Superstition : एक परिवार सायनाइड खा लेता है, एक महिला अपने लड्डू गोपाल को स्कूल भेजती है, कुछ बच्चे काल्पनिक देवताओं को अपना दोस्त मानते हैं. इन घटनाओं के पीछे छिपा है धार्मिक अंधविश्वास का वह असर जो मानव की सोच व व्यवहार को बुरी तरह प्रभावित करता है.
कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर एक वीडियो दिखा, जिस में एक महिला अनिरुद्धचार्य के समक्ष खड़ी माइक पर कह रही थी, ‘भगवान मिलने के लिए उसे बुला रहे हैं, वह भगवान से मिलने जाना चाहती है.’ वह यह बात बारबार दोहराती हुई कह रही थी. इसी तरह के एक अन्य वीडियो में एक दूसरी महिला भी कुछ इसी तरह की बात कहती हुई दिखी.
यह दूसरी महिला भी ठीक यही बात पूछ रही थी, ‘गुरुजी, मुझे भगवान कब मिलेंगे?’
इन दोनों ही महिलाओं में एक बात सामान्य है कि ये दोनों ही धार्मिक अंधविश्वास में इतनी गहराई तक डूबी हुई थीं कि ईश्वर संबंधित कल्पनाएं भी उन्हें सत्य लगने लगीं. वे इसे इस हद तक सत्य समझने लगीं कि इन के मन में ईश्वर से मिलने की गहरी इच्छा जागृत हो गई. ईश्वर से मिलने की व्याकुलता इन की मानसिक स्थिति पर प्रश्नचिह्न तो लगाता ही है, साथ ही, यह सवाल भी खड़ा करता है कि धार्मिक अंधविश्वास या फिर ईश्वर के प्रति अंधभक्ति किसी व्यक्ति के व्यवहार, उस के सोचनेसमझने की शक्ति व उस के क्रियाकलापों को किस तरह प्रभावित करता है.
कुछ वर्षों पहले राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के एक निवासी ने ईश्वर से मिलने की चाहत में अपने पूरे परिवार के साथ खुदकुशी कर ली थी. यह घटना उस समय सोशल मीडिया पर काफी वायरल भी हुई थी.
यह घटना कुछ इस प्रकार है- गंगापुर सिटी का रहने वाला कंचन सिंह, जोकि पेशे से फोटोग्राफर था, ने भगवान से मिलने की चाह में परिवार के साथ सायनाइड मिला लड्डू खा कर खुदकुशी कर ली थी. कंचन सिंह ने परिवार के साथ इस सामूहिक खुदकुशी का वीडियो भी बनाया था.
अपने इस वीडियो में कंचन सिंह परिवार के हर शख्स से पूछता हुआ नजर आ रहा था कि वे सभी लोग क्यों मरना चाहते हैं व मरने के विषय में सब के विचार क्या हैं? तब सभी ने भगवान से मिलने के लिए मरने की इच्छा बतलाई थी.
धार्मिक अंधविश्वास का यह आलम है कि इस घटना में कंचन सिंह का पढ़ालिखा शिक्षित, पेशे से इंजीनियर भाई भी शामिल था. वीडियो बनाने के बाद पूरा परिवार एकसाथ पूजा की वेदी पर आ कर बैठ जाता है. कंचन सिंह ने सब को अपने हाथों से सायनाइड मिला लड्डू दिया. उस के बाद एक से 3 तक गिनती बोली और परिवार के 8 सदस्यों ने एकसाथ एक ही झटके में जहरीले लड्डू खा लिए जबकि कंचन की भांजी रश्मि ने लड्डू थूक दिया और दौड़ कर पड़ोसियों को बुला लाई. कंचन सिंह की मां और उस के भतीजेभतीजी की जान तो बचाई जा सकी, जबकि अन्य पांचों की मृत्यु हो गई.
शरीर पर कोई वश नहीं
ऊपर जिन घटनाओं का जिक्र किया है, वे इस बातों को प्रमाणित करती हैं कि धार्मिक अंधविश्वास किसी व्यक्ति के व्यवहार, उस की मनोदशा, धारणा एवं उस की चेतना को ठीक उसी प्रकार प्रभावित करती है जिस प्रकार साइकोएक्टिव ड्रग्स का असर किसी व्यक्ति पर दिखाई पड़ता है.
साइकोएक्टिव ड्रग्स एक तरह का रासायनिक यौगिक होता है जो हमारे व्यवहार को प्रभावित करता है. एक ऐसा यौगिक जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर कार्य करता है और व्यवहार व अनुभूति को बदल देता है. हमारा मानसिक स्वास्थ्य, हमारे विचार व भावनाएं हमारे सीएनएस यानी हमारे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र द्वारा ही नियंत्रित किए जाते हैं. हमारा केंद्रीय तंत्रिका तंत्र एक प्रसंस्करण केंद्र है जो शरीर के हर क्रियाकलाप- हमारे विचार, हमारी भावनाओं से ले कर हमारे सभी प्रकार की हरकतों तक- को प्रबंधित करता है.
