रगति ने हॉस्टल में आत्महत्या कर ली. 28 वर्षीय प्रगति अर्थ साइंस से पीएचडी फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रही थी. चकेरी थाना क्षेत्र स्थित सनीगंवा सजारी में रहने वाले उसके पिता गोविंद खारया लाला पुरुषोत्तम दास ज्वेलर्स में स्टॉक मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं. अपनी होनहार बेटी से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं. प्रगति बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थी, उसने दिल्ली के हंसराज कॉलेज से बीएससी, झांसी के बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी से एमएससी की थी. इसके बाद वह आईआईटी कानपुर से पीएचडी कर रही थी.
23 अक्टूबर 2024 : आईआईटी दिल्ली में पढ़ रहे देवघर के होनहार छात्र का कमरे में पंखे से लटका शव मिला. दिल्ली के अरावली छात्रावास स्थित अपने कमरे में देर रात यश कुमार नामक छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. 21 वर्षीय यश एमएससी सेकंड ईयर का छात्र था. वह काफी समय से डिप्रेशन में था. यश के पिता अनिल कुमार झा देवघर उपायुक्त कार्यालय में विधि शाखा में लिपिक थे और 30 सितंबर को वे सेवानिवृत्त हुए थे.
24 अक्टूबर 2024 : रुदौली क्षेत्र के भेलसर गांव में 17 वर्षीय छात्र सक्षम ने पंखे से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. छात्र अयोध्या में अपनी बुआ के पास रहकर इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहा था. घर के सभी सदस्य बाहर थे जब उसने यह आत्मघाती कदम उठाया.
26 अक्टूबर 2024 : दिल्ली के जामिया नगर थाना क्षेत्र के शाहीन बाग में एक छात्रा ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली. 17 वर्षीय छात्रा जेईई की तैयारी कर रही थी. इस परीक्षा में पास न होने के चलते उसने यह आत्मघाती कदम उठाया. छात्रा के पास एक सुसाइड नोट भी मिला है. जिसमें उसने लिखा है कि वह परिवार की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सकी. मृतका के पिता निजी कंपनी में नौकरी करते हैं और उसकी मां गृहिणी हैं.
Student Suicide – एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया के अनुसार
स्टूडेंट सुसाइड – एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जहाँ हर साल 2 फीसदी की दर से आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं, वहीं छात्रों में आत्महत्या की दर 4 फीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ रही है. यानी देश में आत्महत्या के जितने मामले हर साल आते हैं, उनमें छात्रों की संख्या सबसे ज्यादा होती है.
आंकड़े बताते हैं कि साल 2021 में 13,089 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी, जबकि, साल 2022 में 13,044 छात्रों ने आत्महत्या की. वहीं 2018 से 2020 के दौरान कुल 33,020 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. छात्र आत्महत्या की घटनाएं जनसंख्या वृद्धि दर और कुल आत्महत्या ट्रेंड दोनों को पार करती जा रही हैं. पिछले दशक में, जबकि 0-24 साल की आयुवर्ग आबादी 58.2 करोड़ से घटकर 58.1 करोड़ हो गई, वहीं छात्र आत्महत्याओं की संख्या 6,654 से बढ़कर 13,044 हो गई.
भारत की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी युवा है लेकिन, अब इसी देश में हर 40 मिनट में एक युवा अपनी जान दे रहा है. स्टूडेंट सुसाइड – एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया ने अंतर्राष्ट्रीय करियर और कॉलेज परामर्श (आइसी3) की सालाना कॉन्फ्रेंस में अपनी रिपोर्ट साझा की है. इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है. बता दें कि आइसी3 एक नॉन-प्रॉफिट ऑर्गेनाइजेशन है जो पूरी दुनिया में शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है.