धार्मिक अंधविश्वास से ग्रसित व्यक्ति निराधार कल्पनाओं को सच समझने लगता है. ऐसे ही निराधार कल्पनाओं को सच सम?ाने वाले एक लड़के का जिक्र करना जरूरी जान पड़ रहा है. इस लड़के की उम्र लगभग 10-11 वर्ष के बीच होगी.
दोष मातापिता का भी
सोशल मीडिया पर इस बच्चे को यह कहते सुना जा सकता है कि, ‘मैं कृष्णा को अपना छोटा भाई मानता हूं. कृष्णा मेरे साथ पढ़ते हैं, खेलते हैं, मस्ती करते हैं.’ उस की ये बातें उस की मानसिक दशा को उजागर करती हैं.
ऐसे देखा जाए तो इस में उस बच्चे का दोष भी नहीं, कुसूर उस के मातापिता का है जिस ने अपने बच्चे में वैज्ञानिक चेतना का विकास करने की जगह उसे धार्मिक अंधविश्वास की ओर इस कदर धकेल दिया कि वह निराधार कल्पनाओं को सच सम?ाने लगा है. अभिनव अरोड़ा एक अकेला बच्चा नहीं. उस की तरह के ही और भी बच्चे हैं जिन के खेलनेकूदने व पढ़ने की उम्र में उन्हें इस तरह की अंधभक्ति और अंधविश्वास की ओर धकेला जा रहा है. धु्रव व्यास, भक्त भागवत ऐसे कई नाम गिने जा सकते हैं.
ये सभी तो बच्चे हैं, गलती तो बड़ों की है. अब जब बड़ों की बात चली ही है तो ऐसी बहुत सारी महिलाएं व तथाकथित पुरुष भी मिल जाएंगे जिन का व्यवहार, क्रियाकलाप, धार्मिक अंधविश्वास से प्रेरित उन की मनोदशा की कहानी कह रही होती हैं. ऐसे कई उदाहरण देखनेसुनने व पढ़ने को मिल सकते हैं.
आगरा के राजामंडी इलाके की निवासी अलका बंसल, जोकि पेशे से टीचर हैं, ने अपने घर में पूजे जाने वाले लड्डू गोपाल का स्कूल में एडमिशन कराया हुआ है. लड्डू गोपाल 98 फीसदी अंक ला कर अपनी योग्यता का परचम भी लहरा चुके हैं. इन का जन्मदिन भी सैलिब्रेट किया जाता है. तो वहीं यूपी के हमीरपुर जिले की रहने वाली महिला ने लड्डू गोपाल को लखनऊ स्थित एक स्कूल में दाखिला करा दिया जिस की प्रतिमाह 2,000 रुपए फीस भी अदा की जाती है. ?
हमीरपुर की रहने वाली ही एक और महिला ने तो लड्डू गोपाल का स्कूल में एडमिशन तो करवाया ही, साथ ही, एक केयरटेकर भी लगवाया है जो लड्डू गोपाल को स्कूल ले जाने व लाने के साथ उस की देखरेख भी करता है. लड्डू गोपाल के लिए स्कूल बैग, टिफिन, कौपीकिताब, पानी की बोतल जैसे वे सारे सामान भी खरीदे गए हैं जिन की जरूरत एक आम बच्चे को होती है.
बिजनौर के बारूकी के पास स्थित सिकोड़ा निवासी संदीप डबास की शुरुआत लड्डू गोपाल को घंटी बजा कर उठाने से शुरू होती है. वे लड्डू गोपाल का पालनपोषण अपने पुत्र की तरह करते हैं और 18 नवंबर को जन्मदिन भी मनाया जाता है. लड्डू गोपाल का एक स्कूल में एडमिशन कराया गया है.
इन सभी का व्यवहार, क्रियाकलाप इन की चेतना पर पड़े धार्मिक अंधविश्वास के प्रभाव का ही तो खुलासा कर रहे हैं.
अफीम जैसा अंधविश्वास
भारतीय विचारधारा में जहां अध्यात्मवाद की गहरी जड़ें दिखलाई पड़ती हैं, वहीं जड़वाद के भी दर्शन मिलते हैं. जहां अध्यात्मवाद में ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने के लिए अनेक प्रकार की युक्तियों का समावेश हुआ है, वहीं ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करने के लिए भी तर्क रखे गए हैं. जड़वाद का एकमात्र उदाहरण चार्वाक है जो यह मानता है कि ‘ईश्वर का अस्तित्व नहीं है, ईश्वर को पाने की कल्पना एक प्रकार का पागलपन है, ईश्वरईश्वर का राग अलापना अपनेआप को धोखे में रखना है.’
चार्वाक ने यह बात स्पष्टतौर पर कही है कि, ‘ईश्वर को प्रसन्न रखने का विचार एक मानसिक बीमारी है.’ उन्होंने धर्म को अफीम के नशे की तरह ही हानिकारक माना है.
ऐसे ही, देश की आजादी के लिए हंसतेहंसते फांसी के फंदे पर लटक जाने वाले शहीद भगत सिंह की हम बात करें तो उन्होंने भी ईश्वर के अस्तित्व का पूरी तार्किकता से खंडन किया है. शहीद भगत सिंह ने लाहौर सैंट्रल जेल में अपनी कैद के दौरान इंग्लिश में एक लेख लिखा जिस का शीर्षक था- ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ उस का प्रथम प्रकाशन लाहौर से छपने वाले एक अखबार में 27 सितंबर, 1931 को हुआ.
लेख में वे कहते हैं, ‘मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परमात्मा, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, का कोई अस्तित्व नहीं है.’ अपने इस लेख में वे आस्तिकों से कुछ प्रश्न पूछते हुए कहते हैं- ‘यदि आप का विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है जिस ने विश्व की रचना की तो कृपा कर के मुझे यह बताएं कि उस ने यह रचना क्यों की- कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया, असंख्य दुखों के शाश्वत अनंत गठबंधनों से ग्रसित. एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतुष्ट नहीं है.’
मस्तिष्क को तर्कविहीन बनाता अंधविश्वास
वे तर्क देते हुए आगे लिखते हैं, ‘कृपया यह न कहें कि यही उस का नियम है, यदि वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है क्योंकि तब वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है. भगत सिंह ने अपने इस लेख में ईश्वर के अस्तित्व का पूरी तार्किकता से खंडन किया है. हंसतेहंसते देश के
लिए जान दे देने वाले भगत सिंह ने अंधविश्वासों के चंगुल में फंसे हुए ऐसे आजाद भारत की कल्पना तो बिलकुल ही नहीं की होगी.
भगत सिंह ने अपने इसी लेख में एक यह बात लिखी है, ‘मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए.’ उन्माद यानी किसी दैवीय शक्ति पर भरोसा, अंधविश्वास, पाखंड. उन्होंने इस तरह के अंधविश्वास को खतरनाक कहा है, मानव मस्तिष्क को मूढ़ बना देने वाला बताया है.
मूढ़ यानी धार्मिक अंधविश्वास में डूबे हुए व्यक्ति का मस्तिष्क तर्कविहीन हो जाता है. ऐसा व्यक्ति अपने इर्दगिर्द पारलौकिक शक्तियों को प्रत्यक्ष देखने लगता है, कभीकभी तो वह इस हद तक भ्रमित हो सकता है कि खुद को ईश्वरीय अवतार के रूप में देखने व समझने लगता है.
धार्मिक अंधविश्वास भगत सिंह के ही शब्दों में, ‘खतरनाक होता है क्योंकि यह मानव मस्तिष्क को मूढ़ बना देता है.’ साइकोएक्टिव ड्रग्स तो सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए हानिकारक होती है जो इस का सेवन करता है, सिर्फ उसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाती है जो इस ड्रग्स का आदी है लेकिन धार्मिक अंधविश्वास पूरे समाज, पूरे देश के लिए हानिकारक है क्योंकि इस का प्रसार किसी भी देश के अवाम, वहां के नागरिकों की तार्किक क्षमता को नष्ट कर उसे विवेकहीन बना देता है.
धार्मिक अंधविश्वास के चंगुल में फंसी हुई ऐसी विवेकहीन जनता धार्मिक और राजनीतिक सत्ता के लिए लाभकारी होती है. यही कारण है कि सत्ता में बैठे लोग और धर्म के दुकानदार अंधविश्वास को फैलाने का काम बड़े ही जोरशोर से करते हैं. इस के लिए धर्म के दुकानदारों को भरपूर पैसे मिलते हैं, यौनसुख के लिए औरतें मिल जाती हैं (यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कैसे धार्मिक अंधविश्वास के चंगुल में फंसी हुई औरतों का शारीरिक शोषण होता है, आएदिन ऐसी घटनाएं देखनेसुनने को मिल ही जाती हैं) तो सत्ता के भूखे राजनेताओं और शासकों को मरनेमारने के लिए पुरुष मिल जाते हैं.
धर्म के दुकानदार और सत्तालोलुप राजनेता दोनों ही आम आदमी को लूटने के लिए धार्मिक अंधविश्वासों पर मोहर लगाते हैं. चर्च और स्टेट असल में मिल कर आम आदमी को छुट्टा गुलाम बनाते हैं. इसी वजह से आज हिंदू का नारा लगा कर भाजपा-मोदी सत्ता में हैं और चर्च के सहारे अमेरिका में ट्रंप की सरकार बनने जा रही है.