Mental Health और Suicide
छात्रों की आत्महत्या के ज्यादातर मामलों में वजह मेंटल हेल्थ है. अवसाद, हताशा, चिंता, दबाव, निराशा, बेइज्जत होने का डर जैसे कारक छात्रों को ऐसी मानसिक स्थिति की तरफ धकेल रहे हैं जो अंततः उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है. यूनिसेफ की मेंटल हेल्थ सम्बंधी एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 15 से 24 साल का हर 7 में से एक व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या से जूझ रहा है
. यह मानसिक समस्या इसलिए है क्योंकि कम्पटीशन के दौर में हर छात्र पर यह दबाव है कि वह कुछ बन कर दिखाए. हर व्यक्ति एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में है. नहीं निकल पाया तो जीवन को व्यर्थ समझने की मानसिकता से ग्रस्त हो जाता है. इस नकारात्मक भाव से उबरने में उसके मातापिता, भाईबहन, दोस्त, समाज, स्कूल-कॉलेज के टीचर कोई भी उसकी मदद नहीं करते, उलटे ताने मार मार कर उसकी मानसिक स्थिति को और बदतर बना देते हैं.
जब भी किसी छात्र की आत्महत्या की कोई खबर आती है तो हम उसके माता पिता को दोष देने लगते हैं कि हो ना हो उन्होंने ही अपने बच्चे से बहुत अधिक अपेक्षाएं पाल रखी होंगी. आखिर माँ बाप बच्चों से अपेक्षाएं क्यों ना रखें?
एक बाप दिन रात हाड़तोड़ मेहनत करता है ताकि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके और उन्हें उच्च अधिकारी बना सके ताकि जो अभावग्रस्त जीवन उसने जिया है वह उसके बच्चों को ना जीना पड़े. वह कर्ज लेता है, बीवी के गहने बेचता है, मकान-जमीन गिरवी रख देता है ताकि अपने बच्चों की उच्च शिक्षा और कम्पटीशन में सफल होने के लिए अच्छी कोचिंग दिलवा सके.
आईएएस-आईपीएस बनने का सपना आँखों में लिए दिल्ली के मुखर्जी नगर, शादीपुर, आजादपुर, कालकाजी जैसे क्षेत्रों में किराए पर रह रहे छात्रों से बात करने पर पता चलता है, कि कभी कभी उनके पास खाने तक के पैसे नहीं होते हैं. दो जोड़ी कपड़ों में पूरा साल निकाल देते हैं. एक एक कमरे में चार चार, छह-छह लड़के एकसाथ रहते हैं.पिता ने जैसे तैसे करके उनकी महंगी ट्यूशन के लिए पैसे का जुगाड़ किया और दिल्ली भेजा, इस उम्मीद से कि आईएएस की कोचिंग करके वह कम्पटीशन निकाल लेगा और अधिकारी बन जाने पर बाप के सिर पर चढ़ा सारा कर्जा उतार देगा. तो यदि माँ बाप की अपेक्षाएं अपने बच्चे से हैं तो इसमें क्या गलत है?
गरीबी का नेगेटिव इंपैक्ट
जिसके पास भी कम पैसा है और उसी पैसे के सहारे उसे अपने बच्चे को कुछ बनाना है तो उसकी यही चाहत होगी कि पहले ही अटेम्प्ट में बच्चा निकल जाए. इसी लिए लड़के पर भी कम्पटीशन में सफल होने का जबरदस्त दबाव होता है. क्योंकि उसे मालूम है यदि वह असफल हुआ तो उसका खेत-मकान भी जाएगा, माँ के गहने भी जाएंगे और बाप के सिर पर कर्ज का ब्याज बढ़ता जाएगा.
यह दबाव अमीर छात्रों पर नहीं होता है. वे जानते हैं कि पहले अटेम्प्ट में सफल ना हुए तो आगे तीन और अटेम्प्ट और हैं. उनको कोचिंग के लिए पैसे की कमी भी नहीं है. यह दबाव उन छात्रों पर भी नहीं है जो अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल से पढ़ कर आये हैं. जिनको अच्छे शैक्षिक साधन मिले, अच्छे टीचर मिले. अच्छी शिक्षा मिली. जिनकी इंग्लिश स्पीकिंग अच्छी है. जिन्हें अपने ऊपर कॉन्फिडेंस है और जिन्होंने पहले भी काफी ट्यूशन की हैं.
मानसिक दबाव में वे छात्र होते हैं जो गरीब घरों से आते हैं, जिनकी स्कूली शिक्षा किसी सरकारी स्कूल से हुई जहां कभी टीचर आते हैं कभी नहीं, जिन्होंने कभी ट्यूशन का मुँह नहीं देखा. जिन्होंने अंग्रेजी कभी बोली ही नहीं. जिनके बाप के पास दूसरे अटेम्प्ट के लिए पैसे का कोई इंतजाम नहीं है. कुछ हद तक वे छात्र भी मानसिक दबाव में होते हैं जिनके पिता और अन्य परिवारीजन प्रशासनिक अधिकारी होते हैं और उनका पूरा प्रेशर इस बात पर होता है कि उनके बच्चे को भी आईएएस अधिकारी ही बनना है.
माता पिता, कोचिंग संस्थानों को लाखों रुपए की फीस देते हैं जिसका परोक्ष रूप से दबाव छात्र पर पड़ता है. परिवारवाले, रिश्तेदार व अन्य लोग केवल सफलता की उम्मीद करते हैं लेकिन किन्हीं परिस्थितियों की वजह से जब वह उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता है तो वह गहरी निराशा में डूब जाता है और आत्महत्या ही उसे एकमात्र उपाय नजर आता है.
यदि देश में सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा व्यवस्था कायम हो. सबको समान अवसर उपलब्ध हों, सबको समान शैक्षिक संसाधन प्राप्त हों, तो उनका मानसिक दबाव बहुत हद तक कम हो जाएगा. गाँव के स्कूल से पढ़ कर आने वाले बच्चे की क्षमता वही होगी जो शहर के स्कूल में पढ़ कर निकले बच्चे की होगी. लेकिन ऐसी व्यवस्था बनाने की मंशा किसी सरकार की नहीं रही.
बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति की दोषी देश की सरकार ही है. देश में जिस तरह का शिक्षा तंत्र सरकार ने स्थापित कर रखा है वह बच्चों को सही ज्ञान देने और सही तरीके से शिक्षित करने में पूरी तरह अक्षम है. देश में शिक्षा के नाम पर विभिन्न तरीके के सिस्टम चल रहे हैं. एक ओर बड़े बड़े नामी पब्लिक स्कूल हैं. महंगे और शो-बाजी से भरे हुए. इनमें अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं. फिर सरकारी स्कूल हैं. जहाँ ना टीचर ना पढाई. बेसिक स्कूल हैं जहाँ बच्चों के बैठने के लिए कमरे और फर्नीचर तक नहीं है. टीचर्स तो यदाकदा ही दिखाई देते हैं.
अलगअलग बोर्ड और कौम्पीटिशन का प्रेशर
इसके अलावा अनेक तरह के बोर्ड हैं. हर प्रदेश का अपना बोर्ड तो है ही, इसके अलावा केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE), इंडियन सर्टिफ़िकेट फ़ॉर सेकेंडरी एजुकेशन (ICSE), इंटरनेशनल बैकलॉरेट (IB), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओपन स्कूलिंग (NIOS), इंटरनेशनल जनरल सर्टिफ़िकेट ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन (IGCSE) और कैंब्रिज एसेसमेंट इंटरनेशनल एजुकेशन (CIE). हर बोर्ड का अपना पाठ्यक्रम, सीखने का अपना तरीका, मूल्यांकन मानदंड, और परीक्षा आयोजित करने का तरीका सब अलग अलग होता है.
अलग अलग माहौल में पढ़ कर आये हुए छात्र जब किसी कम्पटीशन में एक साथ बैठते हैं तो उसमें सफल छात्रों की संख्या बहुत कम होती है. उदाहरण के तौर यूपीएससी यानी सिविल सेवा की परीक्षा को ही लें जिसको पास करने के बाद छात्र आईएएस और आईपीएस अधिकारी बनता है. यूपीएससी की परीक्षा में 24 से 26 साल के युवाओं का चयन सबसे ज्यादा होता है.
यूपीएससी की परीक्षा में हर साल करीब 10 लाख छात्र शामिल होते हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 0.01 प्रतिशत से 0.2 प्रतिशत ही परीक्षा पास कर पाते हैं. साल 2022 में यूपीएससी परीक्षा के लिए 11,52,000 छात्रों ने आवेदन किया था, जिनमें से केवल 933 लोगों का चयन हुआ था. जो हार गए उनमें से कुछ तो अगले अटेम्प्ट की तैयारी में लग जाते हैं, जिनको पैसे की तंगी नहीं है. कुछ दूसरे काम करने लगते हैं मगर बहुतेरे बच्चे हताशा और निराशा में घिर जाते हैं. जिन्हें घर परिवार से ताने-उलाहने नहीं मिलते वे अवसाद में जाने से बच जाते हैं. मगर कुछ अभागे बच्चे डर और निराशा के अन्धकार में डूब कर मौत को गले लगा लेते हैं.
कोचिंग संस्थानों में छात्रों के तनाव, चिंता और असफलता से जुड़ी भावनात्मक समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है. छात्रों पर केवल अंकों और प्रतिस्पर्धा का बोझ डाला जाता है. कोचिंग संस्थानों में काउंसलर्स नहीं होते हैं. यदि होते हैं तो नाममात्र के ही होते हैं. छात्रों में जागरूकता की कमी है. छात्र खुलकर बात नहीं कर पाते हैं. परिवार और समाज भी मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लेता है.
महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश वो राज्य हैं, जहां छात्र सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं. यहां जितने छात्र आत्महत्या करते हैं वह देश में होने वाली कुल आत्महत्याओं का एक तिहाई है, जबकि अपने उच्च शैक्षणिक वातावरण के लिए जानाजाने वाला राजस्थान 10वें स्थान पर है, जो कोटा जैसे कोचिंग केंद्रों से जुड़े गहन दबाव को दर्शाता है.
पेपर लीक की समस्या आम
सरकारी एजेंसियों में भ्रष्टाचार का दीमक इस कदर लगा हुआ है कि पेपर लीक की समस्या अब बहुत आम हो चुकी है. आईएएस या पीसीएस के अलावा अधिकांश प्रतिस्पर्धाओं के पेपर लीक हो जाते हैं. पेपर लीक होने से युवाओं को तैयारी का अमूल्य समय खराब हो जाता है. इससे उनका मनोबल टूट जाता है. जिससे वह गलत कदम उठाते हैं. पेपर लीक होने पर आमतौर पर एग्जाम कैंसिल हो जाता है. इस चक्कर में बहुतेरे छात्र ओवर एज हो जाते हैं. फिर उन्हें किसी छोटी मोटी नौकरी से काम चलाना पड़ता है. इससे हताशा पैदा होती है.
परिवार द्वारा अंतहीन अपेक्षाएं, समाज में सफलता के अप्राप्य मानदंड ,बड़े शहरों का ऐसा अकेलापन जो जीवन का रस समाप्त कर देता है, कोचिंग की अंधी होड़ और निराधार आश्वासन, ये सभी कारण विद्यार्थियों के जीवन की सरसता को संघर्ष में बदल चुके हैं, जिससे असफलता का भय मृत्यु से अधिक हो चुका है. उपभोक्तावादी संस्कृति, भविष्य की चिंता एवं पारिवारिक परेशानियों के चलते युवा अत्यधिक दबाव में रहते हैं. फीस का दबाव, प्रतिस्पर्धा एवं अनुकूल माहौल ना मिलने के कारण वे तनावग्रस्त हो जाते हैं और आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं.